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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1166]
उत्तराध्ययन 1/42
जो व्यवहार धर्मसंगत है, तत्त्वज्ञ आचार्यों ने जिसका सदा आचरण किया है, उस व्यवहार (सदाचार) का सदैव आचरण करनेवाला मनुष्य कहीं पर भी निंदा का पात्र नहीं बनता ।
497. गुर्वाज्ञा
मणोगयं वक्कगयं जणित्ताऽयरियस्सउ ।
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तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1166] उत्तराध्ययनं 1/43
आचार्य के मनोगत और वाक्यगत भावों को समझ कर शिष्य उन्हें वचन द्वारा स्वीकार करके फिर उसे कार्यरूप में परिणत करें । 498. ज्ञान से विनम्र
णच्चा णमइ मेहावी ।
उत्तराध्ययन 1/45
बुद्धिमान् ज्ञान प्राप्त करके नम्र हो जाता है ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1167 ]
499. विनय - ज्ञान युक्त शिष्य
वित्ते अचोइए निच्चं, खिप्पं हवड़ सुचोयए । जहोपट्ठ सुकडं, किच्चाई कुव्वई सया ॥
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1167]
उत्तराध्ययन 1/44
विनय - सम्पन्न शिष्य गुरु द्वारा बिना प्रेरणा दिए ही कार्य करने में प्रवृत्त होता है वह गुरु द्वारा अच्छी तरह प्रेरित किए जाने पर शीघ्र ही उनके उपदेशानुसार सभी कार्य भली-भाँति सम्पन्न कर लेता है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-6• 180