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गुरु मुझे पुत्र, भाई और ज्ञातिजन की तरह आत्मीय समझ कर शिक्षा देते हैं, ऐसा विचार करके विनीत सुशिष्य उनके अनुशासन-शिक्षा को कल्याण कर मानता है, जबकि पापदृष्टि-अविनीत शिष्य उसी हितशिक्षा को नौकर को दी गई डाँट-डपट के समान खराब मानता है । 493. क्रोध त्याज्य अप्पाणं पि ण कोवए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1166]
- उत्तराध्ययन 1/40 अपने आप पर भी कभी क्रोध मत करो । 494. छिद्रान्वेषी शिष्य __न सिया तोत्तगवेसए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1166]
- उत्तराध्ययन 1/40 - (गुरु को खरी-खोटी सुनाने की ताक में) शिष्य उनका छिद्रान्वेषी न हो। 495. सुविनीत शिष्य
आयरियं कुवियं नच्चा, पतिएणं पसायए । विज्झ विज्जा पंजलिउडे, वएज्जा न पुणोत्तिय ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1166]
- उत्तराध्ययन 1/41 विनीत शिष्य आचार्य को कुपित हुए जानकर प्रीतिकारक, वचनों से उन्हें प्रसन्न करें, हाथ जोड़कर उन्हें शान्त करें और अपने मुहँ से ऐसा . कहे कि "पुन: मैं ऐसा नहीं करूँगा।" 496. धर्मसंगत व्यवहार
धम्मज्जियं च ववहारं, बुद्धे हाऽऽयरियं सया । तमायरंतो ववहारं, गरहं नाभिगच्छइ ॥
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 179