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तो उद्धरंति गारवरहिया, मूल पुणब्भवलयाणं । मिच्छादंसण सल्लं मायासल्लं नियाणं च ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 136]
- मरणसमाधि प्रकीर्णक - 111-112 अन्तिम आराधना काल में यदि भावशल्य की शुद्धि नहीं की जाय, तो वह शल्य आत्मा का बड़ा अहित करता है । फलत: आत्मा को बोधि दुर्लभ हो जाती है और उसे दीर्घकाल तक संसार भ्रमण करना पड़ता है । अतएव आत्मार्थी पुरुष गारव का त्याग कर भवलता के मूल मिथ्यादर्शन, मायाशल्य और निदानशल्य की शुद्धि करते हैं । 85. आनुपूर्वी से आलोचना
जं पुव्वं तं पुव्वं जहाणुपुब्बि जहक्कम्मं सव्वं । आलोइज्ज सुविहिओ कमकालविहि अभिदंतो ॥
. - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 प्र. 136] . - मरणसमाधि प्रकीर्णक 105 . सुविहित पुरुष (श्रेष्ठ आचारवाले) को क्रम और कालविधि का भेदन नहीं करते हुए, लगे हुए दोषों की क्रमश: आलोचना करनी चाहिए। जो दोष पहले लगा हो उसकी आलोचना पहले और बाद में लगे दोषों की आलोचना बाद में करें । इसतरह आनुपूर्वी से आलोचना करनी चाहिए। 86. अनालोचक, अनाराधक
लज्जाए गारवेण य, जे नाऽऽलोयंति गुरुसगासम्मि । धम्मं तं पि सुयसमिद्धा न हु ते आराहगा हुंति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 136]
- मरणसमाधिप्रकीर्णक - 103. जो लज्जावश अथवा गर्व के कारण गुरु के समीप अपने दोषों की आलोचना नहीं करते, वे श्रुत से अतिशय समृद्ध होते हुए भी आराधक नहीं
87. ज्ञान बिन चारित्र नहीं
एसा जिणाण आणा, नऽत्थि चरित्तं विणा नाणं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 77