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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 137] मरणसमाधि - 138
ज्ञान के बिना चारित्र (आचरण) नहीं होता, ऐसी जनाज्ञा है ।
88. ज्ञानयुक्त आचरण
नाणसहियं चरितं ।
89.
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चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है ।
अन्योन्याश्रित
नाणेण विणा करणं, न होइ नाणंऽपि करणहीणं तु । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 137] मरणसमाधि - 137
ज्ञानरहित किया और क्रिया रहित ज्ञान भी नहीं होता ।
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 137] मरणसमाधि - 138
90. वही अनशन श्रेष्ठ
सो नाम अणसण तवो, जेण मणोऽमंगलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 137] मरणसमाधि - 134
वह अनशन तप श्रेष्ठ है, जिससे कि मन अमंगल न सोचे । इन्द्रियों की हानि न हो और नित्य प्रति की योगधर्म की क्रियाओं में भी विघ्न न आएँ ।
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91. बहुश्रुत - दर्शन चन्द्रवत्
किं ? इत्तो लट्ठयरं, अच्छेरयरं व सुन्दरतरं वा । चंदमिव सव्वलोगा, बहुस्सुयमुहं पलोएंति ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 137] मरणसमाधि - 144
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इससे बढ़कर मनोहर सुन्दर और आश्चर्यकारक क्या होगा ? कि लोग बहुश्रुत के मुख को चन्द्रदर्शन की तरह देखते रहते हैं ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 78