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तितिक्षा को सर्वश्रेष्ठ समझो ।
81. सशल्य मृत्यु से भ्रमण
रागदोसाभिहया, ससल्लमरणं मरंति जे मूढ । ते दुक्खसल्लबहुला, भमंति संसार कंतारे ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 135] मरणसमाधि प्रकीर्णक 51
राग-द्वेष से अभिभूत जो मूढ़ मनुष्य शल्यपूर्वक मरते हैं, वे विविध दुःखरूप शल्यों से पीड़ित होकर संसार रूप अटवी में परिभ्रमण करते हैं । 82. आलोचना से हल्कापन
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 134 ] आचारांग - 1/8/8/40
पावो वि मणूसो आलोइय निंदिय गुरुसगासे । होड़ अइरेग लहुओ, ओहरिय भरुव्व भारवहो || श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 136] मरणसमाधि प्रकीर्णक - 102
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जैसे - भारवाहक बोझ उतार कर अत्यन्त हल्कापन महसूस करता है, वैसे ही पापी मनुष्य भी गुरु के समीप अपने दुष्कृत्यों की आलोचनानिंदा कर पाप से हल्का हो जाता है ।
83.
आराधक नहीं
सुपि भावलं अणुद्धरित्ता उ जो कुणइ कालं । लज्जाइ गारवेण य न हु सो आराहओ भणिओ ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 136] मरणसमाधिप्रकीर्णक 98
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जो लज्जा अथवा गर्ववश सूक्ष्म भी भावशल्य की शुद्धि नहीं करता है और शल्य सहित ही मर जाता है तो वह आराधक नहीं माना जाता है ।
84.
भावशल्य से भ्रमण
जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धरियं उत्तमट्टकालम्मि । दुल्लहं बोहियतं, अनंत संसारियत्तं च ॥
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 76