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जिस साधक ने लोक-परलोक की बिना किसी कामना के निष्क्रमण किया है, प्रव्रज्या ग्रहण की है; वह अकर्म (बन्धन-मुक्त) होकर सब कुछ देखता है; जानता है अर्थात् ज्ञाता द्रष्टा हो जाता है । 328. अस्थिर साधक अणाणाए पुट्ठावि एगे नियटटंति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 727]
- आचारांग - 12/2/13 कुछ साधक संकट आने पर धर्मशास्त्र की अवज्ञा कर वापस घर में भी चले जाते हैं। 329. परिग्रह से अलिप्त जहेत्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 728]
- आचारांग - 12216-12/501 आर्य मार्ग पर चलनेवाला कुशल व्यक्ति परिग्रह में लिप्त नहीं होता। 330. जीव, सुखप्रिय
भूएहिं जाण पडिलेह सायं । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 729] .
- आचारांग - 123 । प्रत्येक जीव को सुख/शाता प्रिय है, यह देखो और उसपर सूक्ष्मतापूर्वक विचार करो। 331. न कोई हीन, न कोई महान् णो हीणे णो अइरिते णो अपीहिए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 729]
- आचारांग 123 न तो कोई हीन है और न कोई महान् । इसलिए साधक उच्च गोत्र की स्पृहा न करें।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 138