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________________ - बृह. भाष्य 3948 देह का बल ही वीर्य है और बल के अनुसार ही आत्मा में शुभाशुभ भावों का तीव्र या मंद परिणमन होता है । 407. संयमी की प्रवृत्ति निर्दोष संजम हेऊ जोगो, पउंजमाणो अदोसयं होइ । जह आरोग्य निमित्तं, गंडच्छेदोव विज्जस्स ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 874] - बृह. भाष्य 3951 संयम निर्वाह हेतु की जानेवाली प्रवृत्तियाँ निर्दोष होती हैं, जैसे कि वैद्य के द्वारा किया जानेवाला व्रणच्छेद (फोड़े का ओपरेशन) आरोग्य के लिए होने से निर्दोष होता है। 408. असंग्रही साधक विडमुब्भेइमं लोणं तेल्लं सप्पिं च फाणियं । न ते सन्निहि मिच्छन्ति, नायपुत्त वओरया ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887] . - दशवकालिक 617 जो लोग महावीर के वचनों में अनुरक्त हैं वे मक्खन, नमक, तेल, घृत, गुड़ आदि किसी वस्तु के संग्रह करने का मन में संकल्प तक नहीं लाते । 409. परपीड़क सत्यासत्य-वर्जन अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मूसं बूया, नो वि अन्नं वयावए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887] - दशवैकालिक 61 निर्ग्रन्थ अपने स्वार्थ के लिए या दूसरों के लिए क्रोध से या भय से किसी प्रसंग पर दूसरों को पीड़ा पहुँचानेवाला सत्य या असत्य वचन न तो स्वयं बोले, न दूसरों से बुलवाए।। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 158
SR No.002321
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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