________________
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887]
- दशवकालिक 613 संसार में सभी सत्पुरुषों द्वारा असत्य निंदनीय है । 415. स्वामी अदत्त अग्राह्य
तं अप्पणा न गिण्हंति नो वि गिण्हावए परं । अन्नं वा गिण्हमाण पि नाणुजाणति संजया ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887]
- दशवकालिक 614 संयमी साधक बिना पूछे कोई भी वस्तु नहीं उठाता और न दूसरों को लेने के लिए प्रेरणा देता है और न ही लेनेवालों की अनुमोदना करता है । 416. साधु गृहीवत् जो सिया सन्निहि कामे, गिही पव्वइए न से ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887]
- दशवकालिक 619 जो साधु होकर सदा संग्रह की भावना रखता है, वह साधु नहीं, किन्तु साधुवेष में गृहस्थ ही है। 417. ज्ञानी, निर्ममत्व अवि अप्पणो विदेहमि नायरंति ममाइयं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887]
- दशवैकालिक 6/22
और तो क्या, ज्ञानी पुरुष अपने शरीर के प्रति भी ममत्व नहीं रखते । 418. ममत्त्व ही परिग्रह मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887]
- दशवैकालिक 6/21 मूर्छा (ममत्वभाव) ही वस्तुत: परिग्रह है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 160