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115. दुःखोपशमन में असमर्थ
नऽवि माया नऽविय पिया, न पुत्तदारानचेव बंधुजणो । न वि य धणं न वि धन्नं, दुक्खमुइन्नं उवसमेंति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 150]
.- मरणसमाधिप्रकीर्णक 646 इस संसार में माता-पिता, पुत्र, स्त्री, बंधुजन और धनधान्य भी जीव के उदय में आए हुए दु:ख का उपशमन नहीं कर सकते । 116. अत्राण-अशरण
अम्मा पियरो भाया, भज्ज पुत्ता सरीर अत्थो य । भवसागरम्मि घोरे, न हुँति ताणं च सरणं च ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 150]
- मरणसमाधिप्रकीर्णक 645 इस घोर संसार-सागर में माता, पिता, भाई, पत्नी, पुत्र, शरीर और धन-इनमें से कोई भी जीव को त्राण और शरण नहीं दे सकते । 117. किसे प्रयोजन नहीं ?
जस्स न छुहा न तण्हा, न य सी उण्हं न दुक्खमुक्किटुं। न य असुइयं सरीरं, तस्सऽसणाईसु किं कज्जं ?
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 150]
- मरणसमाधिप्रकीर्णक - 655 जिसकी भूख-तृष्णा मिट गई है, जिसे उत्कृष्ट दु:ख नहीं है, जिसकी सर्दी-गर्मी समाप्त हो चुकी है और जिसका शरीर अपवित्र नहीं रहा है, उसे भोजन-स्नानादि से क्या प्रयोजन ? अर्थात् कोई प्रयोजन नहीं । 118. वैर-विस्मृति अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर-परित्यागः ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 181] एवं [भाग 6 पृ. 1460] - पातंजलयोगदर्शन 2/35
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 85