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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1248] दशवैकालिक चूलिका 29
मुनि गृहस्थ का वैयावृत्य (सेवा) न करे और न ही उनका
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अभिवादन, वंदन और पूजन ही करे । 571. अन्तर्निरीक्षण
किं मे परो पासइ किं च अप्पा ? किं वाहं खलियं न विवज्जयामि ? इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो,
अणागयं नो पडिबंध कुज्जा ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1248] दशवैकालिक चूलिका 213
क्या मेरी स्खलना (त्रुटि) को दूसरा कोई देखता है ? अथवा क्या अपनी भूल को मैं स्वयं देखता हूँ ? अथवा कौन - सी स्खलना मैं त्याग नहीं कर रहा हूँ ? इसप्रकार आत्मा का सम्यक् अन्तर्निरीक्षण करता हुआ मुनि अनागत में प्रतिबंध न करे अर्थात् वह अपने दोषों- भूलों को तत्काल सुधारने में लग जाए, भविष्य पर न टाले कि मैं इस भूल को कल, परसों या बाद में सुधार लूँगा ।
572. शीघ्र संभल !
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जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, कारण वाया अमाणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा, आइन्नओ रिवप्पमिवक्खलीणं ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1248] दशवैकालिक चूलिका 2/14
धीर साधक जब कभी अपने आपको मन-वचन और काया से कहीं भी दुष्प्रवृत्त होता देखे तो वह शीघ्र संभल जाए। जैसे उत्तम जाति का अश्व लगाम खींचते ही शीघ्र संभल जाता है ।
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 199