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400. भोगास्वादी
पुणो पुणो गुणास वंकसमायरे ।
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आचारांग 11/5
जो बार-बार इन्द्रियों के विषयों का आस्वादन करता है वह कुटिल
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 806]
आचरणवाला है ।
401. दिखाउ त्यागी
पत्ते अगारमावसे ।
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आचारांग 1/5
जो प्रमादी है, दिखाउ त्यागी है अर्थात् विषय रूपी विष से मूच्छित है, वह गृहत्यागी होकर भी वास्तव में गृहवासी ही है । 402. जैसा योग वैसा बंध
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 806]
जह जहा अप्पतरा से जोगा, तहा तहा अप्पतरो से बंधो । निरुद्ध जोगिस्स व जो ण होति, अछिद्दपोतस्स य अम्बुणोधे ॥
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 870] बृह भाष्य 3926
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जैसे-जैसे मन, वचन व काया के योग (संघर्ष) अल्पतर होते जाते हैं वैसे-वैसे बंध भी अल्पतर होता जाता है । योग चक्र का पूर्णत: निरोध होने पर आत्मा में बंध का सर्वथा अभाव हो जाता है, जैसे समुद्र में रहे हुए अछिद्र जलयान में जलागमन का अभाव हो जाता है ।
403. द्रव्य - भाव हिंसा का स्वरूप
आहच्च हिंसा समितस्स जा उ, सा दव्वतो होति णं भावतो उ ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 156