________________
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 748]
- आचारांग 1/5/6168 अर (आसक्ति के) स्रोत हैं, नीचे भी वही स्रोत हैं; मध्य में भी वहीं आसक्ति के स्थान हैं । वे कर्मों के आस्रव द्वार कहे गए हैं। इनके द्वारा समस्त प्राणियों में आसक्ति पैदा होती है। 392. आत्मा, अनिर्वचनीय
सव्वे सरा नियटति, तक्का जत्थ न विज्जइ । मई तत्थ न गाहिया ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 748]
- आचारांग 1/5/6170 आत्मा के वर्णन में सब के सब स्वर-शब्द निवृत हो जाते हैं - समाप्त हो जाते हैं । वहाँ तर्क की गति भी नहीं है और न बुद्धि ही उसे ठीक तरह ग्रहण कर पाती है और कोई उपमा भी उसके लिए विद्यमान नहीं
393. आत्मा, अवाच्य अरूपी सता अपयस्सपयं नत्थि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 749]
- आचारांग 1/5/6 आत्मा अरूपी सत्तावाला है । उसे कहने के लिए कोई शब्द नहीं है । वह वास्तव में अवाच्य है । 394. लोभजय-फल · लोभ विजएणं सन्तोसीभावं जणयइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 755]
- उत्तराध्ययन 29/20 • लोभ को जीतने से संतोष गुण की प्राप्ति होती है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 153