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99. त्रिविध-क्षमापना
रागेण व दोसेण व अहवा अवायन्नुणा पडिनिवेसेणं । जो मे किंचि वि भणिओ तमहं तिविहेण खामेमि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 139]
- मरणसमाधि प्रकीर्णक 214. राग-द्वेष, अकृतज्ञता अथवा आग्रहवश मैंने जो कुछ भी कहा है, उसके लिए मैं मन-वचन और काया से सभी से क्षमा चाहता हूँ । 100. जिन-वचन में अप्रमत्त जिणवयणम्मि गुणागर ! खणमवि मा काहिसि पमायं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 139]
- मरणसमाधि प्रकीर्णक - 205 हे गुणसागर ! तू जिनवचन में क्षणभर का भी प्रमाद मत कर । 101. अकेला ही चतुर्गति प्रवास
इक्को जायइ मरइ, इक्को अणुहवइ दुक्कय विवागं । इक्को अणुसरइ जीओ, जरमरण चउग्गइ गुविलं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष. [भाग 6 पृ. 140]
- मरणसमाधि प्रकीर्णक 243 जीव अकेला ही जन्ममरण करता है, अकेला ही दुष्कृत-विपाक का अनुभव करता है और अकेला ही जन्ममरण रूप गहन चतुर्गति में परिभ्रमण करता है। 102. ऐहिक सुख से अतृप्ति
न हु सक्को तिप्पेउं, जीवो संसारिय सुहेहिं । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 140]
- मरणसमाधि प्रकीर्णक 250 .. सांसारिक सुखों से जीव तृप्त नहीं हो सकता। 103. श्रद्धा से आचरण
जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वाऽऽयरेण करणिज्जं ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 81