________________
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 141] - मरणसमाधि प्रकीर्णक 296
एवं महाप्रत्याख्यान 106 जिस किसी भी क्रिया से वैराग्य की जागृति होती हो, उसका पूर्ण श्रद्धा के साथ आचरण करना चाहिए । 104. धैर्य से मृत्यु
धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेणऽवि अवस्समरियव्वं । तम्हा अवस्समरेण, वरं खु धीरत्तेण मरिउं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 142]
- आतुर प्रत्याख्यान 64 .. धीर पुरुष को भी एकदिन अवश्य मरना है और कायर को भी। जब दोनों को ही मरना है तो अच्छा है कि धीरता (शान्त-भाव) से ही मरा जाय। 105. ममत्त्व-त्याग छिंद ममत्तं सुविहिय ! जइ इच्छसि मुच्चिउ दुहाणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 144].
- मरणसमाधिप्रकीर्णक 405 | हे सुविहित ! यदि तू दु:खों से मुक्त होना चाहता है, तो ममत्त्व को दूर कर । 106. सर्वत्र अकेला ही अकेला
इक्को करेइ कम्म, फलमवि तस्सेक्कओ समणुहवइ । इक्को जायइ मरड़ य, परलोयं इक्कओ जाइ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 148]
- मरणसमाधिप्रकीर्णक - 586 आत्मा अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है, अकेला ही कर्म करता है, उसका फल भी अकेला ही अनुभव करता है और परलोक में भी । अकेला ही जाता है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 82