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107. अकेला दुःख-भोक्ता
सयणस्स य मज्झगओ, रोगाभिहओ किलिस्सइ इहगो। सयणोऽविय से रोगं, न विरिंचइ नेव नासेइ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 148]
- मरणसमाधिप्रकीर्णक 584 इस संसार में रोग से पीड़ित जीव स्वजनों के बीच रहा हुआ अकेला ही क्लेश पाता है, किन्तु स्वजनवर्ग भी उसके रोग को न तो दूर कर सकते हैं और न ही समाप्त । 108. कोई रक्षक नहीं
पुत्ता-मित्ता य पिया, सयणो बंधवजणो अ अत्थो य। न समत्था ताएउं, मरणा सिंदावि देवगणा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 148]
- मरणसमाधिप्रकीर्णक 583 माता-पिता, पुत्र, मित्र, स्वजन-बंधुजन और धन-ये सब व्यक्ति की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं और मरने पर देवगण भी उसे अपनी आशीष से बचा नहीं सकते। 109. आत्म-चिन्तन
अन्नं इमं सरीरं अन्नोऽहं बंधवाऽवि मे अन्ने ! . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 148]
- - मरणसमाधिप्रकीर्णक 589
यह शरीर अन्य है, मैं अन्य हूँ और ये बन्धुजन भी अन्य हैं । 110. परमपद के निकट कौन ?
जह जह दोसोवरमो, जह जह विसएसु होइ वेरग्गं । तह-तह वियाणाहि, आसन्नं से पयं परमं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 149] - मरणसमाधिप्रकीर्णक - 632.
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6, 83
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