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508. शिष्य-विनय
एवाऽऽयरियं उवचिट्ठएज्जा, । अणंत नाणो विगओ वसंतो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1169]
- दशवकालिक 9Aml शिष्य भले ही अनन्त ज्ञान सम्पन्न क्यों न हो, फिर भी आचार्य (गुरु भ.) के पास विनयपूर्वक ही बैठे। 509. विनम्रता किसके प्रति ?
जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1169]
- दशवैकालिक 942 जिनके पास धर्मपद-धर्म की शिक्षा लें, उनके प्रति सदा विनम्र भाव रखना चाहिए। 510. गुरु-अवहेलना न आवि मुक्खो गुरु हीलणाए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1169]
- दशवकालिक 940 गुरुजनों की अवहेलना करनेवाला कभी बंधन मुक्त नहीं हो सकता । 511. मूल और फल
एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1170]
- दशवैकालिक 922 धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम फल है ।
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 184