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512. विनय से इष्ट-प्राप्ति
जेण कीत्ति सुयं सिग्छ, निस्सेसं चाभिगच्छइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1170]
. - दशवैकालिक 922 विनय से यश, कीर्ति बढ़ती है और प्रशस्त श्रुतज्ञान के लाभ आदि से समस्त ईष्ट तत्त्वों की प्राप्ति होती है । 513. अविनीत, दुःखी दीसती दुहमेहंता ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1171]
- दशवैकालिक 9200 अविनीत आत्माएँ दु:ख का अनुभव करती हुई नजर आ रही हैं। 514. संसार-स्रोत में दुःखी कौन ? • जे अ चंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे । बुज्झइ से अविणीअप्पणा, कटुं सोअययं जहा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1171]
- दशवकालिक 923 जो मनुष्य क्रोधी, अविवेकी, अभिमानी, दुर्वादी, कपटी और धूर्त है, वह अविनीतात्मा संसार के प्रवाह में वैसे ही प्रवाहित होता रहता है जैसे जल के प्रवाह में पड़ा हुआ काष्ठ। 515. मूर्योपदेश कोप-हेतु
विणयं पि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो । दिव्वं सो सिरिमिज्जंति, दंडेण पडिसेहए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1171]
- दशवैकालिक 92/4 कोई महापुरुष सुंदर शिक्षा द्वारा जब किसी मनुष्य को विनय-मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं तब वह कुपित हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह स्वयं अपने द्वार पर आई हुई दिव्य लक्ष्मी को डंडा मारकर भगा देता है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 185 )