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516. सुविनीत सुखी दीसंति सुहमेहंता ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1171]
- दशवैकालिक 921 सुविनीत आत्माएँ सुख का अनुभव करती हुई देखी जाती है । 517. गुरु-सेवा-फल
जे आयरिअ उवज्झायाणं, सुस्सूसा वयणंकरा । तेसिं सिक्खा पवड्ढति, जलसित्ता इव पायवा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1172] .
- दशवैकालिक 92/12 जो अपने आचार्य एवं उपाध्यायों की शुश्रूषा-सेवा तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करता है, उसकी शिक्षाएँ-विद्याएँ वैसे ही बढती हैं | जैसे जल से सींचे हुए वृक्ष बढ़ते हैं। 518. बाँटो, मुक्ति असंविभागी न हु तस्स मुक्खो।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1173]
- दशवकालिक 9223 . जो संविभागी नहीं है अर्थात् प्राप्त सामग्री को साथियों में बाँटता नहीं है, उसकी मुक्ति नहीं होती। 519. दुर्वचन-लोहकंटक
मुहुत्त दुक्खाउ हवंति कंटया, अओ मया तेऽवि तओ सुद्धरा । वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1173] : - दशवैकालिक 930
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 186