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276. चारित्र, कर्मरोधक चरित्तेणं निगिण्हाई।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 448]
- उत्तराध्ययन 28/35 आत्मा चारित्र से कर्म-द्वारों को रोकती है। 277. तप-संयम से कर्मक्षय
खवित्ता पुव्व कम्माइं, संजमेण तवेण य । सव्वदुक्ख पहीणट्ठा, पक्कमति महेसिणो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 448]
- उत्तराध्ययन - 28/36 समस्त दु:खों से मुक्ति चाहनेवाले महर्षि संयम और तप के द्वारा अपने पूर्वसंचित कर्मों को क्षय कर परम सिद्धि को पाते हैं । 278. दर्शन से श्रद्धा सम्मत्तेण य सद्दहे।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 448]
- उत्तराध्ययन - 28/35 आत्मा दर्शन से श्रद्धा करती है। 279. तप से शुद्धि तवेण परिसुज्झइ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 448]
- उत्तराध्ययन - 28/35 आत्मा तप से पूर्वकृत कर्मों का क्षय करके शुद्ध होती है । 280. मुक्ति -मार्ग
नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । एस मग्गुत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 448]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 124
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