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ज्ञानसार - 4/1
'मैं' और 'मेरा' इस मोह-मन्त्र ने सारे जगत् को अन्धा बना रखा हैं | इसका विलोम - मन्त्र मोह मात्र को जीतने वाला प्रतिमन्त्र बनता है । 285. पाप-पंक से निर्लिप्त
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यो न मुह्यति लग्नेषु, भावेष्वौदयिकादिषु । आकाशमिव पङ्केन, नाऽसौ पापेन लिप्यते ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 457] ज्ञानसार - 4/3
जो जीव लगे हुए औदयिकादि भावों में मोहमूढ नहीं होता है । जैसे कीचड़ से आकाश पोता नहीं जा सकता, वैसे ही वह पापों से लिप्त नहीं होता है ।
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286. एकत्व भावना
एगोsहं न त्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सवि । एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासइ ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 457] संथारापोरसी 11
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मैं अकेला हूँ, न कोई मेरा है और न मैं किसीका हूँ । इसप्रकार अदीनभाव से अपनी आत्मा को अनुशासित करें ।
287. अमूढ, अखिन्न
पश्यन्नेव परं द्रव्यं नाटकं प्रतिनाटकम् । भवचक्र पुरस्थोऽपि, ना मूढः परिवर्धति ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 457]
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ज्ञानसार 4/4
अमूढ़ पुरुष पुद्गल द्रव्य को देखते हुए और भव-चक्र के नाटक प्रति नाटक को देखते हुए भी खिन्न नहीं होता ।
288. आत्मा स्फटिकवत्
निर्मल स्फटिकस्येव सहजं रूपमात्मनः ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 126