________________
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 458]
ज्ञानसार 4/6 आत्मा का सहज स्वरूप निर्मल स्फटिक रत्न जैसा है । 289. मूढ़ चेता
अमित्रं कुरुते मित्रं, मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च । कर्म चारभते दुष्टं, तमाहुर्मूढचेतसम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 459] - धर्मबिन्दु 214
महाभारत ( उद्योगपर्व 33/33) जो शत्रु को मित्र बनाता है, मित्र से द्वेष करता है, उसे हानि पहुँचाता है, बुरे कर्मों का आरम्भ करता है; उसे मूढ चेता कहते हैं । 290. मूढ, मगशैलिया पाषाण
अर्थवन्त्युपपन्नानि, वाक्यानि गुणवन्ति च । नैव मूढो विजानाति, मुमूर्षुरिव भेषजम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 459]
- धर्मबिन्दु 215 जैसे मरणासन्न व्यक्ति को औषधि का असर नहीं होता वैसे ही मूढ़ को सदुपदेश का कोई असर नहीं होता। 291. मूर्ख, शिलावत् ।
संप्राप्तः पण्डितः कृच्छू, प्रज्ञया प्रतिबुध्यते । मूढस्तु कृच्छ्रमासाद्य, शिलेवाम्भसि मज्जति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 459]
- धर्मबिन्दु 216 पंडितजन कष्ट पाकर भी बुद्धि से प्रतिबोध पा जाते हैं अर्थात् शिक्षा देने पर उसे ग्रहण कर लेते हैं, परन्तु मूर्ख कष्ट आ जाने पर शिला की भाँति जलप्रवाह में डूब जाता है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 127