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292. नकली ब्रह्मचारी
अबंभयारी जे केइ, बंभयारिति हं वए । गद्दव्व गवां मज्झं, विस्सरं नयइ नदं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 463] दशाश्रुतस्कन्ध 912
जो ब्रह्मचारी न होते हुए भी अपने आपको यह कहे कि "मैं ब्रह्मचारी हूँ", तो वह गायों के समूह के बीच गदर्भ की तरह विस्वर नाद करता है ।
293. महामोह से कर्मबन्ध
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धंसे जो अभूएणं, अकम्पं अत्तकम्मुणा ।
अदुवा तुम मकासि त्ति महामोहं पकुव्व ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 463] दशाश्रुतस्कन्ध - 9/25
जो अपने किए हुए दुष्कर्म को दूसरे निर्दोष व्यक्ति पर डालकर उसे लांछित करता है कि ‘यह पाप तूने किया है' वह महामोह कर्म का बंध करता है ।
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294. मिश्रभाषा से कर्मबन्ध
आणमाणो परीसाए, सच्चमोसा ण भासए । अच्छीण डंडोल्लुरए, महामोहं कुव्वति ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 463] दशाश्रुतस्कन्ध 9/26
जो सही स्थिति को जानता हुआ भी सभा के बीच में अस्पष्ट एवं मिश्रभाषा (कुछ सच, कुछ झूठ ) का प्रयोग करता है, वह महामोह कर्म का बंध करता है ।
295.. सम्पत्ति हरण से कर्मबन्ध
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जं णिस्सितो उव्वहड़, जससाऽहि गमेण वा । तस्स लुब्भइ वित्तम्मि, महामोहं पकुव्वति ॥
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 128