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- सूत्रकृतांग 1/8/8 अज्ञानी जन राग-द्वेष का आश्रय लेकर बहुत पाप करते हैं । 588. स्वजन संवास अनित्य अणियते अयं वासे, णायएहिं सुहीहिं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1405]
- सूत्रकृतांग 1/812 सुखशील ज्ञातिजनों और सुहृद्जनों के साथ जो संवास है, वह भी अनित्य है। 589. भोग, दुःखावास
भुज्जो भुज्जो दुहोवासं, असुहत्तं, तहा तहा।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1405]
- सूत्रकृतांग 1/8nl भोगों की तल्लीनता बार-बार दु:खों का ही घर है और ज्यों-ज्यों दुःख, त्यों-त्यों अशुभ कर्म बढ़ते ही रहते हैं। 590. वैर-वृत्ति वेराई कुव्वइ वेरी, तओ वेरेहिं रज्जती ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1405]
- सूत्रकृतांग 1/81 वैरवृत्तिवाला व्यक्ति जब देखो तब वैर ही करता रहता है । वह एक - के बाद एक किए जानेवाले वैर से वैर को बढ़ाते रहने में ही रस लेता है । 591. पाप, दुःखद
पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो । ..
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1405]
- सूत्रकृतांग 1.37 पापानुष्ठान अन्तत: दु:ख ही देते हैं ।
___अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 204
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