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482. अनुशासित शिष्य
आलवंते लवंते वा, ण णिसीज्जा कयाइ वि । चइत्ता आसणं धीरो, जओ जत्तं पडिस्सुणे ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1163]
- उत्तराध्ययन 121 बुद्धिमान् शिष्य गुरु के द्वारा एकबार या बार-बार बुलाने पर कभी भी बैठा न रहे, किंतु आसन को छोड़कर यत्नपूर्वक उनके आदेश को स्वीकार करें। 483. प्रश्न-पृच्छा कैसे ?
आसणगओ ण पुच्छिज्जा, णेव सिज्जागओ कया । आगम्मुक्कुडुओ संतो पुच्छिज्जा पंजली गडे ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1163]
- उत्तराध्ययन 1/22 विनीत शिष्य आसन पर अथवा शय्या पर बैठा हुआ गुरु से प्रश्न न पूछे, किंतु उनके समीप जाकर उत्कटिकासन करता हुआ हाथ जोड़कर सूत्रादि अर्थ पूछे। 484. शिष्य-विनयशीलता
न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ । न जुंजे उरुणा उरुं, सयणे नो पडिस्सुणे ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1163]
- उत्तराध्यन 108 आचार्यों के साथ सटकर न बैठे, आगे-पीछे न बैठे, पीठ करके न बैठे, उनके घुटने से घुटना सटाकर न बैठे, आगे भी न बैठे तथा शय्या पर बैठा हुआ ही उनकी वाणी को न सुने । 485. अज्ञ-प्राज्ञ शिष्य हियं तं मन्नए पन्नो, वेस्सं भवइऽसाहुणो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1164] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 176