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हे अर्जुन ! वे व्यक्ति मिथ्याचारी दंभी कहे गए हैं, जो बाह्य रूप से इन्द्रियों का दमन कर संयम का दिखावा करते हैं और मन से इन्द्रिय-विषयभोगों का स्मरण करते हैं। ऐसे मूढ़ बुद्धि व्यक्ति इन्द्रियों के ज्ञान में विमूढ़ हैं । इन्द्रियाँ ऐसे व्यक्ति को ही विषयों की ओर आसक्त कर सकती हैं । अत: इस प्रकार के मिथ्याचार से दूर रहना ही सच्चे संयमी का लक्षण है । 137. परमोत्कृष्ट योगबीज
जिनेषु कुशलचित्तं तन्नमस्कार एव च । प्रणमादि च संशुद्धं; योगबीजमनुत्तमम् ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 283] योगदृष्टिसमुच्चय 23 ( द्वा. 21 द्वा. )
अर्हन्तों के प्रति शुभभावमय चित्त; उन्हें नमस्कार तथा मानसिक, वाचिक और कायिक शुद्धिपूर्ण नमन आदि भक्ति भावमय प्रवृत्ति परमोत्कृष्ट योगबीज हैं ।
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138. मूर्ख कौन ?
• शाठ्येन मित्रं कलुषेण धर्मं, परावमानेन समृद्धिभावम् । सुखेन विद्यां परुषेण नारीं, वाञ्छन्ति ये नूनमपंडितास्ते ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 285]
नराभरण
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धूर्तता से मित्रता, कलुषता से धर्म, दूसरे के अपमान से सम्पत्ति, सुख से विद्या और कठोरता से नारी को, जो प्राप्त करना चाहते हैं; वे मूर्ख हैं । 139. जैसा संग वैसा रंग
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जो जारिसेण मित्तीं, करेइ अचिरेण [ सो ] तारिसो होइ । कुसुमेहिं सह वसन्ता, तिलावि तग्गंधिया हुंति ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 285] आवश्यक बृहद्वृत्ति 3 अध्ययन
जो जैसी मित्रता करता है वह शीघ्र ही वैसा ही हो जाता है । जैसे फूलों के साथ रहने पर तिल भी उसके समान गंधवाले हो जाते हैं ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 91
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