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- मनुस्मृति 11/54 ब्रह्म हत्या, मदिरापान, सुवर्ण आदि की चोरी, गुरु-स्त्रीगमन, और पाप करनेवालों के साथ संसर्ग-ये बड़े भारी पातक हैं। 576. काम-भोग, अग्निघृतवत्
न जातु कामः कामाना-मुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1256] - मनुस्मृति 204
एवं महाभारत आदिपर्व 65 कामनाओं के उपभोग से काम-विकार की कभी शांति नहीं होती, प्रत्युत घृत डालने पर अग्नि की तरह वह और ज्यादा बढ़ती है ! 577. विष और विषय में महदन्तर
विषस्य विषयाणां च, दूरमत्यन्तमन्तरम् । - उपभुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1256]
- उपदेशप्रासाद विष और विषयों में बहुत बड़ा अन्तर है, विष तो खाने से मारता है किंतु विषय तो स्मरणमात्र से नष्ट कर देता है । 578. काम-भोग से अतृप्त
तण कद्वेण व अग्गी, लवणजलो वा नई सहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं काम भोगेहिं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1257] - आतुर प्रत्याख्यान 50
एवं महाप्रत्याख्यान 55 जिसप्रकार तृण और काष्ठ से अग्नि तथा हजारों नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता है, उसीप्रकार रागासक्त आत्मा काम-भोगों से तृप्त नहीं हो पाती है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 201