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255. दर्प, कल्प कब ?
पमाया दप्पा भवति, अप्पमाया कप्पा भवति । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 340 ] निशीथ चूर्णि - 91
प्रमादभाव से किया जानेवाला अपवाद सेवन दर्प होता है और वही अप्रमादभाव से किया जानेपर कल्प - आचार हो जाता है ।
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256. ज्ञान - प्रकाश
णाणुज्जोया साधु ।
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 355]
निशीथ भाष्य
225
बृहत्कल्प भाष्य 3453
साधु ज्ञान का प्रकाश लिए जीवन-यात्रा करता है ।
257. श्रमण-क्रिया क्यों ?
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जा चिट्ठा सा सव्वा, संजमहेउं ति होती समणाणं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 360] निशीथ भाष्य 264
श्रमणों की सभी चेष्टाएँ - क्रियाएँ संयम के हेतु होती हैं ।
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258. दर्पिका-कल्पिका स्वरूप
रागदोसाणुगया तु दप्पिया तु तदभावा । आराधणा उ कप्पे, विराधणा होति दप्पेणं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 426] निशीथभाष्य - 363
बृह भाष्य 4943
राग-द्वेषपूर्वक की जानेवाली प्रतिसेवना (निषिद्ध आचरण) दर्पिका है और राग-द्वेष से रहित प्रतिसेवना (अपवाद - काल में परिस्थितिवश किया जानेवाला निषिद्ध आचरण) कल्पिका है । कल्पिका में संयम की आराधना है और दर्पिका में विराधना ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 119