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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 219) - श्राद्धविधि, 3/72 पृ.
धर्मसंग्रह 2021 'श्रा' अर्थात् श्रद्धा-जो तत्त्वार्थ चिन्तन द्वारा श्रद्धालुता को सुदृढ़ करता है । 'व' अर्थात् विवेक-जो निरंतर सत्पात्रों में धन रूप बीज बोता है 'क' अर्थात् क्रिया-जो सुसाधु की सेवा करके पाप-धूलि को दूर फेंकता रहता है, अत: उसे उत्तम पुरुषोंने 'श्रावक' कहा है। . 127. दुःख-भोक्ता कौन ?
गब्भाओ गब्भं, जम्माओ जम्मं, माराओ मारं, णरगाओ णरगं चंडे थद्धे चवले पणियाविभवइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 243]
- सूत्रकृतांग 2/2/25 जाति-कुल आदि का अभिमान करनेवाला, चपल एवं रौद्र परिणामी व्यक्ति एक गर्भ से दूसरे गर्भ को, एक जन्म से दूसरे जन्म को, एक मरण से दूसरे मरण को और एक नरक से दूसरे नरक में दु:खों का भोक्ता बनता
128. समय चूकि पुनि का पछताने !
इय दुल्लह लंभं माणुसत्तणं, पाविउण जो जीवो ।' न कुणइ पारत्तहियं, सो सोयइ संकमणकाले ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 248] .
- आवश्यकसूत्र 836 जो जीव दुर्लभता से प्राप्त इस मानवता को पाकर इस जन्म में परहित या पारलौकिक धर्म नहीं करता, उसे मृत्यु के समय पछताना पड़ता
129. कायर कौन ?
तं तह दुल्लह लंभं, विज्जुलया चंचलं माणुसत्तं । लभ्रूण जो पमायइ, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो ॥
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 88