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- मनुस्मृति 846
अनुयोगद्वार प्रमाणाधिकार 143 आकृति से, इशारों से, चाल-ढाल (गति) से, चेष्टा से, वाणी/ बोली से, नेत्र और मुँह के बदलते हुए भावों से मन में रहे हुए विचारों (बात) का पता लग जाता है । 33. मानवीय कर्म
चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सताए कम्मं पगरेति । तंजहा-पगइभद्दयाए, पगति विणीयाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरियाए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 99]
- स्थानांग - 4/4/4/373 । - सहज सरलता, सहज विनम्रता, दयालुता और अमत्सरता-ये चार प्रकार के व्यवहार मानवीय कर्म हैं । (इनसे आत्मा मानवजन्म प्राप्त करती
34. मृदुता-फल मद्दवयायेणं अणुस्सियत्तं जणयइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 104]
- उत्तराध्ययन 29/49 मृदुता से जीव अहंकार रहित हो जाता है । 35. पशुवत् 'मैं' 'मैं'
पुत्रो मे भ्राता मे, स्वजनों मे गृहकलत्रवर्गों मे । इति कृत मेमे शब्द, पशुमिव मृत्युर्जनं हरति ॥ ' - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 104] .
- आचारांग सटीक 120
एवं आगमीय सूक्तावली पृ. 18 ___ मेरा पुत्र, मेरा भाई, मेरे स्वजन, मेरा घर, मेरी पत्नी, मेरा परिवार आदि पशुवत् 'मैं' 'मैं' करता हुआ मनुष्य मानवजन्म हार जाता है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 65