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________________ ज्ञानसार 16/7 मध्यस्थ दृष्टि व्यक्ति अनुरागवश अपने आगमशास्त्र को स्वीकार नहीं करते और द्वेषवश अन्य के धर्मशास्त्र का त्याग नहीं करते । अपितु वे शास्त्र को मध्यस्थ दृष्टि से स्वीकार करते हैं अर्थात् मध्यस्थ दृष्टि जीव तत्त्वातत्त्व का निर्णय करके ही योग्य को ग्रहण करते हैं और अयोग्य का त्याग करते हैं । 29. भावितात्मा - संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 72] - उपासकदशा - 1/76 साधक संयम और तप से आत्मा को सतत भावित करता रहे। - 30. एकाग्रता से लाभ एगग्गचित्तेणं जीवे, मणगुत्ते संजमाराहए भवइ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 83] - उत्तराध्ययन 29/53 एकाग्र चित्त से जीव मनोगुप्ति और संयम का आराधक हो जाता है । (जिसके चित्त में एकाग्रता नहीं होती, उसे कहीं भी सफलता नहीं मिलती ।) 31. मनोनिग्रह - फल - मणगुत्तयाएणं जीवे एगऽग्गं जणय । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 83] उत्तराध्ययन 29/53 मनोगुप्ति से जीव एकाग्र होता है । 32. आकृतिः मन का दर्पण - इंगिताकारैर्ज्ञेयैः क्रियाभि र्भाषिते च । नेत्रवक्त्रविकारैश्च गृह्यते अन्तर्गतं मनः ॥ - " श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 83] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 64
SR No.002321
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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