________________
gxxmom
303333333333888888888888888
श्रुतज्ञानप्रेमी, धर्मानुरागी
सकल श्रीसंघ, धाणसा ! धन्यवाद का पात्र है श्रीसंघ जिन्होंने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में, 'सक्तिसुधारस' (षष्ठम खण्ड) के मुद्रण का लाभ लेकर अत्यन्त ही प्रशंसनीय कार्य किया है।
पढमं नाणं तओ दया । - पहले ज्ञान फिर दया [आचरण] ।
यह श्रीसंघ का सर्वप्रथम लक्ष्य रहा है। श्रीसंघ की महिमा भी ज्ञानोपासना में निहित है। जैनधर्म के सप्तक्षेत्रों में जिनबिम्ब, जिनालय, जिनागम, साधुसाध्वी एवं श्रावक-श्राविका के पोषण का प्रभुने आदेश दिया है ।
श्रीसंघ, जिनशासन रूपी स्वर्ण-रजत-रत्नमय सुरथ के चकतुल्य है। कुमारपाल प्रतिबोध में कहा है - 'अणुदियहं दितस्सवि झिज्झन्ति न सायरस्स रयणाई'। - प्रतिदिन देते हुए भी सागर के रत्न कभी समाप्त नहीं होते। आवश्यक नियुक्ति में कहा है -
नाणं पयासगं । ज्ञान प्रकाश करनेवाला है । ज्ञान से ही विवेक जगता है । उपाध्याय यशोविजयजी म. ने कहा है -
'ज्ञान' समुद्र मन्थन के बिना प्रादुर्भूत अमृत है, बिना औषधि का रसायन है और किसी की अपेक्षा नहीं रखनेवाला ऐश्वर्य है।
बृहत्कल्प भाष्य में तो 'सूयं तइयं चक्खु'-अर्थात् श्रुतज्ञान को तीसरा नेत्र बताया है। इतना ही नहीं, सूक्तमुक्तावली में कहा है-ज्ञान दुनिया की आँख है। इस संसार में ज्ञान से बढ़कर अन्य कोई पवित्र वस्तु नहीं है ।
श्री संघ धाणसा को इस सुकृत के लिए हमारी जीवन-निर्मात्री परम पूजनीया साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा. (पू. दादीजी म. सा.) आशीर्वाद प्रदान करती हैं। साथ ही हमारी ओर से आभार और धन्यवाद ।
हम आशा करती हैं कि श्रीसंघ, धाणसा इसीप्रकार भविष्य में भी सुकृत्यों में सदा सहयोग देता रहेगा । यही अभ्यर्थना !
- साध्वी डॉ. प्रियदर्शना श्री
- साध्वी डॉ. सुदर्शना श्री अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 18