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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1168]
- दशवैकालिक 942 जो अविनीत गुरु को मन्दबुद्धि, अल्पवयस्क एवं अल्प श्रुत जानकर उनकी अवहेलना करते हैं, वे मिथ्यात्व को प्राप्त कर गुरु की आशातना करते हैं। 503. गुरु-आशातना अहितकर जो पावगं जालियमवक्कमेज्जा,
आसीविसं वा वि हु कोवएज्जा । जो वा विसं खायइ जीवियट्ठी,
एसोवमासायणया गुरुणं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1168]
- दशवैकालिक 94/ जैसे कोई जलती अग्नि को लांघता है, आशीविष सर्प को कुपित करता है और जीवित रहने की इच्छा से विष खाता है वैसे ही गुरु की आशातना भी इनके समान हैं-ये जिसप्रकार हित के लिए नहीं होते, उसीप्रकार गुरु की आशातना भी हित के लिए नहीं होती । 504. गुरु-आशातना से दुष्परिणाम
जो पव्वयं सिरसा भेत्तुमिच्छे, सुत्तं व सीहं पडिबोहएज्जा । जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं, एसोवमासायणया गुसणं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1169]
- दशवैकालिक 948 जैसे कोई व्यक्ति गन्धमादन पर्वत को सिर से फोड़ना चाहता है अथवा सोए हुए सिंह को जगाता है या जो भाले की नोक पर प्रहार करना चाहता है, वैसे ही गुरु की आशातना करनेवाला भी इनके तुल्य ही है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 182