Book Title: Aagam 10 PRASHNA VYAKARANAM Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] श्री प्रश्नव्याकरणदशाङ्गसूत्रम नमो नमो निम्मलदसणस्स। पज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सूधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । ___ “प्रश्नव्याकरणादशा" मूलं एवं वृत्ति: । [मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित वृत्तिः ] [आदय संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. 11 (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D. ) 13/10/2014, सोमवार, २०७० आसो कृष्ण ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१०], अंग सूत्र-[१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: , ---------------------- अध्ययनं ------------------------ मूलं ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक യായമായ ॥अहम् ॥ श्रीमत्सुधर्मस्वामिगणभृत्प्ररूपितं श्रीमच्चन्द्रकुलालंकारश्रीमदभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीप्रश्नव्याकरणाङ्गम्। दीप अनुक्रम १०१५ श्रेष्ठि मंछुभाइ तलकचंद झवेरी-सुरत ७५० बाबु गुलाबचंदजी अमीचंदजी झवेरी-मुम्बाइ ५००श्रेष्ठि कल्याणचंद सौभाग्यचंद झवेरी-सुरत प्रसेधिका-एतेषां श्राद्धबर्याणां पूर्णद्रव्यसाहाय्येन शाह-वेणीचन्द्र सुरचन्द्रद्वारा-श्रीआगमोदयसमितिः मुद्रितं मोहमय्यां 'निर्णयसागर यत्रालये रा० रा० रामचन्द्र येसू शेडगे द्वारा बीरसंवत् २४४५. विक्रमसंवत् १९७५. काईष्ट १५५५। प्रतयः१०००. पण्यं १-१२- ० पादोन रूप्यकद्वयं. प्रश्नव्याकरणदशागसूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: ३०+१४ प्रश्नव्याकरणदशाङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ४७ श्रुतस्कंध - १ [ आश्रव] ००४ श्रुतस्कंध - २ [ संवर] २०० - मूलांक: | पृष्ठांक: मूलांक: | अध्ययन पृष्ठांक: मूलांक: अध्ययन पष्ठांक: ००१ -१- प्राणातिपात: ००४ ०३० -१- अहिंसा २०० ००९ -२- मृषावादः ०५६ ०३६ -२- सत्यं २२९ ०१३ -३- अदत्तादान __०८६ ०३८ -३- दत्तानुज्ञा २४६ ०१७ -४- अब्रह्म । १३२ ०३९ -४- ब्रह्मचर्य । २६२ ।। ०२१ -५- परिग्रहः १८४ ०४४ -५- अपरिग्रहः २८६ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: । ~2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['प्रश्नव्याकरणदशा' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “प्रश्नव्याकरणदशाङ्ग” के नामसे सन १९२० (विक्रम संवत १९७६) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पूरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमदसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया । हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कन्ध, अध्ययन और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा श्रुतस्कंध एवं अध्ययन चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस ] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक श्रुतस्कंध, अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते वर्ग, अध्ययन या विषय तक आसानी से पहँच शकता है। अनेक पष्ठ के नीचे विशिष्ठ फटनोट भी लिखी है. जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. ~34 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्रुतस्कन्ध: [-] मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्र.व्या. १ Jain Educator “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [-] ७०%%15649649645964964955 ॥ अर्हम् ॥ चान्द्रकुलीन श्रीमदभयदेवाचार्यदृब्धव्याख्यायुतम् । श्रीप्रश्नव्याकरणदशासूत्रम् । श्रीवर्द्धमानमानम्य, व्याख्या काचिद् विधीयते । प्रश्नव्याकरणाङ्गस्य, वृद्धन्यायानुसारतः ॥ १ ॥ अज्ञा वयं शास्त्रमिदं गभीरं, प्रायोऽस्य कूटानि च पुस्तकानि । सूत्रं व्यवस्थाप्यमतो विमृश्य, व्याख्यानकल्पादित एव नैव ॥ २ ॥ अथ प्रश्नव्याकरणाख्यं दशमाङ्कं व्याख्यायते-अथ कोऽस्याभिधानस्यार्थः ?, उच्यते, प्रश्ना:- अङ्गुष्टादिप्रश्न | विद्यास्ता व्याक्रियन्ते-अभिधीयन्तेऽस्मिन्निति प्रश्नव्याकरणं, कचित् 'प्रश्नव्याकरणदशा' इति दृश्यते, तत्र १ मडुकादितो व्याख्यानरचनायाः नैव सूत्रं व्यवस्थाप्यं किं तु विमृश्य व्यवस्थाप्यमित्यर्थः, प्रथमे श्रुतस्कन्धे प्रथम अध्ययनं "प्राणातिपात" आरभ्यते For Parts Only अत्र प्रथम श्रुतस्कंध : आरभ्यते ~4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक गाथा |||| दीप अनुक्रम [१-२] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) ---- अध्ययनं [१] मूलं / गाथा ||१|| श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याकर० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ॥१॥ JEE प्रश्नानां विद्याविशेषाणां यानि व्याकरणानि तेषां प्रतिपादनपरा दशा-दशाध्ययनप्रतिबद्धाः ग्रन्धपद्धतय इति प्रश्नव्याकरणदशाः, अयं च व्युत्पत्यर्थोऽस्य पूर्वकालेऽभूत् इदानीं त्वाश्रवपञ्चकसंवरपञ्चकव्याकृ तिरेबेहोपलभ्यते, अतिशयानां पूर्वाचार्यैरैदंयुगीनानामपुष्टालम्बनप्रतिषेविपुरुषापेक्षयो तारितत्वादिति, अस्य श्रीमन्महावीरवर्द्धमानखामिसम्बन्धी पञ्चमगणनायकः श्रीसुधर्म्मखामी सूत्रतो जम्बूखामिनं प्रति प्रणयनं चिकीर्षुः सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनप्रतिपादनपरां 'जम्बू' इत्यामन्त्रणपदपूर्वी 'इणमो' इत्यादिगाथामाह ॥ ॐ नमो वीतरागाय । नमो अरिहंताणं० । जंबू-इणमो अव्हयसंवरविणिच्छयं पवयणस्स निस्संदं । वोच्छामि णिच्छयत्थं सुहासियत्थं महेसीहिं ॥ १ ॥ 'जंबू' इत्यादि । पुस्तकान्तरे पुनरेवमुपोद्घातग्रन्थ उपलभ्यते - तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपानाम नगरी होत्था, पुण्णभद्दे चेहए वणसंडे असोगवरपायवे पुढविसिलापहए, तत्थ णं चंपाए नयरीए कोणिए नाम राया होत्था, धारिणी देवी, तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीररस अंतेवासी अजसुहम्मे नाम घेरे जाइसंपन्ने कुलसंपन्ने बलसंपन्ने स्वसंपन्ने विणयसंपन्ने नाणसंपन्ने दंसणसंपन्ने चरित्तसंपन्ने लज्जासंपन्ने लाघवसंपन्ने ओयंसी तेयंसी वच॑सी जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोभे जियनिद्दे जियइंदिए जियपरीसहे जीवियासमरणभयविप्पमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे मुत्तिप्पहाणे विज्ञापहाणे मंतष्पहाणे बंभप्पहाणे वयप्पहाणे नयप्पहाणे नियमप्पहाणे सचप्पहाणे सोयप्पहाणे नागप्पहाणे दंसणप्पहाणे चरि For Para Use Only अत्र “तेणं कालेणं॰ “ इति सूत्र वर्तते, मया तत् सूत्रस्य क्रमांक १ दत्तः, तत् पश्चात् "जम्बू० इणमो" इति सूत्र (गाथा) वर्तते | ~5~ १ आश्रवे शास्त्रप्रस्तावना ॥ १ ॥ ayor Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ......................- अध्य यनं [१]----------.........-- मूलं | गाथा ||१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| त्तप्पहाणे चोद्दसपुब्बी चउनाणोवगए पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिबुडे पुवाणुपुब्बिं चरमाणे गामागुगाम दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छद जाव अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति । तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुहम्मस्स अंतेवासी अजजंबू नामं अणगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव संखित्तविपुलतेयलेस्से अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामन्ते उहुंजाणू जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।तए णं से अज्जजंबू जायसढे जायसंसए जायकोउहल्ले उप्पन्नसद्धे ३ संजायसद्धे ३ समुप्पन्नसद्धे ३ उट्ठाए उ?इ २ जेणेच अजसुहम्मे थेरे तेणेव उचागच्छइ २ अजसुहम्मे थेरे तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २ वंदइ नमसइ नचासन्ने नाइदूरे विणएणं पंजलिपुडे पजुवासमाणे एवं बयासी-जह भंते! समणेणं भग. महा. जाव संपत्तेणं णवमस्स अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं अयमुढे पं० दसमस्स णं अंगस्स पण्हावागरणाणं समजेणं जाव संपत्तेणं के अढे पं०?, जंबू! दसमस्स अंगस्स समणेणं जाव संपत्तेणं दो सुयक्खंधा पण्णत्ता-आसवदारा य संवरदारा य, पढमस्स || भते! सुयक्खंधस्स समणेणं जाव संपत्तेणं कह अज्झयणा पण्णत्ता?, जम्बू! पढमस्स णं सुयक्खंधस्स समराणेणं जाव संपत्तेणं पंच अज्झयणा पण्णत्ता, दोचस्स णं भंते ! एवं चेव, एएसि णं भंते! अण्हयसंवराणं 81 समणेणं जाव संपत्तेणं के अहे पण्णते?, तते णं अज्जमुहम्मे थेरे जंबूनामेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे जंबूं अणगारं एवं वयासी-जंबू! इणमों' इत्यादि, अयं च तेणं कालेणं २' इत्यादिको अन्धः षष्ठाङ्गप्रथम दीप अनुक्रम [१-२] REVI FarPranaswamincom M urary.au Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक गाथा |||| दीप अनुक्रम [१-२] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) ---- अध्ययनं [१] मूलं / गाथा ||१|| आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ॥२॥ प्रश्नव्याक- ५ ज्ञातावदवसेयः । या चेह द्विश्रुतस्कन्धतोक्ताऽस्य सा न रूढा, एकश्रुतस्कन्धताया एव रूढत्वादिति । गाथार० श्रीअ- * व्याख्या त्वेवम्- 'जंबु'त्ति हे जम्बूनामन् ! 'इणमो'त्ति इदं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षासन शास्त्रं 'अण्यसंवरभयदेव० विणिच्छति आ-अभिविधिना स्नौति श्रवति कर्म्म येभ्यस्ते आलवाः- आश्रवाः प्राणातिपातादयः पञ्च वृत्तिः प्र तथा संवियते - निरुध्यते आत्मतडागे कर्म्मजलं प्रविशदेभिरिति संवराः - प्राणातिपातविरमणादयः आश्रवाश्च * संवराश्च विनिश्रीयन्ते निर्णीयन्ते तत्स्वरूपाभिधानतो यस्मिंस्तदाश्रवसंवरविनिश्चयम्, तथा प्रवचनं द्वाद शाङ्गं जिनशासनं तस्य खर्जूरादिसुन्दरफलस्य निस्यन्द इव परमरसस्नुतिरिव निस्यन्दोऽतस्तं प्रवचनफल| निस्यन्दता चास्य प्रवचनसारत्वात्, तत्सारत्वं च चरणरूपत्वात्, चरणरूपत्वं चाश्रवसंवराणां परिहारा सेवालक्षणानुष्ठानप्रतिपादकत्वात्, चरणस्य च प्रवचनसारता “सामाइयमाईयं सुयनाणं जाव बिंदुसाराओ । तस्सवि सारो चरणं सारो चरणस्स निव्वाण ॥ १ ॥ " मिति [ सामायिकादिकं श्रुतज्ञानं यावहिन्दुसारः । तस्यापि सारश्चरणं सारश्वरणस्य निर्वाणं ] वचनप्रामाण्यादिति, वक्ष्ये भणिष्यामि निश्चयायनिर्णयाय निश्चयार्थ निश्चयो वाऽर्थः प्रयोजनमस्येति निश्चयार्थं वक्ष्ये इत्येतस्याः क्रियाया विशेषणमथवा निर्गतकर्म्मन्वयो निश्चयो- मोक्षस्तदर्थमित्येवं शास्त्रविशेषणमिदं, सुष्ठु केवलालोकविलोकनपूर्वतया यथाऽवस्थितत्वेन भाषितो भणितोऽर्थं यस्य तत्तथा कैः सुभाषितार्थमित्याह - महान्तश्च ते सर्वज्ञत्वतीर्थप्रवर्त्तनाद्यतिशयवत्त्वाद् ऋषयश्च मुनयो महर्षयस्तैः तीर्थकरैरित्यर्थः, अत्र च 'जंबू' इत्यनेन जम्बूनान्नः For Penal Use Only ~7~ १ आश्रवे शाखप्रस्तावना ॥२॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) (१०) श्रुतस्कन्ध: [१], --- .........................- अध्ययनं [१]-----------...........-- मूलं | गाथा ||१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| सुधर्मखामिशिष्यत्वात् सुधर्मखामिना प्रणीतमिदं सूत्रत इत्यभिहितं, महर्षिभिरित्यनेन चार्थतस्तीर्धकरैरिति । इह च सुधर्मस्वामिनं प्रति श्रीमन्महावीरेणैवार्थतोऽस्याभिधानेऽपि यन्महर्षिभिरिति बहुवचननिदेशेन तीर्थकरान्तराभिहितत्वमस्य प्रतिपादितं तत्सर्वतीर्थकराणां तुल्यमतत्वप्रतिपादनार्थ, विषममतत्वे हि तेषामसर्वज्ञत्वप्रसङ्गादिति, इह च महर्षिग्रहणेन तदन्येषामपि सम्भवे यत् तीर्थकरैरिति व्याख्यातं तत् 'अत्यं भासह अरहा सुत्तं गंधति गणहरा निउण'मिति वचनानुसारानिरुपचरितमहच्छन्दप्रयोगस्य च तेष्वेव युज्यमा नत्वादिति, एतेन चास्य शास्त्रस्योपक्रमाख्यानुयोगद्वारसम्बन्धिनः प्रमाणाभिधानभेदस्यागमाभिधानप्रतिभेहादस्याभेदभूता तीर्थकरापेक्षयाऽर्थत आत्मागमता गणधरापेक्षयाऽर्थतः अनन्तरागमता तच्छिष्यापेक्षया परRम्परागमता प्रोक्ता, 'जम्बू' इत्यनेन सूत्रतः सुधर्मखाम्यपेक्षया आत्मागमता जम्बूस्वाम्यपेक्षयाऽनन्तराग मता तच्छिष्यापेक्षया च परम्परागमतेति, अथवा अनुगमाख्यतृतीयानुयोगद्वारस्य प्रभेदभूतो य उपोद्घातनियुक्त्यनुगमस्तत्सम्बन्धिनः पुरुषद्वारस्य प्रभेदभूतार्थतस्तीर्थकरलक्षणभावपुरुषप्रणीतता सूत्रतो गणधरलक्षणभावपुरुषप्रणीतता चास्योक्ता, तथा च गुरुपर्वक्रमलक्षणः सम्बन्धोऽप्यस्य दर्शितः, एतदुपदर्शनेन चास्मिन शास्त्रे आप्तप्रणीततयाऽविसंवादित्वेन ग्राह्यमेतदिति बुद्धिः प्रेक्षावतामाविर्भाविता, तथा आश्रवसंवरविनिश्चयमित्यनेनास्याभिधेयमुक्तं, एतदभिधाने चोपक्रमद्वारान्तर्गतमर्थाधिकारद्वारं तद्विशेषभूतखसमयवक्तव्यताद्वारैकदेशरूपमुपदर्शितमिति, प्रवचनस्य निस्यन्दमित्यनेन तु प्रवचनप्रधानावयवरूपखम दीप अनुक्रम [१-२] SAREais a tioned ~ 8 ~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) (१०) श्रुतस्कन्ध: [१], --- .........................- अध्ययनं [१]-----------...........-- मूलं | गाथा ||१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| प्रश्नव्याक- स्योक्तं, प्रवचनस्य क्षायोपशमिकभावरूपत्वेनोपक्रमाख्यानुयोगद्वारस्य नामाख्यप्रतिभेदस्य षण्णामाख्यप्रति- १ आश्रवे र० श्रीअ-I द्वारस्यावतारश्च दर्शितः, षण्णामद्वारे ह्यौदयिकादयः षड् भावाः प्ररूप्यन्त इति, निश्चयार्थमनेन त्वस्य शा- शाखप्रभयदेव स्त्रस्य निश्चयलक्षणमनन्तरप्रयोजनमुक्तं, तद्भणनेन हि तदर्थिनः प्रेक्षावन्तोऽत्र प्रवर्त्तिता भवन्विति, नहि || स्तावना वृत्तिः निष्प्रयोजन प्रेक्षावन्तः कत्तुं श्रोतुं वा प्रवर्त्तन्ते, प्रेक्षावत्ताहानिप्रसङ्गात्, एवं चानुगमाख्यतृतीयानुयोगद्वार स्योपोद्घातनिर्युक्त्यभिधानप्रतिद्वारस्य प्रतिभेदभूतं कारणद्वारमभिहितं, यतस्तत्रेदं चिन्त्यते-केन कारणेनेदमध्ययनमुक्तमिति, इहापि च तस्यैव निश्चयरूपस्य शास्त्रप्रतिपादनकारणस्य चिन्तितत्त्वात्, नन्वाश्रवसंवरचिनिश्चयमित्युक्तावपि निश्चयार्थमित्युच्यमानमतिरिच्यमानमिवाभाति, यत्र ह्याश्रवसंवरा विनिश्ची-1 यन्ते तत् तद्विनिश्चयार्थ भवत्येवेति, सत्यं, किन्तु आश्रवसंवरविनिश्चयमित्यनेनाभिधेयविशेषाभिधायकत्वलक्षणं तत्स्वरूपमात्रमेव विवक्षितं, निश्चयार्थमनेन तु तत्फलभूतं प्रयोजनमिति न पुनरुक्ततेति, प्रयोजनं च 18 प्रतिपादयतोपायोपेयभावलक्षणोऽपि सम्बन्धो दर्शितो भवति, यत इदं शास्त्रमुपायो निश्चयश्चास्योपेयमित्ये-18 वरूप एवासाविति । यद्यपि चानुयोगद्वाराण्यध्ययनस्यैवावश्यकादावुपदश्यन्ते तथापीहाने श्रुतस्कन्धयोरध्ययनसमुदायरूपत्वात् कथश्चिदुपक्रमादिद्वाराणां युज्यमानत्वात् यथासम्भवं गाथावयवैर्दर्शितानि, अत एवाचारटीकाकृताङ्गमुद्दिश्य तान्युपदर्शितानि । अनन्तरमाश्रवसंवरा इहाभिधेयत्वेनोक्ताः, तत्र च 'यथोदेशं निर्देश' इति न्यायादाश्रवांस्तावत्परिमाणतो नामतश्च प्रतिपादयन्नाह दीप अनुक्रम [१-२] ॥३ ॥ IMHorammaru ~ ~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ---- ......................- अध्य यनं [१]----------.........-- मूलं । गाथा ||२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत गाथा ||२|| SOCCASESSICANAKAR पंचविहो पण्णत्तो जिणेहिँ इह अण्हओ अणादीओ । हिंसामोसमदत्तं अव्वंभपरिग्गह चेव ॥२॥ 'पंचविहीं' गाथा । पञ्चविधः-पञ्चप्रकारः प्रज्ञप्त:-प्ररूपितो जिनैः-रागादिजेतृभिः इह-प्रवचने लोके वा आलव-आश्रवः अनादिकः-प्रवाहापेक्षयाऽऽदिविरहितः उपलक्षणत्वादस्य नानाजीवापेक्षया अपर्यवसित इत्यपि दृश्यं सादित्ये सपर्यवसितत्वे वाऽऽश्रवस्य कर्मबन्धाभावेन सिद्धानामिव सर्वसंसारिणां बन्धाद्यभावप्रसङ्गः, अथवा ऋणं-अधमर्णेन देयं द्रव्यं तदतीतोऽतिदुरन्तत्वेनातिकान्तः ऋणातीतः अणं वा-पापं कर्म आदि:कारणं यस्य स अणादिकः, नहि पापकर्मवियुक्ता आश्रवे प्रवर्तन्ते, सिद्धानामपि तत् प्रवृत्तिप्रसङ्गादिति, तमेव नामत आह-हिंसा-माणवधः 'मोसं'ति मृषावादं अदत्तं-अदत्तद्रव्यग्रहणं अब्रह्म च मैथुनं परिग्रहम-स्वीकारो|| |अब्रह्मपरिग्रह, चकारः समुच्चये, एवशब्दोऽवधारणे, एवं चास्य सम्बन्धः अब्राम परिग्रहमेव चेति, अवधार-|| णार्थश्चैव-हिंसादिभेदत एवं पञ्चविधा, प्रकारान्तरेण तु द्विचत्वारिंशद्विधो, यदाह-"इंदिय ५ कसाय ४] अव्वय ५ किरिया २५ पण चउर पंच पणवीसा । जोगा तिन्नेव भवे बायाला आसवो होइ ॥१॥"त्ति [इन्द्रियाणि कषायाः अव्रतानि क्रियाः पञ्च चत्वारः पञ्च पञ्चविंशतिः। योगात्रय एव भवेयुः द्विचत्वारिंशदाश्रवा भवन्ति ॥१॥] एवं चानया गाथयाऽस्य दशाध्ययनात्मकस्याङ्गस्य पञ्चानामाश्रवाणामभिधायकान्याद्यानि पश्चाध्ययनानि सुचितानि, तत्र प्रथमाध्ययनविनिश्च(या)यप्रथमाश्रववक्तब्यतानुगमाथेमिमां द्वारगाथामाह दीप अनुक्रम anditurary.com पञ्चविध-आश्रवाः ~10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत गाथा ||3|| दीप अनुक्रम [४] “प्रश्नव्याकरणदशा” श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित प्रश्नव्याक २० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ॥ ४ ॥ - · अंगसूत्र -१० (मूलं + वृत्तिः) ---- अध्ययनं [१] मूलं / गाथा ||३|| आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः जारिसओ जनामा जह य कओ जारिसं फलं देति । जेविय करेंति पावा पाणवहं तं निसामेह ॥ ३ ॥ 'जारिसो' गाहा, यादृशको - यत्वरूपकः, यानि नामानि यस्येति यन्नामा यदभिधान इत्यर्थः, यथा च कृतो- निर्वर्त्तितः प्राणिभिर्भवतीति यादृशं यत्वरूपं फलं कार्य दुर्गतिगमनादिकं ददाति-करोति, येऽपि च कुर्वन्ति पापा:- पापिष्ठाः प्राणाः प्राणिनस्तेषां वधो विनाशः प्राणवधस्तं, 'तं'ति तत्पदार्थपञ्चकं 'निसामेहति निशमयत शृणुत मम कथयत इति शेषः । तत्र 'तत्वभेदपर्यायैर्व्यारूपे ति न्यायमाश्रित्य याह| शक इत्यनेन प्राणिवधस्य तत्त्वं निश्चेयतया प्रतिज्ञातं यन्नामेत्यनेन तु पर्यायव्याख्यानं, शेषद्वारत्रयेण तु भेदव्याख्या, करणप्रकारभेदेन फलभेदेन च तस्यैव प्राणिवधस्य भिद्यमानत्वात्, अथवा यादृशो यनामा बेत्यनेन स्वरूपतः प्राणिवधश्चिन्तितस्तत्पर्यायाणामपि याथार्थ्यातया तत्खरूपस्यैवाभिधायकत्वात्, यथा च कृतो ये च कुर्वन्तीत्यनेन तु कारणतोऽसौ चिन्तितः, करणप्रकाराणां कर्तृणां च तत्कारणत्वात्, यादृशं फलं ददातीत्यनेन तु कार्यतोऽसौ चिन्तितः एवं च कालत्रयवर्त्तिता तस्य निरूपिता भवतीति, अथवा अनुगमाख्यतृतीयानुयोगद्वारावयवभूतोपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्य प्रतिद्वाराणां किं कविहमित्यादीनां मध्यात् कानिचिदनया गाधया तानि दर्शितानि, तथाहि पादशक इत्यनेन प्राणिवधस्वरूपोपदर्शकं किमित्येतत् द्वारमुक्तं, यन्नामेत्यनेन तु निरुक्तिद्वारं, एकार्थशब्दविधानरूपत्वात् तस्य, 'सम्मद्दिट्ठी अमोहो' इत्यादिना गाधायुगेन सामायिकनियुक्तावपि सामायिकनिरुक्तिप्रतिपादनात् यथा च कृत इत्यनेन कथमिति द्वारमभिहितं, ये For Parks Use One ~ 11~ १ आश्रवे यादृशादीनिद्वाराणि ॥ ४ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) (१०) श्रुतस्कन्ध: [१] ........ ...... ... अध्ययनं [१] ----------------------- मुलं [१] + गाथा ||३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: *** प्रत * गाथा ||३|| ** दापि च कुर्वन्स्यनेन कस्येति द्वारमुक्तं, फलद्वारं त्वतिरिक्तमिहेति । तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायाद् या-1 दृश इति द्वाराभिधानायाह पाणवहो नाम एस निच्चं जिणेहिं भणिओ-पावो चंडो रुदो खुदो साहसिओ अणारिओ णिग्घिणो णिस्संसो महम्भओ पइभओ १० अतिभओ बीहणओ तासणओ अणज्जो उब्वेयणओ य णिरवयक्खो णिद्धम्मो णिप्पिवासो णिकलुणो निरयवासगमणनिधणो २० मोहमहन्भयपयट्टओ मरणावेमणस्सो २२ । पढम अधम्मदारं ॥ (सू० १) 'पाणवहो' इत्यादि, प्राणवधो हिंसा नामेत्यलङ्कती वाक्यस्य एषः-अधिकृतत्वेन प्रत्यक्षो नित्यं-सदा न कदाचनापि पापचण्डादिकं वक्ष्यमाणस्वरूपं परित्यज्य वर्तत इति भावना, जिन:-आसर्भणित:-उक्तः, किंविध इत्याह-पापप्रकृतीनां चन्धहेतुत्वेन पापा, कषायोत्कटपुरुषकार्यत्वाबण्डा, रोद्राभिधानरसविशेषप्रव-| तितत्त्वाद्रौद्र, क्षुद्रा-द्रोहका अधमा वा तत्प्रवर्तितत्वाच क्षुद्रः, सहसा-अवितर्कप्रवर्तित इति साहसिक [पुरुषस्तत्प्रवृत्तित्वात् साहसिका, आराधाताः पापकर्मभ्य इत्यार्यास्तनिषेधादनायर्या-म्लेच्छादयस्तत्प्रवर्तितत्वादनायें, न विद्यते घृणा-पापजुगुप्सालक्षणा पत्र स निर्गुणः, नृशंसा-निःसूकास्तव्यापारत्वात् तृशंसः निष्क्रान्तो वा शंसायाः-श्लाघाया इति निःशंसा, महद् भयं यस्मादसौ महाभयः, प्राणिनं प्राणिनं प्रति भयं| यस्मात् स प्रतिभया, भयानि-इहलौकिकादीन्यतिक्रान्तोऽतिभयः, अत एवोक्तं-मरणभयं च भयाणति * दीप अनुक्रम **** SHERatnana "प्राणवध:" - नामक प्रथम अधर्मद्वारं ~12~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत प्रश्नब्याकर०श्रीअ- भयदेव वृत्तिः सत्राक (१) ॥ ५ ॥ Sil[मरणभयं च भयानां] 'बीहणउति भापयति-भयवन्तं करोतीति भापनका, त्रासः-आकस्मिकं भयं अक्रमो-10 १आश्रये स्पन्नशरीरकम्पमनाक्षोभादिलिङ्गि तत्कारकत्वाासनका,'अणजे तिनन्यायोपेत इत्यन्याय्यः, उद्वेजनक:-चित्त- वधस्वरूपं विठवकारी उद्वेगकर इत्यर्थः, चकारः समुच्चये, 'निरवयक्खो'त्ति निर्गताऽपेक्षा-परमाणविषया वा परलोकादिविष-IN या वा यस्मिन्नसौ निरपेक्षः निरवकासो वा, निर्गतोधात्-श्रुतचारित्रलक्षणादिति निर्धमः, निर्गतः पिपासाया वध्यं प्रति स्नेहरूपाया इति निपिपासः, निर्गता.करुणा-दया यस्मादसौ निष्करुणः, निरयो-नरकः स एव द्र वासो निरयवासस्तत्र गमनं निरयवासगमनं तदेव निधनं-पर्यवसानं यस्य स निरयवासगमननिधनः तत्फल इत्यर्थः, मोहो-मूढता महाभयं-अतिभीतिः तयोः प्रकर्षक:-प्रवर्तको यः स मोहमहाभयप्रकर्षक: कचिमोहमहाभयप्रवईक इति पाठः, 'मरणावमनस्सो'त्ति मरणेन हेतुना वैमनस्य-दैन्यं देहिनां यस्मात् स मरणवैमनस्यः । प्रथम-आद्यं मृषावादादिद्वारापेक्षया अधर्मद्वार-आश्रवद्वारमित्यर्थः । तदेवमियता विशेषणसमुदायेन यादृशः प्राणिवध इति द्वारमभिहितं, अधुना यन्नामेतिद्वारमभिधातुमाह तस्स य नामाणि इमाणि गोण्णाणि होति तीसं, तंजहा-पाणवह १ उम्मूलणा सरीराओ २ अधीसंभो ३ हिंसविहिंसा ४ तहा अकिच्चं च ५ घायणा ६ मारणा य ७ वहणा ८ उद्दवणा ९ तिवायणा य १० आरंभसमारंभो ११ आउयकम्मरसुवद्दवो भेयणिवणगालणा य संवट्टगसंखेको १२ म १३ असंजमो १४ कडगमद्दणं १५ बोरमण १६ परभवसंकामकारओ १७ दुग्गतिप्पवाओ १८ पावकोवो य १९ पाय दीप अनुक्रम | प्राणवधस्य त्रिंशत्-नामानि ~13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- ------------- अध्य यनं [१] ------- ---------- मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत लोभो २० छविच्छेओ २१ जीवियंतकरणो २२ भयंकरो २३ अणकरो य २४ वज्जो २५ परितावणअपहओ २६ विणासो २७ निजवणा २८ लुंपणा २९ गुणाणं विराहणत्ति ३० विय तस्स एवमादीणि णाम धेज्जाणि होति तीसं पाणवहस्स कलुसस्स कडुयफलदेसगाई । (सू०२) 'तस्से'त्यादि, तस्य-उक्तखरूपस्य प्राणिवधस्य चकारः पुनरर्थः नामानि-अभिधानानीमानि-वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षासन्नानि गौणानि-गुणनिष्पन्नानि भवन्ति त्रिंशत् , तद्यथा-प्राणाना-प्राणिनां वधो-घातः प्रादाणवधः१ 'उम्मलणा सरीराउत्ति वृक्षस्योन्मूलनेव उन्मूलना-निष्काशनं जीवस्य शरीराद्-देहादिति २,४ 'अचीसंभोति अविश्वासः, प्राणिवधप्रवृत्तो हि जीवानामविधभणीयो भवतीति प्राणवधस्थाविम्भकारणत्वादविश्राभध्यपदेश इति ३, 'हिंसविहिंस'त्ति हिंस्यंत इति हिंस्था-जीवास्तेषां चिहिंसा-विधातो। हिंस्यविहिंसा, अजीवविधाते किल कथंचित्प्राणवधो न भवतीति हिंस्थानामिति विशेषणं विहिंसाया उ-18 |क्तमथवा हिंसा विहिंसा चैकैवेह ग्राह्या द्वयोरुपादानेऽपि बहुसमत्वादिति, अथवा हिंसनशीलो हिंस्रः-प्रमत्तः |'जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ हिंसओ इयरो'त्ति यो भवत्यप्रमत्तोऽहिंसको हिंसक इतरः] वचनात् तत्कृता विशेषवती हिंसा हिंस्रविहिंसा ४, तथा 'अकिच्चं वत्ति तथा-तेनैव प्रकारेण हिंस्यविषयमेवेत्यर्थः, अकृत्यं च Vil-अकरणीयं च, चशब्द एकार्थिकसमुच्चयार्थः ५, घातना मारणा च प्रतीते, चकारः समुच्चयार्थ एव ६-७, 'वह 'त्ति हननं ८ 'उद्दवण'त्ति उपद्रवणमपद्रवणं वा ९'तिवायणा येति त्रयाणां-मनोवाकायानामथवा त्रिभ्यो दीप अनुक्रम 15285548RSARDARSHAN Santaratml प्राणवधस्य त्रिंशत्-नामानि ~144 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------------------- मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: आश्रवे वधनामानि प्रत वृत्तिः SAR प्रश्नव्याक-2-देहायुष्केन्द्रियलक्षणेश्यः प्राणेभ्यः पातना-जीवस्य भ्रंसना त्रिपातना, उक्तं च-'कायवइमणो तिषिण उ २०श्रीअ- अहवा देहाउइंदिअप्पाणा' इत्यादि, अथवा अतिशयवती यातना-प्राणेभ्यो जीवस्यातिपातना तीतपि- भयदेव. धानादिशब्देष्चिवाकारलोपात्, चकारोवापि समुचयार्थ इति १०, 'आरंभसमारंभो'त्ति आरभ्यन्ते-विना-18 श्यन्त इति आरम्भान्जीवास्तेषां समारम्भ:-उपमर्दः अथवा आरम्भ:-कृष्यादिव्यापारस्तेन समारम्भो-1 जीवोपमई: अथवा आरम्भो-जीवानामुपद्रवणं तेन सह समारम्भ:-परितापनमित्यारम्भसमारम्भः प्राण॥६ ॥ वधस्य पर्याय इति, अथवा आरम्भसमारम्भशब्दयोरेकतर एव गणनीयो, बहुसमरूपत्वादिति ११, 'आउ|यकम्मस्सुबद्दवो भेदनिट्ठवणगालणा य संवड्गसंखेवोत्ति आयुःकर्मण उपद्रव इति वा तस्यैव भेद इति वा तनिष्ठापनमिति वा तद्गालनेति वा, चः समुचये, तत्संवर्तक इति वा, इह खार्थे का, तत्सझेप इति वा, प्राणवधस्य नाम, एतेषां च उपद्रवादीनामेकतरस्यैव गणनेन नानां त्रिंशत्पूरणीया, आयुश्छेदलक्षणार्थापेक्षया सर्वेषामेकत्वादिति १२ मृत्युः १३ असंयमः १४ एती प्रतीती तथा कटकेन-सैन्येन किलिओन वा आक्रम्य मईनं कटकमर्दनं, ततो हि प्राणवधो भवतीत्युपचारात् प्राणवधः कटकमद्देनशब्देन व्यपदिश्यत इति १५ 'वोरमण ति व्युपरमणं प्राणेभ्यो जीवस्य ब्युपरतिः, अयं च व्युपरमणशब्दोऽन्तर्भूतकारितार्थः, लामाणवधपर्यायो भवतीति भावनीयं १६ 'परभवसङ्कमकारक' इति प्राणवियोजितस्यैव परभवे सङ्कान्तिस भावात् १७ दुर्गती नरकादिकायां कर्तारं प्रपातयतीति दुर्गतिप्रपातः दुर्गतौ वा प्रपातो यस्मात् स तथा दीप अनुक्रम AES Bhinmaram.om | प्राणवधस्य त्रिंशत्-नामानि ~15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------------------- मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत PIR८ 'पापकोबो यत्ति पापं-अपुण्यप्रकृतिरूपं कोपयति-प्रपञ्चयति पुष्णाति यः स पापकोप इति अथवा पा चासौ कोपकार्यत्वात् कोपश्चेति पापकोपः चः समुच्चये १९ 'पापलोभो'त्ति पापं-अपुण्यं लुभ्पति-प्राणिनि || लिपति संश्लिष्यतीतियावत् यतः स पापलोभा, अथवा पापं चासौ लोभश्च तत्कार्यवास्पापलोभः २०|| 'विच्छेओ'ति छविच्छेदः-शरीरच्छेदनं तस्य च दुःखोत्पादनरूपत्वात् प्रस्तुतपर्यायविनाशकारणस्वाचोपचारात प्राणवधव, आह-"तप्पजायविणासो दुक्खुप्पातो य संकिलेसो य । एस बहो जिणभणिओ|| बजेयब्यो पयत्सेणं ॥१॥'ति, [तत्पर्यायविनाशो दुःखोत्पादश्व संक्लेशश्च । एष वधो जिनभणितो वर्जयि-| तव्यः प्रयत्नेन ॥१॥] २१ जीवितान्तकरणः २२ भयंकरश्च प्रतीत एव २३ ऋण-पापं करोतीति ऋणकरः। २४'बजोति यममिव वजं गुरुत्वात् तत्कारिप्राणिनामतिगुरुत्वेनाधोगतिगमनाद वय॑ते वा विवेकिभिरिति वर्ज', 'सावज्जोति पाठान्तरे सावद्यः-सपाप इत्यर्थः २५ 'परितावणअण्ह'त्ति परितापनपूर्वक आश्रवः परितापनाश्रयः, आश्रवो हि मृषावादादिरपि भवति न चासौ प्राणवध इति प्राणवधसङ्ग्रहार्थमाअवस्य परिता-1 सापनेति विशेषणमिति, अथवा प्राणवधशब्दं नामवन्तं संस्थाप्य शरीरोन्मूलनादीनि तन्नामानि सङ्कल्पनी-| यानि ततः परितापनेति पञ्चविंशतितमं नाम आश्रव इति षड़िशतितममिति २६ 'विनाश' इति प्राणानामिति गम्पते २७ ' णिझवण'ति नि:-आधिक्येन यान्ति प्राणिनः प्राणास्तेषां निर्यात-निर्गच्छतां प्रयो-| जकत्वं निर्यापना २८ 'लुंपण ति लोपना-छेदनं प्राणानामिति २९ 'गुणानां विराधनेत्यपि चेति हिंस्यप्रा दीप अनुक्रम म.व्या.२ PERMIn | प्राणवधस्य त्रिंशत्-नामानि ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- ------------- अध्य यनं [१] ------- ---------- मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत प्रश्नव्याक-णिगतगुणानां हिंसकजीवचारित्रगुणानां वा विराधना-खण्ड ना इत्यधः, इतिशब्द उपदर्शने, अपिचेति । १ आश्रय र० श्रीअ-15समुचये इति ३०। 'तस्से त्यादि प्राणिवधनाम्नां निगमनवाक्यं 'एवमाईणि ति आदिशब्दोऽत्र प्रकारार्थों|* वधकव यदाह-"सामीप्येऽथ व्यवस्थायां, प्रकारेऽवयवे तथा । चतुवेर्धेषु मेधावी, आदिशब्दं तु लक्षये-११॥" ध्यप्रयोवृत्तिः । दिति । तान्येवमादीनि-एवंप्रकाराण्युक्तस्वरूपाणीत्यर्थः नामान्येव नामधेयानि भवन्ति, त्रिंशत्माणिवधस्य जनानि कलुषस्य-पापस्य कटुकफलदेशकानि-असुन्दरकार्योपदर्शकानि यथार्थत्वात्तेषामिति । तदियता यन्नामेत्यु- सू०३ ॥७ ॥ क्तमय गाथोक्तद्वारनिर्देशक्रमागतं यथा च कृत इत्येतदुपदर्शयति, तत्र च प्राणिवधकारणप्रकारे प्राणिवधकर्तृणामसंयतत्वादयो धर्मा जलचरादयो वध्याः तथाविधमांसादीनि प्रयोजनानि च अवतरन्ति एतन्निष्पन्न-5 त्वात् प्राणवधप्रकारस्येति तानि क्रमेण दर्शयितुमाह तं च पुण फरेंति केई पावा असंजया अविरया अणिहयपरिणामदुप्पयोगी पाणवहं भयंकरं बहुविहं बहुप्पगारं परदुक्खुप्पायणप्पसत्ता इमहिं तसथावरहिं जीवहिं पडिणि विट्ठा, कि ते, पाठीणतिमितिमिगिलअणेगझसविविहजातिमंदुकदुबिहकच्छभणकमगरदुविगाहादिलिवेढयमदुयसीमागारपुलुयसुंसुमारबहुप्पगाराजलयरविहाणाकते य एवमादी, कुरंगरुरुसरभचमरसंबरहुरब्भससयपसबगोणसरोहियहयगयखरकरभखग्गवानरगवयविगसियालकोलमजारकोलसुणकसिरियंदलगावत्तकोतियगोकण्णमियमहिसविग्घछ ॥ ७ ॥ गलदीवियासाणतरच्छ अच्छम्भल्लसलसीहचिल्ललचउप्पयविहाणाकए य एवमादी, अयगरगोणसवराहिम दीप अनुक्रम -% 4 4- Wianasurary.orm | प्राणवधस्य त्रिंशत्-नामानि ~170 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- ------------- अध्य यनं [१] ------- ---------- मूलं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत उलि काउदरदब्भपुप्फयासालियमहोरगोरगविहाणककए य एवमादी, छीरलसरंबसेहसेलगगोधुंदरणउलसरडजाहगमु[सखाडहिलवाउप्पियधीरोलियसिरीसिवगणे य एवमादी, कादंबकबकवलाकासारसआडासेतीयकुललबजुलपारिपक्कीवसउणदीविय(पीपीलिय)हंसधत्तरितुगभासकुलीकोसकुंचदगतुंडढेणियालगसूयीमुहकविलपिंगलक्खगकारंडगचकवागउकोसगलपिंगुलसुयवरहिणमयणसालनंदीमुहनंदमाणगकोरंगभिंगारगकोणालगजीवजीवकतित्तिरवट्टकलायककपिंजलककवोतकपारेवयगचिडिगढिंककुक्डवेसरमयूरगचजरगहयपोंडरीयकरकवीर सेणवायसयविहंगभिणासिचासवग्गुलिचम्महिलविततपक्खिखहयरविहाणाकतेय एवमायी, जलथलखगचारिणो उ पंचिंदिए पसुगणे वियतियच उरिदिए विविहे जीवे पियजीविए मरणदुक्खपडिकूले बराए हणंति बहुसंकिलिकम्मा । इमेहिं विविहेहि कारणेहि, किं ते?, चम्मवसामसमेयसोणियजगफिफिसमत्थुलुंगहितयंतपित्तफोफसदंतहा अडिभिजनहनयणकण्णण्हारुणिनकधमणिसिंग. दाढिपिच्छविसविसाणवालहे, हिंसंति भमरमधुकरिगणे रसेसु गिद्धा तहेव तेंदिए सरीरोवकरणहुयाए किवणे दिए बहवे बत्थोहरपरिमंडणहा, अण्णेहि य एवमाइएहिं बहहिं कारणसतेहिं अबुहा इह हिंसंति तसे पाणे इमे य एगिदिए बहवे वराए तसे य अपणे तदस्सिए चेव तणुसरीरे समारंभंति अत्ताणे असरणे अणाहे अबंधवे कम्मनिगलबद्धे अकुसलपरिणाममंदबुद्धिजणदुबिजाणए पुढविमये पुढविसंसिए जलमए जलगए अणलाणितणवणस्सतिगणनिस्सिए य तम्मयतजिते चेव तदाहारे दीप अनुक्रम [७] ~18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- ------------- अध्य यनं [१] ------- ---------- मूलं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र- [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रश्वव्याकर०श्रीअभयदेव. वृत्तिः १आश्रवे वधकवध्यप्रयोजनानि प्रत तष्परिणतवण्णगंधरसफासबोंदिरूवे अचक्खुसे चक्खुसे य तसकाइए असंखे थावरकाए य सुहमवायरपत्तेयसरीरनामसाधारणे अणते हणंति अविजाणओ य परिजाणओ य जीवे इमेहिं विधिहेहिं कारणेहिं, कि ते?, करिसणपोक्खरणीवाविवप्पिणिकृवसरतलागचितिवेतियखातियआरामविहारथूभपागारदारगोउरअट्टालगचरियासेतुसंकमपासायविकप्पभवणधरसरणलेणआवणतियदेवकुलचित्तसभापवाआयतणावसहभूमिघरमंडवाण य कए भायणभंडोवगरणस्त विविहस्स य अाए पुढयिं हिंसंति मंदबुद्धिया जलं च मजणयपाणभोयणवत्थधोवणसोयमादिएहिं पयणपयावणजलावणविदंसणेहि अगणि सुप्पवियणतालयंटपेहुणमुहकरयलसागपत्तवत्थमादिएहिं अणिलं अगारपरिवा[डिया]रभक्खभोयणसयणासणफलकमुसलउखलततषिततातोजवहणवाहणमंडवविविहभवणतोरणाविडंगदेवकुलजालयद्धचंदनिजूगचंदसालियवेतियणिस्सेणिदोणिचंगेरिखीलमेहकसभापवावसहगंधमल्लाणुलेवर्णवरजुयनंगलमइयकुलियसंदणसीयारहसगडजाणजोग्गअट्टालगचरिअदारगोपुरफलिहाजंतसूलियलउडमुसंदिसतग्घिबहुपहरणावरणुवक्खराण कते, अण्णेहि य एवमादिएहिं बहूहि कारणसतेहिं हिंसन्ति ते तरुगणे भणिता एवमादी सत्ते सत्तपरिवजिया उवहणन्ति दढमूढा दारुणमती कोहा माणा माया लोभा हस्सरतीभरती सोय वेदत्थी जीयकामस्थधम्महे सवसा अवसा अट्ठा अणडाए य तसपाणे थावरे य हिंसति हिंसंति मंदबुद्धी सबसा हणंति अवसा हणंति सवसा अवसा दुहओ हणंति अट्ठा हणंति अणड्डा हणंति अट्ठा अणट्टा दुहओ हणंति हस्सा हणंति वेरा दीप अनुक्रम [७] ~19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], -------- ------------- अध्य यनं [१] ------- ---------- मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: EWS24% प्रत हणंति रतीय हणति हस्सवेरारती य हणंति कुद्धा हणंति लुद्धा हणंति मुद्धा हणंति कुद्धा लुद्धा मुद्धा हणति अस्था हर्णति धम्मा हणंति कामा हणंति अत्था धम्मा कामा हणति (सू०३) Bा 'तं चे'त्यादि, यस्य स्वरूपं नामानि चानन्तरमुक्तानि तं प्राणवमित्युत्तरेण पदेन सम्बन्धः, चकारो वि शेषणार्थ: विशेषणं च कर्तृ कारक, पुनःशब्दो भाषामात्रे, कुर्वन्ति-विदधति, केचिदिति-केचिदेव जीयाः न पुनः सर्वे, कीदृशा इत्याह-पापा:-पातकिनः, त एव विभज्यन्ते-असंयता:-असंयमवन्तः अविरता:-न विशे पतो ये तपोऽनुष्ठाने रताः 'अनिहुयपरिणामदुप्पयोगीति अनिभृतः-अनुपशमपरः परिणामो येषां ते तथा, Mदुष्पयोगा:-दुष्टमनोवाकायव्यापारा येषां सन्ति ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, प्राणिवध-प्राणातिपात किंभूतं ?-बहुविध भयङ्करं, पाठान्तरेण भयङ्करं, तथा 'बहुविधा' बहवः प्रकारा यस्य स तथा तं, सप्रभेदभे दयुक्तमित्यर्थः, किंभूतास्ते?-परदुःखोत्पादनप्रसक्ताः, तथा 'इमेहिं' एतेषु प्रत्यक्षेषु सस्थावरेषु जीवेषु प्र-12 ट्रातिनिविष्टा:-तदरक्षणतस्तेषु वस्तुतो द्वेषवन्तः किं तेत्ति कथं तं प्राणवधं कुर्वन्तीत्यर्थः, तथति वा-'पाठीणे'त्यादि, पाठीना-मत्स्यविशेषाः तिमयस्तिमिङ्गलाश्च-महामत्स्या महामत्स्यतमाः अनेकझषा:-विविधमस्याः सूक्ष्ममत्स्यखलमत्स्ययुगमत्स्यादयः विविधजातयो-नानाजातीया मण्डूका द्विविधाः कच्छपा:-मांसकच्छपअस्थिकच्छपभेदात् नका-मत्स्यविशेषा एव 'मकरदुविह'त्ति मकरा-जलचरविशेषाः सुंडामकरमस्यमकरभेदेन द्विभेदा ग्राहा-जलजन्तुविशेषा एव दिलिवेष्टमन्दुकसीमाकारपुलकास्तु ग्राहभेदा एव सुं. दीप %******** अनुक्रम [७] * * ~20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [3] – दीप अनुक्रम [७] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक र० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ॥ ९ ॥ “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] सुमारा-जलचरविशेषाः तत एषां इन्द्रः ततश्च ते च ते बहुप्रकाराचेति कर्म्मधारयोऽतस्तान् प्रन्तीति वक्ष्यमाणेन योग:, इह च द्वितीयाबहुवचनेऽप्येकाराभावइछान्दसत्वात्, 'जलचरविहाणाकए य एवमाइ सि जल| चराणां विधानानि-भेदास्तान्येव विधानकानि तानि कृतानि विहितानि यैस्तथा तान् जलचरविधानककृतांच, इह च कशब्दलोपेन विधानशब्दस्यान्तदीर्घत्वं, एवमादीन् पाठीनादीन, तथा कुरङ्गा-मृगा रुरव:तद्विशेषाः सरभा-महाकाया आटव्यपशुविशेषाः परासरेति पर्याया ये हस्तिनमपि पृष्ठे समारोपयन्ति च मरा - आरण्यगावः संवरा - येषामनेकशाखे शृङ्गे भवतः 'हुम्भे'त्ति उरभ्रा - मेषाः शशाः शशका लोमटकाकृतयः प्रशया- द्विखुरादव्यपशुविशेषा गोणा - गावः रोहिताः- चतुष्पदविशेषाः पाठान्तरेण त एव ह्या अम्बा गजाहस्तिनः खरा-रासभाः करभा-उष्ट्राः खड्गा-येषां पार्श्वयोः पक्षवचर्माणि लम्बन्ते शृङ्गं चैकं शिरसि भवति वानरा-मर्कटाः गवया- गवाकृतयो वर्त्तुलकण्ठाः वृका-ईहामृगपर्यायाः नाखरविशेषाः शृगाला-जम्बुकाः कोला- उंदराकृतयः पाठान्तरेण कोका-नाखरविशेषाः मार्जारा-विराला 'कोलसुणग'सि महासूकरा: अथवा क्रोडा-शूकरा श्वानः- कौलेयकाः श्रीकन्दलका आवर्त्ताश्च एकखुरविशेषाः कोकंतिका| लोमटका ये रात्री को को एवं रवन्ति गोकर्णा- द्विखुरचतुष्पदविशेषा मृगा - सामान्यहरिणाः कुरङ्गादयस्तु प्रागभिहिताः शृङ्गवर्णादिविशेषणास्तद्विशेषाः सामर्थ्यादत्र गम्याः महिषाः प्रतीताः 'विग्धय'त्ति व्याघ्रा - नाखरविशेषाः छगला-अजाः द्वीपिकाः- चित्रकाभिधाना नाखर विशेषाः श्वानः- आटव्या एवं कौलेयकाः Education Internation For Parts Only ~21~ १ आश्रवे वधकवध्यप्रयो जनानि सू० ३ ॥ ९ ॥ jonary org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], --------- ------------- अध्ययनं [१] -------- ---------- मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत तरक्षाः अच्छा भल्लाः शार्दूलाच व्याविशेषाः सिंहा-हरयः चित्तला-नाखरविशेषा एवं पाठान्तरेण चि ला-हरिणाकृतयो द्विखरविशेषास्तत एषां कुरङ्गादीनां द्वन्द्वः, 'चउप्पयविहाणाकए एवमाईत्ति चतुष्प-पद दविधानकानि तजातिविशेषाः कृतानि-विहितानि यैर्व्यक्तिभूतैः कुरङ्गादिभिस्ते तथा, ततः पूर्वपदेन कर्म धारयः, ततस्तांश्च एवमादीन-कुरङ्गादिप्रकारान् , तथा अजगराः-शयुपर्यायाः उर-परिसर्पविशेषाः गोणसादानिष्फणाहिविशेषाः बराहयो-दृष्टिविषायः फणाकरणदक्षाः मुकुलिनो-ये फणा न कुर्वन्ति काकोदरा दर्भपुष्पाश्च दर्वीकरसर्पविशेषाः, आसालिका महोरगाश्वोपरिसर्पविशेषाः, तत्रासालिका यच्छरीरं द्वादशयोजनप्रमाणमुत्कर्षतो भवति, क्षयकाले च महानगरस्कन्धावारादीनामध उत्पद्यते, महोरगास्तु मनुष्यक्षेत्रवहि विनो यच्छरीरं योजनसहस्रप्रमाणमुत्कर्षत आख्यायत इति, तत एतेषां द्वन्द्वः, ततः तेषां उरगविधानकानि कृतानि यैस्ते तथा ततः कर्मधारयः, ततश्च तांश्च एक्मादीनि, तथा क्षीरलाः शरम्बाश्च18 भुजपरिसर्पविशेषाः सेहा:-तीक्ष्णशलाकाकुल शरीराः शल्यका-यचर्मकतेलकैरङ्गरक्षा विधीयते गोधा उन्दुरा नकुलाश्च प्रतीताः शरटा:-कृकलाशा जाहका:-कण्टकावृतशरीराः मुगुंसा:-खाइलिल्लाकृतयः खाडहिला:-कृष्णशुक्लपट्टाङ्कितशरीराः शून्यदेवकुलादिवासिन्यः वातोत्पत्तिका रूल्यावसेया गृहकोकिलिकाःगृहगोधिकाः, एतेषां द्वन्द्वः, तल एते च ते सरिसृपगणाश्चेति कर्मधारयस्ततस्तांश्च एवमादीन-क्षीरलादिप्रकारानित्यर्थः, तथा कादम्बा-हंसविशेषाः बकाच-पकोटका: बलाकाश्च-विसकण्ठिकाः सारसाश्च-दावा KARNAKOKANCE दीप अनुक्रम [७] aurasurare.org ~22 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- ------------- अध्ययनं [१] -------- ---------- मूलं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ध्यप्रयो प्रत प्रश्नव्याक-घाटाः आडासेतीकाश्च कुललाश्च वंजुलाश्च-खदिरचश्चकः पारिवाश्च कीवाश्च शकुनाच पिपीलिकाश्च-पी-1 का आश्रये र० श्रीअ-18 पीतिकारका हंसाच-श्वेतपक्षाः धार्तराष्ट्रकाश्च-कृष्णचरणानना हंसा एव भासाश्च-सकुन्ताः 'कुलीकोस'त्ति विधकवभयदेव कुटीकोशाश्च क्रौञ्चाश्च दकतुण्डाश्च देणिकालकाश्च शुचीसुखाश्च कपिलाश्च पिङ्गलाक्षकाच कारंडकाच चक्रवृत्तिः घाकाश्च-रथाङ्गाः उत्क्रोशाश्व-कुरराः गरुडाच-सुपाः पिगुलाश्च शुकाश्च-कीरा धर्हिणश्च-कलापवन्मयूराः जनानि मदनशालाथ-सारिकाविशेषाः नन्दीमुखाश्च नन्दमानकाश्च कोरंकाश्च भृङ्गारकाश्च भृङ्गारिकाचरसति निशि ॥१०॥ भूमौ घालशरीराः इत्येवलक्षणा: कोणालकाश्च जीवजीवकाच तित्तिराश्च वर्तकाश्च लावकाश कपिञ्जलकाश्च कपोतकाच पारापतकाश्च चिटिकाश्च-कलंबिका डिंकाच कुर्कुटाच-ताम्रचूडाः वेसराश्च मयूरकाश्चकलापवर्जिताः चकोरकाच हदपुण्डरीकाश्च शालकाश्च पाठान्तरेण करकाश्च वीरल्लश्यनाश्च इयेना एवं वायसाश्च-काकविहङ्गा भेनाशितश्च चाषाश्च-किकिदीविनः वल्गुल्यश्च चर्मास्थिलाश्च-चर्मचटका विततपक्षिणश्चमनुष्यक्षेत्रबहिर्वर्तिन इति द्वन्द्वः, तेच ते 'खहचरविहाणाकए यत्ति खचरविधानककृताश्चेति, तथा तांश्च एवमादीन-उक्तप्रकारान्, एतेषु च शब्देषु केचिदप्रतीयमानार्थाः केचिदप्रतीयमानपर्याया नामकोशेऽपि केषा|श्चित्प्रयोगानभिधानाद, आह च-"जीवंजीवकपिञ्जल चकोरहारीतवञ्जुलकपोताः । कारण्डवकादम्बकककुराधाः पक्षिजातयो ज्ञेयाः ॥ १॥” इति, पूर्वोक्तानेव सङ्ग्रहवचनेनाह-जलस्थलखचारिणश्च, चशब्दो जलचरादिसामान्यसमुच्चयार्थः पञ्चेन्द्रियान् पशुगणान् विविधान् 'बियतियचरिंदिय'त्ति द्वे च श्रीणि च चत्वारि दीप अनुक्रम LCSCA [७] * ॥ ~23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [3] – दीप अनुक्रम [७] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं [३] श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः च पञ्च च इन्द्रियाणि येषां ते तथा द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पश्ञ्चेन्द्रियाश्चेत्यर्थः ततस्तान्, वि विधान् कुलभेदेन जीवान-जन्तून् प्रियजीवितान् अभिमतप्राणधारणान् मरणलक्षणस्य दुःखस्य मरणदुःखयोर्वा प्रतिकूलाः प्रतिपन्धिनो ये ते तथा तान् वराकान् तपखिनः किमित्यत आह-मन्ति-विनाशयन्ति, बहुसक्लिष्टकर्माणः सत्त्वा इति गम्यते । एवं तावद्वध्यद्वारेण प्राणवधस्य प्रकार उक्तोऽथ प्रयोजनद्वारेण स उच्यते, एभिः - वक्ष्यमाणैः प्रत्यक्षैर्विविधैः कारणैः प्रयोजनैः, 'किं ते'सि किं तत् प्रयोजनं ?, तयथेति वा, चर्म-त्वक वसा-शारीरः स्नेहविशेषः मांसं पलं मेदो- देहधातुविशेषः शोणितं रक्तं यकृद्-दक्षि णकुक्षौ मांसग्रन्थिः फिल्फिस- उदरमध्यावयवविशेषः मस्तुलिङ्ग-कपाल भेजकं हृदयं हृदयमांसं अं-पुरीतत् पित्तं-दोषविशेषः फोफसं-शरीरावयवविशेषः दन्ता-दशनाः, एतेषां द्वन्द्वः, तत एतेभ्य इदमित्येवं विगृद्यार्थशब्दो योजनीयः, चर्मादिनिमित्तमित्यर्थः तथाऽस्थीनि-कीकशानि मजा- तन्मध्यावयवविशेषः नस्याः- करजाः नयनानि लोचनानि कर्णाः - श्रवणाः 'पहारुणि'त्ति स्नायु: नक्कत्ति - नासिका घमन्यो- नाड्यः शृङ्ग-विषाणं दंष्ट्रा दशनविशेषः पिच्छं-पत्रं विषं कालकूटं विषाणं- हस्तिदन्तः बालाः केशाः एतेषां द्वन्द्वः ततस्त एव हेतुरित्येवं हेतुशब्दो योज्यः, ततः षष्ठ्यर्थे द्वितीया, ततोऽयमर्थः- अस्थिमज्जादिहेतोर्मन्तीति प्र क्रमः, तथा हिंसन्ति च बहुसङ्गक्लिष्टकर्माण इति प्रक्रमः, भ्रमराः पुरुषतया लोकव्यवहता मधुकर्यस्तु स्त्रीत्वव्यवहृतास्तद्गणान् तत्समूहान् रसेषु गृद्धा मधुग्रहणार्थमिति भावः तथैव हिंसन्त्येवेत्यर्थः, श्रीन्द्रियान् For Penal Use On ~ 24~ ansaray or Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------------------- मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत CAMGAON प्रश्नव्याक-1 यूकामत्कुणादीन शरीरोपकरणार्थ-शरीरोपकाराय यूकादिकृतदुःखपरिहारार्थमधवा शरीराय उपकरणाय-|| आनवे र०श्रीअ- उपधये, अयमर्थ:-शरीरसंस्कारप्रवृत्ता उपकरणसाधनसंस्कारप्रवृत्ताश्च विविधचेष्टाभिस्तान प्रन्तीति, किं. वधकबभयदेव. भूतान?-कृपणान-कृपास्पदभूतानिति, तथा द्वीन्द्रियान बहून् 'वत्थोहरपरिमंडणट्ठत्ति वस्त्राणि-चीवराणि ध्यप्रयोवृत्तिः ४'उहर'त्ति उपगृहाणि आश्रयविशेषास्तेषां परिमण्डनार्थ-भूपार्थ, कृमिरागेण हि रज्यमानानि श्रूयन्ते व-|| जनानि स्त्राणि, आश्रयास्तु मण्ड्यन्ते एव शङ्कशुक्तिचूर्णेनेति, अथवा वस्त्रार्थ उपगृहाथ परिमण्डनार्थ चेति, तत्र सू०३ ॥११॥ वस्त्रार्थ पहसूत्रसम्पादने कृमिहिंसा सम्भवति, आश्रया मृत्तिकाजलादिद्रव्येषु पूतरकादिधातो भवति. परिमण्डनार्थ हारादिकरणे शुक्त्यादिद्वीन्द्रियाणामिति, अन्यैश्चैवमादिकैर्वहुभिः कारणशतैरबुधा-बालिशा 'इह हन्ति' इह-जीवलोके हिंसंति-नन्ति असान् प्राणान, तथा इमांश्च प्रत्यक्षान् एकेन्द्रियानपृथिवीकालिकादीन् वराका:-तपखिनः समारम्भन्त इति योगा, न केवलमेकेन्द्रियानेव प्रसाश्चान्यास्तदा-| |श्रितांश्चैव, किंभूतान् ?-तनुशरीरान् अत्राणान् अनर्थप्रतिघातकाभावात् अशरणान् अर्थप्रापकाभावात् अत एव अनाथान् योगक्षेमकारिनायकाभावात् अबान्धवान् खजनसम्पाद्यकार्याभावात् कर्मनिगडबद्धानिति व्यक्तं, तथा अकुशलपरिणामोदयावर्जितत्वेन मन्दबुद्धिश्च मिथ्यात्योदयाद् यो जनो-लोकस्तेन दुर्विज्ञेया | ये ते तथा तान्, पृथिव्या विकारा पृथ्वीमयास्तान पृथ्वीमयान् पृथ्वीकापिकानित्यर्थः, तथा पृथिवीसंसृतान् ॥११ अलसादिवसान, एवं जलमयान्-अप्कायिकान् जलगतान् पूतरकादिवसान् सैवलादिवनस्पतिकायिकांश्च दीप अनुक्रम CA [७] hinarana ~25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], --------- ------------- अध्ययनं [१] -------- ---------- मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत अनल:-तेजस्कायः अनिलो-वायुकायस्तृणवनस्पतिगणो-वादरवनस्पतीनां समुदाय एतन्निमृतांश्च-एतदुप-14 जीवकांश्च सानिति हृदयं 'तम्मयतजिय'त्ति तेषामनलानिलतृणवनस्पतिगणानां विकारास्तन्मया अनलकायिकादय एव तथा तेषामेव-अनलादीनां जीवास्तजीवाः तद्योनिकानसा इत्यर्थः, तन्मयाश्च तज्जीवाश्रेति तन्मयतज्जीवास्तश्चैिव, पाठान्तरेण तन्मयजीवाश्चेति, किंभूतांस्तान् ?-'तदाहारे'त्ति ते-पृथिव्यादय आ-14 धारो येषां ते तदाधारास्तानेव चा पृथिव्यादीनाहारयन्तीति तदाहारास्तान, तेषामेव पृथिव्यादीनां परिणता वर्णगन्धरसस्पर्शी बोन्दि:-शरीरं सैव रूपं-स्वभावो येषां ते तथा तान् , अचाक्षुषान्-न चक्षुषा दृश्यांश्चाक्षु-I षांश्च-चक्षुाह्यान, कानेवंविधानित्याह-त्रसकाया-वसनामकम्मोदयवर्तिजीवराशिस्तत्र भवास्त्रसकायिकाः । तान्, कियत इत्याह-असङ्ख्यातान् , तथा स्थावरकायांश्च-सूक्ष्माश्च बादराश्च तत्तन्नामकम्मोदयवर्तिनः, प्रत्येकशरीरमिति नामकर्मविशेषो येषां ते प्रत्येकशरीरनामानस्ते च साधारणाश्व-साधारणशरीरनामकर्मोदयवर्तिन इति द्वन्द्वोऽतस्तान्, कियतः?-अनन्तान् साधारणानेव, शेषस्थावराणामसंख्येयत्वात्, जीवानिति योगा, किमिति इत्याह-प्रन्ति, किम्भूतान ?-अविजानतश्च खवधं, परिजानतश्च-सुखदुःखैरनुभवतः एकेन्द्रियान, अधवा खवधमजानतः एकेन्द्रियान् तमेव परिजानतस्त्रसानिति जीवान-जन्तून् एभिर्विविधैः कारणैः-प्रयोजनैः किं तेत्ति किं तत् तद्यथेति वा, कर्षणं कृषिः पुष्करिणी-पुष्करवती चतुष्कोणा वा वापी|निष्पुष्करा वृत्ता वा 'वप्पिण'शि केदाराः कृपसरस्तडागाः प्रतीताः चिति:-मित्यादेश्चयनं मृतकदहनार्थे। दीप अनुक्रम [७] ~264 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) उपस प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [७] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक र० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ १२ ॥ | दारुविन्यासो वा वेदिः - वितर्दिका खातिका परिखा आरामो-वाटिका विहारो बौद्धायाश्रयः स्तूपः चितिविशेषः प्राकारः-शाल: बारं प्रतीतं गोपुरं प्रतोली कपाट इत्यन्ये अहालकः - प्राकारो परिवर्त्त्याश्रयविशेषः | चरिका नगरप्राकारयोरन्तरेऽष्टहस्तप्रमाणो मार्गः सेतुः मार्गविशेषः पालिर्वा सङ्कमो विषमोत्तरणमार्गः ७. प्रासादो- नरेन्द्राश्रयः विकल्पाः तद्भेदा भवनानि चतुःशालादीनि गृहाणि- सामान्यानि शरणानि तृण* मयानि लयनानि पर्वतनिकुट्टितगृहाणि आपणा - हद्दाः चैत्यानि - प्रतिमाः देवकुलानि सशिखरदेवप्रासादाः ४ चित्रसभाः चित्रकर्मवन्मण्डपाः प्रपा- जलदानस्थानं आयतनं देवायतनं आवसथः परिव्राजकाश्रयः भूमिगृहं प्रतीतं मण्डपः-छायाद्यर्थः पटादिमय आश्रयविशेषः एतेषां द्वन्द्वस्तत एतेषां कृते निमित्ते पृथिवीं हिंसंति इति सम्बन्धः, भाजनानि अमत्राणि सौवर्णादीनि भाण्डानि तान्येव मुन्मयानि ऋयाणकानि वा | लवणादीनि उपकरणानि उदूखलादीनि एषां समाहारद्वन्द्वः ततस्तस्य विविधस्य चार्थाय हेतवे पृथिवीं पृ थ्वीकायिकान् हिंसन्ति मन्दबुद्धिकाः, तथा जलं च-अपकाधिकांश्च हिंसंतीति वर्त्तते, मज्जनकं स्नानं पानं भोजनं च प्रतीतं वस्त्रघावनं वासः क्षालनं शौचः- आचमनमेतदादिभिः कारणैरिति प्रक्रमः, तथा पचनं पाचनं च ओदनादेः जलावणन्ति-खतः परतो वाऽग्नेरुद्दीपनं विदर्शनं- अन्धकारस्थवस्तुप्रकाशनं एतैः कारणैः चः समुचये अग्निं हिंसंति, तथा सूर्य प्रतीतं व्यञ्जनं-वायूदीरकं तालवृन्तं तदेव द्विपुटादि 'पेहुणं'ति मयूराङ्ग मुखं- आस्यं करतल - हस्तः सर्गपत्रं - वृक्षविशेषपर्ण वस्त्रं प्रतीतं एतदादिभिर्वातोदीरणवस्तुभिरनिलं-वायुं For Parts Only ~27~ १ आश्रवे वधकत्र ध्यप्रयोजनानि सू० ३ ॥ १२ ॥ Mor Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], --------- ------------- अध्य यनं [१] ------- ---------- मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत हिंसन्तीति, तथा अगारं-गेहं 'परियारोत्ति परिचारो-वृत्तिः खड्गादिकोशो वा भक्ष्याणि-मोदकादीनि खरविशदमभ्यवहार्य भक्ष्य मिति वचनात् भोजनानि-ओदनादीनि शयनानि शय्याः आसनानि-विष्टराणि फलकानि-अवष्टम्भनयूतादिनिमित्तानि मुशलान्यदखलाश्च प्रसिद्धाः ततानि-वीणादीनि विततानि। -पटहादीन्यातोद्यानि-वाद्यानि वहनानि-यानपात्राणि वाहनानि-शकटादीनि मण्डपाः प्रतीता: विविधभवनानि-चतुःशालादीनि तोरणानि प्रतीतानि विटङ्कः-कपोतपाली देवकुलं प्रतीतं जालक-छिद्रान्वितो, गृहावयवविशेषः अर्द्धचन्द्रः-सोपानविशेषः निर्वृहक-द्वारोपरितनपार्श्वविनिर्गतदारु चन्द्रशालिका-प्रासादो-12 परितनशाला वेदिका-वितर्दिका निःश्रेणिः-अवतरणी द्रोणी-नौः चङ्गेरी-महती काष्टपात्री बृहत्पद्वलिका वा कीला:-शङ्कावः मेठका:-मुण्डकाः सभा-आस्थायिका प्रपा-जलदानमण्डप आवसथ:-परिव्राजकाश्रयः गन्धा:-चूर्णविशेषाः माल्य-कुसुममनुलेपनं-विलेपनं अम्बराणि-वस्त्राणि यूपो-युगं लागलं-शीरं 'मतिय'ति मतिकं येन कृष्ट्वा क्षेत्रं मृद्यते कुलिक-हलप्रकारः स्यन्दनो-रथविशेषों, यतो द्विविधो रथ:साङ्ग्रामिको देवयानरपश्च, तत्र साङ्ग्रामिकस्य कटीप्रमाणा बेदिका भवति, शिविका-पुरुषसहस्रबाहनीयः |कुटाकारशिखराच्छादितो जम्पानविशेषः रथ:-प्रसिद्धः शकट-गन्त्री यानं-तद्विशेषः युग्यं-गोल्लदेशप्रसिद्धो अद्विहस्तप्रमाणो वेविकोपशोभितो जम्पानविशेष एवं अहालक:-पाकारोपरिवर्सी आश्रयविशेषः चरिकानगरप्राकारान्तरालेऽष्टहस्तप्रमाणो मार्गः द्वारं-प्रतीतं गोपुरं-पुरद्वारं परिधा-अर्गला यत्राणि-अरघट्टादि SEARCHANA दीप अनुक्रम [७] प्र.व्या.३ REaradhana Insuranorm ~28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- ------------- अध्य यनं [१] ------- ---------- मूलं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रभव्याकर०श्रीअभयदेव प्रत दृत्तिः [३]] यत्राणि शूलिका-वध्यप्रोतनकाष्ठं पाठान्तरे शूलक:-कीलकविशेषः 'लउड'त्ति लकुटः मुशुण्डिः -प्रहरण- १ अधर्मविशेषः शतघ्नी-महती यष्टिः बहुनि च प्रहरणानि-करवालादीनि आवरणानि-स्फुरकादीनि उपकरश्च- द्वारे गृहोपकरणं मश्चकादि, तत एतेषां द्वन्द्वः, ततश्चैतेषां कृते-अर्थाय अन्यैश्च एवमादिभिर्बहुभिः कारणशतहिंसन्ति तरुगणानिति, तथा भणिताऽभणितांश्चैवमादिकान्-एवंप्रकारान् सत्त्वान् सत्वपरिवर्जितान् उप-11 कारकाः प्रन्ति दृढाश्च मूढाश्च ते दारुणमतयति तथाविधक्रोधान्मानात् मायाया लोभात् हास्यरत्यरतिशोकात्, इहा। प्रेत्यतदपञ्चमीलोपो दृश्यः, वेदार्थाश्च-वेदार्थमनुष्ठानं जीवश्च-जीवितं जीतं वा-कल्पता, धर्मश्चार्यश्च कामश्चेत्ये- वस्थाश्च तेषां हेतोः-कारणात् स्ववशा-खतना अवशा:-तदितरे अर्थाय अनर्थाय च त्रसप्राणांश्च स्थावरांश्च सू०४ हिंसन्ति मन्दबुद्धयः, एतदेव प्रपश्चत आह-खवशा नन्ति अवशा नन्ति ववशा अवशाश्चेत्येवं 'दुहत्ति | द्विधा प्रन्ति, एवं अर्धायेत्यादि आलापकत्रयं, एवं हास्यवररतिभिरालापकचतुष्टयं, एवं कुडलुब्धमुग्धाः अर्थधर्मकामाश्चेति ॥ तदेवं यथा च कृत इति प्रतिपादितमधुना 'फलप्रधानाः क्रिया' इति न्यायात् फलद्वारं द्वारगाथायाः कर्तृद्धारात्मागुपन्यस्तमप्युल्लय 'कर्बधीना क्रियेति न्यायात्कर्तुः प्रधानतया अल्पवक्तव्यत्वाद्वा येऽपि च कुर्वन्ति पापाः प्राणिवधमित्येतदाह कयरे ते?,जे ते सोयरिया मच्छवंधा साउणिया वाहा कूरकम्मा वाउरिया दीवितबंधणप्पओगतप्पगलजालबीरलंगायसीदग्भवग्गुराकूडछेलिहत्था हरिएसा साउणिया य वीदंसगपासहत्था वणचरगा लुद्धयमहुघातपोतघाया दीप अनुक्रम [७] . JAREmirate ~29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------ अध्ययनं [१] --------------------- मूलं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत एणीयारा पएणियारा सरदहदीहिअतलागपल्ललपरिगालणमलणसोत्तबंधणसलिलासयसोसगा विसगरस्स य दायगा उत्तणवालरदवग्गिणियपलीवका कूरकम्मकारी इमे य बहवे मिलक्खुजाती, के ते?, सकजवणसबरवपरगायमुरुंडोदभडगतित्तियपक्कणियकुलक्खगोडसीहलपारसकोंचंधदविलबिललपुलिंदअरोसडोवपोकणगंधहारगबहलीयजलरोममासबउसमलया चुंचुया य चूलिया कोंकणगा मेतपण्हवमालवमहराभासियाअणकचीणल्हासियखसखासिया नेहुरमरहमुट्ठिअआरबडोबिलगकुहणकेकयहूणरोमगरुरुमरुगा चिलायविसयवासी य पावमतिणो जलयरथलयरसणप्फतोरगखहचरसंडासतोंडजीवोवग्धायजीवी सण्णी य असणिणो य पजत्ता असुभलेस्सपरिणामा एते अण्णे य एवमादी करेंति पाणातिवायकरणं पाया पावाभिगमा पावरुई पाणवहकयरती पाणवहरूवाणुढाणा पाणवहकहासु अभिरमंता तुहा पावं करेतु होति य बहुप्पगारं । तस्स य पावरस फलविवागं अयाणमाणा वटुंति महब्भयं अविस्सामवेयर्ण दीहकालबहुदुक्खसंकडं नरयतिरिक्खजोणिं, इओ आउक्खए चुया असुभकम्मबहुला उववर्जति नरएसु हुलितं महालएसु वयरामयकुडरुद्दनिस्संधिदारविरहियनिम्मद्दवभूमितलखरामरिसविसमणिरयघरचारएK महोसिणसयापतत्तदुग्गंधविस्सउब्वेयजणगेसु बीभच्छदरिसणिज्जेसु निच्च हिमपडलसीयलेसु कालोभासेसु य भीमगंभीरलोमहरिसणेसु णिरभिरामेसु निप्पडियारवाहिरोगजरापीलिएसु अतीवनिच्चंधकारतिमिस्सेसु पतिभएसुववगयगहचंदसूरणक्खत्तजोइसेसु मेयवसामंसपडलपोच्चडपूयरुहिरुक्किण्णविलीणचिक्कणरसियावावण्ण दीप अनुक्रम KIEngtaram.org ~30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) **=*= प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [८] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [४ ...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक २० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ १४ ॥ “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] कुहियचिक्कद्दमेसु कुकूलानलपलित्त जालमुम्मुर असिक्खुरकर व त्तधारामुनिसि तविच्छु डंक निवातोवम्मफरिस अतिदुस्सहेमु य अत्ताणासरण कडुयदुक्ख परितावणेसु अणुबद्धनिरंतरवेयणेसु जमपुरिससंकुलेसु, तत्थ य अम्तोमुहुत्तलद्धिभवपञ्चएणं निव्वर्त्तेति उ ते सरीरं हुंडं बीभच्छदरिसणिजं बीहणगं अट्ठिण्हारुहमवज्जियं असुभदुक्खविसहं, ततो य पज्जत्तिमुवगया इंदिएहिं पंचहिं वेदेति असुभाए वेयणाए उज्जलबलविउलउक्कडक्खरफरुसपयंडघोरवीहणगदारुणाए, किं ते?, कंदुमहाकुंभियपयण पडलणतवगतलणभङ्कभजणाणि य लोहकडाहुकहुणाणि य कोट्टबलिकरणकोट्टणाणि य सामलितिक्खग्गलोहकंटक अभिसरणपसारणाणि फाउणविदालणाणि य अवकोडकबंधणाणि लडिसयतालणाणि य गलगबलुतंवणाणि सूलग्गाभेयाणि य आएसपर्वचणाणि खिंसणविमाणणाणि विघुट्टपणिजणाणि वन्झसयमातिकाति य एवं ते ॥ 'कपरेत्यादि, तत्र कतरे कृष्यादिकारणैः प्राणिनो प्रन्तीति प्रश्नः, उत्तरमाह - 'जे ते सोयरिए'त्यादि, तत्र शूकरे:- मृगयां कुर्वन्ति ये ते शौकरिकाः मत्स्यबन्धाः प्रतीताः शकुनान् प्रन्तीति शाकुनिकाः व्याधा| लुब्धकविशेषाः क्रूरकर्माण इत्येतेषामेव खरूपाभिधायकं विशेषणं, 'बागुरिय'ति कचित्पाठः, तत्र वागुरया मृगबन्धनविशेषेण चरन्तीति वागुरिका इति, तथा द्वीपिकश्च -चित्रको मृगमारणाय बन्धनप्रयोगश्चबन्धोपायः तमश्च-तरकाण्डविशेषो मत्स्यग्रहणार्थं जलावतारणाय गलं च-वडिशं जालं च मत्स्यबन्धनं वीरलकश्च श्येनाभिधानः शाकुनिः शकुनिविनाशाय आयसी-लोहमयी दर्भमयी च या वागुरा-मृगबन्धनवि Eaton Intentational For Penal Use On ~31~ १ अधर्म द्वारे प्राणवधकारकाः प्रेत्यतदवस्थाश्च सू० ४ ॥ १४ ॥ www.landbrary or Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------------------- मूलं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत शेषः सा च कूटेन या स्थाप्यते चित्रकादिग्रहणार्थ छेलिका-अजा सा कूटच्छेलिका सा च, अथवा कूटमृगादिग्रहणयनं छेलिका चेति द्वन्दूस्ता हस्ते येषां ते तथा, 'दीविय'त्ति कचित्पाठस्तत्र द्वीपिकेन-चित्रकेण| चरन्तीति द्वीपिका इति तत उत्तरपदेन द्वन्द्वः, अयमालापकः कचित्कथञ्चिदू दृश्यते, नवरं गमकपक्षमाश्रित्य व्याख्यातः, हरिकेशा:-चाण्डालविशेषाः कुणिकाच-सेवकविशेषाः कचित् 'साउणिय'त्ति पाठः तत्र शकुनेन चरन्ति शाकुनिका इति, 'विदंसगाः विदंशंतीति विदंशकाः-श्येनादयः पाशाश्च-शकुनिबन्धनविशेषा हस्ते येषां ते तथा, वनचरका:-सबराः लुब्धकाश्व-व्याधा मधुघाताः पोतघाताः मधुग्राहकाः शावघातकाश्चेत्यर्थः, एणीयारत्ति एणी-हरिणी मृगग्रहणार्थ चारयन्ति-पोषयन्ति येते तथा 'पएणियार'त्ति प्रकृष्टाः एणीचाराः प्रेणीचाराः सरो-जलाशयविशेषः हृदो-नदः दीर्घिका-सारिणी तडाग-प्रतीतं पल्वलं-नडुलमित्येतान् परिगालनेन च-शुक्तिशङ्खमत्स्यादिग्रहणार्थ जलनिःसारणेन मलनेन-मर्दनेन श्रोतोबन्धनेन च-जलप्रवेशवारणेन सलिलाश्रयान् परिशोषयन्ति येते तथा, तथा विषस्य-कालकूटस्य गरलस्य च-द्रव्यसंयोगविषस्य दायका-दातारो ये ते तथा, उत्तृणानां-उद्गततृणानां वल्लराणां-क्षेत्राणां दवाग्निना-वन्यज्वलनेन निर्दयं-यथा भवतीत्येवं 'पलीवत्ति प्रदीपका ये ते तथा, क्रूरकर्मकारिण इमे ये बहवो 'मिलक्खुया' इति म्लेच्छजातीयाः के तेत्ति तद्यथा-शका यवना शबरा वर्वराः कायाः मुरुंडाः उदा भडकाः तित्तिकाः पक्कणिकाः कुलाक्षा: गौडाः सिंहलाः पारसाः क्रोश्चाः अन्धा द्राविडाः विल्वला: पुलिन्द्राः अरोषाः डोंबाः पोकणा:गन्धहारकाः बहलीकाः दीप अनुक्रम REnada murary.org ~32~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [८] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] • मूलं [ ४...] श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः वृत्तिः ॥ १५ ॥ प्रश्नव्याक- जल्लाः रोमा माषाः वकुशा मलयाश्च चुचुकाश्च चूलिकाः कोंकणकाः मेदा: पहवाः मालवाः महुराः आभार० श्रीअ- 5 षिका अणक्काः चीनाः लहासिकाः खसाः खासिका नेहरा 'मरहट्ठत्ति महाराष्ट्राः पाठान्तरेण मूढाः मौष्टिकाः भयदेव० आरवाः डोबिलकाः कुहणाः केकया हूणाः रोमकाः रुरवो मरुका इति एतानि च प्रायो लुप्तप्रथमाबहुवचनानि पदानि, तथा चिलातविषयवासिनःश्च म्लेच्छ देशनिवासिनः, एते च पापमतयः, तथा जलचराश्च ॐ स्थलचराश्च 'सणहपय'त्ति सनखपदाच सिंहादयः उरगाव- सर्पाः 'खयरसंडासतुंड ति खचराः संदसतुण्डाश्च- संदेसकाकारमुपक्षिण इति द्वन्द्वः, ते च ते जीवोपघातजीविनश्चेति कर्मधारयः, कथंभूता:* संज्ञिनश्वासंज्ञिनश्च पर्याप्ताः अशुभलेश्यापरिणामाः, एते चान्ये चैवमादयः कुर्वन्ति प्राणातिपातकरणंप्राणिवधानुष्ठानं पापा:- पापानुष्ठायिनः पापाभिगमाः - पापमेवोपादेयमित्यभिगमाः पापरुचयः पापमेवोपादेयमिति श्रद्धानाः प्राणवधकृतरतिकाः प्राणवधरूपानुष्ठानाः प्राणिवधकथाखभिरमन्तः 'तुट्टा पाव करेत्तु होति य बहुष्पगारैति पापं प्राणवधरूपं कृत्वा बहुप्रकारं तुष्टाश्च भवन्ति, ये ते कुर्वन्ति प्राणिवधमिति प्रकृतं । तदियता ये प्राणवधं कुर्वन्ति ते प्रतिपादिताः, इदानीं यादृशं फलं ददाति प्राणवध एतदुच्यते, 'तस्से'त्यादि, तस्य च पापस्य प्राणवधरूपस्य 'फलविपाक' फलमिव - वृक्षसाध्यमिव विपाकः - कर्म्मणामुदयः फलविपाकः ४ तं फलविपाकं 'अयाणमाण'त्ति अजानानाः बर्द्धयंति-वृद्धिं नयंति नरकतिर्यग्योनिमिति योगः, तदृद्धिश्व | पुनः पुनस्तत्रोत्पादहेतुकर्मबन्धनात्, किंभूतां तां?, महद्भयं यस्यां सा महाभया तां महाभयां अविश्रामवेदनां ।। १५ ।। For Parts Only १ अधर्म द्वारे प्राणवध ~33~ कारकाः प्रेत्यतदचरथाश्व सू० ४ nary org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------------------- मूलं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत विश्रान्तिरहितासातवेदना दीर्घकालं यावद्वहुभिर्दुःखैः शारीरमानसर्या संकटा-सङ्खला सा दीर्घकालबहुदुःखसङ्कटा तां, नरकेषु तिर्यक्षु च या योनिरुत्पत्तिहेतुत्वात् सा नरकतिर्यग्योनिस्तां, ततश्च इतो-मनुष्यजन्मनः सकाशादायुःक्षये-मरणे सति च्युतास्सन्तः, 'तस्से' त्यादि च सूत्रं कचिदेव दृश्यते, अशुभकर्मबहुला:-कलुपकर्मप्रचराः उपपद्यन्ते-जायंते नरकेपु 'हुलिय'ति शीघ्रं महालयेषु-क्षेत्रस्थितिभ्यां महत्सु, कथंभूतेषु?-वज्र-18 मयकुड्या रुन्दा-विस्तीर्णा निःसन्धयो-निर्विवरा द्वारविरहिता-अद्वारा निम्मादेवभूमितलाश्च-कर्कशभूमयः ये नरकास्ते तथा खरामर्शा:-कर्कशस्पशाः विषमा-निनोन्नता निरयगृहसम्बन्धिनो ये चारका:-कुड्यकुटा नारकोत्पत्तिस्थानभूता येषु नरकेषु ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयोऽतस्तेषु, तथा महोष्णा:-अत्युष्णा:सदाप्रतप्तानित्यतप्ता दुर्गन्धा-अशुभगन्धा विश्रा-आमगन्धयः कुथिता इत्यर्थः, उद्विज्यते-उद्विग्नैर्भूयते येभ्यस्ते उद्वेगजनकास्ते च ते तथा तेषु, तथा बीभत्सदर्शनीयेषु-विरूपेषु नित्यं-सदा हिमपटलमिव-हिमवृन्दमिव शीतला ये ते तथा तेषु च, कालोऽवभासा-प्रभा येषां ते कालावभासास्तेषु च, भीमगम्भीराश्च ते अत एव लोमहर्षणाश्चरोमहर्षकारिणो भीमगम्भीरलोमहर्षणास्तेषु, निरभिरामेषु-अरमणीयेषु निष्प्रतीकारा-अचिकित्स्या ये व्याधयः- कुष्टायाः ज्वरा:-प्रतीताः रोगाश्च-सद्योघातिनो ज्वरशूलादयः तैः पीडिता येते तथा तेषु, इदं च | नारकधर्मांध्यारोपान्नरकाणां विशेषणमुक्तं, अतीव-प्रकृष्टं नित्यं-शाश्वतमन्धकारं येषु ते तथा तिमिस्से-13 व-तमिस्रगुहेव येऽन्धकारप्रकर्षास्ते अतीवनित्यान्धकारतमिस्राः अथवा अतीव नित्यान्धकारेण तिमिस्रव च दीप अनुक्रम MERana insurary.orm ~34~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------------------- मूलं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रश्नच्या- र० श्रीअभयदेव० वृत्तिः प्रत प्रेत्यतद येते तथा तेषु, अत एव प्रतिभयेषु-वस्तु २ प्रति भयं येषु ते तथा तेषु, व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योति- १ अधर्म केषु, इह ज्योतिष्कशब्देन तारका गृह्यन्ते, मेदश्च-शारीरधातुविशेषः वसा च-शारीर लेहः मांसं च-पि- XI द्वारे शितं तेषां यत्पटलं-वृन्दं 'पोचति अतिनिविडं च, पूयरुधिराभ्यां-पक्वरक्तशोणिताभ्यां उक्किपणन्ति- प्राणवधउत्कीर्ण मिश्रितं विलीनं-जुगुप्सितं चिक्कण-आश्लेषवत्र रसिकया-शारीररसविशेषेण व्यापन्नं-विनष्टखरूप-II |कारकाः मत एव कुथितं-कोथवत् तदेव चिक्खल्लं-प्रबलकईमः कर्दमश्च तदितरो येषु ते तथा तेषु, कुकूलानलश्च-कारीषाग्निः प्रदीसज्वाला च मुमुरश्च-भस्माग्निः असिक्षुरकरपत्राणां धारा च सुनिशितो वृश्चिकडकस्य-तत्पु- वस्थाश्च च्छकण्टकस्य च निपात इति द्वन्द्वः एभिः औपम्यं-उपमा यस्य स तथा, तथाविधः स्पोऽतिदुस्सहो येषां ते सू०४ तथा तेषु, अत्राणा-अनर्थप्रतिघातकवर्जिता अशरणाश्च-अर्थप्रापकवर्जिता जीवाः कटुकदुःखै:-दारुणैर्दुःखैः |परिताप्यन्ते येषु ते अत्राणाशरणकटुकदुःखपरितापनास्तेषु अनुवनिरन्तरा:-अत्यन्तनिरन्तरा वेदना येषु ते तथा तेषु, यमस्य-दक्षिणदिकपालस्य पुरुषा-अम्बादयोऽसुरविशेषा यमपुरुषास्तैः सङ्खला येते तथा तेषु, तत्र च-उत्पत्ती सत्यामन्तर्मुहर्त्तश्च-कालमानविशेषः लब्धिश्च-वैक्रियलब्धिर्भवप्रत्ययश्च-भवलक्षणो हेतुरन्तर्मुहर्तलन्धिभवप्रत्ययं तेन निर्वर्त्तयन्ति-कुर्वन्ति पुनस्ते-पापाः शरीरं, किंभूतं?-हुण्डं-सर्वत्रासंस्थितं बीभत्सं दुर्दशनीयं-दुईर्शनं 'बीहणगति भयजनकं अस्थिस्नायुनखरोमवर्जितं, अशुभगन्धं च तद्दुःखविषहं चेत्यशुभगन्धदुःखविषहं, पाठान्तरेणाशुभं दुःखविषहं च यत्तत्तथा, ततः-शरीरनिर्वसनानन्तरं पर्याप्ति-इन्द्रियपर्याप्ति दीप अनुक्रम 2-64-964-64 REmain ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------------------- मूलं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत RECOGRESEARock मानप्राणपर्याप्ति भाषामनःपर्याप्ति चोपगताः-प्राप्ता इन्द्रियैः पञ्चभिर्वेदयन्ति-अनुभवन्ति,कं ?-दुःखं, महाकुम्भीपचनादीनि दुःखकारणानीति योगः, कया कलितानि?-अशुभया वेदनया दुःखरूपयेत्यर्थः, किंभूतयेत्याह-उज्जले'त्यादि तत्रोज्वला-विपक्षलेशेनाप्यकलङ्किता बला-बलवती निवर्तयितुमशक्या विपुलासर्वशरीरावयवव्यापिनी पाठान्तरेण तिउलत्ति-त्रीन-मनोवाकायांस्तुलयति-अभिभवति या सा बितुला उत्कटा-प्रकर्षपर्यन्तवर्तिनी खरं-अमृदुशिलावत् यद्रव्यं तत्सम्पातजनिता खरा परुषं-कर्कशं कूष्माण्डीदल& मिव यद् द्रव्यं तत्सम्पातसम्भवा परुषा प्रचण्डा-शीघ्रं शरीरव्यापिका प्रचण्डपरिवर्तितत्वाद्वा प्रचण्डा घोरा-भगिति जीवितक्षयकारिणी औदारिकवतां, परिजीवितानपेक्षा वा ये ते घोरास्तत्प्रवर्तितत्त्वात् घोरा इति, 'बीहणगत्ति भयोत्पादिका, किमुक्तं भवति?-दारुणा, तत एतेषां कर्मधारयोऽतस्तया वेदयन्तीति प्रकृतं, 'कि तेत्ति तयथा-कंदुः-लोही महाकुम्भी-महत्यूखा तयोः पचनं च भक्तस्येव 'पउलणं'ति पचनविशेभाषश्च पृथुकस्येव तवर्ग-तापिका तलनं च सुकुमारिकादेरिव भ्राष्ट्र-अंबरीषे भर्जनं च-पाकविशेषकरणं चण कादेरिवेति द्वन्द्वोऽतस्तानि च लोहकटाहोत्काथनानि च इक्षुरसस्येव 'कोह'त्ति-क्रीडा तेन बलिकरणं-चण्डिकादेः पुरतो वस्तादेरिव उपहारविधानं, पाठान्तरे कोड़ा कोहकिरिया दुर्गा तस्यै च, कोहाय वा-प्राकाराय बलिकरणं तच्च कुट्टनं च-कुटिलवकरणं वैकल्यकरणं वा कुट्टेन वा चूर्णनं तानि च शाल्मल्या-वृक्षविशेषस्य तीक्ष्णाग्रा ये लोहकण्टका इव लोहकण्टकास्तेष्वभिसरणं च-आपेक्षिकमभिमुखागमनमपसरणं च-निवर्तनं दीप अनुक्रम ~360 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------------------- मूलं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: द्वारे प्रत वृत्तिः ४] सू०४ प्रश्नब्याक-1४ शाल्मलीतीक्ष्णाग्रलोहकण्टकाभिसरणापसरणे स्फाटनं च-सहारणं विदारणं च-विविधप्रकारैरिति, ते चा अधर्मर० श्रीअ-पाते अवकोटकबन्धनानि-बाहुशिरसां पृष्ठदेशे बन्धनानि यष्टिशतताडनानि च प्रतीतानि गलके-कण्ठे वभयदेव लात्-हठात् यान्युल्लम्बनानि-वृक्षशाखादावुद्धन्धनानि तानि गलकवलोल्लम्बनानि, शूलाग्रभेदनानि च प्राणवध व्यक्तानि, आदेशप्रपश्चनानि-असत्यार्थादेशतो विप्रतारणानि, 'खिंसनविमाननानि वातत्र खिंसनानि-नि-1 कारकाः न्दनानि विमाननानि-अपमानजननानि 'विघुट्टपणिजणाणि ति विघुष्टानां-एते पापाः प्रामुवन्ति स्वकृतंट प्रेत्यतदपापफलमित्यादिवाग्भिः संशब्दितानां प्रणयनानि-वध्यभूमिप्रापणानि विघुष्टप्रणयनानि वध्यशतानि व्य- वस्थाश्च तानि तान्येव माता-उत्पत्तिभूमियेषां तानि बध्यशतमातृकाणि वध्याश्रितदुःखानीत्यर्थस्तानि च एवमि-18 त्युक्तक्रमेण ते-पापकर्मकारिण इत्यनेन सम्बन्धः। पुबकम्मकयसंचयोवतत्ता निरयग्गिमहग्गिसंपलित्ता गाढदक्खं महब्भयं ककसं असायं सारीरं मानसं च तिब्वं दुविहं वेदेति वेवणं पावकम्मकारी बहणि पलिओवमसागरोबमाणि कलुणं पालेन्ति ते अहाउयं जमकातियतासिता य सदं करेंति भीया, किं ते?, अविभायसामिभायबप्पतायजितर्व मुय मे मरामि दुब्बलो वाहिपीलिओऽहं कि दाणिऽसि ? एवंदारुणो णिय मा देहि मे पहारे उस्सासेतं (एय) मुहत्तयं मे देहि पसायं करेहि मा रुस वीसमामि गेविज मुयह मे मरामि, गाढं तण्हातिओ अहं देह पाणीयं हंता पिय इमं जलं १७॥ विमलं सीयलंति घेत्तूण य नरयपाला तवियं तउयं से देंति कलसेण अंजलीसु दहण य ते पवेवियंगोबंगा दीप अनुक्रम वाख REaratana chunmuranorm ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: २. C प्रत असुपगलंतपप्पुयच्छा छिण्णा तण्हाइयम्ह कलुणाणि जपमाणा विष्पेक्खन्ता दिसोदिसिं अत्ताणा असरणा अणाहा अबंधवा बंधुविष्पहूणा विपलायति य मिगा इव वेगेण भयुब्धिग्गा, घेत्तूण बला पलायमाणाणं निरणुकंपा मुहं विहाडेत्तुं लोहडंडे हिं कलकलं ण्हं वयणंसि छुभंति केइ जमकाइया हसंता, तेण दहा संतो रसंति य भीमाई विस्सराई रुवंति य कलुणगाई पारेवतगाव एवं पलवितविलावकलुणाकंदियबहुरुन्नरुवियसद्दो परिवेवितरुद्धबद्धयनारकारवसंकुलो णीसहो रसियभणियकुविउकइयनिरयपालतजिय गेहकम पहर छिंद भिंद उप्पाडेहुक्खणाहि कत्ताहि विकत्ताहि य भुजो हण विहण विच्छुभोच्छुम्भ आकड विकह कि ण जंपसि? सराहि पावकम्माई दुक्कयाई एवं वयणमहप्पगन्भो पडिसुयासहसंकुलो तासओ सया निरयगोयराण महाणगरडज्झमाणसरिसो निग्योसो सुच्चए अणिट्ठो तहियं नेरइयाणं जाइज्जताणं जायणाहिं, किं ते?, असिवणदब्भवणर्जतपत्थरसूइतलक्खारवाविकलकलंन्तवेयरणिकलंबवालुयाजलियगुहनिरंभण उसिणोसिणकंटइल्लदुग्गमरहजोयणतत्तलोहमग्गगमणवाहणाणि इ. मेहिं विविहेहिं आयुहेहिं किं ते मोग्गरमसंदिकरकयसत्तिहलगयमुसलचककोंततोमरसूललउलभिं डिमालसद्द(ड)लपट्टिसचम्मेद्वदुहणमुडियअसिखेडगखग्गचावनारायंकणककप्पणिवासिपरसुटकतिक्खनिम्मल अण्णेहि य एयमादिएहिं असुभेहिं वेउब्बिएहिं पहरणसतेहिं अणुवद्धतिब्बवेरा परोप्परवेयर्ण उदीरेंति अभिहर्णता, तत्थ य मोग्गरपहारचुणियमुसुंढिसंभग्गमहितदेहा जंतोवपीलणफुरंतकप्पिया केइत्थ सच दीप अनुक्रम CCCX JAL Handiturary.org ~38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) **=*= प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [<] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मश्नव्याक र० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ॥ १८ ॥ “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] Educator म्मका विगत्ता णिमूलुकण्णोद्वणासिका छिणहत्थपादा असिकरकयतिक्खकों तपर सुप्पहारफालियवासीसंतच्छितंगमंगा कलकलमाणखार परिसित्तगाढडतगत्तकुं तग्गभिण्णजज्जरियसन्यदेहा विलोलंति महीतले विसूणियंगमंगा, तत्थ व विगसुणगसियालका कमज्जारसर भदीवियवियग्धगसद्द लसीहदपियखुहाभिभूतेहिं णिच्चकालमणसिएहिं घोरा रसमाणभीमरुवेहिं अक्कमित्ता दढदाढागाढडक कट्टियसुतिक्खनहफा लिउद्धदेहा विच्छिष्पंते समंतओ विमुक्कसंधिबंधणावियंगभंगा कंककुररगिद्धघोरकट्ठवायसगणेहि य पुणो खरधिरदढणक्लोहतुंडेहिं ओवतित्ता पक्खाहयतिक्खणक्ख विकिन्नजिब्भंडियन यणनिद्ध ओलुग्गविगतवयणा, उक्कोसंता य उप्पयंता निपतता भनंता पुण्यकम्मोदयोवगता पच्छाणुसपण उज्झमाणा निंदता पुरेकडाई कम्माई पागाई तहिं २ तारिखाणि ओसन्नचिकणाई दुक्खातिं अणुभवित्ता ततो य आउक्खणं उच्चट्टिया समाणा बहवे गच्छंति तिरियवसहिं दुक्खुत्तरं सुदारुणं जम्मणमरणजरावा हिपरियहणारह जलथल लहचरपरोष्प र विहिंसणपर्वचं इमं च जगपागडं वरागा दुक्खं पावेन्ति दीहकालं, किं ते?, सी उपहतहाहवेयण अप्पकार अडविजम्मणणिश्वभर विग्ग वा सजग्गण व हवंधणताडणं कणनिवायणअट्टिभंजणनासाभेष्पहारदूमणछ विच्छेयण अभिओगपावणक संकुसारनिवायदमणाणि वाहणाणि य मायापितिविप्पयोगसोपरिपाणि य सत्यग्गविसाभिघायगल गवल आवलणमारणाणि य गलजालुच्छिष्पणाणि पओडलणविकपाणि य जावज्जीविगधणाणि पंजरनिरोहणाणि य सयूहनिद्धाडणाणि धमणाणि य दोहणाणि य कुदं For Parts Only ~39~ १ अधर्म द्वारे प्राणवधकारकाः प्रेत्यतद वस्याश्च सू० ४ ॥ १८ ॥ nary org Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], --------- ------------- अध्य यनं [१] ------------ --------- मूलं [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: KE%*%%252 प्रत डगलबंधणााण वाडगपरिवारणाणि य पंकजलनिमज्जणाणि वारिप्पवेसणाणि य ओवायणिभंगविसमणिवडणदवग्गिजालदहणाई य, एवं ते दुक्खसयसंपलिता नरगाउ आगया इह सावसेसकम्मा तिरिक्खपंचेंदि एसु पाविति पावकारी कम्माणि पमायरागदोसबहुसंचियाई अतीव अस्सायककसाई 'पुब्बकम्मकयसंचयतत्तति पूर्वकृतकर्मणां सञ्चयेनोपतप्ता-आपन्नसंतापा ये ते तथा, निरय एवाग्निनिरयाग्निस्तेन महाग्निनेव सम्प्रदीप्ता येते तथा, गाढदुःखां-प्रकृष्टदुःखरूपां द्विविधां वेदनां वेदयन्तीति योगः, किंभूतां?-महदयं यस्यां सा तथा तां कर्कशां कठिनद्रव्योपनिपातजनितत्वात् असातां-असाताख्यधेदनीFयकर्मभेदप्रभवां शारीरी मानसीं च तीब्रां-तीबानुभागबन्धजनितां पापकर्मकारिणः, तथा बहूनि पल्योप मसागरोपमाणि करुणा-दयास्पदभूताः करुणं वा पालयन्ति 'ते'त्ति पूर्वोक्ताः पापकर्मकारिणः 'अहाउय'ति यथायद्धमायुष्क, गाढयाऽपि वेदनया नोपक्राम्यत इति भावः, तथा यमकायिकैः-दक्षिणदिक्पालदेवनिकायाश्रितैरसुरैरंवादिभिरित्यर्थः बासिता-उत्पादितभया यमकायिकत्रासितास्ते च शब्दम्-आखिरं कुर्वन्ति भीतास्सन्तः, 'किं तेत्ति तद्यथा 'अविहावत्ति हे अविभाव्य!-अविभावनीयखरूप 'सामित्ति हे स्वामिन् 'भायत्ति! हे भ्रातः 'बप्पत्ति हे वप्प!, हे पितः । इत्यर्थः, एवं हे तात! 'जियवंति हे जितवन्-प्राप्तजयजीवित ! 'भुय'त्ति मुंच 'मे'त्ति 'मां'मरामित्ति निये, इह च नारकाणां बहुवचनप्रक्रमेऽपि यदेकवचनं तदेकापेक्षं तज्जात्यपेक्षं छान्दसत्वाद्वेति, यतो दुर्बलो व्याधिपीडितोऽहं 'किं दाणि सित्ति किमिदानीमसि-भवसि ?, दीप अनुक्रम म.व्या.४ urmurary on ~404 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [८] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... ..आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मूलं [४] ॥ १९ ॥ वस्थाश्च प्रश्नव्याक- 'एदारुणोति एवंप्रकारो दारुणो- रौद्रो निर्दयश्च निर्घृणश्च मा देहि मे मम प्रहारान् 'उसासेतं मुत्तगं २० श्रीअ मे देहिति उच्चासमुच्छ्रसनमेनं अधिकृतं एकं वा मुहर्त्तकं यावत् मे-मयं देहीति प्रसादं कुरुत मा रुध्यत भयदेव० विश्रमामि विश्रामं करोमि 'रोविजं ति ग्रैवेयकं ग्रीवाबन्धनं मुञ्च मे मम यतो 'मरामिति म्रिये तथा गाढं वृत्तिः ५ - अत्यर्थ 'तण्हाइउत्ति तृष्णार्दितः पिपासितोऽहं 'देह'त्ति दत्त पानीयं - जलमिति नारकेणोक्ते सति नरकपाला यद् भणन्ति तदाह- 'हंता' इति, यदि त्वं पिपासितस्ततो हंता हंदीति च वाऽऽमन्रणे पिब इदं जलं | विमलं शीतलं, इतिः एतच्छब्दार्थः, भणन्तीति गम्यते, गृहीत्वा च निरयपालास्ततं त्रयुकं 'से' तस्य ददति कलशेनाञ्जलिपु, दृष्ट्वा च तज्जलं प्रवेषिताङ्गोपाङ्गाः- कम्पितसकलगात्राः अश्रुभिः प्रगलद्भिः प्रलुते-प्रहुते असू० ४ क्षिणी येषां ते अगत्प्रष्टुताक्षा:, 'छिन्ना तव्हा इयम्' इति भिन्नक्रमः तस्य चैवं सम्बन्धः-छिन्ना तृष्णाऽस्माकमित्येवंरूपाणि करुणानि वचनानीति गम्यते जल्पन्ति विपलायन्ते वेति योगः, विप्रेक्षमाणा 'दिसोदिसं ति एकस्या दिशः सकाशादन्यां दिशं, अत्राणाः - अनर्थप्रतिघातवर्जिता अशरणा:-अर्थकारकविरहिता अनाथाः- योगक्षेमकारिविरहिता अबान्धवाः स्वजनरहिता बन्धुविप्रहीणाः- विद्यमानबन्धवविप्रमुक्ताः, कथञ्चिदेकार्थिकान्यप्येतानि पदानि न दोषाय, अनाथताप्रकर्षप्रतिपादकत्वादिति, विपलायन्ते विनश्यन्ति च कथं ? -मृगा इव वेगेन भयोद्विग्ना इति, गृहीत्वा च बलात् हठादित्यर्थः नारकानिति गम्यते, तेषां च विपलायमानानां निरनुकम्पा यमकायिका इति योग:, सुखं विधाट्य-विदार्थ लोहदण्डै: 'कलकल' ति कल For Penal Use Only ~ 41~ १ अधर्म द्वारे प्राणबध कारकाः प्रेत्यतद ॥ १९ ॥ rary org Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------------------- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: - %2- प्रत 542-% कलशब्दयोगात् कलकलं पूर्वोक्तं त्रपुकमिह स्मर्यते, पहेति वाक्यालङ्कारे, घने-मुखे क्षिपन्ति, के इत्याह18 केचिद्यमकायिका-अम्बादयः, किंभूताः ?-हसन्त इति, ततो नारका यत् कुर्वन्ति तदाह-तेन च तप्तनपुणा दग्धाः सन्तो रसन्ति च प्रलपति च, किंभूतानि वचनानीत्याह-भीमानि-भयकारीणि विखराणि-विकृतश ब्दानि तथा रुदन्ति च करुणकानि-कारुण्यकारीणि, क इवेत्याह-पारापता इव, एवमित्येवंप्रकारो निर्घोपः 18 भूयते इति सम्बन्धः, प्रलपितं-अनर्थभाषणं विलाप:-आखिरकरणं ताभ्यां करुणो यः स तथा, तथाऽऽक्रन्दि त-ध्वनिविशेषकरणं बहु-प्रभूतं 'रुनं'ति अश्रुविमोचनं रुदितं-आराटीमोचनं एतेषामेतानि वा शब्दो यत्र स तथा, तथा परिदेविताश्च-विलपिताः, वाचनान्तरे परिवेपिताश्च-प्रकम्पिता रुद्वाश्च बद्धकाश्च ये नारकास्ते तथा तेषां य आरवस्तेन यः सङ्कुलः स तथा, निसृष्टो-नारकैर्विमुक्त आत्यन्तिको वा तथा रसिता कृतशब्दा भणिता:-कृताव्यक्तवचनाः कुपिता:-कृतकोपाः उत्कूजिता:-कृताव्यक्तमहाध्वनयो ये निरयपापाला: तेषां यत्तर्जितं-ज्ञास्यसि रे पाप! इत्यादि भणितं नारकविषयं 'गिण्हत्ति गृहाण क्रम-लक्येत्यर्थः। प्रहारो लकुटादिना छिद्धि खड्गादिना भिद्धि कुन्तादिना उप्पाडेहित्ति उत्पाटय भूतलादुत्क्षिप 'उक्खणाहित्ति उत्खनाक्षिगोलकबाहादिकं 'कत्ताहित्ति कृन्त कर्त्तय नासादिकं विकृन्त च-विविधप्रकारैः 'भुजोति भूयः एकदा हन्त ! पुनरपि पाठान्तरे भञ्ज-आमईय हन- ताडय, क्रियाओं हनशब्दो निपाता, 'विहण'त्ति विशेषेण ताडय 'विच्छभत्ति विक्षिप पुकादिकं मुखे विकीर्ण वा कुरु, वाचनान्तरे विच्छुभ निष्कालये दीप अनुक्रम Islama ~42. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------------------- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: (१०) प्रत वृत्तिः ॥२०॥ प्रश्नव्याक-माया, त्यर्थः, 'उच्चभत्ति आधिक्येन क्षिप-प्रवेशयेत्यर्थः, आकृष-अभिमुखमाकर्षणं कुरु विकृष-विपरीतं विक- अधर्मर०श्रीअ पार्षणं कुरु, किं न जल्पसि ?, वाचनान्तरे तु किं न जानासि ?, मर हे पाप ! कर्माणि दुष्कृतानि, एवं-अमुना द्वारे भयदेव प्रकारेण यद्वदनं-नरकपालप्रतिपादनं तेन महाप्रगल्भ:-अतिस्फारो यः स तथा, 'पडिसुय'ति प्रतिश्रुत्पति साप्राणवधशब्दकस्तद्रूपो यः शब्दस्तेन सकुला त्रासका वाचनान्तरे तु 'बीहणओ तासणओ पइभओ अइभ'ति कारकाः एकार्थाः, सदा-सर्वदा, केषां त्रासक इत्याह-कदयमानानां-यात्यमानानां निरयगोचराणां-नरकवर्तिनां प्रेत्यतद'महानगरडज्झमाणसरिसोति दह्यमानमहानगरघोषसदृशो निर्घोषो-महाध्वनिः श्रूयतेऽनिष्टः 'तहि- वस्थाश्च यति तत्र नरके, केषां सम्बन्धीत्याह-'नेरइयाण' किंभूतानामित्याह-यात्यमानानां-कदर्यमानानां यात- सू०४ हैं नाभिः-कदर्थनाप्रकारः, "किं तेत्ति कास्ताः?-असिवनं-खड्गाकारपत्रवनं, दर्भवनं प्रतीतं, दर्भपत्राणि छेद कानि तदग्राणि च भेदकानि भवन्तीति तद्यातनाहेतुत्वेनोक्तं, यंत्रप्रस्तरा-घरहादिपाषाणा यंत्रमुक्तपापाणा वा यत्राणि च पाषाणाश्चेति वा यन्त्रपाषाणाः सूचीतलं-ऊर्द्धमुखशूचीकं भूतलं क्षारवाप्य:-क्षारद्रव्यभृतवाप्यः 'कलकलंतत्ति कलकलायमानं यत् त्रपुकादि तद्भुता वैतरण्यभिधाना या नदी सा कलकलायमानवैतरणी कदम्बपुष्पाकारा वालुका कदम्बवालुका ज्वलिता या गुहा-कन्दरा सा तथा ततो द्वन्द्वः ततोऽसिवनादिपु यन्निरोधनं-प्रक्षेपस्तत्तथा, उष्णोष्णे-अत्युष्णे 'कण्टइल्लेत्ति कण्टकवति दुर्गमे-कृच्छ्रगतिके रथे-शकटे यद्योजनं गवामिय तत्तथा ततो लोहपथे-लोहमयमार्गे यदु गमनं-खयमेवावाहनं च-अपरैर्गवामिव दीप अनुक्रम Saintainm e nt 443 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------------------- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत तत्तथा, ततः पदत्रयस्य द्वन्द्वः, 'इमेहिन्ति एभिर्वक्ष्यमाणैर्विविधैरायुधैः परस्परं वेदनामुदीरयन्तीति योगः कि तेत्ति तद्यथा मुद्गर:-अयोधनः मुसुण्डिः-पहरणविशेषः 'करकर्य'ति क्रकचं-करपत्रं शक्ति:-त्रिशूल शाहलं-लागलं गदा-लकुटविशेषः मुशलं चक्रं कुन्तं च प्रतीतं तोमरो-बाणविशेषः शूलं प्रतीतं 'लउड'त्ति लकुट भिंडिमाला-प्रहरणविशेषः सदलो-भल्लः पहिसः-प्रहरणविशेषः 'चर्मेष्ट' चर्मवेष्टितपाषाणविशेषो दुघणोमुद्गरविशेषः मौष्टिको-मुष्टिप्रमाणः पाषाण एव असिखेटकं-असिना सह फलकं खगः-केवल एच चापंधनुः नाराच:-आयसो वाणः कणको-बाणविशेषः कल्पनी-कर्तिकाविशेषः वासी-काष्ठतक्षकोपकरणविशेषः परशु:-कुठारविशेषः तत एतेषां द्वन्द्वः ततस्ते च ते टकतीक्ष्णा अग्रतीक्ष्णा निर्मलाश्चेति कर्मधारयः, तत-13 बस्तैरिति व्याख्येयं, तृतीयाबहुवचनलोपदर्शनादिति, अन्यैश्चेवमादिभिः अशुभैक्रियैः प्रहरणशतैरभिनन्तः अनुबद्धतीववैरा-अविच्छिन्नोत्कटवैरभावाः परस्परं-अन्योन्यं वेदनामुदीरयन्ति, नारका एवं तिसृभ्यः नरकपृथ्वीभ्या, परतो नरकपालानां गमनाभावात्, 'तत्थे ति तत्र च परस्पराभिहननेन चेवनोदीरणेन मुद्गरमहारचूर्णितो मुसुण्ढिभिः सम्भग्नो मथितश्च-विलोडितो देहो येषां ते तथा, तथा यत्रोपपीडनेन स्फुरन्तश्च कल्पिताश्च-छिन्ना यत्रोपपीडनस्फुरत्कल्पिताः 'केइत्थति केचिदत्र-नरके सचर्मका:-चर्मणा सह विकृत्ता-उत्क्लुसाः पृथकृतचर्माण इत्यर्थः, तथा निम्मूलोल्लूनकर्णीष्ठनासिकाश्छिन्नहस्तपादाः असिक्रकचतीक्ष्णकुन्तपरशूनां प्रहारैः स्फाटिता-विदारिता येते तथा, वास्या संतक्षितान्यङ्गोपाङ्गानि येषां ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्म दमकल दीप अनुक्रम ~44~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [८] श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मूलं [४] प्रश्नव्याक२० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ २१ ॥ “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] Education धारयः, तथा 'कलकल'त्ति कलकलायमानक्षारेण यत्परिक्षितं परिषेकः तेन गाढं अत्यर्थ 'उज्झत'त्ति दह्यमानं गात्रं येषां ते तथा, कुन्ताग्रभिन्नो जर्जरितश्च सर्वो देहो येषां ते तथा ततः कर्मधारयः, 'विलोलिंति' बिलुलन्ति लुण्ठन्तीत्यर्थः महीतले-भूतले 'विसूणियंगमंग'त्ति जातश्वयथुकाङ्गोपाङ्गाः, वाचनान्तरे तु निर्गताग्रजिहाः, 'तत्थ य'त्ति तथा च महीतलविलोलने वृकादिभिः विक्षिप्यन्त इति योग:, तत्र वृका - ईहामृगाः 'सुणग'त्ति कौलेयकाः शृगालाः- गोमायवः काका:- वायसाः मार्जारा-बिडालाः सरभा:- परासराः द्वीपिका:- चित्रका: 'विघयति वैयाघ्राः व्याघ्रापत्यानि शार्दूला व्याघ्राः सिंहाः प्रतीताः, एते च ते दर्पिता श्च दृप्ताः क्षुदभिभूताश्च-वुभुक्षिता इति ते तथा तैः, नित्यकालमनशितैरिवानशितैः-निर्भोजनैः घोरा-दारु|णक्रियाकारिणः आरसन्तः शब्दायमानाः भीमरूपाश्च ये ते तथा तैः, आक्रम्य दृढदंष्ट्राभिर्गाढं अत्यर्थ 'डक्क'न्ति दष्टा: 'कहिय'त्ति कृष्ठाच आकर्षिता ये ते तथा, सुतीक्ष्ण नखैः स्फाटित ऊर्द्धा देहो येषां ते तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, विक्षिप्यन्ते-विकीर्यन्ते 'समन्ततः' सर्वतः किम्भूतास्ते १-विमुक्तसन्धिबन्धनाः-श्ल थीकृताङ्गसन्धानाः तथा व्यङ्गितानि - विकलीकृतान्यङ्गानि येषां ते तथा, तथा कङ्काः पक्षिविशेषाः कुररा-उत्क्रोशाः गृधाः शकुनिविशेषाः घोरकष्टा अतिकष्टाश्च ये वायसास्तेषां गणास्तैश्च 'पुणो त्ति समुचयार्थः खरा:- कर्कशाः स्थिरा-निश्चलाः दृढा-अभगुरा नखा येषां ते तथा लोहवत् तुंडं येषां ते तथा ततः कर्मधारयस्तैरवपत्य - उपनिपत्य पक्षैराहताः पक्षाहताः तीक्ष्णनखैर्विक्षिप्ता आकृष्टा जिह्वा आञ्छिते च आकृष्टे For Parts On ~45~ १ अधर्म द्वारे प्राणवध कारकाः प्रेत्यतदवस्थाश्च सू० ४ ॥ २१ ॥ andrary org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------------------- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत नयने-लोचने निर्दयं च निष्कृपं यथा भवत्येवं 'उल्लगंति अवरुणं भग्नं विकृत्तं च वदनं येषां ते तथा, पाठान्तरेण अवलुग्णानि-छिन्नानि विकृत्तानि गात्राणि येषां ते तथा, उत्क्रोशन्तश्च-क्रन्दन्तः उत्पतन्तो निपतन्तो भ्रमन्तः पूर्वकर्मोदयोपगता इति च पदचतुष्टयं व्यक्तं, पश्चादनुशयेन-पश्चात्तापेन दह्यमानाः निन्दन्तो-जुगुप्समानाः 'पुरेक्खडाई पूर्वभवकृतानि कर्माणि-क्रियाः पापकानि-प्राणातिपातादीनि, ततः 'तहिं 'ति तस्यां २ रत्नप्रभादिकायां पृथिव्यां प्रकृष्टादिस्थितिके नरके तादृशानि जन्मान्तरे उपार्जितानि परमाधार्मि-11 कोदीरितपरस्परोदीरितक्षेत्रप्रत्ययरूपाणि 'उस्सपणचिक्कणाई ति उस्सण्णं-प्राचुर्येण चिक्कणाई-दुर्विमोचानि दुःखानि अनुभूय ततश्च निरयादायुःक्षयेणोद्वृत्ताः सन्तो बहवो गच्छन्ति तिर्यग्वसति-तिर्यग्योनि, यतोऽल्पा एव मनुष्येषत्पद्यन्ते, दुःखोत्तारां अनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपकायस्थितिकत्वात् तस्यां सुदारुणां दुःखाश्रयत्वात् जन्मजरामरणव्याधीनां याः परिवर्तना:-पुनः पुनर्भवनानि ताभिररघट्ट इवारघट्टो या सा तथा तां तिर्यग्वसतिं जलस्थलखचराणां परस्परेण विहिंसनस्य-विविधव्यापादनस्य प्रपञ्चो-विस्तारो यस्यां सा तथा तां, तस्यां च इदं वक्ष्यमाणप्रत्यक्षं जगत्प्रकटं न केवलमागमगम्यं किन्तु जङ्गमजन्तूनां प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धतया प्रकटमेवेति, वराका:-तपखिनः प्राणवधकारिण इति प्रक्रमः, दुःखं प्राप्नुवन्ति दीर्घकालं यावत् | 'कि तेति तद्यथा शीतोष्णतृष्णाक्षुभिर्वेदनाः तथा अप्रतीकार-सूतिकादिरहितं अटवीजन्म-कान्तारजन्म | है नित्यं भयेनोद्विग्नानां मृगादीनां वासः-अवस्थानं जागरणं-अनिद्रागमनं च वधो-मारणं बन्धन-संयमनं दीप अनुक्रम REDMond G a urary.org ~464 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------------------- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: (१०) प्रत प्रश्नव्याक- ताडन-कुन अङ्कनं-तसायाशलाकादिना चिह्नकरणं निपातनं-गगदी क्षेपणं अस्थिभञ्जन-कीकसामईनं १ अधर्मर० श्रीअ-1BI नासाभेदो-नासिकाविवरकरणं प्रहारः 'दूमणति दवनमुपतापः छविच्छेदनं-अवयवकर्तनं अभियोगमा-|| भयदेवपणं-हठादू व्यापारप्रवर्तनं कस:-चर्मयष्टिका अनुशश्च-मृणिः आरा च-प्रवणदण्डान्तर्वतिनी लोहश- प्राणवध वृत्तिः शलाका तासां निपातः-शरीरनिवेशनं दमनं-शिक्षाग्राहणं ततो द्वन्द्वस्ततः एतानि प्राप्नुवन्तीति प्रक्रमः, वाह- कारकाः ॥ २२ ॥ नानि च भारस्येति गम्यं, मातापितृविप्रयोगः, श्रोतसां-नासामुखादिरन्ध्राणां च परपीडनानि-रजवादिदृढ-|| प्रेत्यतदवन्धनेन बाधनानि यानि तानि तथा शोकपरिपीडितानि वा ततो द्वन्द्वः, ततस्तानि च शस्त्रं चाग्निश्च विष वस्थाश्च च प्रसिद्धानि तैरभिघातश्च-अभिहननं गलस्य-कण्ठस्य गवलस्य-शृङ्गस्य आवलनं च-मोटनं अथवा गल- सू०४ कस्य बलादावलनं मारणं चेति तानि च गलेन-वडिशेन जालेन च-आनायेन 'उच्छिपणाणि'त्ति जलमध्यान्मत्स्यादीनामुत्क्षेपणानि-आकर्षणानि यानि तानि तथा, 'पउलनं पचनं 'विकल्पनं छेदनं ते च यावजीविकबन्धनानि पञ्जरनिरोधनानि चेति पदद्वयं व्यक्तं, खयूथ्यान्निाटनानि च-खकीयनिकायात् निष्कालनानीत्यर्थः, धमनानि-महिव्यादीनां वायुपूरणादीनि च दोहनानि च प्रतीतानि कुदण्डेन-बन्धनविशेषेण गले-कण्ठे यानि बन्धनानि तानि तथा वाटेन-वाटकेन वृत्त्येत्यर्थः, परिवारणानि-निराकरणानि यानि तानि तथा तानि च पंकजलनिमज्जनानि-कर्दमप्रायजले बोलनानि वारिप्रवेशनानि च-जले क्षेपाः तथा 'ओवा- MIU२२॥ यत्ति अवपातेषु गाविशेषेषु उदक इत्येवरूढेषु पतनेन निभङ्गो-भञ्जनं गात्राणामवपातनिभङ्गः स च विष दीप अनुक्रम MAR Santaram marary.orm 447 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] --------------------- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत मात्पर्बतटंकादेनिपतनं विषमनिपतनं तच दवाग्निज्वालाभिर्दहन चेति तानि आदिर्येषां तानि तथा, कIम्माणि प्राप्नुवन्तीति योगः, एवमुक्तन्यायेन ते प्राणघातिनः दुःखशतसम्प्रदीप्ता नरकादागता इहु तिर्यग्लोके, किंभूताः?-सावशेषकर्माणः तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु प्रामुवन्ति पापकारिणः, कानीत्याह ?-कर्माणि-कर्मजन्यानि दुःखानीति भावः, प्रमादरागद्वेषैर्वहनि यानि सश्चितानि-उपार्जितानि, तथा अतीव-अत्यर्थमसातकर्कशानि-असातेषु-दुःखेषु मध्ये कर्कशानि-कठोराणि यानि तानि तथा। भमरमसगमच्छिमाइएसु य जाइकुलकोडिसयसहस्सेहिं नवहिं चउरिंदियाण तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि अणुभवता कालं संखेजक भमंति नेरइयसमाणतिब्वदुक्खा फरिसरसणधाणचक्खुसहिया तहेव तेईदिएस कुंथुपिपीलिकाअवधिकादिकेसु य जातिकुलकोडिसयसहस्सेहिं अहिं अणूणएहिं तेइंदियाण तहिं २ चेव जम्मणमरणाणि अणुहवंता कालं संखेजक भमंति नेरझ्यसमाणतिब्वदुक्खा फरिसरसणघाणसंपउत्ता गंडूलयजलूयकिमियचंदणगमादिएमु य जातीकुलकोडिसयसहस्सेहिं सत्तहिं अणूणएहिं बेईदियाण तहिं २ चेव जम्मणमरणाणि अणुहवंता कालं संखिज्जक भमंति नेरइयसमाणतिब्वदुक्खा फरिसरसणसंपउत्ता पत्ता पगिदियत्तणंपि य पुढविजलजलणमारुयवणष्फति सुहमवायरं च पञ्जत्तमपज्जत्तं पत्तेयसरीरणाम साहारणं च पत्तेयसरीरजीविएसु य तत्थवि कालमसंखेजगं भमंति अर्णतकालं च अणंतकाए फासिंदियभावसंपउत्ता दुक्खसमुदयं इमं अणिटुं पाविति पुणो २ तहिं २ चेव परभवतरुगणगहणे कोदालकुलियदालणस-, दीप अनुक्रम REmirating FarPranaswamincom ~484 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], --------- ------------- अध्य यनं [१] --------- ---------- मूलं [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रश्नव्याक-४ र० श्रीअभयदेव वृत्तिः | प्रत अधर्मद्वारे प्राणवधकारकाः प्रेत्यतदवस्थाश्च सू०४ लिलमलणभणरुंभणअणलाणिलविविहसस्थघट्टणपरोपराभिहणणमारणविराहणाणि य अकामकाई परप्पओगोदीरणाहि य कज्जपोयणेहि य पेस्सपसुनिमित्तओसहाहारमाइएहिं उक्खणणउकस्थणपयणकोट्टणपीसणपिट्टणभजणगालणामोडणसडणफुडणभञ्जणछेयणतच्छणविलुंचणपत्तझोडणअग्गिदहणाइयाति, एवं ते भवपरंपरादुक्खसमणुबहा अडंति संसारवीहणकरे जीवा पाणाइवायनिरया अणंतकालं जेविय इह माणसत्तणं आगया कहिं वि नरगा उव्यडिया अधना तेविय दीसति पायसो विकयविगलरूवा खुज्जा बडभा य वामणा य बहिरा काणा कुंटा पंगुला विउला य मूका य ममणा य अंधयगा एगचक्खू विणिहयसवेल्लया वाहिरोगपीलियअप्पाउयसत्थवज्झवाला कुलक्खणुकिन्नदेहा दुबलकुसंघयणकुप्पमाणकुसंठिया कुरुवा किविणा य हीणा हीणसत्ता निच्चंसोक्खपरिवज्जिया असुहदुक्खभागणरगाओ इहं सावसेसकम्मा, एवं णरगं तिरिक्खजोणि कुमाणुसत्तं च हिंडमाणा पावंति अणंताई दुक्खाई पावकारी एसो सो पाणवहस्स फलविवागो इहलोइओ पारलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भयो बहरयप्पगाढो दारुणो ककसो असाओ वाससहस्सेहि मुचती, न य अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति एवमासु, नायकुलनंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरनामधेजो कहइ सीहपाणवहणस्स फलविवागं, एसो सो पाणवहो चंडो रुद्दो खुद्दो अणारिओ निग्घिणो निसंसो महभओ बीहणओतासणओ अणज्जो उब्वेयणओ य णिरवयक्खो निद्धम्मो निष्पिवासो निकलुणो निरयवासगमणनिधणो मोहमहन्भयपवहुओ मरणवेमणसो पढमं अहम्मदारं समत्तंतिबेमि ॥१॥ (सू०४) दीप अनुक्रम AAmararyorg ~49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------------------- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: R प्रत NI तथा भ्रमरमशकमक्षिकादिषु चेति सप्तम्याः षष्ठ्यर्थत्वात् भमरादीनामिति व्याख्येयं, चतुरिन्द्रियाणामिति च संबन्धनीयं अथवा चतुरिन्द्रियाणां भ्रमरादिकेषु जातिकुलकोटीशतसहस्रष्वेवं घटनीयमिति, जाती-चतु-| रिन्द्रियजाती यानि कुलकोटीशतसहस्राणि तानि तथा तेषु, तथा 'नवसु'त्ति तहिं २ चेवसि तत्रैव २ चतुरि-1 सन्द्रियजातावित्यर्थः, जननमरणान्यनुभवन्तः कालं सयातक-सयातवर्षसहस्रलक्षणं भ्रमन्ति, किम्भूताः ? नारकसमानतीबदुःखाः स्पर्शनरसनधाणचक्षुःसहिताः इन्द्रियचतुष्टयोपेता इत्यर्थः, 'तथैवेति यथैव चतुरि-12 न्द्रियेषु तथैव त्रीन्द्रियेषु जननान्यनुभवन्तो भ्रमन्तीति प्रक्रमः । एतदेव प्रपञ्चयन्नाहVI कुंथुपिपीलिकाअवधिकादिकेषु च जातिकुलकोटिशतसहस्रवित्यादीन्द्रियगमान्तं चतुरिन्द्रियगमवन्नेयं, |नवरं गंडलयत्ति अलसाः 'चंदणग'त्ति अक्षाः तथा 'पत्ता एगिदियत्तणंपियत्ति न केवलं पश्शेन्द्रियादित्व-1 मेव प्राप्ताः एकेन्द्रियत्वमपि च प्राप्ता दुःखसमुदयं प्रामुवन्तीति योगः, किम्भूतमेकेन्द्रियत्वमित्याह-पृथ्वीजलज्वलनमारुतवनस्पतिसम्बन्धि यत् एकेन्द्रियत्त्वं तत्पृथिव्यायेवोच्यते, पुनः किम्भूतं तत् ?-सूक्ष्मं वादरं च तत्तत्कर्मोदयसम्पायं च तथा पर्याप्तमपर्याप्तं च तत्तत्कर्मोत्पाद्यमेव तथा प्रत्येकशरीरनामकर्मसम्पाद्यं प्रत्येकशरीरनामैवोच्यते साधारणशरीरनामकर्मसम्पाद्यं च साधारणं पर्याप्तादिपदानां च कर्मधारयः, चकारः समुच्चये, एवंविधं चैकेन्द्रियत्वं प्राप्ताः कियन्तं कालं भ्रमन्तीति भेदेनाह–'पत्तेयेत्यादि, 'तत्थवित्ति तत्रापि एकेन्द्रियत्वे प्रत्येकशरीरे जीवितं-प्राणधारणं येषां ते प्रत्येकशरीरजीवितास्तेषु-पृथिव्यादिषु चकार दीप अनुक्रम Saintamatun ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------------------- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: (१०) प्रत प्रश्नव्याक-उत्तरवाक्यापेक्षया समुच्चयायः, कालमसङ्ख्यातं भ्रमन्ति, अनन्तकालं चानन्तकाये साधारणशरीरेष्वित्यर्थः१ अधर्मर० श्रीअ-IMआह च-"अस्संखोसप्पिणिउस्सप्पिणी एगिदियाणय चउण्हं । ता चेव ऊ अर्णता वणस्सईए उ बोद्धव्वा | भयदेव० ॥१॥” इति, किम्भूतास्ते?-स्पर्शेन्द्रियस्य भावेन-परिणामेन सत्तया वा सम्प्रयुक्ता ये ते तथा, दुःखसमु प्राणवधवृत्तिः दयमिदं वक्ष्यमाणमनिष्टं प्रामुवन्ति, पुनः २ तत्रैव २ एकेन्द्रियत्वे इत्यर्थः, किम्भूते?-पर:-प्रकृष्टः सर्वोत्कृष्ट- कारकाः कायस्थितिकत्वाद् भव-उत्पत्तिस्थानं तरुगणगणो-वृक्षगुच्छादिवृन्दसमूहो यत्रैकेन्द्रियत्वे पाठान्तरे तु पर- प्रेत्यतद॥२४॥ भवतरुगणैर्गहनं यत्तत्तथा, तत्र दुःखसमुदयमेवाह-कुद्दालो-भूखनित्रं कुलिकं-हलविशेषस्ताभ्यां 'दालन तिवस्थाश्च -विदारणं यत्तत्तथा, एतत्पृथिवीवनस्पत्योःखकारणमुक्तं, सलिलस्य मलनं च मद्देनं 'खुंभण ति क्षोभणं च रिंभणीति रोधनं च सलिलमलनक्षोभणरोधनानि, अनेनाप्कायिकानां दुःखमुक्तं, अनलानिलयो:-अग्निवातयोर्विविधैः शस्त्रः स्वकायपरकायभेदैः यत् घट्टनं-सदनं तत्तथा, अनेन च तेजोवायवोर्तुःखमुक्तं, परस्पराभिहननेन यन्मारणं च प्रतीतं विराधनं-परितापनं ते तथा ततो द्वन्द्वोऽतस्तानि च दुःखानि भवन्तीति गम्यं, तानि किम्भूतानि?-अकामकानि-अनभिलषणीयानि, एतदेव विशेषेणाह-परमयोगोदीरणाभिः-खव्यतिरिक्तजनव्यापारदुःखोत्पादनाभिनिष्प्रयोजनाभिरिति हृदयं, काय प्रयोजनैश्च-अवश्यकरणीयप्रयोजनः, किम्भूतैः?-प्रेष्यपशुनिमित्तकर्मकरगवादिहेतोरुपलक्षणत्वात्तदन्यनिमित्तं च यान्यौषधाहारादीनि तानि तथा तैरुल्खननं-उत्पाटनं उत्कथन-खचोऽपनयनं पचनं पाकः कुट्टनं-चूर्णनं प्रेषणं-घरहादिना दलनं पिहन-ताडनं । CHERe.. सू०४ दीप अनुक्रम .. .... ॥२४॥ Santaratmund M umurary on ~51~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------------------- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत भर्जन-भ्राष्ट्रपचनं गालनं-छाणनं आमोटनं-ईपञ्जनं शटनं-खत एव विशरणं स्फुटनं-खत एवं द्विधा-14 भावगमनं भञ्जनं-आमद्देनं छेदनं-प्रतीतं तक्षणं-काष्ठादेरिय वास्यादिना विलुश्चनं-लोमाद्यपनयन पत्र ज्झोडनं-तरुपान्तपल्लवफलादिपातनं अग्निदहनं प्रतीतं, एतान्यादिर्येषां तानि दुःखान्येकेन्द्रियाणां भवमन्तीति गम्यं, तथा एकेन्द्रियाधिकारं निगमयन्नाह-एवम्-उक्तक्रमेण ते एकेन्द्रियाः भवपरम्परासु यद् दुःखं ४ तत्समनुबई-अविच्छिन्नं येषां ते तथा अटन्ति संसारे एव 'बीहणकरें'त्ति भयङ्करः तत्र जीवाः प्राणाति पातनिरता अनन्तं कालं यावदिति । अथ प्राणातिपातकारिणो नरकादुद्धता मनुष्यगतिगता यादृशा भभवन्ति तथोच्यते-'जेवियेत्यादि येऽपिचेह मर्त्यलोके मानुषत्वमागताः-प्राप्ताः कथञ्चित् कृच्छ्रादित्यर्थों नरकादुद्धताः अधन्यास्तेऽपिच दृश्यन्ते प्रायश:-प्रायेण विकृतविकलरूपाः, प्रायशोग्रहणेन तीर्थकरादिभिर्व्यभिचारः परिहृतः, विकृतविकलरूपत्वमेव प्रपश्चयन्नाह-कुजाः-वक्रजवाः वटभाश्च-वक्रोपरिकाया वामनाच-कालानौचित्येनातिहखदेहा बधिराः प्रतीताः काणा:-दीपकाणाः फरला इत्यर्थः, कुण्टाश्च-विकृतहस्ताः पङ्गुला-गमनासमर्थजङ्घाः विकलाश्च-अपरिपूर्णगानाः मूकाश्च-वचनासमर्थाः पङ्गुला अविय जलमूर्यत्ति पाठान्तरं तत्र अपिचेति समुच्चये जलमूका:-जलप्रविष्टस्येव 'वुडबुड' इत्येवंरूपो ध्वनिर्येषां मन्मनाश्च-येषां जल्पतां स्खलति वाणी 'अघिल्लगत्ति अन्धाः एक चक्षुर्विनिहतं येषां ते एकचक्षुर्विनिहताः 'सचिल्लय'त्ति सर्वापचक्षुषः पाठान्तरेण 'सपिसल्लय'त्ति तत्र सह पिसल्लयेन-पिशाचेन वर्तन्त इति सपिसल्लयाः व्या दीप X-REk2 4 अनुक्रम Noneinrayog ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], ----------------------- अध्ययनं [१] --------------------- मूलं [...४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत - ॥२५॥ प्रश्नव्याक-IXधिभि:-कुठायै रोग:-ज्वरादिभिर्विशिष्टाभिर्वा आधिभि:-मनःपीडाभिः रोगैश्च पीडिता व्याधिरोगपीडिताः अधर्मर० श्रीअ- अल्पायुषः-स्तोकजीविताः शस्त्रेण हन्यन्ते ये ते शस्त्रवध्याः वाला:-बालिशाः ततोऽन्धकारादीनां द्वन्द्वः, कुल- द्वारे भयदेव०क्षणैः-अपलक्षणैरुत्कीर्ण:-आकीणों देहो येषां ते तथा, दुर्घलाः कृशाः कुसंहननाः बलविकलाः कुप्रमाणाः प्राणवधवृत्तिः | अतिदीर्घा अतिहखा वा कुसंस्थिताः-कुसंस्थानाः ततो दुर्बलादीनां द्वन्द्वः, अत एव कुरूपाः कृपणाश्च- कारकाः रङ्काः अत्यागिनो या हीना जात्यादिगुणहीनसत्वाः-अल्पसत्याः नित्यं सौख्यपरिवर्जिताः अशुभम्-अशुभा- प्रेत्यतदहुनुबन्धि यदुःखं तभागिनः नरकादुद्धृतास्सन्तः इह-मनुष्यलोके दृश्यन्ते सावशेषकर्माण इति निगमनं ।। वस्थाश्च |अथ यादृशं फलं ददातीत्येतन्निगमयन्नाह-एवमित्यादि एवमुक्तक्रमेण नरकतिर्यग्योनी: कुमानुषत्वं च | हिण्डमाना:-अधिगच्छन्तः प्रामुवन्ति अनन्तकानि दुःखानि पापकारिणः प्राणवधकाः, विशेषेण निगमयनाह-एष स प्राणवधस्य फलविपाकः इहलौकिक:-मनुष्यापेक्षया मनुष्यभवाश्रयः पारलौकिक:-मनुष्यापे क्षया नरकगत्याद्याश्रितः अल्पसुखो-भोगसुखलवसम्पादनात् अविद्यमानसुखो वा बहुदुःखो नरकादिदुःहै खकारणत्वात् 'महन्भउत्ति महाभयरूपः बहुरज:-प्रभूतं कर्म प्रगाढं-दुर्मीचं यन्त्र स तथा दारुणो-रोद्रः ककेंश:-कठिनः असातः-असातवेदनीयकर्मोदयरूपः वर्षसहस्रर्मुच्यते ततः प्राणीति शेषः, न च-नैव अवेद-| |यित्वा तमिति शेषः अस्ति मोक्षः अस्मादिनि शेषः, इतिशब्दः समाप्ती, अथ केनायं द्वारपश्चकप्रतिबहप्रा 1 ॥२५॥ णातिपातलक्षणाश्रवद्वारप्रतिपादनपरः प्रथमाध्ययनार्थः प्ररूपित इति जिज्ञासायामाह-एवंति एवंप्रकारम-171 - दीप 2-% % अनुक्रम %% % 4- antaram ~53~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) **=*= प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [८] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं [४] श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तीन्द्रियभूतभव्यभविष्यदर्थविषयस्फुटप्रतिभासप्रकाशनीयमभिहितं वस्तु 'आहंसु'ति आख्यातवान् 'ज्ञातकुलनन्दनः ज्ञाताः क्षत्रियविशेषाः तत्कुलनन्दनः- तद्वंशसमृद्धिकरः महात्मेति प्रतीतं, जिनस्तु-जिन एव | वीरवरनामधेयः —– वीरवरेति प्रशस्तनामा, तथा कथितवांश्च प्राणवधस्य फलविपाकं, अध्ययनार्थस्य महावीराभिहितत्वे प्रतिपादितेऽपि यत् पुनस्तत्फलविपाकस्य वीरकथितत्वाभिधानं तत्प्राणवघस्यैकान्तिकाशुभफलत्वेनात्यन्त परिहाराविष्करणार्धमिति, अथ शास्त्रकार: प्राणवधस्य स्वरूपं प्रथमद्वारोपदर्शितमपि निगमनार्थ पुनर्दर्शयन्नाह एष स प्राणवधोऽभिहितः योऽनन्तरं स्वरूपतः पर्यायतः विधानतः फलतः कर्तृतश्च वक्तुं प्रतिज्ञात आदावासीत् किम्भूत इत्याह- चण्डा - कोपनः तत्प्रवर्त्तितत्वाचण्डः रौद्ररसप्रवर्त्तितत्वात् रौद्रः क्षु द्रजनाचरितत्वात् क्षुद्रः अनार्यलोक करणीयत्वादनार्यः घृणाया अन्त्राविद्यमानत्वान्निर्घृणः निःशुकजनकृतत्वानृशंसः महाभयहेतुत्वात् महाभयः 'बीहणउत्ति भयान्तरप्रवर्त्तितत्वात् त्रासकः उत्रासहेतुत्वात् अन्याय्यो-न्यायादपेतत्वात् उद्देजनकश्च उद्वेगहेतुत्वात् निरवकाङ्गः परप्राणापेक्षावर्जित इत्यर्थः, निर्द्धम्मों-धम्मदपक्रान्तः निष्पिपासः - वध्यं प्रति स्नेहविरहात् निष्करुणो-विगतद्यः निरयवासगमननिधन इति व्यक्तं मोहमहाभयप्रकर्षकः- तत्प्रवर्त्तकः मरणेन वैमनस्यं दैन्यं यत्र स मरणवैमनस्यः । प्रथममधर्मद्वारं-मृषावादाद्यपेक्षयेद्माद्यमाश्रवद्वारं समाप्तं तद्वक्तव्यतापेक्षया निष्ठां गतं इतिशब्दः समाप्तौ ब्रवीमि प्रति । | पादयामि तीर्थकरोपदेशेन न खमनीषिकयेति एतच सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनः स्ववचसि सर्वज्ञवचना For PanalPrata Use Only ~54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], --------- ------------- अध्य यनं [१] ---------- --------- मूलं [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ३१ अधर्म प्रत द्वारे मृषावादस्य स्वरूप नामानि च सू० ५-६ ४ प्रश्नव्याक-मश्रितत्वेनाव्यभिचारीदमिति प्रत्ययोत्पादनार्थ तथा स्वस्य गुरुपरतन्त्रताविष्करणार्थे विनेयानां चैतन्यायप्र दर्शना)माख्यातवानिति । प्रश्नव्याकरणाङ्गस्य प्रथमाध्ययनविवरणं समाप्तम् ॥१॥ भयदेव वृत्तिः II व्याख्यातं प्रथममध्ययन, अथ द्वितीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पूर्व स्वरूपादिभिः प्राणाति पादामा प्राणाति- पातः प्रथमाश्रवद्वारभूतः प्ररूपितः, इह तु सूत्रक्रमप्रामाण्याद् द्वितीयाश्रवद्वारभूतो मृपावादस्तथैव प्ररूप्यते, ॥२६॥ इत्येवंसम्बन्धस्यास्याध्ययनस्येदमादिसूत्रम् जंबू बितियं च अलियबयणं लहुसगलहुचवलभणियं भयंकर दुहकर अयसकर वेरकरगं अरतिरतिरागदोसमणसंकिलेसवियरणं अलियनियडिसातिजोयवहुलं नीयजणनिसेवियं निस्संस अप्पच्चयकारकं परमसाहुगरहणिज परपीलाकारकं परमकिण्हलेस्ससहियं दुग्गइविणिवायवहणं भवपुणब्भवकरं चिरपरिचियमणुगतं दुरन्तं कित्तिय वितितं अधम्मदार। (सू०५) तस्स य णामाणि गोण्णाणि होति तीसं, तंजहा-अलियं १ सढं २ अणज ३ मायामोसो ४ असंतकं ५ कूडकवडमवत्धुगं च ६ निरत्ययमवस्थयं च ७ विहेसगरहणिज्ज ८ अणुजुकं ९ कक्कणा य १०वंचणा य ११ मिच्छापच्छाकडं च १२ साती उ १३ उच्छन्नं १४ उक्कलंच १५ अदृ १६ अब्भक्खाणं च १७ किविसं १८ बलय १९ गहणं च २० मम्मणं च २१ नूमं २२ निययी २३ अप्पञ्चओ २४ असमओ २५ असच्चसंधत्तणं २६ विवक्खो २७ अवहीयं २८ उयहि असुद्ध २९ दीप 5* 35 अनुक्रम REsamad 14inayau अत्र प्रथमे श्रुतस्कन्धे प्रथम अध्ययनं "प्राणातिपात" परिसमाप्तं अथ प्रथमे श्रुतस्कन्धे द्वितीयं अध्ययनं "मषावाद" आरभ्यते "मृषावादः" - नामक द्वितीयं अधर्मद्वारं मृषावादस्य त्रिंशत् नामानि ~55~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ----------------------- मूलं [५-६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: **K*** प्रत सूत्रांक [५-६] अवलोवोत्ति ३०, अविय तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेजाणि होति तीस सावजस्स अलियस्स वइजोगस्स अणेगाई (सू०६) 'जंबू' इत्यादि, जम्बूरिति शिष्यामन्त्रणवचनं, द्वितीयं च-द्वितीयं पुनराश्रवद्वारं अलीकवचनं-मृषावादः, इदमपि पञ्चभिर्या दशकादिद्वारः प्ररूप्यते, तत्र यादृशमिति द्वारमाश्रित्यालीकवचनस्य खरूपमाह-लघुः-गुणगौर& वरहितः खः-आत्मा विद्यते येषां ते लघुखकास्तेभ्योऽपि ये लघवस्ते लघुखकलघवस्ते च ते चपलाच कायादिभि रिति कर्मधारयः तैरेव भणितं यत्तत्तथा, तथा भयङ्करं दुःखकरमयशःकरं वैरकर यत्तत्तथा, अरतिरतिरागद्वेषलक्षणं मनःसक्लेशं वितरति यत्तत्तथा, अलिक:-शुभफलापेक्षया निष्फलो यो निकृतेः-बाचनप्रच्छादनार्थ वचनस्य 'साइ'त्ति अविश्रम्भस्य च अविश्वासवचनस्य योगो-व्यापारस्तेन बहुलं-प्रचुरं यत्तत्तधा, नीचैः-जात्यादिहीनैर्जनः प्राय इदं निषेवितं-कृतं तत्तथा, नृशंसं-शूकावर्जितं निःशंसं वा-श्लाघारहितं अप्रत्ययकारक-विश्वासविनाशकरं, इतः पदचतुष्टयं कण्ठ्यं, तथा भवे-संसारे पुनर्भव-पुनः २जन्म करोतीति पुनर्भवकरं चिरपरि|चित-अनादिसंसाराभ्यस्तं अनुगतं-अविच्छेदेनानुवृत्तं दुरन्तं-विपाकदारुणं द्वितीयमधर्मद्वारं पापोपाय इति, एतेन यादृश इत्युक्तं १ । अथ यन्नामेत्यभिधातुकाम आह-तस्से त्यादि सुगमं, यावत्तद्यथा-अलिकं १ शठं शठस्य-मायिनः कर्मत्वात् २ अनार्यवचनत्वादनार्य ३ मायालक्षणकषायानुगतत्वान्मृषारूपत्वाच मायामृषा ४ "असंतगं'ति असदाभिधानरूपत्वादसत्कं ५ 'कूडकवडमवत्थुति कूट-परवञ्चनार्थ न्यूनाधिकभाषणं ** दीप अनुक्रम [९-१०] **六 式中式 Mumurary ou मृषावादस्य त्रिंशत् नामानि ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ----------------------- मूलं [५-६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 95-% प्रत सूत्रांक ॥२७॥ [५-६] % प्रश्नव्याक- कपट-भाषाविपर्ययकरणं अविद्यमानं वस्तु-अभिधेयोऽर्थों यत्र तदवस्तु, पदत्रयस्याप्येतस्य कथचित्समाना-||१ अधर्मर० श्रीअ- धत्वेनैकतमस्यैव गणनादिदमेकं नाम ६ निरत्थयमवत्ययं वत्ति निरर्थकं सत्यार्थानिष्क्रान्तं अपार्थ-अप-II द्वारे भयदेव गतसत्यार्थ, इहापि द्वयोः समानार्थतया एकतरस्यैव गणनादेकत्वम् ७ 'विद्देसगरहणिज्जति विद्वेषो-मत्सर- मृषावादवृत्तिः स्तम्माद गर्हते-निन्दति येन अथवा तत्रैव विद्वेषात् गीते साधुभिर्यत् तद्विद्वेषगहणीयमिति ८ अन्जुक- स्य स्वरूपं वक्रमित्यर्थेः ९ कल्क-पापं माया वा तत्करणं कल्कना सा च १० वश्चना ११ 'मिच्छापच्छाकडं वत्ति मिध्ये-नामानि च तिकृत्वा पश्चात्कृतं न्यायवादिभिर्यत्तत्तथा १२ साति:-अविश्रम्भः १३ 'उच्छन्नं'लि अपशब्द-विरूपं छन्न- सू०५-६ स्वदोषाणां परगुणानां वाऽऽवरणमपच्छन्नं, उत्थत्वं वा न्यूनत्वं १४ 'उक्कूलं वत्ति उत्कूलयति-सन्मार्गादपध्वंसयति कुलाद्वा-न्यायसरित्प्रवाहतटावं यत्तदुत्कूलं पाठान्तरेण उत्कलं-ऊर्व धर्मकलाया यत्तत्तथा| |१५ आत-ऋतस्य पीडितस्येदं वचनमितिकृत्वा १६ अभ्याख्यानं परमभि असतां दोषाणामाख्यानमित्यर्थःगह १७ किल्विषं किल्बिषस्य-पापस्य हेतुत्वात् १८ वलयमिव वलयं वक्रत्वात् १९ गहनमिव गहनं दुर्लक्ष्यान्तस्तत्त्वत्वात् २० मन्मनमिव मन्मनं चास्फुटत्वात् २१ 'नूमति प्रच्छादनं २२ निकृतिः-मायायाः प्रच्छादनार्थ वचनं २३ अप्रत्ययः-प्रत्ययाभावः २४ असमय:-असम्यगाचारः २५ असत्यं-अलीकं सन्दधाति-अच्छिन्ने का भारोतीति असत्यसन्धस्तदभावो असत्यसन्धत्त्वं २६ विपक्षः सत्यस्य सुकृतस्य चेति भावः २७ 'अवहीयंति अपसदा-निन्द्या धीर्यस्मिंस्तदपधीक पाठान्तरेण 'आणाइयं आज्ञां जिनादेशमतिगच्छति-अतिक्रामति दीप अनुक्रम [९-१०] SE arEarelu M araurary.org मृषावादस्य त्रिंशत् नामानि ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [५-६ ] दीप अनुक्रम [९-१०] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२] • मूलं [ ५-६ ] श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Educator यत्तदाज्ञातिगं २८ 'उबहिअसुद्ध ति उपधिना-मायया अशुद्धं सावयमुपध्यशुद्धं २९ अवलोपो वस्तुसद्भावप्रच्छादनं, इतिरेवंप्रकारार्थः, अपिचेति समुचयार्थः, ३०, 'तस्स एयाणि एवमाईणि णामधेनाणि होति तीसं सावज्जस्स अलियम्स वगजोगस्स अणेगाईति इह वाक्ये एवमक्षरघटना कार्या- तस्यालीकस्य सावद्यस्य वाग्योगस्य एतानि - अनन्तरोदितानि त्रिंशत् एवमादीनि एवंप्रकाराणि चानेकानि नामधेयानि नामानि भवन्तीति यन्नामेति द्वारं प्रतिपादितम् २ । अथ ये यथा चालीकं वदन्ति तान् तथा चाह मृषावादस्य त्रिंशत् नामानि तं च पुण वदंति केइ अलियं पावा असंजया अविरया कवडकुडिलकडुयचटुलभावा कुद्धा लुद्धा भयाय हस्सट्टिया य सक्खी चोरचारभडा खंडरक्खा जियजूईकरा य गहियगहणा कक्क कुरुगकारगा कुलिंगी उवहिया वाणियगाय कूडलकूडमाणी कुडकाहावणोवजीवी पडगारकलायकारुइज्जा वंचणपरा चारियचादयारनगर गोत्तियपरिचारगा दुट्टवायिसूयक अणवलभणिया य पुञ्त्रका लियचयणदच्छा साहसिका लहुस्सगा असच्चा गारविया असचट्टावणाहिचित्ता उच्चच्छंदा अणिग्गहा अणियता छंदेण मुकवाता भवंति अलियाहिं जे अविरया, अरे नत्थिकवादिणो वामलोकवादी भणति नत्थि जीवो न जाइ इह परे वा लोए न य किंचिवि फुसति पुन्नपावँ नत्थि फलं सुकयदुक्कयाणं पंचमहाभूतियं सरीरं भासंति है! वातजोगजुत्तं, पंचय संधे भणति केई, मणं च मणजीविका वदति, वाउजीवोत्ति एवमाहंसु, सरीरं सादियं सनिधणं इह भवे एगे भवे तस्स विपणा संमि सन्नासोत्ति, एवं जंपति मुसावादी, तम्हा दाणवयपोसहाणं तत्र For Parts Only ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [११] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२] मूलं [७] श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक र० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ २८ ॥ संजमर्वभचेर कल्लाणमाइयाणं नस्थि फलं नवि य पाणवहे अलियवयणं न चैव चोरिक्ककरणपरदारसेवणं वासपरिग्गहपावकम्मकरणंपि नत्थि किंचि न नेरइयतिरियमणुयाण जोणी न देवलोको वा अस्थि न य अस्थि सिद्धिगमणं अम्मापियरो नत्थि नवि अस्थि पुरिसकारो पञ्चकखाणमवि नत्थि नवि अस्थि- कालमच्य अरिहंत चट्टी वलदेवा वासुदेवा नत्थि नेवत्थि केइ रिसओ धम्माधम्मफलं व नवि अस्थि किंचि बहु चोवकं वा, तम्हा एवं विजाणिऊण जहा सुबहु इंदियाणुकूलेसु सव्यविसएस वह णत्थि काइ किरिया वा अकिरिया वा एवं भणति नत्थिकवादिणो वामलोगवादी, इमपि वितीयं कुदंसणं असम्भाववाइति मूढा -संभूतो अंडकाओ लोको सयंभुणा सयं च निम्मिओ, एवं एवं अलियं पयावइणा इस्सरेण य कयंति केति, एवं विण्डुमयं कसिणमेव य जगति केई, एवमेके वदंति मोसं एको आया अकारको वेदको य सुकयस्स दुक्कयरस य करणाणि कारणाणि सव्वा सव्वहिं च निच्चो य निक्किओ निम्गुणो य अणुववओत्तिविय एवमाहंसु असम्भावं, जंपि इहं किंचि जीवलोके दीसइ सुकथं वा दुकयं वा एवं जदिच्छाए वा सहावेण वावि दइवतप्पभावओ वावि भवति, नत्थेत्थ किंचि कयकं तत्तं लक्खणविहाणनियती कारियं एवं केइ जंपति इरिससातगारवपरा बहवे करणाला परूवेति धम्मवीमंसएण मोसं अवरे अहम्मओ राय अभक्खाणं भणेति-अलियं चोरोत्ति अचोरयं करें डामरिउत्तिवि य एमेव उदासीणं दुस्सलोत्तिय परदारं गच्छतित्ति मइलिंति सीलकलियं अपि गुरुतप्पओ, अण्णे एमेव भणति For Park Use On ~59~ १ अधर्म द्वारे मृषायादिनः सू०७ ।। २८ ।। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत जवाहणता मित्तकलत्ताई सेवंति अयंपि लुत्तधम्मो इमोवि विस्संभवाइओ पावकम्मकारी अगम्मगामी अयं दुरप्पा बहुएमु य पापगेसु जुत्तोत्ति एवं जंपति मच्छरी, भहके वा गुणकित्तिनेहपरलोगनिप्पिवासा. एवं ते अलियवयणदच्छा परदोसुष्पायणप्पसत्ता वेढेन्ति अक्खातियवीएण अप्पाणं कम्मबंधणेण मुहरी असमिक्खियप्पलावा निक्खेवे अवहरंति परस्स अत्थंमि गढियगिद्धा अभिजुजति य परं असंतएहिं लुद्धा य करेंति कूडसक्खित्तणं असच्चा अस्थालियं च कन्नालियं च भोमालियं च तह गवालियं च गत्यं भणंति अहरगतिगमण, अन्नपि य जातिरूपकुलसीलपञ्चयमायाणिगुणं चवलपिसुणं परमट्ठभेदकमसके विदेसमणस्थकारक पावकम्ममूलं दुद्दिई दुस्सुयं अमुणियं निलजं लोकगरहणिज वहबंधपरिकिलेसबहुलं जरामरणदुक्खसोयनिम्मं असुद्धपरिणामसंकिलिर्ट भणंति अलिया हिंसंति संनिविट्ठा असंतगुणुदीरका य संतगुणनासका य हिंसाभूतोवघातितं अलियसंपउत्ता धयणं सावजमकुसलं साहुगरहणिज्ज अधम्मजणणं भणंति अणभिगयपुन्नपावा, पुणोवि अधिकरणकिरियापवत्तका बहुविहं अणत्थं अवमई अप्पणो परस्स य करेंति, एमेव जपमाणा महिससूकरे य साहिति घायगाणं ससयपसयरोहिए य साहिति वागराणं तित्तिरवट्टकलावके य कविंजलकवोयके य साहिति साउणीणं झसमगरकच्छभे य साहिति मच्छियाणं संखंके खुल्लए य साहिति मगराणं अयगरगोणसमंडलिदचीकरे मउली य साहिति बालवीणं गोहा सेहग सल्लगसरडके य साहिति लुद्धगाणं गयकुलवानरकुले य साहिति पासियाणं सुकवरहिणमयणसालकोइलहंस दीप अनुक्रम [११] 中六十六字水冷式中式产中式中,中六个六 SAREaanaa ~60~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- ------------- अध्ययनं [२] -------- --------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रश्वब्याकर० श्रीअभयदेव १अधर्म द्वारे मृषावादिनः प्रत वृत्तिः सू०७ कुले सारसे य साहिति पोसगाणं वधर्वधजायणं च साहिति गोम्भियाणं धणधनगवेलए य साहिति तकराणं गामागरनगरपट्टणे य साहिति चारियाणं पारघाइयपंथघातियाओ साहति य गंठिभेयाणं कयं च चोरियं नगरगोत्तियाण लछणनिलंछणधमणदुहणपोसणवणणदवणवाहणादियाई साहिंति बहणि गोमियाणं धातुमणिसिलपवालरयणागरे य साहिति आगरीणं पुष्फविहिं फलविहिं च साहिति मालियाणं अग्यमहुकोसए य साहिति वणचराणं जताई विसाई मूलकम्मं आहेवणआविंधणआभिओगमंतोसहिप्पओगे चोरियपरदारगमणवहुपावकम्मकरणं उक्खंधे गामघातियाओ वणदहणतलागभेयणाणि बुद्धिविसविणासणाणि वसीकरणमादियाई भयमरणकिलेसदोसजणणाणि भाववहुसंकिलिट्ठमलिणाणि भूतघातोवघातियाई सच्चाईपि ताई हिंसकाई वयणाई उदाहरति पुट्ठा वा अपुट्ठा वा परतत्तियवावडा य असमिक्खियभासिणो उवदिसंति सहसा उट्टा गोणा गवया दमंतु परिणयवया अस्सा हत्थी गवेलगकुकुडा य किजंतु किणावेध य विकेह पयह य सयणस्स देह पियय दासिदासभयकभाइलका य सिस्सा य पेसकजणो कम्मकरा य फिकरा य एए सयणपरिजणो य कीस अच्छति भारिया में करित्तु कम्मं गहणाई वणाई खेत्तखिलभूमिवाहराई उत्तणघणसंकडाई डझंतु सूडिजंतु य रुक्खा भिजंतु जंतभंडाइयस्स उवहिस्स कारणाए बहुविहस्स य अट्ठाए उच्छू दुजंतु पीलिजंतु य तिला पयावेह य इट्टकाउ मम घरट्टयाए खेत्ताई कसह कसावेह य लहुं गामागरनगरखेडकब्बडे निवेसेह अडवीदेसेसु विपुलसीमे पुष्पाणि य फलाणि य कंदमूलाई कालपत्ताई गेण्हेह करेह सं Alexeex.com दीप अनुक्रम [११] ॥ २९ R amayou ~61 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: --- - प्रत Re% चयं परिजणद्वयाए साली चीही जवा य लुच्चंतु मलिजंतु उप्पणिजंतु य लहुं च पविसंतु य कोट्ठागारं अ. प्पमहरकोसगा य हमंतु पोयसस्था सेणा णिज्जाउ जाउ डमरं घोरा बटुंतु य संगामा पवहंतु य सगडवाहणाई उवणयणं चोलगं विवाहो जन्नो अमुगम्मि उ होउ दिवसेसु करणेसु मुहुत्तेसु नक्खत्तेसु तिहिसु य अज्ज होउ पहवणं मुदितं बहुखजपिज्जकलियं कोतुकं विण्हावणकं संतिकम्माणि कुणह ससिरविगहोवरागविसमेसु सजणपरियणस्स य नियकस्स य जीवियस्स परिरक्षणट्टयाए पडिसीसकाई च देह दह य सीसोवहारे विविहोसहिमज्जमंसभक्खन्नपाणमल्लाणुलेवणपईवजलि उज्जलसुगंधिधूवावकारपुष्फफलसमिद्धे पायच्छिते करेह पाणाइवायकरणणं बहुविहेण विवरीउपाय दुस्सुमिणपावस उणअसोमग्गहचरियअमंगलनिमित्तपडिघायहे वित्तिच्छेयं करेह मा देह किंचि दाणं सुट्ट हओ सुट्ट हओ सुद्द छिन्नो भिन्नत्ति उवदिसंता एवंविहं करति अलियं मणेण वायाए कम्मुणा य अकुसला अणजा अलियाणा अलियधम्मणिरया अलियासु कहासु अभिरमंता तुट्टा अलियं करेत्तु होति य बहुप्पयारं (सू०७) 'तं चेत्यादि, तत्पुनर्वदन्त्यलीकं 'केईत्ति केचित् न सर्वेऽपि सुसाधूनामलीकवचननिवृत्तत्वात, किंवि-15 शिष्टाः-पापा:-पापात्मानः असंयता:-असंयमवन्तोऽविरता:-अनिवृत्ताः तथा 'कवडकुडिलकडुयचटुलभाव'त्ति कपटेन हेतुना कुटिलो-वक्रः कटुकश्च विपाकदारुणत्वात् चटुलश्च-विविधवस्तुषु क्षणे २ आकाङ्क्षा-1 दिप्रवृत्तेर्भाव:-चितं येषां ते तथा 'कुद्धा लुद्धा' इति सुगमम् 'भयाय'त्ति परेषां भयोत्पादनाय अथवा भ-18 दीप अनुक्रम [११] - murary.org ~624 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र- [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत प्रश्नव्याक-याच 'हस्सडिया यत्ति हासाधिकाश्च-हासार्थिनः पाठान्तरेण हासार्थाय 'सक्खि'त्ति साक्षिणः चौराचार-१ अधर्मर० श्रीअ- भटाश्च प्रतीताः 'खंडरक्ख'त्ति शुल्कपाला: 'जियजूहकारा यत्ति जिताश्च ते गतकाराश्चेति समासः 'गहि- द्वारे भयदेव० यगहणत्ति गृहीतानि ग्रहणानि-ग्रहणकानि यैस्ते तथा 'ककगुरुगकारगत्ति कल्कगुरुकं-माया तत्कारकाः मृषावावृत्तिः 'कुलिङ्गीति कुलिङ्गिनः कुतीर्थिकाः 'उहिया वाणियगा यत्ति औपधिका:-मायाचारिणः वाणिजका-व- दिनः |णिजः किम्भूताः?-कूटतुलाकूटमानिनः कूटकार्षापणोपजीविन इति पदद्वयं व्यक्तं, नवरं कार्षापणो-द्रम्मः | सू०७ ॥३०॥ 'पडकारकलायकारुइज'त्ति पटकारका:-तन्तुवायाः कलादा:-सुवर्णकाराः कारुकेषु-वरुटचिंछपकादिषु भवा कारुकीयाः, किंविधा एते अलीकं वदन्तीत्याह-वञ्चनपराः, तथा चारिका-हैरिकाश्चाटुकरा:-मुखमङ्गलकरा नगरगुप्तिकाः-कोपालाः परिचारका-ये परिचारणां-मैथुनाभिष्वनं कुर्वन्ति कामुका इत्यर्थः, दुष्टवादिनःअसत्पक्षग्राहिणः शूचका:-पिशुनाः 'अणवलभणिया यत्ति ऋणे ग्रहीतव्ये बलं यस्यासी कणवलो बल-18 वानुत्तमर्णस्तेन भणिता-अस्मद्रव्यं देहीत्येवमभिहिता ये अधमर्णास्ते तथा ततश्चारिकादीनां द्वन्द्वः 'पुब्वकालियवयणदच्छत्ति वक्तुकामस्य वचनावत् पूर्वतरमभिधीयते पराभिप्राय लक्षयित्वा तत्पूर्वकालिकं व|चनं तत्र वक्तव्ये ये दक्षास्ते तथा, अथवा पूर्वकालिकानामर्थानां वचने ये अदक्षा-निरतिशयनिरागमास्ते तथा सहसा-अवितक्ये भाषणे ये वर्तन्ते ते साहसिकाः लघुखका-लघुकात्मानः असत्या:-सभ्योऽहिताः ॥३०॥ गौरविका:-ऋद्ध्यादिगौरवत्रयेण चरन्ति ये असत्यानामर्थानां स्थापनां-प्रतिष्ठामधि चित्तं येषां ते असत्य -- दीप अनुक्रम [११] अ.54 -- -- - - Santauratondi ng Earpranaamvam umony ~634 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ----------------------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र- [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत स्थापनाधिचित्ताः उचो-महानात्मात्कर्षणप्रवणश्छन्दा-अभिप्रायो येषां ते उच्चच्छन्दाः अनिग्रहा:-खैराः | अनियता-अनियमवन्तोऽनवस्थिता इत्यर्थः अनिजका चा-अविद्यमानखजनाः अलीकं वदन्तीति प्रकृत, तथा छन्देन-खाभिप्रायेण मुक्तवाचः-प्रयुक्तषचना अथवा छन्देन मुक्तवादिनः-सिद्धवादिनस्ते भवन्ति, के इत्याह-अलीका ये अविरताः । तथा अपरे-उक्तेभ्योऽन्ये नास्तिकवादिनो-लोकायतिकाः वाम-प्रतीपं लोक। वदन्ति येसतां लोकवस्तूनामसत्त्वस्य प्रतिपादनात्ते वामलोकवादिनो भणन्ति-प्ररूपयन्ति, किं, शून्यमिति, ॐाजगदिति गम्यते, कथं ?, आत्माद्यभावात् , तदेवाह-नास्ति जीवस्तत्प्रसाधकप्रमाणाभावात्, स हि न प्रत्यक्ष ग्राह्योऽतीन्द्रियत्वेन तस्याभ्युपगतत्वात्, नाप्यनुमानग्राह्यः प्रत्यक्षाप्रवृत्तावनुमानस्याप्रवृत्तः, आगमानां च मा परस्परतो विरुद्धखेनाप्रमाणत्वादिति, असत्वादेवासी न याति-न गच्छति 'इहेति मनुष्यापेक्षया मनुष्यMलोके परे वाऽस्मिन्-तदपेक्षयैव देवादिलोके न च किश्चिदपि स्पृशति-बनाति पुण्यपापं-शुभाशुभं कर्म नास्ति फलं सुकृतदुष्कृतानां-पुण्यपापकर्मणां जीवासत्वेन तयोरप्यसत्त्वात्, तथा पञ्चमहाभौतिक शरीरं भाषन्ते हे इति निपातो वाक्यालङ्कारे वातयोगयुक्तं-प्राणवायुना सर्वक्रियासु प्रवर्तितमित्यर्थः, तत्र पञ्चमहाभूतिकमिति-महान्ति च तानि लोकव्यापकत्वाद् भूतानि च-सद्भूतवस्तूनि महाभूतानि, तानि पृथिवी कठिनरूपा आपो द्रवलक्षणा: तेज उष्णरूपं वायुश्चलनलक्षणः आकाशं शुषिरलक्षणमिति, एतन्मयमेव शरीरं नापर। शरीरवर्ती तनिष्पादकोऽस्ति जीव इति विवक्षा, तथाहि-भूतान्येव सन्ति, प्रत्यक्षेण तेषामेव प्र दीप अनुक्रम [११] म.न्या.६ ~644 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- ------------- अध्ययनं [२] -------- --------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अधर्मद्वारे मृषावा प्रत बृत्तिः सू०७ [७] प्रश्नब्याक- सीयमानत्वात, तदितरस्य तु सर्वथा अप्रतीयमानस्वादू, यत्तु चैतन्यं भूतेषूपलभ्यते तद्भूतेषु एव कायाकारप- र० श्रीअ-रिणतेष्वभिव्यज्यते मद्यालेषु समुदितेषु मदशक्तिवत्, तथा न भूतेश्योऽतिरिक्तं चैतन्यं कार्यत्वान्मृदो घट- भयदेववदिति, ततो भूतानामेव चैतन्याभिव्यक्तिर्जलस्य बुद्धदाभिव्यक्तिवदिति, अलीकवादिता चैषामात्मनः सत्वात्, सत्त्वं च प्रमाणोपपत्तेः, प्रमाणं च सर्वजनप्रतीतं जातिस्मरणाद्यन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणमनेकधा शा स्त्रान्तरप्रसिद्धमिति, न च भूतधर्मश्चैतन्यं, तदभावेऽपि तस्य भावाद्विवक्षितभूताभावेऽपि प्रेताद्यवस्थायां ॥३१॥ सर्वचैतन्यसदभावाचेति, 'पंच य खंधे भणंति केइति पंच च स्कन्धान रूपवेदनाविज्ञानसंज्ञासंस्काराख्यान । भणति केचिदिति-बौद्धाः, तत्र रूपस्कन्धा-पृथिवीधात्वादयो रूपादयश्च वेदनास्कन्धः पुनः-सुखा दुःखा सुख खेति त्रिविधवेदनाखभावः विज्ञानस्कन्धस्तु-रूपादिविज्ञानलक्षणः संज्ञास्कन्धश्च-संज्ञानिमित्तोद्ग्राहणा-1 त्मकः प्रत्ययः संस्कारस्कन्धः पुन:-पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदाय इति, न चैतेभ्यो व्यतिरिक्तः कश्चिदात्माख्यः। पदार्थोऽध्यक्षादिभिरवसीयत इति, तथा 'मणं च मणजीविया वयंति'त्ति न केवलं पश्चैव स्कन्धान मनश्च|मनस्कारो-रूपाविज्ञानलक्षणानामुपादानकारणभूतो यमाश्रित्य परलोकोऽभ्युपगम्यते बौद्धैः, मन एव जीवो येषां मतेन ते मनोजीवास्त एव मनोजीविकाः, अलीकवादिता चैषां सर्वथाऽननुगामिनि मनोमात्ररूपे जीवे । कल्पितेऽपि परलोकासि तदसिद्धिश्चावस्थितस्यैकस्यात्मनोऽसत्वान्मनोमात्रात्मनःक्षणान्तरस्यैवोत्पादनात् अकृताभ्यागमादिदोषप्रसङ्गात्, कथञ्चिदनुगामिनि तु मनसि जीवत्वाभ्युपगमः सम्यकपक्ष एवेति, दीप अनुक्रम [११] Santantinा W itraryou ~65~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], --------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: -- प्रत तथा 'वाउजीवोत्ति एवमाहंसुत्ति वातः-उच्छासादिलक्षणो जीव इत्याहुरेके, सद्भावाभावयोर्जीवनमरणव्यपदेशात् नान्यः परलोकयाव्यात्माऽस्तीति, अलीकवादिता चैषां वायोर्जडत्वेन चैतन्यरूपजीवत्वायोगात्, तथा शरीरं सादि उत्पन्नत्वात् सनिधनं क्षयदर्शनात् 'इह भवे एगे भ'त्ति इह भव एय-प्रत्यक्षजन्मैच एको भवः-एक जन्म नान्यः परलोकोऽस्ति प्रमाणाविषयत्वात् तस्य-शरीरस्य विविधैः प्रकारैः प्रकृष्टो नाशो विप्रणाशस्तस्मिन् सति सर्वनाश इति-नात्मा शुभाशुभरूपं वा कर्म विशिष्टमवशिष्यते इति, एतत् एवंउक्तप्रकार जिपंति' जल्पन्ति, के?-मृषावादिनः, मृषावादिता चैषां जातिस्मरणादिना जीवपरलोकसिद्धः, तथा किमन्यद्वदन्तीस्याह-यस्मात् शरीरं सादिकमित्यादि तस्माद्दानव्रतपौषधानां-वितरणनियमपर्वोपवासानां तथा तपः-अनशनादि संयमः-पृथिव्यादिरक्षा ब्रह्मचर्य प्रतीतं एतान्येव कल्याणं कल्याणहेतुत्वासदादिर्येषां ज्ञानश्रादीनां तानि तथा तेषां नास्ति फलं-कर्मक्षयसुगतिगमनादिकं, नापि चास्ति प्राणवधालीकवचनमशुभफलसाधनतयेति गम्यं, न चैव-नैव च चौर्यकरणं परदारसेवनं चास्त्यशुभफलसाधनतयैव, सह परिग्रहेण यद्वर्त्तते तत्सपरिग्रहं तच तत्पापकर्मकरणं च-पातकक्रियासेवनं तदपि नास्ति किञ्चित् , कोधमानाद्यासेवनरूपं नरकादिका च जगतो विचित्रता खभावादेव न कर्मजनिता, तदुक्तं-'कण्टकस्य प्रतीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता । वर्णाश्च ताम्रचूडानां, खभावेन भवन्ति ही ॥१॥"ति, मृषावादिता चैवमेतेषांखभावो हि जीवाद्यर्थान्तरभूतस्तदा प्राणातिपातादिजनितं कम्मैवासो अथानान्तरभूतस्ततो जीव एवासी दीप अनुक्रम [११] RERaniRI FarPurwanaBNamunoonm Ganesturary.com ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: द्वारे प्रत प्रश्नब्याक-तव्यतिरेकात् तत्स्वरूपवत्, ततो निर्हेतुका नारकादिविचित्रता स्यात्, न च निर्हेतुकं किमपि भवत्यति- १ अधर्म२०श्रीअ- प्रसङ्गादिति, तथा न नैरयिकतिर्यग्मनुजानां योनिः-उत्पत्तिस्थानं पुण्यपापकर्मफलभूताऽस्तीति प्रकृतं, न भयदेव. देवलोको वाऽस्ति पुण्यकर्मफलभूतः, नैवास्ति सिद्धिगमनं, सिद्धेः सिद्धस्य चाभावात् , अम्बापितरावपि न मृपावावृत्ति ४ स्तः, उत्पत्तिमात्रनिवन्धनवान्मातापितृत्वस्य, न चोत्पत्तिमात्रनिवन्धनस्य मातापितृतया विशेषो युक्तः, दिन: यतः कुतोऽपि किश्चिदुत्पद्यत एव, यथा सचेतनात् सचेतनं यूकामत्कूणादि अचेतनं मूत्रपुरीषादि अचेत- सू०७ नाच सचेतनं यथा काष्ठादू घुणकीटादि अचेतनं चूर्णादि, तस्मात् जन्यजनकभावमात्रमर्थानामस्ति नान्यो मातापितृपुत्रादिर्विशेष इति, तद्भावात्तभोगविनाशापमानादिषु न दोष इति भावो, मृषावादिता चैषां । M वस्त्वन्तरस्यापि च जनकले समानेऽपि तयोरत्यन्तहिततया विशेषवत्वेन सत्त्वात् , हितत्वं च तयोः प्रती-17 तमेव, आह च--"दुष्प्रतिकारा"वित्यादि, नाप्यस्ति पुरुषकारः, तं विनैव नियतितः सर्वप्रयोजनानां सिद्धेः, उच्यते च-"प्राप्तव्यो नियतिथलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः॥१॥" मृषावादिता चैवमेषां-सकललोकप्रतीतपुरुषकारापलापेन प्रमाणातीतनियतिमताभ्युपगमादिति, तथा प्रत्याख्यानमपि नास्ति धर्मसाधनतया, घमस्यैवाभावादिति, अस्य च सर्वज्ञवचनप्रामाण्येनास्तित्वात् तद्वादिनामसत्यता, तथा नैवास्ति कालमृत्युः,1॥३२॥ तत्र कालो नास्ति अनुपलम्भात् , यञ्च वनस्पतिकुसुमादि काल लक्षणमाचक्षते तसेषामेव खरूपमिति मन्तव्यं, दीप अनुक्रम [११] SAREaratinina I m araryorg ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], --------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 15%-1- 52562 प्रत असत्यतायामपि वरूपस्य वस्तुनोऽनतिरेकात् कुसुमादिकरणमकारणं तरूणां स्यात्, तथा मृत्यु:-परलोकप्रयाणलक्षणोऽसावपि नास्ति, जीवाभावेन परलोकगमनाभावात्, अथवा कालक्रमेण विवक्षितायुष्कक-14 मणः सामस्त्यनिर्जरावसरे मृत्युः, तदभावश्चायुष एवाभावात्, तथा अहंदादयो 'नत्यित्ति न सन्ति प्रमाणाविषयत्वात् 'नेवस्थि केई रिसउत्ति नैव सन्ति केचिदपि ऋषयो-गौतमादिमुनयः प्रमाणाविषयत्वादेव, वर्तमानकाले वा ऋषित्वस्यापि सर्वविरत्याद्यनुष्ठानस्यासत्त्वात् , सतोऽपि वा निष्फलत्वादिति, अत्र च शिप्यादिप्रवाहानुमेयत्वादर्हदादिसत्त्वस्यानन्तरोक्तत्वाद् वादिनामसत्यता, ऋषित्वस्यापि सर्वज्ञवचनप्रामाण्येन सर्वदा भावादित्येवमाज्ञाग्राह्यापलापिनां सर्वत्रासत्यवादिता भावनीयेति, तथा धर्माधर्मफलमपि नास्ति किचिहहुकं वा स्तोकं वा, धर्माधर्मयोरदृष्टत्वेन नास्तित्वात् , 'नधि फलं सुकए'त्यादि यदुक्तं प्राक्तत्सामान्यजीवापेक्षया यच्च 'धम्माधम्म त्यादि तद् दृश्यापेक्षयेति न पुनरुक्ततेति, "तम्ह'त्ति यस्मादेवं तस्मादेवं-उक्तप्रकारं वस्तु विज्ञाय 'जहा सुबहुइंदियाणुकूलेसुत्ति यथा-यत्प्रकाराः सुबहु-अत्यर्थमिन्द्रियानुकूला येते तथा तेषु सर्वविषयेषु वर्तितव्यं, नास्ति काचित् क्रिया चा-अनिन्द्यक्रिया अक्रिया चा-पापक्रिया पापेतर[क्रिययोरास्तिककल्पितत्त्वेनापारमार्थिकत्वात्, भणति -"पिन स्वाद च चारुलोचने !, यदतीतं वरगात्रि! तन्न ते । नहि भीरु! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥१॥"एवं मित्यादि निगमनं । तथा इदमपि | द्वितीयं नास्तिकदर्शनापेक्षया कुदर्शनं-कुमतमसङ्गाववादिनः प्रज्ञापयन्ति मूढा-ध्यामोहवन्तः, कुदर्शनता| XXXX दीप अनुक्रम [११] SAREmiratna O niorammaru ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्क न्ध : [१], --------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत वृत्तिः च वक्ष्यमाणस्यार्थस्याप्रमाणकत्वात् तद्वादिप्रोक्तप्रमाणस्य च प्रमाणाभासत्वाद् भावनीया, किम्भूतं दर्शनमि- अधर्मर० श्रीअ-त्याह-सम्भूतो-जातः अण्डकात्-जन्तुयोनिविशेषात् लोकः-क्षितिजलानलानिलवननरनरकनाकितिर्यग- द्वारे भयदेव० रूपः, तथा खयम्भुवा-ब्रह्मणा खयं च-आत्मना निर्मिमतो-विहितः, तत्राण्डकप्रसूतभुवनवादिनां मतमि-3 मृषावा स्थमाचक्षते-"पुवं आसि जगमिणं पंचमहन्भूयवज्जिय गभीरं । एगण्णवं जलेणं महप्पमाणं तहिं अंडं ॥१॥दा दिनः बीईपरेण घोलंत अच्छिउं सुइरकालओ फुहूं । फुडं दुभागजायं अन्भं भूमी य संवुत्तं ॥२॥ तत्थ सुरासुर॥३३॥ दिनारगसमणुयसचउप्पयं जग सव्वं । उप्पणं भणियमिणं बंभंडपुराणसस्थम्मि ॥३॥” तथा स्वयम्सूनि मितजगद्वादिनो भणन्ति-"आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतक्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥१॥ तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजङ्गमे । नष्टामरनरे चैव, प्रनष्टोरगराक्षसे ॥२॥ केवलं गहरीभूते, मदहाभूतविवर्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः॥ ३ ॥ तत्र तस्य शयानस्य, नाभेः पद्म वि निर्गतम् । तरुणरविमण्डलनिभं, हयं काञ्चनकर्णिकम् ॥४॥ तस्मिन् पद्मे भगवान् , दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः॥५॥ अदितिः सुरसानां दितिरसुराणां मनुमेंनुष्याणाम् । |विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ६॥ कद्रू सरीसृपाणां सुलसा माता च नागजातीनाम् सुरभिश्चतुष्पदानामिला पुनः सर्वबीजाना ॥ ७॥” मिति, एवमुक्तक्रममेतदनन्तरोदितं वस्तु अलीकं भ्रान्तज्ञानादिभिः प्ररूपितत्वात्, तथा प्रजापतिना-लोकप्रभुणा ईश्वरेण च-महेश्वरेण कृतं-विहितमिति केचि SOCISCLASSROCCOR दीप अनुक्रम [११] | ॥ ३॥ A nmurary on ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [११] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२] मूलं [७] श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः द्वादिनो वदन्तीति प्रकृतं भणति चेश्वरवादिनः- बुद्धिमत्कारणपूर्वकं जगत् संस्थानविशेषयुक्तत्वाद् घटादिवदिति, कुदर्शनता चास्य वल्मीकवुद्धदादिभिर्हेतोरनैकान्तिकत्वात्, कुलालादितुल्यस्य बुद्धिमत्कार|णस्य साधनेन चेष्टविघातकारित्वादिति, तथा एवं यथेश्वरकृतं तथा विष्णुमयं - विष्ण्वात्मकं कृत्स्नमेव जगदिति केचिद्वदन्तीति प्रकृतं भणति च एतन्मतावलम्बिनो - "जले विष्णुः स्थले विष्णुर्विष्णुः पर्वतमस्तके | ज्वालामालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत् ॥ १ ॥ अहं च पृथिवी पार्थ!, वाय्वग्निजलमप्यहम् । वनस्प तिगतश्चाहं, सर्वभूतगतोऽप्यहम् ॥ २ ॥” तथा “सो किल जलयसमुत्थेणुदएणेगन्नवंमि लोगम्मि । वीतीपरंपरेणं | घोलंतो उदयमज्झम्मि ॥ १ ॥ स किल - मार्कण्डर्षिः, "पेच्छइ सो तस्थावरपणसुरनरतिरिक्खजोणीयं । | एगन्नवं जगमिणं महभूयविवज्जियं गुहिरं ॥ २ ॥ एवंविहे जगंमी पेच्छइ नग्गोहपायवं सहसा । मंदरगिरिं व तुङ्गं महासमुदं व विच्छिन्नं ॥ ३ ॥ खंधम्मि तरस सयणं अच्छर तहि बालओ मणभिरामो । [ विष्णुरित्यर्थः ] संविद्धो सुद्धहिअओ मिउकोमलकुंचियसुकेसो || ४ || हत्थो पसारिओ से महरिसिणो एह तत्थ भ णिओ य । खंधं इमं विलग्गसु मा मरिहिसि उदयवुडीए ॥ ५ ॥ तेण य घेत्तुं हत्थे उ मीलिओ सो रिसी तओ तस्स । पेच्छइ उदरंमि जयं ससेलवणकाणणं सव्वं ॥ ६ ॥” ति पुनः सृष्टिकाले विष्णुना सृष्टं, कुदर्शनता चास्य प्रतीतिबाधितत्वात्, तथा एवं वक्ष्यमाणेन न्यायेन एके- केचनात्माद्वैतवाद्यादयो वदन्ति मृषा - अलीकं यदुत एक आत्मा, तदुक्तम्- "एक एव हि भूतात्मा भूते २ व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैत्र, For Penal Use On ~70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], --------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: द्वारे प्रत प्रश्नब्याक दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥" तथा "पुरुष एवेदं निं सर्व यद्भूतं यच भाव्य"मित्यादि, कुदर्शनता चास्य सक- अधर्म२०श्रीअ-| ललोकविलोक्यमानभेदनिबन्धनव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात्, तथा अकारकः सुखदुःखहेतूनां पुण्यपापकर्मणाम-13 भयदेव० कर्त्तात्मेत्यन्ये वदन्ति, अमूर्त्तत्वनित्यत्वाभ्यां कर्तृत्वानुपपत्तेरिति, कुदर्शनता चास्य संसार्यात्मनो मूर्त्तत्वेन मृषावावृत्तिः परिणामित्वेन च कर्तृत्वोपपत्तेरकर्तृखे चाकृताभ्यागमप्रसङ्गात्, तथा वेदकश्च-प्रकृतिजनितस्य सुकृतस्य दु-14 दिन: कृतस्य च प्रतिबिम्बोदयन्यायेन भोक्ता, अमृतत्वे हि कदाचिदपि वेदकता न युक्ता आकाशस्येवेति कुद-18 ॥३४॥ सू०७ दर्शनताऽस्य, तथा सुकृतस्य दुष्कृतस्य च कर्मणः करणानि-इन्द्रियाणि कारणानि-हेतवः सर्वधा-सर्वैः प्र कारैः सर्वत्र च देशे काले च, न वस्त्वन्तरं कारणमिति भावः, करणान्येकादश, तत्र वाकपाणिपादपायूपस्थलक्षणानि पश्च कर्मेन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि तु पञ्च बुद्धीन्द्रियाण्येकादशं च मन इति, एषां चाचेतनाव स्थायामकारकत्वात् पुरुषस्यैव कारकत्वेन कुदर्शनत्वमस्य, तथा नित्यश्वासी, यदाह-"नैनं छिन्दन्ति शसाखाणि, नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो, नैनं वहति मारुतः ॥१॥ अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयममूतों ऽयं सनातन" इति, असचैतत्, एकान्तनित्यत्वे हि सुखदुःखवन्धमोक्षाद्यभावप्रसङ्गात् , तथा निष्क्रियःसर्वव्यापित्वेनावकाशाभावाद् गमनागमनादिक्रियावर्जितः, असञ्चैतत् देहमानोपलभ्यमानतद्गुणत्वेन त|नियतत्वात् , तथा निर्गुणश्च सत्वरजस्तमोलक्षणगुणत्रयव्यतिरिक्तत्वात् प्रकृतेरेव ह्येते गुणा इति, यदाह- IAL॥ ३४॥ "अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा कपिलदर्शने” इति, असिद्धं चास्य सर्वथा निर्गुणत्वं 'चैतन्यं पुरुषस्य स्व दीप अनुक्रम [११] Saintaintinaina murary.org 4714 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्धः [१], --------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ** % प्रत । % % % रूपमित्यभ्युपगमात् , तथा 'अणुवलेवउत्ति अनुपलेपकः कर्मबन्धनरहितः, आह च-“यस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित, संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृति"रिति, असञ्चैतत् , मुक्तामुक्तयोरेवमविशेषप्रसङ्गात्, पाठान्तरं-'अन्नो अलेव'त्ति तत्र अन्यश्च-अपरो लेपतः कर्मबन्धनादिति, एतदप्यसत्, कथंचिदिति शब्दानुपादानात् , 'इत्यपिच' इतिः-उपप्रदर्शने अपिचेति अलीकवादान्तरसमुच्चयार्थः, तथा एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसुत्ति अवते स्म असदभावं-असन्तमर्थ यदुन यदेव-सामान्यतःसर्वमित्यर्थः इह-अस्मिन् किश्चिद्-अविवक्षितविशेष जीवलोके-मर्त्यलोके दृश्यते सुकृतं वा आस्तिकमतेन सुकृतफलं | सुखमित्यर्थः दुष्कृतं वा दुष्कृतफलं दुःखमित्यर्थः, एतत् 'जइच्छाए वत्ति यदृच्छया वा स्वभावेन चापि दैवतमभावतो वापि-विधिसामर्थ्यतो वापि भवति, न पुरुषकारः कर्म वा हिताहितनिमित्तमिति भावः, तत्र अनभिसन्धिपूर्विकाऽर्थप्राप्तिर्यदृच्छा, पठ्यते च-"अतर्कितोपस्थितमेव सर्व, चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् । काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्र वृथाऽभिमानः ॥१॥" तथा "सत्यं पिशाचाः स्म वने वसामो, भरी करानैरपि न स्पृशामः । यदृच्छया सिद्ध्यति लोकयात्रा, भेरी पिशाचाः परिताडयन्ति ॥१॥” इति, खभावः पुनर्वस्तुतः खत एव तथापरिणतिभावः, उक्तं च-"कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं, विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । खभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः? ॥१॥” इति, दैवं तु विधिरिति लौकिकी भाषा, तत्रोक्तं-"प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः, किं कारणं ? दैवमलनीयम् । तस्मान्न शोचामि % % दीप अनुक्रम [११] % % % Hamarary.ou 472 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [११] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ॥ ३५ ॥ प्रश्नव्याक- न विस्मयामि, यदस्मदीयं नहि तत्परेषाम् ॥ १ ॥" तथा " दीपादन्यस्मादपि मध्यादपि जलनिधेर्दिशोर० श्रीअ ऽप्यन्तात् । आनीय झटिति घटयति विधिरभिमतमभिमुखीभूतम् ॥ १ ॥” इति असद्भूतता चात्र भयदेव० प्रत्येकमेषां जिनमतप्रतिक्रुष्टत्वात्, तथाहि - 'कालो सहाव नियई पुव्वकथं पुरिसकारणेगंता | मिच्छन्तं वृत्तिः ४ ते चैव उ समासओ होति सम्मत्तं ॥ १ ॥” इति तथा नास्ति न विद्यतेऽत्र किञ्चिच्छुभमशुभं वा कृतकं पुरुषकारनिष्पन्नं कृतं च कार्य प्रयोजनमित्यर्थः, पाठान्तरेण 'नत्थि किंचि कयं तत्तं तत्र तत्त्वं - वस्तुखरूपमिति, तथा लक्षणानि वस्तुखरूपाणि विधाय भेदा लक्षणविधास्तासां लक्षणविधानां नियतिश्च खभावविशेषञ्च कारिका - कर्त्री सा च पदार्थानामवश्यन्तया यद्यथाभवने प्रयोजयित्री भवितव्यतेत्यर्थः अन्ये त्वाहुः यत् मुद्गादीनां राद्धिखभावत्वमितरद्वा स स्वभावः यच राद्वावपि नियतरसत्वं न शाल्यादिरसता सा नियतिरिति तथा चोक्तम्- " न हि भवति यन्न भाव्यं भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन । करतलगतमपि नश्यति यस्य तु भवितव्यता नास्ति ॥ १ ॥" असत्यता चास्य पूर्ववद्वाच्या, 'एव'मित्युक्तप्रकारेण केचिन्नास्तिकादयो जल्पन्ति- 'ऋद्धिरससातगौरवपरा:' ऋद्ध्यादिषु गौरवं आदरः तत्मधाना इत्यर्थः, बहवः - प्रभूताः करणालसाः - चरणालसाश्चरणधर्म्म प्रत्यनुद्यताः स्वस्य परेषां च चित्ताश्वासननिमित्तमिति भावः, तथा प्ररूपयन्ति धर्म्मविमर्शकेण-धर्मविचारणेन 'मोसं'ति मृषा पारमार्थिकधर्म्ममपि खबुद्धिदुर्विलसितेनाधमै स्थापयन्ति, एतद्विपर्ययं चेति भावः, इह च संसारमोचकादयो निदर्शन For Parts Only ~73~ १ अधर्म द्वारे मृषावादिनः सू० ७ ॥ ३५ ॥ nary or Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ----------------------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत मिति, तथा अपरे केचन अधर्मतः-अधर्ममङ्गीकृत्य राजदुष्ट-नृपविरुद्ध अभिमरोऽयमित्यादिकं अभ्याख्यानं-परस्याभिमुखं दूषणवचनं भणन्ति-ब्रुवते अलीकं-असत्यं, अभ्याख्यानमेव दर्शयितुमाह-'चोर' इति भणन्तीति प्रकृतं, कं प्रतीत्याह-अचौर्यं कुर्वन्तं, चौरतामकुर्वाणमित्यर्थः, तथा डामरिको-विग्रहकारीति अपिचेति समुच्चये भणन्तीति प्रकृतमेवेति, एकमेक-चौरादिकं प्रयोजनं विनैव, कथम्भूतं पुरुषं प्रती त्याह-उदासीनं-डामरादीनामकारणं तथा दुःशील इति च हेतोः परदारान् गच्छतीत्येवमभ्याख्यानेन मलिKानयन्ति-पांसयन्ति शीलकलितं-सुशीलतया परदारविरतं तथा अयमपि न केवलः स एव गुरुतल्पक इति|दुर्विनीतः, अन्ये-केचन मृषावादिन एव निष्पयोजन भणन्ति उपनन्तः-विध्वंसयन्तः ततिकीयादिकमिति गम्यते, तथा मित्रकलत्राणि सेवते-मुहहारान् भजते, अयमपि न केवलमसौ लुप्तधर्मो-विगतधर्म इति 'इमोवि'त्ति अयमपि, विश्रम्भघातकः पापकर्मकारीति च व्यक्तं, अकर्मकारी-खभूमिकानुचितकर्मकारी अगम्यगामी-भगिन्याद्यभिगन्ता अयं दुरात्मा-दुष्टात्मा 'यहुएम य पावगेसु'त्ति बहुभिश्च पातकर्युक्त इत्येवं जल्पन्ति मत्सरिण इति व्यक्तं, भद्रके वा-निर्दोषे तेषां वाऽलीकवादिनां विनयादिगुणयुक्ते पुरुषे वाशब्दादभद्रके वा एवं जल्पन्तीति प्रक्रमः, किम्भूतास्ते इत्याह-गुणः-उपकारः कीर्तिः-प्रसिद्धिः लेहः-प्रीतिः |परलोको-जन्मान्तरं एतेषु निष्पिपासा-निराकासा येते तथा एवं-उक्तक्रमेण एतेऽलीकवचनदक्षाः परदोषोत्पादनप्रसक्ताः वेष्टयन्तीति पदत्रयं व्यक्तं, अक्षितिकवीजेन-अक्षयेण दुःखहेतुनेत्यर्थः, आत्मानं खं कर्म दीप अनुक्रम [११] murary.org ~74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], --------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: १ अधर्म द्वारे मृषावादिनः प्रत - सू०७ - प्रश्नब्याक- बन्धनेन प्रतीतेन मुखमेव अरि:-शत्रुरनकारित्वाद्येषां ते मुखारयः असमीक्षितपलापिन:-अपर्यालोचिता- र० श्रीअनर्थकवादिनः निक्षेपान-न्यासकानपहरन्ति परस्य सम्बन्धिनि अर्थे-द्रव्ये ग्रथितगृद्धाः-अत्यन्तगृद्धिमन्तः, भयदेव तथा अभियुञ्जते च-योजयन्ति च परमसद्भिर्दषणैरिति गम्यं, तथा लुब्धाश्च कुर्वन्ति कूटसाक्षित्वमिति वृत्तिः । व्यक्तं, तथा असत्या:-जीवानामहितकारिणः अर्थालीकं च-द्रव्यार्थमसत्यं भणन्तीति योगः कन्यालीकं च कुमारीविषयमसत्यं भूम्पलीकं प्रतीतं तथा गवालीकं च प्रतीतं गुरुक-यादरं खस्य जिह्वाच्छेदाद्यनर्थकरं प-1 बारेषां च गाढोपतापादिहेतु भणन्ति-भाषन्ते, इह च कन्यादिभिः पदैः द्विपदापदचतुष्पदजातयः उपलक्षणा थित्वेन संगृहीता द्रष्टव्याः, कथंभूतं तदित्याह-अधरगतिगमन-अधोगतिगमनकारणं अन्यदपि च-उक्तव्य+तिरिक्तं जातिरूपकुलशीलानि प्रत्ययः-कारणं यस्य तत्तथा तच्च मायया निगुणं च-निहतगुणं निपुणं च वा इति समासः, तत्र जातिकुले-मातापितृपक्षी तद्धेतुकं च प्रायोऽलीकं सम्भवति, यतो जात्यादिदोषात् केचिदलीकवादिनो भवन्ति, रूपं-आकृतिः शीलं-खभावस्तत्प्रत्ययं तु भवत्येव, प्रशंसानिन्दाविषयत्वेन वा जात्यादीनामलीकप्रत्ययता भावनीयेति, कथंभूतास्ते?-चपला मनश्चापल्यादिना, किम्भूतं तत्-पिशुन-परदोषाविष्करणरूपं परमार्थभेदकं-मोक्षप्रतिघातकं 'असंतगति असत्कमविद्यमानार्थमसत्यमित्यर्थः असत्त्वक वा-सत्त्वहीनं वा विद्वेष्यं-अप्रियं अनर्थकारक-पुरुषार्थोपघातकं पापकर्ममूलं-क्लिष्टज्ञानावरणादिवीज दुष्ट-1 असम्यक दृष्ट-दर्शनं यत्र तहुईष्टं दुष्टं श्रुतं-श्रवणं यत्र तदुःश्रुतं नास्ति मुणितं-ज्ञानं यत्र तदमुणितं निर्लजं| %9A% दीप अनुक्रम [११] ॥ ३६ ॥ REscam 3- murary.com ~75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [6] दीप अनुक्रम [११] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२] मूलं [७] श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्र.व्या. ७ Jan Eaton - लज्जारहितं लोकगर्हणीयं प्रतीतं, 'वधवन्धपरिक्लेशबहुलं' तत्र वधो-यष्ट्यादिताडनं बन्धः-संयमनं परिक्लेश:उपतापस्ते बहुलाः प्रचुरा यत्र तत्तथा भवन्ति चैतेऽसत्यवादिनामिति, जरामरणदुःखशोकेनेमं जरादीनां मूलमित्यर्थः, अशुद्धपरिणामेन संश्लिष्टं-सङ्केशवद्यत्तत्तथा, भणन्ति के ? - अलीको योऽभिसन्धिः - अभिप्रा यस्तत्र निविष्टा अलीकाभिसन्धिनिविष्टाः असद्गुणोदीरकाचेति व्यक्तं सद्गुणनाशकाश्च तदपलापका इत्यर्थः, तथा हिंसया भूतोपघातो यत्रास्ति तद्धिंसाभूतोपघातिकं वचनं भणन्तीति योगः, अलीकसम्प्रयुक्ताःसम्प्रयुक्तालीकाः, कथम्भूतं वचनं ? - सावयं-गर्हितकर्म्मयुक्तं अकुशलं जीवानामकुशलकारित्वात् अकुशलनरप्रयुक्तत्वाद्वा, अत एव साधुगर्हणीयं अधर्म्मजननं भणन्तीति पदत्रयं प्रतीतं कथम्भूता इत्याह ?-अनधिगतपुण्यपापा:- अवेदितपुण्यपापकर्म्महेतव इत्यर्थः, तदधिगमे हि नालीकवादे प्रवृत्तिः सम्भवति, पुनश्च अज्ञानोत्तरकालं अधिकरणविषया या क्रिया-व्यापारस्तत्प्रवर्त्तकाः, तत्राधिकरणक्रिया द्विविधा-निर्वर्त्तना |धिकरणक्रिया संयोजनाधिकरणक्रिया च तत्राद्या खड्डादीनां तन्मुष्ट्यादीनां च निर्वर्त्तनलक्षणा, द्वितीया तु तेषामेव सिद्धानां संयोजनलक्षणेति, अथवा तो यकाभिरधिक्रियते प्राणिनः ताः सर्वा अधिकरणक्रिया इति, बहुविधमनर्थहेतुत्वात् अपम-उपमर्द्दनं आत्मनः परस्य च कुर्वन्ति, एवमेव अबुद्धिकं जल्पन्तो भाषमाणाः, एतदेवाह - महिपान् शूकरांश्च प्रतीतान् साधयन्ति प्रतिपादयन्ति घातकानां तद्धिसकानां, शशमशयरोहितांश्च साधयन्ति वारिणां शशादय आटव्याः चतुष्पदविशेषाः, वागुरा-मृगबन्धनं For Penal Use Only ~76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [११] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२] मूलं [७] श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ॥ ३७ ॥ प्रश्नव्याक-सा येषामस्ति ते वागुरिणः, तित्तरवर्त्तकलावकांश्च कपिञ्जलकपोनकांश्च पक्षिविशेषान् साधयन्ति शकुनेनर० श्रीअ- श्येनादिना मृगयां कुर्वन्तीति शाकुनिकास्तेषां साउणीणमिति प्राकृतत्वात् झषमकरान् कच्छपांच-जभयदेव० ९ लचरविशेषान् साधयन्ति, मत्स्याः पण्यं येषां ते मात्स्यिकास्तेषां, 'संखंक'ति शङ्खाः प्रतीताः अङ्काश्च रूढिगम्याः वृत्तिः अतस्तान् क्षुल्लकांच कपर्दकान् साधयन्ति, मकरा इव मकरा जलविहारित्वाद्धीवरास्तेषां पाठान्तरे मग्गिणां -मार्गयतां तद्भवेषिणां अजगर गोनसमण्डलिदबकर मुकुलिनश्च साधयन्ति, तत्र अजगरादय उरगविशेषाः दर्वी करा:-फणभृतः मुकुलिनः तदितरे, व्यालान् भुजङ्गान् पान्तीति व्यालपास्ते विद्यन्ते येषां ते व्यालपिनः तेषां अथवा व्यालपानामत्र प्राकृतत्वेन - बालवीणंति प्रतिपादितं, वाचनान्तरे 'वायलियाणं'ति दृश्यते, तत्र व्यालेश्वरन्तीति वैयालिकास्तेषां वैपालिकानामिति, तथा गोधाः सेहाच शल्यकशरटकां साधयन्ति लsuकानां, गोधादयो भुजपरिसर्पविशेषाः शरटकाः - कृकलाशाः, गजकुलबानरकुलानि च साधयन्ति पा शिकानां कुलं कुटुंबं यूथमित्यर्थः, पाशेन बन्धनविशेषेण चरन्तीति पाशिकास्तेषां शुकाः-कीरा बर्हिणोमयूराः मदनशालाः- शारिकाः कोकिला:- परभृतः हंसाः प्रतीतास्तेषां यानि कुलानि वृन्दानि तानि तथा, सारसांश्च साधयन्ति पोषकाणां पक्षिपोषकाणामित्यर्थः तथा वधः-ताडनं बन्ध:- संयमनं यातनं च-कदर्थनमिति समाहारद्वन्द्वस्तव साधयन्ति गोल्मिकानां - गुप्तिपालकानां, तथा धनधान्यगवेलकांश्च साधयन्ति तस्कराणामिति प्रतीतं, किन्तु गावो-बलीवर्डसुरभयः एलका - उरभ्राः, तथा ग्रामनगरपत्तनानि साधयन्ति For Park Use Only ~77 ~ २ अधर्म द्वारे मृषावादिनः सू० ७ ॥ ३७ ॥ nerary.org Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], --------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत चारिकाणां, नकर-करवर्जितं, पत्तनं द्विविधं-जलपत्तनं स्थलपत्तनं च, यत्र जलपथेन भाण्डानामागमस्तदाय || यत्र च स्थलपथेन तदितरत्, चारिकाणां-प्रणिधिपुरुषाणां, तथा पारे-पर्यन्ते मार्गस्य घातिका-गन्तॄणां हननं पारघातिका 'पंधघाइयत्ति पथि-मार्गे अर्द्धपथे इत्यर्थः घातिका-गन्तृणां हननं पधिघातिका अनयोइन्द्रोऽतस्ते, साधयन्ति च ग्रन्थिभेदानां-चौरविशेषाणां कृतां च चौरिकां-चोरणं नगरगुप्तिकानां नगररक्षकाणांसाधयन्तीति वर्तते, तथा लाञ्छनं-कर्णादिकल्पनाऽङ्कनादिभिर्निर्लाञ्छनं-बर्द्धितककरणं 'धमण'तिध्मानं महिष्यादीनां वायुपूरणं दोहनं-प्रतीतं पोषणं-यवसादिदानतः पुष्टिकरणं वचनं-वत्सस्यान्यमातरि योजनं 'दुमण ति दुवनमुपतापनमित्यर्थः वाहनं-शकटाद्याकर्षणं एतदादिकानि अनुष्ठानानि साधयन्ति बहूनि गोमिकानां-गोमतां, तथा धातुः-ौरिकं धातवो वा-लोहादयः मणय:-चन्द्रकान्तायाः शिला-दृषदः प्रवालानि-विद्रुमाणि रत्नानि-कतनादीनि तेषामाकराः-खानयस्तान् साधयन्त्याकरिणां-आकरवतां, 'पुष्पेत्यादि वाक्यं प्रतीतं, नवरं विधिः-प्रकारः, तथा अर्थश्च-मूल्यमानं मधुकोशकाश्च-क्षौद्रोत्पत्तिस्थानानि अर्थमधुकोशकास्तान साधयन्ति वनचराणां-पुलीन्द्राणां, तथा यत्राणि-उच्चाटनाद्याक्षरलेखनप्रकारान् जलसङ्ग्रामादियत्राणि वा उदाहरन्तीति योगा, विषाणि-स्थावरजङ्गमभेदानि हालाहलानि मूलकर्म-मूलादिप्रयोगतो गर्भपातनादि 'आहेवण'त्ति आक्षेपं पुरक्षोभादिकरणं पाठान्तरेण 'आहिव्वर्णति आहित्यं अहितत्त्वं-शत्रुभावं पाठान्तरेण 'अविंधण'त्ति आव्यधनं मन्त्रावेशनमित्यर्थः आभियोग्य-वशीकरणादि तच्च दीप अनुक्रम [११] AMRA murary.org ~784 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: द्वारे प्रत दिनः [७]] नव्याक- II द्रव्यतो द्रव्यसंयोगजनितं भावतो विद्यामन्त्रादिजनितं बलात्कारो वा मन्त्रापधिप्रयोगान्नानाप्रयोजनेषु सदर अधर्मर० श्रीअ- व्यापारणानीति द्वन्दोऽतस्तान , तथा चोरिकायाः परदारगमनस्य बहुपापस्य च कर्मणो-व्यापारस्य यत्करण भयदेवतत्तथा, अवस्कन्दान-छलेन परवलमर्दनानि ग्रामघातिकाः प्रतीता: वनदहनतडागभेदनानि च प्रतीतान्येय मृषावावृत्तिः वुद्धविषयस्य च यानि विनाशनानि तथा वशीकरणानि प्रतीतानि भयमरणक्लेशद्वेषजनकानि कनुरिति ग म्यते, भावेन-अध्यवसायेन बहुसक्लिष्टेन मलिनानि-कलुषाणि यानि तानि तथा, भूतानां-पाणिनां घा॥३८॥ तश्च-हननं उपघातश्च-परम्पराघात: तो विद्यते येषु तानि भूनघालोपघातकानि, सत्यान्यपि द्रव्यतस्तानीति यानि पूर्वमुपदर्शितानि हिंसकानि-हिंस्राणि वचनान्युदाहरन्ति, तथा पृष्टा वा अपृष्टा. वा प्रतीताः परतप्तिव्यावृत्ताश्च-परकृत्यचिन्तनाक्षणिकाः असमीक्षितभाषिण:-अपर्यालोचितवक्तारः उपदिशंति-अनुशासति सहसा-अकस्मात् यदुत उष्ट्राः-करभाः गोणा-गावः गवया-आटव्याः पशुविशेषाः दम्यन्तां-विनीयन्तां, तथा परिणतवयसः-सम्पन्नावस्थाविशेषास्तरुणा इत्यर्थः अश्वा हस्तिनः प्रतीताः गवेलगकुलुटाच-उरभ्रता-IM सम्रचूडाच क्रीयन्ता-मूल्येन गृचंता कापयत च एतान्येव ग्राहयत च विक्रीणिध्वं विक्रेतव्यं, तथा पचत च। पचनीयं, खजनाय च दत्त पिचत च पातव्यं मदिरादि, वाचनान्तरेण खादत पियत दत्त च, तथा दास्य:चेटिका दासा:-चेटकाः भृतका:-भक्तदानादिना पोषिताः 'भाइल्लगत्ति ये लाभस्य भाग-चतुर्भागादिकं लभन्ते, एतेषां द्वन्द्वस्ततस्ते च शिष्याश्च-विनेयाः प्रेष्यजन:-प्रयोजनेषु प्रेषणीयो लोकः कर्मकराः-नियतकाल दीप अनुक्रम [११] M३८॥ murary.orm ~79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१], --------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत मादेशकारिणः किङ्कराश्च-आदेशसमाप्तौ पुनः प्रश्नकारिणः एते पूर्वोक्ताः खजनपरिजनं च कस्मादासतेअवस्थानं कुर्वन्ति 'भारिया भे करित्तु कम्मति कृत्वा-विधाय कर्म-कृत्यं तत्समाप्तौ यतो भारिका-दुनिबाह: भे भवतां, 'करित्वि'ति कचित्पाठः तत्र "भारिय'त्ति भायो 'भे' भवतः सम्बन्धिन्यः कर्म कुर्वन्त. अन्यान्यपि पाठान्तराणि सन्ति तानि च स्वयं गमनीयानि, तथा गहनानि-गहराणि वनानि च-वनखण्डाः क्षेत्राणि च-धान्यवपनभूमयः खिलभूमयश्च-हलैरकृष्टाः वल्लराणि च-क्षेत्रविशेषास्ततस्तानि उत्तृणैः-ऊर्द्धगतैः तृणैः घनं-अत्यर्थ सङ्कटानि-सङ्कीर्णानि यानि तानि तथा तानि दह्यन्तां, पाठान्तरेण गहनानि वनानि छिद्यन्तामखिलभूमिवल्लराणि उत्तृणधनसङ्कटानि दह्यन्तां, 'सूडिजंतु यत्ति सूद्यन्तां च वृक्षाः भिद्यन्तां छियन्तां वा यत्राणि च-तिलयन्त्रादिकानि भाण्डानि च-भाजनानि कुण्डादीनि भण्डी वा-गन्त्री एतान्यादिर्यस्य तत्तथा तस्य उपधेः-उपकरणस्य 'कारणाए'त्ति कारणाय हेतवे, वाचनान्तरे तु यत्र भाण्डस्योक्त रूपस्य कारणात्-हेतोः, तथा बहुविधस्य च कार्यसमूहस्येति गम्यं, अर्थाय इक्षवो 'दुजंतु'त्ति दूयन्तां लूयमन्तामिति धातनामनेकार्थत्वात्, तथा पीड्यन्तां च तिला: पाचयत चेष्टकाः गृहाथै, तथा क्षेत्राणि कृषत Bाकर्षयत वा, तथा लघु-शीघं ग्रामादीनि निवेशयत, तत्र ग्रामो जनपदप्रायजनाश्रितः नगरं-अविद्यमानकरदान कट-कुनगरं, क?-अटवीदेशेषु, किंभूतानि ग्रामादीनि?-विपुलसीमानि, तथा पुष्पादीनि प्रतीतानि कालपत्ताईति अवसरप्राप्तानि गृह्णीत कुरुत सञ्चयं परिजनाथै, तथा शाल्यादयः प्रतीताः लूयन्तां मल्यन्ता दीप अनुक्रम [११] REAnd marary.org ~80 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [११] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक वृत्तिः ॥ ३९ ॥ उत्पूयन्तां च लघु च प्रविशन्तु कोष्ठागारं 'अप्पम को सगाई'ति अल्पा- लघवो महान्तः तदपेक्षया मध्यमा ० श्रीअ- १ इत्यर्थः उत्कृष्टा - उत्तमाश्च हन्यन्तां पोतसार्थाः बोहित्यसमुदायाः शावकसमूहा वा, तथा सेना - सैन्यं निभयदेव० र्यातु-निर्गच्छतु निर्गत्य च यातु-गच्छतु डमरं विदुरस्थानं तथा च घोरा-रौद्राश्च वर्त्तन्तां च जायन्तां स* ड्रामा-रणाः तथा प्रवहन्तु च प्रवर्त्ततां शकटवाहनानि गयो यानपात्राणि च तथा उपनयनं - बालानां ४. कलाग्रहणं 'चोलगं'ति चूडापनयनं बालकप्रथममुण्डनं विवाहं पाणिग्रहणं यज्ञ-यागः अमुष्मिन् भवतु दिबसे तथा सुकरणं-ववादिकानामेकादशानामन्यतरदभिमतं सुमुहरों - रौद्रादीनां त्रिंशतोऽन्यतरोऽभिमतो यः एतयोः समाहारद्वन्द्वस्ततस्तत्र तथा सुनक्षत्रे-पुष्यादौ सुतिथौ च पञ्चानां नन्दादीनामन्यतरस्यामभिमतायां अद्य-अस्मिन्नहनि भवतु स्लपनं- सौभाग्यपुत्रायर्थं वध्वादेर्मज्जनं मुदितं प्रमोदवत् बहुखाद्यपेयकलितं प्रभूतमांसमयानुपेतं तथा कौतुकं रक्षादिकं विण्हावणकत्ति विविधैर्मन्त्र मूलादिभिः संस्कृतजलैः स्नापनक विलापनकं शान्तिकम् च - अग्निकारिकादिकमिति द्वन्द्वः, ततस्ते कुरुत, केष्वित्याह- शशिख्योः चन्द्रसूर्ययोर्ग्रहण-राहुलक्षणेन उपरागः- उपरञ्जनं ग्रहणमित्यर्थः शशिरविग्रहोपरागः, स च विषमाणि च विधुराणि दुःखमाशिवादीनि तेषु, किमर्थमित्याह - खजनस्य परिजनस्य च निजकस्य जीवितस्य च परिरक्षणार्थायेति व्यक्तं प्रतिशीर्षकाणि च दत्तखशिरःप्रतिरूपाणि पिष्टादिमवशिरांसि आत्मशिरोरक्षार्थं यच्छत चण्डिकादिभ्य इत्यर्थः तथा दत्त च शीर्षपहारान् पश्वादिशिरोवलीन् देवतानामिति गम्यते, विविधौषधिमद्यमां For Parts Only ~ 81~ २ अधर्म द्वारे मृषावादिनः सू० ७ ॥ ३९ ॥ January.org Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सभक्ष्यानपानमाल्यानुलेपनानि च प्रदीपाश्च ज्वलितोज्वला: सुगन्धिधूपस्यापकारश्च-अपकरणं-अङ्गारोप-1 रिक्षेपः पुष्पफलानि च तैः समृद्धाः-सम्पूर्णा ये शीर्पोपहारास्ते तथा तान्, दत्त चेति प्रकृतं, तथा प्रायश्चित्तानि-प्रतिविधानानि कुरुत, केन?-प्राणातिपातकरणेन-हिंसया बहुविधेन-नानाविधेन, किमर्थमित्याहविपरीतोत्पाता:-अशुभसूचकाः प्रकृतिविकाराः दुःखमाः पापशकुनाश्च प्रतीताः असौम्यग्रहचरितं च-क्रूरग्रहचारः अमङ्गलानि च यानि निमित्तानि-अङ्गस्फुरितादीनि एतेषां द्वन्द्वस्तत एतेषां प्रतिघातहेतोः-उपहमननिमित्तमिति, तथा बृत्तिच्छेदं कुरुत मा दत्त किश्चिद्दानमिति, तथा सुष्टु हत २, इह तु सम्भ्रमे द्वित्वं, सष्ठ छिन्नो भिन्नश्च विवक्षितः कश्चिदिति एवमुपदिशन्तः एवंविधं नानाप्रकारं पाठान्तरे वा त्रिविधं-त्रिप्रकारं कुर्वन्त्यलीकं द्रव्यतोऽनलीकमपि सत्त्वोपघातहेतुत्वाद् भावतोऽलीकमेव, त्रैविध्यमेवाह-मनसा वाचा |'कम्मुणा यत्ति कायक्रियया, तदेतावता यथा क्रियतेऽलीकं येऽपि तस्कुर्वन्ति एतद्द्वारद्वयं मिश्रं परस्परेणोक्तं, अथ ये ते कुर्वन्ति तान् भेदेनाह-अकुशलाः-वक्तव्यावक्तव्यविभागानिपुणा अनार्या:-पापकर्मणो दूरमयाताः 'अलियाणत्ति अलीका आज्ञा-आगमो येषां ते तथा, अत एव अलीकधर्मनिरताः, अलीकासु कथाखभिरममाणाः, तथा तुष्टा 'अलियं करेत्तु होति य बहुप्पगार मित्यत्र तुष्टा भवन्ति चालीकं बहुप्रकारं कृत्वा-उक्त्वेत्येवमक्षरघटना कार्यति । तथा अलीकविपाकप्रतिपादनायाह दीप अनुक्रम [११] SAREara n a ~82 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], --------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: २ अधर्म द्वारे प्रश्नब्याक र.श्रीअभयदेव. प्रत वृत्तिः मृषावादविपाक: सु०८ ॥४०॥ ८ तस्स य अलियरस फलविवागं अयाणमाणा वढेति महयभयं अविस्सामधेयणं दीहकालं बहुदुक्खसंकर्ड नरयतिरियजोणिं तेण य अलिएण समणुबद्धा आइद्धा पुणभवंधकारे भमंति भीमे दुग्गतिवसहिमुवगया, ते य दीसंतिह दुग्गया दुरंता परवत्सा अत्यभोगपरिवज्जिया असुहिता फुडियच्छवित्रीभच्छविवन्ना खरफरसविरत्तशामझुसिरा निच्छाया लल्लविफलवाया असकतमसक्कया अगंधा अचेयणा दुभगा अर्कता काकस्सरा हीणभिन्नघोसा विहिंसा जडबहिरन्धया य मम्मणा अकंतविकयकरणा णीया णीयजणनिसेविणो लोगगरहणिज्जा भिच्चा असरिसजणस्स पेस्सा दुम्मेहा लोकवेदअज्झप्पसमयसुतिबज्जिया नरा धम्मबुद्धिवियला अलिएण य तेणं पडझमाणा असंतएण य अवमाणणपट्ठिमंसाहिक्खेवपिसुणभेयणगुरुबंधवसयण मित्तवक्खारणादियाई अब्भक्खाणाई बहुविहाई पावेंति अमणोरमाई हिययमणदमकाई जावजीवं दुरुद्धराई अणिहखरफरुसवयणतजणनिभच्छणदीणवदणविमणा कुभोयणा कुवाससा कुवसहीसु किलिस्संता नेव सुहं नेव निव्वुई उपलभंति अच्चंतविपुलदुक्खसयसंपलित्ता । एसो सो अलियवयणस्स फलविवाओ इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महन्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ, न य अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति, एवमासु नायकुलनंदणो महप्पा जिणो उ धीरवरनामधेजो कहेसी य अलियवयणस्स फलविवागं एयं तं वितीयपि अलियवयणं लहसगलहचवलभणियं भयंकर दुहकर अयसकर वेरकरगं अरतिरतिरागदोसमणसंकिलेसविरयणं अलियणियडिसादिजोगबहुलं नी दीप अनुक्रम [१२]] 2045644660904 ॥४०॥ Santainmna aurainrary.org ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- ------------- अध्ययनं [२] -------- --------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राक यजणनिसेवियं निस्संस अप्पच्चयकारक परमसाहुगरहणिज परपीलाकारकं परमकण्हलेससहियं दुग्गतिविनिवायवहणं पुणभवकरं चिरपरिचियमणुगयं दुरुतं बितियं अधम्मदारं समत्तं ॥ २॥ (सू०८) 'तस्सेत्यादि 'तस्सति यदु द्वितीयाश्रवत्वेनोच्यते तस्य अलीकस्य फलस्य-कर्मणो विपाक:-उदयः साध्यमित्यर्थः, तमजानन्तो बर्द्धयन्ति महाभयां-अविश्रामवेदना दीर्घकालं बहुदुःखसङ्कटां नरकतियेग्योनि तत्रोत्पादनमित्यर्थः, तेन चालीकेन तजनितकर्मणेत्यर्थः समनुवद्वा:-अविरहिताः आदिग्धास्तु-आलिङ्गिताः पुनर्भवान्धकारे भ्राम्यन्ति भीमे दुर्गतिवसतिमुपागताः,ते च दृश्यन्ते इह-जीवलोके, किंभूता इत्याह-दुग्गंता:-दुःस्था दुरन्ताः-दुष्पर्यवसानाः परवशा:-अखतनाः अर्थभोगपरिवर्जिताः-द्रव्येण भोगैश्च रहिताः 'असुहियत्ति असुखिताः अविद्यमानसुहृदो चा स्फुटितच्छवया-विपादिकाविचर्चिकादिभिर्विकृतत्त्वचः बीभत्सा-विकृतरूपा विवर्णा-विरूपवर्णा इति पदत्रयस्य कर्मधारयः तथा खरपरुषा-अतिकर्कशस्पर्शाः विरक्ता-रतिं कचिदप्यप्राप्ताः ध्यामाः-अनुजवलच्छायाः शुषिरा:-असारकाया इति पदचतुष्टपस्य कर्मधारयः, निछाया:-विशोभाः लल्ला-अव्यक्ता विफला-फलासाधनी बाग येषां ते तथा 'असकयमसक्कयत्ति न विद्यते संस्कृतं-संस्कारो येषां ते असंस्कृनाः असत्कृता:-अविद्यमानसत्कारास्ततः कर्मधारयो मकारश्वालाक्षणिकः अत्यन्तं वा असंस्कृतासंस्कृताः अत एवागन्धा:-अमनोज्ञगन्धाः अचेतना विशिष्टचैतन्याभावात् दुर्भगा:-अनिष्टाः अकान्ताः-अकमनीयाः काकस्येव खरो येषां ते काकखरा हीनो-हस्खो भिन्नश्च-स्फुटितो दीप अनुक्रम [१२]] SAREnatalelona ~84 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [C] दीप अनुक्रम [१२] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक-घोषो येषां ते तथा विहिंस्यन्त इति विहिंसा: जडा-मूर्खाः बधिरान्धकाश्च ये ते तथा पाठान्तरेण जडबधिर० श्रीअ- रमूकाश्च मन्मनाः- अव्यक्तवाचः अकान्तानि अकमनीयानि विकृतानि च करणानि इन्द्रियाणि कृत्यानि भयदेव० वा येषां ते तथा, वाचनान्तरेऽकृतानि च न कृतानि विरूपतया कृतानि करणानि यैस्ते तथा नीचा जावृत्तिः ४ व्यादिभिः नीचजननिषेविणो लोकगर्हणीया इति पदद्वयं व्यक्तं, भृत्याः मर्त्तव्या एव तथा असंदृशजनस्य - * असमानशीललोकस्य द्वेष्या-द्वेषस्थानं प्रेष्या वा आदेश्याः दुर्मेधसो- दुर्बुद्धयः, 'लोके'त्यादि श्रुतिशब्दस्य & ५ * प्रत्येकं सम्बन्धात् लोकश्रुतिः - लोकाभिमतं शास्त्रं भारतादि वेदश्रुतिः - ऋक्सामादिवेदशास्त्रं अध्यात्मश्रुतिः* चित्तजयोपायप्रतिपादनशास्त्रं समयश्रुतिः- आईतबौद्धादिसिद्धान्तशास्त्रं ताभिर्वर्जिता ये ते तथा, क एते एवम्भूता इत्याह- नरा- मानवाः, धर्मबुद्धिविकलाः प्रतीतं, अलीकेन च अलीकवादजनितकर्माग्निना तेन का लान्तरकृतेन प्रदह्यमाना: 'असंतपणं'ति अशान्तकेन - अनुपशान्तेन असता वा अशोभनेन रागादिप्रवर्त्ति| तेनेत्यर्थः अपमानादि प्राप्नुवन्तीति सम्बन्धः, तत्रापमाननं च मानहरणं पृष्ठिमांसं च-परोक्षस्य दूषणाविकरणं अधिक्षेपश्च-निन्दाविशेषः पिशुनैः खलैर्भेदनं च परस्परं प्रेमसम्बद्धयोः प्रेमच्छेदनं गुरुबान्धवखजनमित्राणां सत्कमपक्षारणं च अपशब्द क्षारायमाणं वचनं पराभिभूतस्य वा एषामपक्षकरणं सान्निध्याकरणमित्यर्थः एतानि आदिर्येषां तानि तदादिकानि, तथा अभ्याख्यानानि-असदूषणाभिधानानि बहुविधानानि प्राप्नुवन्ति-लभन्ते इत्यनुपमानि पाठान्तरेण अमनोरमाणि हृदयस्य उरसो मनसा-चेतसो 'दूमगाई' ति ॥ ४१ ॥ For Penal Use On ~ 85~ २ अधर्म द्वारे मृषावादविपाकः सू० ८ ॥ ४१ ॥ jrary or Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्क न्ध : [१], --------- ------------- अध्ययनं [२] -------- ---------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत दावकान्युपतापकानि यानि तानि तथा, यावजीवं दुरुद्धराणि-आजन्माप्यनुद्धरणीयानि अनिष्टेन खरपरुषेण च-अतिकठोरेण वचनेन यत्तर्जन-रे दास! पुरुषेण भवितव्यमित्यादि निर्भर्त्सनं-अरे! दुष्टकर्मकारिनपसर दृष्टिमार्गादित्यादिरूपं ताभ्यां दीनवदनं 'विमण'त्ति विगतं च मनो येषां ते तथा, कुभोजनाः कुवाससः कुवसतिषु क्लिश्यन्तो नैव सुखं शारीरं नैव निवृति-मनःस्वास्थ्यं उपलभन्ते-प्रामुवन्ति अत्यन्तविपुलदुःखशतसम्प्रदीप्ताः । तदियताऽलीकस्य फलमुक्तं, 'एसों इत्यादिना त्वधिकृतद्वारनिगमनं इति, व्याख्या त्वस्य प्रथमाध्ययनपश्चमद्वारनिगमनवत्, 'एयं तं वितियंपी'त्यादिनाऽध्ययननिगमनं, अस्य त्वधिकृताध्ययनप्रथमद्वारबदू व्याख्यानं, परं एतत्तद्यत्मागुद्दिष्टं द्वितीयमपि अधर्मद्वारं न केवलं प्रथममेवेति विशेषः, तदेवं द्वितीयमधर्मद्वारं समाप्तमिति, इतिशब्दब्रवीमिशब्दावपि पूर्ववदेवेति प्रश्नव्याकरणे द्वितीयमध्ययनं विवरणतः समाप्तमिति ॥२॥ दीप अनुक्रम [१२]] अथ तृतीयमदत्तादानाख्यमधर्मद्वारम् । | व्याख्यातं द्वितीयमध्ययन, अथ तृतीयमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सह सूत्राभिहिताश्रवद्वारक्रमकृत एवं सम्बन्धोऽथवा पूर्वत्रालीकखरूपं प्ररूपितं अलीकं चादत्तग्राहिणः प्रायेण जल्पन्तीत्यदत्तादानस्वरूपमिह प्ररूप्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् अत्र प्रथमे श्रुतस्कन्धे द्वितीयं अध्ययनं "मषावाद" परिसमाप्तं अथ प्रथमे श्रुतस्कन्धे तृतीयं अध्ययनं "अदत्तादानं" आरभ्यते "अदत्तादान::" - नामक तृतीयं अधर्मद्वारं ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा" - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: द्वारे प्रत वृत्तिः हैनस्वरूप प्रश्वव्याक- जंबू तश्यं च अदत्तादाणं हरदहमरणभयकलुसतासणपरसंतिगऽभेजलोभमूलं कालबिसमसंसियं अहोऽच्छि ३ अधर्मर०श्रीअ- सतण्हपत्थाणपत्थोइमइयं अकित्तिकरणं अणजं छिदमंतरविधुरवसणमग्गणउस्सवमत्तप्पमत्तपत्तवंचणभयदेव० क्खिवणघायणपराणिहुयपरिणामतकरजणबहुमयं अकलुणं रायपुरिसरक्खियं सया साहुगरहणिज पिय- अदत्तादाजणमित्तजणभेदविप्पीतिकारक रागदोसबहुलं पुणो य उप्पूरसमरसंगामडमरकलिकलहवेहकरणं दुग्गइविणिवायवहणं भवपुणब्भवकरं चिरपरिचितमणुगयं दुरंतं तइयं अधम्मदारं (सू०९) सू०९ ॥४२॥ 'जम्बू।' इत्यादि, यथा पूर्वाध्ययनयोः याशयन्नामादिभिः पञ्चभिधरैरध्ययनार्थप्ररूपणा कृता एवमिहापि करिष्यते, तत्र यादृशमदत्तादानं स्वरूपेण तत्प्रतिपादयंस्तावदाह-हे जम्बू! तृतीयं पुनराम्रवद्वाराणां, किं?है अदत्तस्य धनादेरादानं-ग्रहणमदत्तादानं हर दह इति-एतौ हरणदायोः परप्रवर्त्तनायौँ शब्दी वहनहरणपबर्यायी वा छान्दसाविति तीच मरणं च-मृत्युः भयं च-भीतिरेता एवं कलुष-पातकं तेन त्रासनं-बासजनन खरूप पत्तत्तथा तच तत् तथा 'परसंतिग'त्ति परसत्के धने योऽभिध्यालोमो-रौद्रध्यानान्विता मूछों स मूलं-निवन्धनं यस्यादत्तादानस्य तत्तथा तथेति कर्मधारयः, कालश्च-अर्द्धरात्रादि विषमं च-पर्वतादिदुर्ग ते संश्रित-आश्रितं यत्तत्तथा, ते हि प्रायः तत्कारिभिराश्रीयेते इति, 'अहोऽछिण्णतण्हपत्याणपत्थोहमसाइयाति अध:-अधोगती अच्छिन्नतृष्णानां-अत्रुटितवाञ्छानां यत्प्रस्थान-यात्रा तत्र प्रस्तोत्री-प्रस्ताविकाला प्रवर्तिका मतिः-चुहियसिस्तत् तथा, अकीर्तिकरणमनार्य एते व्यक्ते, तथा छिद्र-प्रवेशद्वारं अन्तरं-अवसरो दीप अनुक्रम [१३] A lina Auditurary.com अदत्तादानस्य स्वरूप 4874 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र- [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत विधुरं-अपायो व्यसनं-राजादिकृताऽऽपत् एतेषां मार्गणं च उत्सवेषु मत्तानां च प्रमत्तानां च प्रसुप्तानां च | वचनं च-प्रतारणं आक्षेपणं च-चित्तव्यग्रतापादनं घातनं च-मारणमिति द्वन्द्वः तत एतत्परः-एतनिष्ठः अनिभृत:-अनुपशान्तः परिणामो यस्यासौ छिद्रान्तरविधुरब्यसनमार्गणोत्सवमत्तप्रमत्तप्रसुप्तवञ्चनाक्षेपणघातनपरानिभृतपरिणामः स चासौ तस्करजनस्य तस्य बहुमतं यत्तत्तधा, वाचनान्तरे खिदमेवं पश्यते-छिद्रविषजामपापकं च-निलं छिद्रविषमयोः सम्बन्धीदं पापमित्यर्थः, अन्यदा हि तत्पापं प्रकर्नुमशक्यमिति भावः, अ-IF निभृतपरिणाम-सलिष्टं तस्करजनबहुमतं चेति, अकरुण-निर्दयं राजपुरुषरक्षितं तैर्निवारितमित्यर्थः सदा साधुगर्हणीयं प्रतीतं प्रियजनमित्रजनानां भेद-वियोजनं विप्रीतिं च-विप्रियं करोति यत्तत्तथा, रागद्वेषबहुलं प्रतीतं, पुनश्च-पुनरपि 'उप्पूरत्ति उत्पूरेण-प्राचुर्येण समरो-जनमरकयुक्तो यः सङ्कामो-रणः स उत्पूरसम-I सारसङ्कामः स च डमर:-बिदरः कलिकलहव-राटीकलहो न तु रतिकलहः वेधश्च-अनुशयः एतेषां करणं-कारणं यत्तत्तथा, दुर्गतिविनिपातवर्द्धनं प्रतीतं भवे-संसारे पुनर्भवान-पुनःपुनरुत्पादान् करोतीत्येवंशीलं यत्तत्तधा, चिरं परिचितं प्रतीतं अनुगतं-अव्यवच्छिन्नतयाऽनुवृत्तं दुरन्तं-दुष्टावसानं विपाकदारुणत्वात् तृतीपमधर्मद्वार-पापोपाय इति । तदियता यादृश इत्युक्तं, अथ यन्नामेत्यभिधातुमाह तस्स य णामाणि गोत्राणि होति तीसं, तंजहा-चोरिकं १ परहई २ अदत्तं ३ कूरिकर्ड ४ परलाभो ५ असंजमो ६ परधर्णमि गेही ७ लोलिक ८ तकरतणंति य ९अवहारो १० हत्थलहुत्तणं ११ पापकम्मकरणं दीप अनुक्रम [१३] म.च्या . अदत्तादानस्य स्वरूपं अदत्तादानस्य त्रिंशत् नामानि ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रश्नण्याकर० श्रीअभयदेव. प्रत | ३ अधर्म द्वारे अदत्तादाननामानि सू०१० वृत्तिः ॥४३॥ १ ) 2534%95%5 १२ तेणिक १३ हरणविपणासो १४ आदियणा १५ लुंपणा धणाण १६ अप्पञ्चओ १७ अवीलो १८ अक्खेवो १९ खेको २० विक्खेवो २१ कूडया २२ कुलमसी य २३ कंखा २४ लालप्पणपत्थणा य २५ आससणाय वसणं २६ इच्छामुच्छा य २७ तण्हागेहि २८ नियडिकम्म २९ अपरच्छंतिविय ३० तस्स एयाणि ए बमादीणि नामधेज्जाणि होति तीसं अदिनादाणस्स पावकलिकलुसकम्मबहुलस्स अणेगाई (सू०१०) 'तस्से'त्यादि सुगम, 'तय'त्युपदर्शनार्थी, 'चोरिकंति चोरणं चोरिका सैव चौरिक्यं १ परस्मात्सकाशाद्भुतं परहतं २ अदत्तं-अवितीर्ण ३ 'कूरिकर्ड'ति क्रूरं चित्तं कृरो वा परिजनो येषामस्ति ते कुरिणस्तैः कृतंअनुष्ठितं यत्तत्तथा, कचित्तु कुरुटुककृतमिति दृश्यते तत्र कुरुटुका:-काकटुकबीजप्रायाः अयोग्याः सद्गुणानामिति ४ परलाभा-परस्माद्रव्यागमः ५ असंयमः ६ परधने गुजि: ७'लोलिक सि लौल्यं ८ तस्करत्वमिति च ९ अपहारः १०'हत्थलत्तणं'ति परधनहरणकुत्सितो हस्तो यस्यास्ति स हस्तलस्तावो हस्तलत्वं पाठान्तरेण हस्तलघुत्वमिति ११ पापकर्मकरणं १२'तेणिकन्ति स्तेनिका स्तेयं १३ हरणेन-मोषणेन विप्रणाशः परद्रव्यस्य हरणविप्रणाशः १४ 'आइयणति आदानं परधनस्येति गम्यते १५ लोपना-अवच्छेदनं धनानां-व- व्याणां परस्येति गम्यते १६ अप्रत्ययकारणत्वादप्रत्ययः १७ अवपीडनं परेषामित्यवपीडा १८ आक्षेपः परद्रव्यस्येति गम्यते १९क्षेपः परहस्तात् द्रव्यस्य प्रेरणं २० एवं विक्षपोऽपि २१ कूटता-तुलादीनामन्यथात्वं २२ कुलमषी च कुलमालिन्यहेतुरितिकृत्वा २३ काला परद्रव्ये इति गम्यते २४ 'लालप्पणपत्थणा यति लाल दीप अनुक्रम [१४] ॥४३॥ अदत्तादानस्य त्रिंशत् नामानि ~89. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], -------- ------------ अध्य यनं [३] ---------- ---------- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत १०) पनस्य-गर्हितलापस्य प्रार्थनेव प्रार्थना लालपनप्रार्थना, चौर्य हि कुर्वन् गर्हितलपनानि तदपलापरूपाणि दीनवचनरूपाणि वा प्रार्थयत्येव, तत्र हि कृते तान्यवश्यं वक्तव्यानि भवन्तीति भावः २५ व्यसनं व्यसनहेतुत्वात् पाठान्तरेण 'आससणाय वसणं ति आशसनाय-विनाशाय व्यसनमिति २६ इच्छा च-परधनं प्रत्यभिलाषः मूर्छा-तत्रैव गाढाभिषङ्गरूपा तद्धेतुकत्वाददत्तग्रहणस्येति इच्छामूळ च तदुच्यते २७ तृष्णा च -प्राप्तद्रव्यस्याव्ययेच्छा गृद्धिश्च-अप्राप्तस्य प्राप्सिवाञ्छा तद्धेतुकं चादत्तादानमिति तृष्णा गृदिश्वोच्यत इति है|२८ निकृतेः-मायायाः कर्म निकृतिकर्म २९ अविद्यमानानि परेषामक्षीणि द्रष्टव्यतया यत्र तदपराक्षं अस मक्षमित्यर्थः, इतिरुपदर्शने अपिचेति समुच्चये ३०, इह च कानिचित्पदानि सुगमस्वान्न व्याख्यातानि, 'त|स्सत्ति यस्य स्वरूपं प्राग्वर्णितं तस्यादत्तादानस्येति सम्बन्धः, पतानि-अनन्तरोदितानि त्रिंशदिति योगः12 एवमादिकानि-एवंप्रकाराणि चानेकानीति सम्बन्धः, अनेकानीति कचिन्न दृश्यते, नामधेयानि-नामानि भवन्ति, किम्भूतस्य अदत्तादानस्य ?-पापेन-अपुण्यकर्मरूपेण कलिमा च-युद्धेन कलुषाणि-मलीमसानि यानि कर्माणि-मित्रद्रोहादिव्यापाररूपाणि तैर्बहुलं-प्रचुरं यत् तानि वा बहुलानि-बहूनि यत्र तत्तथा तस्य । अथ ये अदत्तादानं कुर्वन्ति तानाह तं पुण करेंति चोरियं तकरा परदच्वहरा छेया कयकरणलद्धलक्खा साहसिया लहुस्सगा अतिमहिच्छलोभगच्छा दद्दरओवीलका य गेहिया अहिमरा अणभंजकभग्गसंधिया रायदुङ्ककारी य विसयनिच्छूढलोक दीप अनुक्रम [१४] Millumionary.com अदत्तादानस्य त्रिंशत् नामानि ~90~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ------------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रमव्याकर०श्रीअभयदेव० प्रत अधर्मद्वारे अदसादानकारका सू०११ वृत्तिः ॥४४॥ [११]] बझा उद्दोहकगामघायपुरषायगपंथघायगभालीवगतित्थभेया लहुहस्थसंपउत्ता जइकरा खंडरक्खत्थीचोरपुरिसचोरसंधिच्छेया य गंथिभेदगपरधणहरणलोमावहारअक्खेवी हडकारका निम्मद्दगगूढचोरकगोचोरगअस्सचोरगदासिचोरा य एकचोरा ओकहकसंपदायकउच्छिपकसस्थधायकविलचोरी(कोली)कारका य निग्गाहविप्पलुंपगा बहुविहतेणिकहरणबुद्धी, एते अन्ने य एवमादी परस्स दवा हि जे अविरया। विपुलबलपरिग्गहा य बहवे रायाणो परधर्णमि गिद्धा सए व दवे असंतुट्ठा परविसए अहिहणंति ते लुद्धा परधणस्स कजे चउरंगविभत्तबलसमग्गा निच्छियवरजोहजुद्धसद्धियअहमहमितिदप्पिएहि सेन्नेहिं संपरिचुडा पउमसगडसूइचकसागरगरुलचूहातिएहिं अणिएहिं उत्थरंता अभिभूय हरंति परणाई अवरे रणसीसलद्धलक्खा संगाममि अतिवयंति सन्नद्धबद्धपरियरखप्पीलियचिंधपट्टगहियाउहपहरणा माडिवरवम्मगुंडिया आविद्धजालिका कवयकंकडइया उरसिरमुहबद्धकंठतोणमाइतवरफलहरचितपहकरसरहसखरचावकरकरंछियसुनिसितसरवरिसचडकरकमुयंतषणचंडवेगधारानिवायमग्गे अणेगधणुमंडलम्गसंधिताउछलियसत्तिकणगवामकरगहियखेडगनिम्मलनिकिट्ठखग्गपहरंतकोंततोमरचक्कगयापरसुमुसललंगलसूललउलभिंडमालासम्बलपट्टिसचम्मेद्वदुषणमोडियमोग्गरवरफलिहजतपत्थरदुहणतोणकुवेणीपीढकलियईलीपहरणमिलिमिलिमिलतसिप्पंतविजुजलविरचितसमप्पाहणभतले फुडपहरणे महारणसंखभेरिवरसूरपउरपडुपहडायणिणायगंभीरणंदितपक्खुभियविपुलघोसे हयगयरहजोहतुरितपसरितउद्धततमंधकारबहुले कातरनरणयणहिययवाउलकरे विल्लुलिय दीप अनुक्रम [१५]] ॥४४॥ SAREautatin international ~91 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], -----------------------अध्ययन [३] ---------------------- मूल [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत [११] उकडवरमजडतिरीडकुंडलोडुदामाडोविया पागडपडागउसियज्झयवेजयंतिचामरचलंतछधिकारगम्भीरे हयहेसियहस्थिगुलुगुलाइयरहघणघणाइयपाइकहरहराइयअफाडियसीहनाया छेलियविघुहुकुहकंठगयसद्दभीमगजिए सयराहहसतरुसंतकलकलरवे आसूणियवयणरुद्दे भीमदसणाधरोहगाढदढे सप्पहारणुज्जयकरे अमरिसवसतिब्बरत्तनिदारितच्छे वेरदिटिकुद्धचिट्ठियतिवलीकुडिलभिउडिकयनिवाडे वहपरिणयनरसहस्सविकमवियंभियबले वगंततुरगरहपहावियसमरभडा आवडियोयलाधवपहारसाधिता समूसपियवाहुजुयलं मु: कट्टहासपुकंतवोलबहुले फलफलगावरणगहियगयबरपत्धितदरियभडखलपरोप्परपलग्गजुद्धगचितविउसितपरासिरोसतुरियअभिमुहपहरितछिन्नकरिकरविभंगितकरे अवइनिसुद्धभिन्नकालियपगलियरुहिरकतभूमिकदमचिमिचिलपहे कुच्छिदालियगलितरुलिंतनिभेलंतंतफरुरंतऽविगलमम्मायविकयगाढदिनपहारमुञ्छितरुलंतवेंभलविलावकलुणे हयजोहभमंततुरगउद्दाममत्तकुंजरपरिसंकितजणनिब्बुकच्छिन्नधयभग्गरहवरनसिरकरिकलेवराकिन्नपतितपहरणविकिनाभरणभूमिभागे नचंतकबंधपउरभयंकरवायसपरिलेंतगिद्धमंडलभमंतच्छायंधकारगंभीरे वसुवमुहविकंपितब्ध पच्चक्खपिउवणं परमरुद्दबीहणगं दुष्पवेसतरगं अभिवयंति संगामसंकडं परधणं महंता अबरे पाइक्कचोरसंघा सेणावतिचोरवंदपागड्डिका य अडवीदेसदुग्गवासी कालहरितरतपीतसुकिल्लअणेगसयचिंधपट्टबद्धा परविसए अभिहणति लुद्धा धणस्स कजे रयणागरसागरं उम्मीसहस्समालाउलाकुलवितोयपोतकलकलेंतकलियं पायालसहस्सवायवसवेगसलिल उद्धम्ममाणदगरयरयंधकार वर दीप अनुक्रम [१५]] a urary.com ~92~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ------------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र- [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ३ अधर्म द्वारे अदत्तादा| नकारकाः प्रश्नब्याक २०श्रीअभयदेव० वृत्तिः प्रत ॥४५॥ [११] फेणपउरधवलपुलपुलसमुडियट्टहासं मारुयविच्छुभमाणपाणियजलमालुप्पीलहुलियं अविय समंतओ खुभियलुलियखोखुब्भमाणपक्सलियचलियविपुलजलचकवालमहानईवेगतुरियापूरमाणगंभीरविपुलआवत्तचयलभममाणगुष्पमाणुच्छलंतपच्चोणियत्तपाणियपधावियखरफरुसपयंडवाउलियसलिलफुतवीतिकलोलसंकुलं महामगरमच्छकच्छभोहारगाहतिमिसुंसुमारसावयसमाहयसमुद्धायमाणकपूरघोरपउरं कायरजणहिययकपर्ण घोरमारसंतं महन्भयं भयंकर पतिभयं उत्तासणगं अणोरपारं आगासं चेव निरवलंब उप्पाइयपवणधणितनोलियउवरुवरितरंगदरियअतिवेगवेगचक्खुपहमुच्छरंतकच्छइगंभीरविपुलगजियगुंजियनिग्यायगरुयनिवतितसुदीहनीहारिदूरसुचतगंभीरधुगुधुगंतसई पडिपहरुभंतजक्खरक्खसकुहंडपिसायरुसियतजायजवसग्गसहस्ससंकुल पहप्पाइयभूयं विरचितबलिहोमधूवउवचारदिन्नरुधिरचणाकरणपयतजोगपययचरिय परियम्तजुर्गतकालकप्पोवमै दुरंतमहानईनईवईमहाभीमदरिसणिज दुरणुच्चरं विसमप्पवेर्स दुक्खुत्तारं दुरासयं लवणसलिलपुण्णं असियसियसमूसियगेहि हत्थतरकेहिं वाहणेहिं अइवइत्ता समुहमाझे हर्णति गंतूण जणस्स पोते परदब्बहरा नरा निरणुकंपा निरावयक्खा गामागरनगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमणिगमजणवते य धणसमिद्धे हणंति थिरहिययछिन्नलज्जा बंदिग्गहगोग्गहे य गेण्हंति दारुणमती णिकिया णिय हणति छिंदंति गेहसंधि निक्खित्ताणि य हरंति धणधन्नदव्वजायाणि जणवयकुलाणं णिग्घिणमती परस्स दब्वाहि जे अविरया, तहेव केई अदिजादाणं गवेसमाणा कालाकालेसु संचरता चियकापजलियसरसदरदहक दीप अनुक्रम [१५]] ॥४५॥ ~93~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], -------------------- अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत [११] हियकलेवरे रुहिरलित्तवयणअखतखातियपीतडाइणिभमंतभयकर जंबुयक्खिक्खियंते धूयकयघोरसहे थेयालुट्टियनिसुद्धकहकहितपहसितबीहणकनिरभिरामे अतिदुन्भिगंधबीभच्छदरसणिजे सुसाणवणसुन्नघरलेणअंतरावणगिरिकंदरविसमसावयसमाकुलामु वसहीसु किलिस्सता सीतातवसोसियसरीरा दहच्छवी निरयतिरियभवसंकजदुक्खसंभारवेयणिज्जाणि पावकम्माणि संचिर्णता दुल्लहभक्खन्नपाणभोयणा पिवासिया झुझिया किलंता मंसकुणिमकंदमूलजंकिंचिकयाहारा उब्विगा उप्पुया असरणा अडवीवासं उति बालसतसंकणिज अयसकरा तकरा भयंकरा कास हरामोति अज दध्वं इति सामत्थं करेति गुज्झं बहुवस्स जणस्स कज्जकरणेसु विग्घकरा मत्तपमत्तपसुत्तचीसत्थछिपाती वसणभुदएसु हरणबुद्धी विगब्य रुहिरमहिया परेंति नरवतिमज्जायमतिकता सज्जणजणदुगुंछिया सकम्मेहिं पावकम्मकारी असुभपरिणया य दुक्खभागी निच्चाइलदुहमनिब्वुइमणा इह लोके चैव किलिस्संता परदन्बहरा नरा वसणसयसमावण्णा (सू०११) 'तं पुणे'त्यादि, तत् पुनः कुर्वन्ति चौर्य 'तस्कराः तदेव-चौर्य कुर्वन्तीत्येवंशीला: तस्कराः परद्रव्यहराः प्रतीतं छेका:-निपुणाः कृतकरणा-बहुशो विहितचौरानुष्ठानाः तेच ते लब्धलक्षाश्व-अवसरज्ञाः कृतकरणलब्धलक्षाः साहसिका धैर्यवन्तः लघुखकाच-तुच्छात्मानः अतिमहेच्छाच लोभग्रस्ताति समास: 'दहरउ|वीलगा यत्ति दईरेण-गलदर्दरेण वचनाटोपेनेस्यर्थः अपनीडयन्ति-गोपायन्तमात्मस्वरूपपरं विलज्जीकुर्वन्ति दीप अनुक्रम [१५]] SAREnatantnaitana ~944 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ------------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: बारे प्रत [११] प्रश्नव्याक- ये ते दईरापनीडकाः, मुष्णन्ति हि शठात्मानः तथाविधवचनाक्षेपप्रकटितखभावं मुग्धं जनमिति, अथवा अधर्मर.श्रीअ- पादरेणोपपीडयन्ति-जातमनोवाधं कुर्वन्तीति दईरोपपीडकाः ते च, गृद्धिं कुर्वन्तीति गृद्धिकाः अभिमुखं ||| भयदेव० लापरं मारपन्ति ये तेऽभिमराः ऋणं-देयं द्रव्यं भञ्जन्ति-न ददति ये ते ऋणभाका: भग्ना:-लोपिताः सन्धयः अदत्तादावृत्तिः विमतिपत्ती संस्था यैस्ते भन्नसन्धिकाः ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः राजदुष्ट-कोशहरणादिकं कुर्वन्ति येते नकारका तथा ते च विषयात्-मण्डलात् 'निच्छ्त'ति निर्वाटिता येते तथा लोकबाधा:-जनवहिष्कृतास्ततः कर्मधा-1XI सु०११ ४६॥ हरयः उदोहकाच-घातका उद्दहकाच वा-अटब्यादिवाहका ग्रामघातकाच पुरघातकाच पधिघातकाच आमादीपिकाश्च-गृहादिप्रदीपनककारिणः तीर्थभेदाच-तीर्थमोचका इति द्वन्द्वः, लघुहस्तेन-हस्तलाघवेन सम्प्रयुक्ता येते तथा 'जूईकर'त्ति द्यूतकराः 'खण्डरक्षा शुल्कपालाः कोपाला वा स्त्रियाः सकाशात् त्रियमेव वा चोर-४ यन्ति स्त्रीरूपा वा ये चौरास्ते स्त्रीचौराः एवं पुरुषचौरका अपि सन्धिच्छेदाश्च-क्षात्रखानका एतेषां द्वन्दूस्ततस्ते च, प्रन्धिभेदका इति व्यक्तं, परधर्न हरन्ति येते परधनहरणा: लोमान्यवहरन्ति ये ते लोमावहारा: निःशूकतया भयेन परप्राणान् विनाश्यैव मुष्णन्ति ये ते लोमावहारा उच्यन्ते आक्षिपन्ति वशीकरणा दिना ये ते ततो मुष्णन्ति ते आक्षेपिणः, एतेषां द्वन्द्वः, 'हडकारग'त्ति हठेन कुर्वन्ति येते हठकारकाः पाठाकान्तरेण 'परधणलोमावहारभक्खेवहडकारकत्ति सर्वेऽप्यते चौरविशेषाः, निरन्तरं मदनन्ति येते निर्मईकाः। गूढचौरा:-प्रच्छन्नचौरा गोचौरा अश्वचौरका दासीचौराश्च प्रतीताः, एतेषां द्वन्द्वोऽतस्ते च, एकचौरा-ये दीप अनुक्रम [१५]] ~95 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ------------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत [११] एकाकिनः सन्तो हरन्तीति 'उक्कहुगत्ति अपकर्षका ये गेहाद् ग्रहणं निष्काशयन्ति चौरान् वा आकार्य पर गृहाणि मोषयन्ति चौरपृष्ठवहा वा सम्प्रदायका ये चौराणां भक्तकादि प्रयच्छन्ति 'उछिपकत्ति अवच्छिKillम्पकाचौरविशेषा एव सार्थघातकाः प्रतीताः विलकोलीकारकाः परव्यामोहनाप विस्वरवचनवादिनी विस्वरवचनकारिणो वा एतेषां द्वन्द्वोऽतस्ते च, निर्गता ग्राहात्-ग्रहणान्निाहाः राजादिना अवगृहीता इत्यर्थः, ते च ते विमलोपकाति समासः बहविधेन 'तेणिकत्ति स्तेयेन हरणबुद्धिर्येषां ते बहुविहतेणिकहरणबुद्धी पाठान्तरेण 'बहुविहतहवहरणवुद्धित्ति बहुविधा तथा-तेन प्रकारेणापहरणे वुद्धियेषां ते तथा, एते उक्तरूपा अन्ये चैतेभ्यः एवंप्रकारा अदत्तमाददतीति प्रक्रमा, कथंभूतास्ते इत्याह-परस्य द्रव्याये अविरता-अनिवृत्ता इति । ये अदत्तादानं कुर्वन्ति ते उक्ताः, अधुना त एव यथा तत्कुर्वन्ति तदुच्यते-विपुलं बलं-सामयं परिग्रहश्व-परिवारो येषां ते तथा ते च बहवो राजानः परधने गृद्धाः, इदमधिकं वाचनान्तरे पदत्रयं, तथा खके-द्रव्येऽसन्तुष्टाः परविषयान्-परदेशानभिन्नन्ति लुब्धा धनस्य कार्ये धनस्य कृते इत्यर्थः, चतुर्भिरङ्गैर्विभक्तं समाप्तं वा यद्दलं-सैन्यं तेन समग्रा-युक्ता येतेतथा निश्चितैः-निश्चयवद्भिर्वरयोधैः सह याद्धं-सङ्ग्रामस्तत्र श्रद्धा सञ्जाता येषां ते तथा ते च ते अहमहमित्येवं दर्पिताश्च-दर्पवन्त इति समासस्तैरेवंविधैः भृत्यैः-पदातिभिः कचित्सैन्यैरिति पठ्यते संपरिवृताः-समेताः तथा पद्मशकटसूचीचक्रसागरगरुहब्यूहाचितैः, इह व्यूहशब्द प्रत्येकं सम्बध्यते, तत्र पद्माकारो व्यूहः पद्मव्यूहः-परेषामनभिभवनीयः सैन्यविन्यासविशेषः एव दीप अनुक्रम [१५]] PILunaturamom ~96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) (१०) श्रुतस्क न्ध : [१], ----------------------- अध्य यनं [३] -------------------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: RECES प्रश्नव्याक- मन्येऽपि पश्च, एतैराचितानि-रचितानि यानि तानि तथा तैः, कै?-अनीकैः-सैन्यैः अथवा पद्मादिव्यूहा अधर्म२०श्रीअ- आदिर्येषां गोमूत्रिकाब्यूहादीनां येते तथा तैरुपलक्षितः, कै?-अनीकैः, 'उत्थरंत'त्ति आस्तृण्वन्तः आच्छा द्वारे भयदेव दयन्तः परानीकानीति गम्यं, अभिभूय-जित्वा तान्येव हरन्ति परधनानीति व्यक्तं अपरे-सैन्ययोकेभ्यो अदत्तादावृत्तिः नपेभ्योऽन्ये खयंयोद्धारो राजानः रणशीर्षे-सङ्ग्रामशिरसि प्रकृष्टरणे लन्धो लक्ष्यो यैस्ते तथा 'संगार्मति नकारकाः द्वितीया सप्तम्यर्थे तिकृत्वा सङ्घामे-रणेऽतिपतन्ति-खयमेव प्रविशन्ति न सैन्यमेव योधयन्ति, किंभूताः?॥४७॥ सू०११ |सन्नद्धा-सन्नहन्यादिना कृतसन्नाहाः बद्धः परिकर:-कवचो पैस्ते तथा उत्पीडितो-गाद बद्धः चिहपहो-नेत्रा | दिचीवरात्मको मस्तके यैस्ते तथा तथा गृहीतान्यायुधानि-शस्त्राणि प्रहरणाप येस्ते तथा, अथवा आयुध-18 प्रहरणानां क्षेप्याक्षेप्यताकृतो विशेषः, ततः सन्नद्धादीनां कर्मधारया, पूर्वोक्तमेव विशेषणं प्रपश्चयन्नाह-माढी -तनुत्राणविशेषस्तेन घरवर्मणा च-प्रधानतनुत्राणविशेषेणैव गुण्डिता-परिकरिता येते माढीवरवर्मगु|ण्डिताः पाठान्तरे 'माडिगुडवम्मगुण्डिता' तत्र गुडा-तनुत्राणविशेष एव शेषं तथैव आविडा-परिहिता जालिका-लोहक को यैस्ते तथा कवचेन-तनुत्राणविशेषेणैव कण्टकिता:-कृतकवचा ये ते तथा उरसा-वक्षसा सह शिरोमुखा-ऊर्द्धमुखाः बद्धवा-यन्त्रिताः कण्ठे-गले तोणा:-तोणीराः शरधयो यैस्ते उरशिरोमुखबद्धकण्ठतोणाः तथा माइयत्ति-हस्तपासिका(शितानि)वरफलकानि-प्रधानफरका यैस्ते तथा तेषां सत्को रचितो-18 "सता ॥४७॥ है रणोचितरचनाविशेषेण परप्रयुक्तपहरणप्रहारप्रतिघाताय कृतः 'पहकर ति समुदायो यैस्ते तथा ततः पूर्वप-ट MER ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------- अध्ययन [३] ------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत [११] देन सह कर्मधारयोऽतस्तैः सरभसैः-सहः खरचापक:-निष्ठरकोदण्डहस्तैर्धानुष्करित्यर्थः ये कराञ्छिता:कराकृष्टाः सुनिशिता:-अतिनिशिताः शरा-बाणास्तेषां यो वर्षचटकरको-वृष्टिविस्तारो मुयंतत्ति-मुच्यमानः स एव घनस्य-मेघस्य चण्डवेगानां धाराणां निपातः तस्य मागों यः स तथा तत्र, 'मंतेत्ति पाठान्तरं, तन्त्र च मत्प्रत्ययान्तवात्, निपातवति सङ्ग्रामेऽतिपतन्तीति प्रक्रमः, तथाऽनेकानि धनूंषि च मण्डलाग्राणि च । |-खगविशेषाः तथा सन्धिता:-क्षेपणायोगीर्णा उच्छलिता-ऊर्दू गताः शक्तयश्च-त्रिशूलरूपाः कणकाचदावाणाः तथा वामकरगृहीतानि खेटकानि च-फलकानि निर्मला निकृष्टाः खनाच-पुजयलधिकोशीकृतकर वाला तथा पहरन्तत्ति-प्रहारप्रवृत्तानि कुन्तानि च-शस्त्रविशेषाः तोमराश्च-याणविशेषाश्चकाणि च-अराणि गदाश्च-दण्डविशेषाः परशवश्च-कुठाराः मुशलानि च-प्रतीतानि लाङ्गलानि च-हलानि शूलानि च लगुडाच प्रतीताः भिण्डमालानि च-शस्त्रविशेषाः शब्बलाश्च-मल्ला: पहिसाब अनविशेषाः चर्मेष्टाश्च-च|म्मेनपाषाणा: दुघणाश्च-मुद्गरविशेषाः मौष्टिकाश्च-मुष्टिप्रमाणपाषाणाः मुद्गराश्च प्रतीताः वरपरिघाचप्रबलार्गलाः यमस्तराम-गोफणादिपाषाणाः दुहणाश्च-टकराः तोणाश्च-शरधयः कुवेण्यश्व-रूदिगम्याः पीठानि च-आसनानीति द्वन्द्वः एभिः प्रतीताप्रतीतैः प्रहरणविशेषैः कलितो-युक्तो यः स तथा ईलीभिः-करवालविशेषैः प्रहरणच-तदन्यैः मिलिमिलिमिलतत्ति चिकिचिकापमानः 'खिप्पंत'ति क्षिप्यमाणैर्विद्यतःक्षणप्रभायाः उज्वलाया-निर्मलायाः विरचिता-विहिता समा-सदृशी प्रभा-दीसिर्यत्र तत्तथा तदेवंविधं न-1 दीप अनुक्रम [१५]] Ajanataram.org ~98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [१५] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र -१० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [३] मूलं [११] श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ॥ ४८ ॥ भस्तलं पत्र स तथा तत्र सङ्ग्रामे, तथा 'स्कूटप्रहरणे' स्फुटानि - व्यक्तानि प्रहरणानि यत्र स तथा तत्र सङ्ग्रामे, तथा महारणस्य सम्यन्धीनि यानि शङ्खश्च भेरी च-दुन्दुभीः वरतूर्य-लोकप्रतीतं तेषां प्रचुराणां पडूनां स्पष्टध्वनीनां पटहानां च पटहकानां आहतानां आस्फालितानां निनादेन ध्वनिना गम्भीरेण बहलेन ये नन्दिता हृष्टा प्रक्षुभिताच भीतास्तेषां विपुलो विस्तीर्णो घोषो यत्र स तथा तत्र, हयगजरथयोद्धेभ्यः सकाशात् त्वरितं शीघ्रं प्रसृतं प्रसरमुपगतं यद्रजो धूली तदेवोद्धततमान्धकारं - अतिशयप्रबलतमित्रं तेन बहुलो ४ यः स तथा तत्र, तथा कातरनराणां नयनयोर्हृदयस्य च 'वाउल'त्ति व्याकुलं क्षोभं करोतीत्येवंशीलो यः स तथा तत्र तथा विलुलितानि - शिथिलतया चञ्चलानि यान्युत्कटघराणि-उन्नतप्रवराणि मुकुटानि-मस्तकाभरणविशेषास्तिरीदानि च-तान्येव शिखरत्रयोपेतानि कुण्डलानि च कर्णाभरणानि उडदामानि च-नक्षत्रमालाभिधानाभरणविशेषास्तेषामाटोपः स्फारता सा विद्यते यत्र स विलुलितोत्कटवर मुकुटतिरीटकुण्डलोहृदामाटोपिक इति, तथा प्रकटा या पताका उच्छ्रिता ऊद्धीकृता ये ध्वजा - गरुडादिध्वजा वैजयन्त्यश्च-विजयसूचिकाः पताका एव चामराणि च चलन्ति छत्राणि च तेषां सम्बन्धि यदन्धकारं तेन गम्भीरः-अलव्धमध्यो यः स तथा ततः कर्मधारयस्ततस्तत्र, तथा हयानां यत् हेषितं शब्दविशेषः हस्तिनां च यद् गुलुगुलायितं शब्दविशेष एव तथा रथानां यत् 'घणघणाइय'त्ति घणघणेत्येवंरूपस्य शब्दस्य करणं तथा 'पाइक'ति पदातीनां यत् 'हरहराइय'त्ति हरहरेतिशब्दस्य करणं आस्फोटितं च-करास्फोदरूपं सिंहनादश्च - सिंहस्येव प्रश्नव्याक२० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः Educati For Parts Only ~99~ ३ अधर्म द्वारे अदत्तादानकारकाः सू० ११ ॥ ४८ ॥ antrary Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------- अध्ययन [३] ------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत शब्दकरणं 'हेलिय'त्ति सेंटितं सीत्कारकरणं विघुष्टं च-विरूपघोषकरणं उत्कृष्टं च-उस्कृष्टिनाद आनन्दमहाध्वनिरित्यर्थः कण्ठकृतशब्दश्च-तथाविधो गलरवः त एव भीमगर्जितं-मेघध्वनियंत्र स तथा तत्र, तथा 'सयराहत्ति एकहेलया हसतां रुष्यतां वा कलकललक्षणो रखो यत्र स तथा आशुनितेन-देपत्स्थूलीकृतेन | बदनेन ये रौद्रा-भीषणास्ते तथा, तथा भीमं यथा भवतीत्येवं दशनैरधरोष्ठो गाई दष्टो यैस्ते तथा, ततः कर्मधारया, ततस्तेषां भटानां सत्पहारणे-सुष्टु प्रहारकरणे उद्यता:-प्रयत्नप्रवृत्ताः करा यत्र स तथा तत्र, तथा अमर्ष-| |वशेन-कोपवशेन ती-अत्यर्थे रक्ते-लोहिते निहरिते-विस्फारिते अक्षिणी-लोचने यत्र स तथा, वैरप्रधाना| दृष्टिः बैरदृष्टिस्तया वैरदृष्ट्या-वैरवुद्ध्या वैरभावेन ये क्रुद्धाश्चेष्टिताश्च तैखिवलीकुटिला-वलित्रयवक्रा भ्रकुटि: -नयनललाटविकारविशेषः कृताललाटे यन्त्र स तथा तत्र, वधपरिणतानां-मारणाध्यवसायवतां नरसहस्राणां विक्रमेण-पुरुषकारविशेषेण विजृम्भितं-विस्फुरितं बलं-शरीरसामय यत्र स तथा तत्र, तथा वल्गत्तुरङ्गैः। कारश्च प्रधाविता-वेगेन प्रवृत्ता ये समरभटा-सङ्घामयोद्धास्ते तथा, आपतिता-घोडुमुद्यताः छेका-वक्षा ला-| घवप्रहारेण-दक्षताप्रयुक्तघातेन साधिता-निर्मिता यैस्ते तथा, 'समूसविय'त्ति समुच्छ्रितं हर्षातिरेकादू:IIकृतं वाहुयुगलं यत्र तत्तथा तयथा भवतीत्येवं मुक्ताहहासा:-कृतमहाहासध्वनयः 'पुकंत'त्ति पूत्कुर्वन्तः पू. लात्कारं कुर्वाणास्ततः कर्मधारयः ततस्तेषां यो बोल:-कलकल: स बहुलो यन्त्र स तथा तत्र, तथा 'फुरफल-11 गावरणगहिय'त्ति स्फुराश्च फलकानि च आवरणानि च-सन्नाहा गृहीतानि पैस्ते तथा 'गयवरपत्थित त्ति | 362-645649462-264 [११] दीप अनुक्रम [१५]] -% प्र.व्या .९ REnational J anmarary.org ~100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ------------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत वृत्तिः [१ ] प्रश्नच्याक-15/गजवरान्-रिपुमतङ्गजान प्रार्थयमाना-हन्तुमारोहुँ वाऽभिलषमाणास्तत्र शक्तास्तच्छीला वा येते तथा ततः|| अधर्मर० श्रीअ- कर्मधारयस्ततस्ते च ते दृप्तभटखलाश्च-दर्पितयोधदुष्टा इति समासः, ते च ते परस्परमलना-अन्योऽन्यं भयदेव० योद्धमारब्धा इत्यर्थः ते च ते युद्धगर्विताश्च-योधनकलाविज्ञानगर्वितास्ते च ते विकोसितवरासिभिः-निष्क- अदत्तादा शर्षितवरकरवालैः रोषेण-कोपेन त्वरित-शीघ्र अभिमुख-आभिमुख्येन प्रहरद्भिः छिन्नाः करिकरा यैस्ते तथा नकारकाः ते चेति समासस्तेषां 'वियंगियत्ति व्यङ्गिताः-खण्डिताः करा यत्र स तथा तत्र, तथा 'अवइति अप-18|| सू०११ ॥४९॥ विद्धवाः-तोमरादिना सम्यग्विद्धा निशुद्धं भिन्ना-निर्मिनाः स्फाटिताच-विदारिता ये तेभ्यो यत् प्रगलितं रुधिरं तेन कृतो भूमी यः कर्दमस्तेन चिलीचिविला:(ल्ला)-चिलीनाः पन्थानो यत्र स तथा, कुक्षौ दारिताः कुक्षिदारिताः गलितं रुधिरं श्रवन्ति रुलन्ति वा-भूमौ लुठन्ति निलितानि-कुक्षितो बहिष्कृतानि अब्राणिउदरमध्यावयबविशेषाः येषां ते तथा, 'फुरफुरतविगल'त्ति फुरफुरायमाणाश्च विकलाश्च-निरुद्धेन्द्रियवृत्तयो ये ते तथा मर्मणि आता मर्माहताः विकृतो गाढो दत्ता प्रहारो येषां ते तथा अत एव मूर्छिताः सन्तो भूमी लुउन्तः विह्वलाश्च-निस्सहाङ्गा ये ते तथा, ततः कुक्षिदारितादिपदानां कर्मधारयः, ततस्तेषां विलापा-शब्दविशेषः करुणोदयास्पदं यत्र स तथा तत्र, तथा हता-विनाशिताः योधा:-अश्वारोहादयो येषां ते तथा ते| १ ॥४९॥ भ्रमन्तो-यदृच्छया सश्चरन्तस्तुरगाश्च उद्दाममत्तकुञ्जराथ परिशङ्कितजनाच-भीतजना निवुकच्छिन्नध्वजा:निर्मूलनिकृत्तकेतवो भग्ना-दलिता रथवराश्च यत्र स तथा, नष्टशिरोभिः-छिन्नमस्तकः करिकलेवरैः-दन्ति दीप अनुक्रम [१५]] 24-- ~101 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम १०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्क न्ध : [१], ----------------------- अध्य यनं [३] -------------------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत स [११] शरीरैराकीर्णा-व्याप्ताः पतितपहरणा:-ध्वस्तायुधा विकीर्णाभरणा-विक्षिप्तालङ्कारा भूमे गा-देशा यत्र सार तथा ततः कर्मधारयः तत्र, तथा नृत्यन्ति कबन्धानि-शिरोरहितकडेबराणि प्रचुराणि यत्र स तथा भयङ्करवायसानां 'परिलिंतगिद्ध'त्ति परिलीयमानगृद्धानां च यत् मण्डलं-चक्रवालं भ्राम्यत्-संचरत् तस्य या|| छाया तया यदन्धकारं तेन गम्भीरो यः स तथा तत्र, सङ्ग्रामेऽपरे राजानः परधनगृद्धा अतिपतन्तीति प्रकृतं, अथ पूर्वोक्तमेवार्थ ससिसतरेण वाक्येनाह-वसवो-देवा वसुधा च-पृथिवी च कम्पिता यैस्ते तथा ते |इव राजान इति प्रक्रमः प्रत्यक्षमिव-साक्षादिव तद्धर्मयोगात् पितृवन-इमशानं प्रत्यक्षपितृवनं 'परमरुद्दबीहणगं'ति अत्यर्थदारुणभयानक दुष्प्रवेशतरकं-प्रवेष्टमशक्यं सामान्यजनस्येति गम्यं अतिपतन्ति-प्रविशन्ति सामसङ्कट-सङ्घामगहनं परधनं-परद्रव्यं 'महंत'त्ति इच्छन्त इति, तथाऽपरे-राजभ्योऽन्ये पाइकचोरसंघा:-11 पदातिरूपचौरसमूहाः, तथा सेनापतयः, किंस्वरूपा१-चौरवृन्दप्रकर्षकाश्च तत्पवर्त्तका इत्यर्थः, अटवीदेशे यानि दुर्गाणि-जलस्थलदुर्गरूपाणि तेषु वसन्ति ये ते तथा, कालहरितरक्तपीतशुक्लाः पञ्चवर्णा इतिया-16 वत् अनेकशतसयाश्चिहपट्टा बद्धा यैस्ते तथा परविषयानभिन्नन्ति, लुब्धा इति व्यक्तं, धनस्य कार्ये-धनकृते इत्यर्थः, तथा रत्नाकरभूतो यः सागरः स तथा तं चातिपत्याभिन्नन्ति जनस्य पोतानिति सम्बन्धः, उर्मयो-18 वीचयस्तत्सहस्राणां माला:-पतयस्ताभिराकुलो यः स तथा, आकुला-जलाभावेन व्याकुलितचित्ता ये वितोयपोता:-विगतजलयानपात्राः सांयात्रिकाः 'कलकलित'त्ति कलकलायमानाः-कोलाहलबोलं कुर्वाणास्तैः दीप अनुक्रम [१५]] For P OW ~102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], -------- ------------अध्ययनं [३] ---------- ---------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत [११] प्रश्नव्याक- कलितो यः स तथा, अनेनास्यापेयजलवमुक्तं, अथवा उर्मिसहस्रमालाभिः आललाकुल:-अतिव्याकुलो अधर्मर० श्रीअ- यः स तथा, तथा वियोगपोतैः-विगतसम्बन्धनबोधिस्थैः कलकलं कुर्वद्भिः कलितो यः स तथा ततः कर्मधार द्वारे भयदेव या योऽतस्तं, तथा पाताला:-पातालकलशास्तेषां यानि सहस्राणि तैर्वातवशाद्वेगेन यत्सलिल-जलधिजलं 'उ-1X | अदत्तादाखममाणं ति य उत्पाव्यमानं तस्य यदुदकरजः-तोयरेणुस्तदेव रजोऽन्धकारं-धूलीतमो यत्र स तथा तं, बरः निकारका फेनो-डिण्डीर प्रचुरो धवल: 'पुलंपुल'त्ति अनवरतं यः समुत्थितो-जातः स एवाहासो यत्र वरफेन एवं ॥५०॥ सू०११ दावा प्रचुरादिविशेषणोऽहहासो यत्र स तथा तं, मारुतेन विक्षोभ्यमाणं पानीयं यत्र स तथा, जलमालाना-14 जलकल्लोलानामुत्पील:-समूहो 'हुलिय'त्ति शीघ्रो यत्र स तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तं, अपिचेति समुच्चये, तथा समन्ततः-सर्वतः क्षुभितं-वायुप्रभृतिभिर्व्याकुलितं लुलितं-तीरभुवि लुठितं 'खोखुम्भमाण'ति महा-10 मत्स्यादिभिर्भृशं व्याकुलीक्रियमाणं प्रस्खलित-निर्गच्छस्पर्वतादिना स्खलितं चलितं-खस्थानगमनप्रवृत्तं |विपुलं-विस्तीर्ण जलचक्रवालं-तोयमण्डलं यत्र स तथा, महानदीवेगैः-गङ्गानिम्नगाजवैः त्वरितं यथा भवतीत्येवमापूर्यमाणो यः स तथा गम्भीरा-अलब्धमध्याः विपुला-विस्तीणोंश्च ये आवत्ता-जलश्रमणस्थान-12 रूपाः तेषु चपलं यथा भवतीत्येवं भ्रमन्ति-सञ्चरन्ति गुप्यन्ति-व्याकुलीभवन्ति उच्छलन्ति-उत्पतन्ति उच-18 लन्ति वा-ऊर्द्धमुखानि चलन्ति प्रत्यवनिवृत्तानि वा-अधः पतितानि पानीयानि प्राणिनो चा यत्र स तथा| ॥५०॥ अथवा जलचक्रवालान्तं नदीनां विशेषणमापूर्यमाणान्तं चाव नामिति, तथा प्रधाविताः-वेगितगतयः ख दीप अनुक्रम [१५]] SO40% ~103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------- अध्ययन [३] ------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत [११] रपरुषा:-अतिकर्कशाः प्रचण्डा:-रौद्राः व्याकुलितसलिला:-विलोलितजलाः स्फुटन्तो-विदीर्यमाणा ये वीचिरूपाः कल्लोला न तु वायुरूपास्तैः सङ्कलो यः स तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तं, तथा महामकरमत्स्यकच्छपाच 'ओहार'सि जलजन्तुविशेषास्ते च ग्राहतिमिसुंसुमाराश्च श्वापदाथेति द्वन्द्वस्तेषां समाहताब-परस्परे-|| |णोपहताः 'समुद्धायमाणक'त्ति उद्धावन्तम्भ-प्रहाराय समुत्तिष्ठन्तो ये पूरा:-सङ्घाः घोरा-रौद्रास्ते प्रचुरा यन्त्र स तथा तं, कातरनरहृदयकम्पनमिति प्रतीतं, घोरं-रौद्रं यथा भवतीत्येवमारसन्तं-शब्दायमानं महाभयादीन्येकार्थानि 'अणोरपा'ति अनर्वापारमिव महत्त्वादनर्वापार आकाशमिव निरालम्ब, न हि तत्र पतद्भिः |किचिवालम्बनमवाप्यत इति भावः, औत्पातिकपचनेन-उत्पातजनितवायुना 'धणिय'त्ति अत्यर्थं ये नोल्लि- | यति नोदिताः प्रेरिता उपर्युपरि-निरन्तरं तरङ्गाः कल्लोलास्तेषां 'दरिय'त्ति दृप्त इव अतिवेग:-अतिक्रान्ताशेषवेगो यो वेगस्तेन लुसतृतीयैकवचनदर्शनाचक्षुःपधं-दृष्टिमार्गमास्तृण्वन्त-आच्छादयन्तं 'कत्थई'त्ति कचि-| देशे गम्भीर विपुलं गर्जितं-मेघस्येव ध्वनिः गुञ्जितं च गुञ्जालक्षणातोद्यस्येव निर्यातक्ष-गगने व्यन्तरकृतो महाध्वनिः गुरुकनिपतितं च-विद्युदादिगुरुकद्रव्यनिपातजनितध्वनियंत्र स तथा, सुदीर्घनिहादी-अहखमतिरवो 'दूरसुव्वंत'त्ति दूरे भ्रूयमाणो गम्भीरो धुगधुगित्येवंरूपश्च शब्दो यत्र स तथा, ततः कर्मधारयस्ततस्तं, प्रतिपथ-प्रतिमार्ग 'संभंत'त्ति रुन्धानाः सश्चरिष्णूनां मार्ग स्खलयन्तः यक्षराक्षसकूष्माण्डपिशाचा:-व्यन्तरविशेषास्तेषां यत्प्रतिगर्जितं उपसर्गसहस्राणि च पाठान्तरेण 'रुसियतज्वायउवसग्गसहस्स'सि तत्र यक्षा XXX दीप अनुक्रम [१५]] Arunaturary.com ~104 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ------------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: बारे प्रत वृत्तिः [११] प्रश्नव्याक- दयश्च रुषितास्तजातोपसर्गसहस्राणि च तैः सङ्कलो यः स तथा तं, बहूनि उत्पातिकानि-उत्पातान् भूत:- अधर्म२०श्रीअ- प्राप्तो यः स तथा तं, वाचनान्तरे उपद्रवा अभिभूता यत्र स उपद्रवाभिभूतः, ततः प्रतिपथेत्यादिना कर्मधाभयदेव दरपोऽतस्तं, तथा विरचितो पलिना-उपहारेण होमेन-अग्निकारिकया धूपेन च उपचारो-देवतापूजा यैस्ते तथा, ४ अदत्तावा तथा दुर्ग-वितीर्ण रुधिरं यत्र तत्तथा तच्च तदर्चनाकरणं च-देवतापूजनं तत्र प्रयता येते तथा, तथा योगेषु- नकारकाः प्रवहणोचितव्यापारेषु प्रयता येते तथा, ततो विरचितेत्यादीनां कर्मधारयोऽत्तस्तैः सांयात्रिकैरिति गम्यते, सू०११ ॥५१॥ चरित:-सेवितो यः स तथा तं, पर्यन्तयुगस्य-कलियुगस्य योऽन्तकाल:-क्षयकालस्तेन कल्पा-कल्पनीया उपमा रौद्रत्वाद्यस्य स तथा तं, दुरन्तं-दुरवसानं महानदीनां-गङ्गादीनां नदीनां च-इतरासां पति:-प्रभुर्यः स तथा महाभीमो दृश्यते यः स तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तं दुःखेनानुचर्यते-सेव्यते यः स तथा तं, विषमप्रहावेशं दुखोत्तारमिति च प्रतीतं दुःखेनाश्रीयत इति दराश्रयस्तं लवणसलिलपूर्णमिति व्यक्तं, असिताः-18 कृष्णाः सिता:-सितपटाः समुच्छ्रतका-फीकृता येषु तान्यसितसितसमुच्छ्रितकानि तैः, चौरप्रवहणेषु हि कृष्णा एव सितपटाः क्रियन्ते, दूरानुपलक्षणहेतोरित्यसितेत्युक्तं, 'दच्छतरेहि ति सांयात्रिकयानपात्रेभ्यः सकाशादक्षतरागकद्भिरित्यर्थः, वहनैः-प्रवहणः अतिपत्य-पूर्वोक्तविशेषणं सागरं प्रविश्य समुद्रमध्ये प्रन्ति | गत्वा जनस्य-सांयात्रिकलोकस्य पोतान् यानपात्राणि, तथा परद्रव्यहरणे ये निरनुकम्पा-निःशूकास्ते तथा, ॥५१॥ वाचनान्तरे परद्रव्यहरा नरा निरनुकम्पा-निशूकास्ते 'निरवयक्ख'ति परलोकं प्रति निरवकासा-निरपेक्षाः, दीप अनुक्रम [१५]] Munnaturary.org ~105 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ------------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत [११] ग्रामो-जनपदाश्रितः सन्निवेशविशेषः आकरो-लवणागुत्पत्तिस्थानं नकर-अकरदायिलोकं खेट-धूलीप्राकार कर्ट-कुनगरं मडम्बं-सर्वतोऽनासन्नसंनिवेशान्तरं द्रोणमुख-जलस्थल पथोपेतं पत्तनं-जलपथयुक्तं स्थलपथ युक्तं वा रत्नभूमिरित्यन्ये आश्रम:-तापसादिनिवासः निगमो-वणिग्जननिवासो जनपदो-देश इति द्वन्द्वोsदतस्तोंश्च धनसमृद्धवान् प्रन्ति, तथा स्थिरहृदयाः-तबार्थे निश्चलचित्ताः छिन्नलज्जाश्च येते तथा, बन्दिग्रहगोग्र हांश्च गृह्णन्ति-कुर्वन्तीत्यर्थः, तथा दारुणमतयः निष्कृपा निजं प्रन्ति छिन्दन्ति गेहसन्धिमिति प्रतीतं, नि|क्षिसानि च-खस्थानन्यस्तानि हरन्ति धनधान्यद्रव्यजातानि-धनधान्यरूपद्रव्यप्रकारान, केषामित्याह-जनपदकुलाना-लोकगृहाणां निघृणमतयः परस्य द्रव्याद येऽविरताः, तथा तथैव-पूर्वोक्तप्रकारेण केचिददत्तादानं-अवितीर्ण द्रव्यं गवेषयन्तः कालाकालयोः-सश्चरणस्योचितानुचितरूपयोः सञ्चरन्तो-भ्रमन्तः, 'चियगति चितिषु प्रतीतासु प्रज्वलितानि-वहिदीसानि सरसानि-रुधिरादियुक्तानि दरवग्धानि-ईषद्मीकृतानि कृष्टानि-आकृष्टानि तथाविधप्रयोजनिभिः कडेवराणि-मृतशरीराणि यत्र तत्तथा तत्र श्मशाने क्लिश्यमाना अटवीं समुपयन्तीति सम्बन्धः, पुनः किम्भूते?-रुधिरलिप्सवदनानि अक्षतानि-समग्राणि मृतकानीति गम्यते खादितानि-भक्षितानि पीतानि च शोणितापेक्षया यकाभिः तास्तथा ताभिश्च डाकिनीभिः-शाकिनीभिः भ्रमतां-तत्र सञ्चरतां भयङ्करं यत्तत् रुधिरलिप्तवदनाक्षतखादितपीतडाकिनीभ्रमद्भयंकर, कचिदक्षत इत्येतस्य स्थाने 'अदर'त्ति पठ्यते तत्रादराभिः-निर्भयाभिरिति व्याख्येयं 'जंबुयखिंखियंतेत्ति खीखीतिश दीप अनुक्रम [१५]] ~106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------- अध्ययन [३] ------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अधर्मद्वारे अदत्तादानकारका प्रत [११] प्रमच्याक दायमानाः शृगालाः (यन्त्र) ततः कर्मधारयोऽतस्तत्र, तथा घूककृतघोरशब्दे-कौशिकविहितरौद्रध्याने वेता- र० श्रीअ-बाल लेभ्यः-विकृतपिशाचेभ्य उत्थित-समुपजायन्तं निशुद्ध-शब्दान्तरामिश्र 'कहकहेंति'त्ति कहकहायमानं यत् भयदेव महसितं तेन 'बीहणगंति भयानकमत एव निरभिरामं च-अरमणीयं यत्तत्तथा तन्त्र, अतिथीभत्सदुरभिगन्धे वृत्तिः इति व्यक्तं, पाठान्तरेणातिदुरभिगन्धबीभत्सदर्शनीये इति, कस्मिन्नेवंभूत इत्याह-श्मशाने-पितृवने तथा बने -कानने यानि शून्यगृहाणि प्रतीतानि लयनानि-शिलामयगृहाणि अन्तरे-ग्रामादीनामर्धपथे आपणा-हटा ४ ॥५२॥ गिरिकन्दराश्च-गिरिगुहा इति द्वन्द्वस्ततस्ताश्च ता विषमश्वापदसमाकुलाश्चेति कर्मधारयोऽतस्तासु, काखेव विधाखियाह-वसतिषु-वासस्थानेषु क्लिश्यन्तः शीतातपशोषितशरीरा इति व्यक्तं, तथा दग्धच्छवयःशीतादिभिरुपहतत्वचा तथा निरयतिर्यग्भवा एवं यत्सङ्कट-गहनं तत्र यानि दुःखानि निरयतिर्यम्भयेपु वा यानि सङ्कटदुःखानि-निरन्तरदुःखानि तेषां यः सम्भारो-बाहुल्यं तेन वेद्यन्ते-अनुभूयन्ते यानि तानि तथा तानि पापकर्माणि सश्चिन्वन्तो यान्तः दुर्लभं-नुरापं भक्ष्याणां-मोदकादीनामन्नाना-ओदनादीनां पानानां |च-मयजलादीनां भोजन-प्राशनं येषां ते तथा, अत एव पिपासिता:-जाततृषः 'झुझिय'ति बुभुक्षिताः KIक्लान्ता-ग्लानीभूताः मांसं प्रतीतं 'कुणिमति कुणपः-शवः कन्दमूलानि प्रतीतानि यत्किश्चिच-पधाऽवाप्त वस्तु इति द्वन्द्वः एतानि कृतो-विहित आहारो-भोजनं यैस्ते तथा, उद्विग्ना-उद्वेगवन्त उत्प्लुता-उत्सुका अश- रणा:-अत्राणाः, किमित्याह-अटवीवासं-अरण्यवसनमुपयन्ति, किम्भूतं?-व्यालशतशङ्कनीयं-भुजङ्गादि 5555555575% दीप अनुक्रम [१५]] SAC ५२॥ ~107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [१५] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र -१० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [३] मूलं [११] श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः भिर्भयङ्करमित्यर्थः तथा अयशस्करास्तस्करा भयङ्कराः एतानि व्यक्तानि, कस्य हरामः - चोरयाम इति इदंविवक्षितं अय-अस्मिन्नहनि द्रव्यं रिक्थं इति एवंरूपं सामर्थ्य-मन्त्रणं कुर्वन्ति गुह्यं रहस्यं, तथा बहुकस्य जनस्य कार्यकरणेषु प्रयोजनविधानेषु विप्रकरा - अन्तरायकारकाः मतप्रमत्तप्रसुप्तविश्वस्तान छिद्रे-अवसरे प्रन्तीत्येवंशीला ये ते तथा व्यसनाभ्युदयेषु हरणबुद्धय इति व्यक्तं, किंवत् ? - 'विगव्य'ति वृका इव नाखरविशेषा इव 'रुहिरमहिय'त्ति लोहितेच्छवः 'परंति'त्ति सर्वतो भ्रमन्ति, पुनः कथम्भूताः ?- नरपतिमर्यादामतिक्रान्ता इति प्रतीतं सज्जनजनेन-विशिष्टलोकेन जुगुप्सिता-निन्दिता ये ते तथा, स्वकर्मभिः हेतुभूतैः पाप| कर्मकारिण:- पापानुष्ठायिनः अशुभपरिणताश्च-अशुभपरिणामा दुःखभागिन इति प्रतीतं 'निचाविलदुहमनिव्युतिमण'ति नित्यं सदा आविलं- सकालुष्यमाकुलं वा दुःखं प्राणिनां दुःखहेतुः अनिवृत्ति-स्वास्थ्यरहितं मनो येषां ते तथा इहलोक एव क्लिश्यमानाः परद्रव्यहरा नरा व्यसनशतसमापन्ना एतानि व्यक्तानीति । अथ 'तहेवेत्यादिना परधनहरणे फलद्वारमुच्यते तहेव के परस्स द गवेसमाणा गहिता य हया य बद्धरुद्धा य तुरियं अतिघाडिया पुरवरं समप्पिया चोरम्हचारभडचा डुकराण तेहि य कप्पडप्पहारनिदय आरक्खियखरफरूसवयणतज्जणगल च्छाच्छलणाहिं विमणा चारगवसहिं पवेसिया निरयवसहिसरिसं तत्थवि गोमियष्पहारदूमणनिन्भच्छण कडुयवदणभे सणभयाभिभूया अक्खित्तनियंसणा मलिणदंडिखंड निवसणा उक्कोडालंचपासमग्गणपरायणेहिं [दुक्ख समुदी For Parts Only ~ 108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], -----------------------अध्ययन [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ३ अधर्म C प्रश्वव्याकर० श्रीअभयदेव० वृत्तिः प्रत A फल सु०१२ RECA%* ॥५३॥ % [१२]] रणेहिं] गोम्मियभडेहिं विविहेहिं बंधणेहिं, किं ते?, हडिनिगडवालरज्जयकुदंडगवरत्तलोहसंकलहत्थंदुयवज्झपट्टदामकणिकोडणेहिं अन्नेहि य एवमादिएहि गोम्मिकभंडोवकरणेहिं दुक्खसमुदीरणेहिं संकोडमोडणाहिं बझंति मंदपुना संपुडकवाडलोहपंजरभूमिधरनिरोहकूवचारगकीलगजूयचकविततबंधणखंभालणउद्धचलणवंधणविहम्मणाहि य विहेडयन्ता अवकोडकगाढउरसिरवद्ध उद्धपूरितफुरंतउरकडगमोडणामेडणाहिं बद्धा य नीससंता सीसावेद उरुयावलचप्पड़गसंधिबंधणतत्तसलागसूइयाकोडणाणि तच्छणविमाणणाणि य खारकडुयतित्तनावणजायणाकारणसयाणि बहुयाणि पावियंता उरक्खोडीदिन्नगाढपेलणअटिकसंभग्गसुपंसुलीगा गलकालकलोहदंडउरउदरवत्थिपरिपीलिता मच्छंतहिययसंचुणियंगमंगा आणत्तीकिंकरहिं केति अविराहियवेरिएहिं जमपुरिससन्निहेहिं पहया ते तत्थ मंदपुण्णा चडवेलावझपट्टपाराईछिवकसलतवरत्तनेत्तप्पहारसयतालियंगमंगा किवणा लंबंतचम्मवणवेयणविमुहियमणा घणकोट्टिमनियलजुयलसंकोडियमोडिया व कीरंति निरुच्चारा एया अन्ना य एवमादीओ चेयणाओ पावा पाति अदन्तिदिया वसट्टा बहुमोहमोहिया परधणमि लुद्धा फासिंदियविसयतिब्बगिद्धा इस्थिगयरूबसहरसगंधइहरतिमहितभोगतण्हाइया य धणतोसगा गहिया य जे नरगणा पुणरवि ते कम्मदुब्बियद्धा उवणीया रायकिंकराण तेसिं वहसस्थगपाढयाणं विलउलीकारकाणं लंचसयगेण्हगाणं कूडकवडमायानियडिआयरणपणिहिवंचणविसारयाणं बहुविहअलियसतर्जपकाणं परलोकपरम्मुहाणं निरयगतिगामियाणं तेहि % * दीप अनुक्रम [१६] ॥ ॥ ५३॥ * ~109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [१६] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], अध्ययन [ ३ ] मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Educator य आणत्तजीयदंडा तुरियं उग्घाडिया पुरवरे सिंघाडगतियचउक्कचच्चरच उम्मुहमहापहपहेसु वेत्तदंडलडडकलेयुपत्थरपणा लिपणोहिमुट्ठिलयापादपण्हिीजाणु कोप्परपहारसंभग्ग महियगत्ता अट्ठारसकंमकारणा जाइयंग मंगा कणा सुक्कोट्ठकंठगलकतालुजीहा जायंता पाणीयं विगयजीवियासा तहादिता वरागा तंपिय ण लभंति वज्झपुरिसेहिं धाडियंता तत्थ य खरफरूसपडहघट्टितकूडग्गहगाढरु निसट्टपरामुट्ठा वज्झकर कुडिजुयनियत्था सुरतकणवीर गहियवि मुकुल कंठे गुणवज्झदूतआविद्धमहदामा मरणभयुष्पण्णसेदआयतहुत्तपिय किलिन्नगत्ता चुण्णगुंडियसरीरस्यरेणुभरियकेसा कुसुंभगोकिन्नमुद्धया छिन्नजीवियासा घुन्नंता वझयाण भीता तिलं तिलं चैव विजमाणा सरीरविक्किन्त लोहिओलित्ता कागणिमंसाणि खाबियंता पावा खरफरुसएहिं तालिजमाणदेहा वातिकनरनारिसंपरिवुडा पेच्छिजंता य नागरजणेण वज्झनेवत्थिया पणेज्जति नवरमज्झेण किवणकलुणा अत्ताणा असरणा अणाहा अबंधवा बंधुविप्पहीणा विपिक्खिता दिसोदिसिं मरणभयुब्विग्गा आघायणपडिदुवारसंपाविया अधन्ना सूलग्गविलग्गभिन्नदेहा, ते य तत्थ कीरंति परिकप्पियंगमंगा उलंबिज्जति रुक्खसालासु केइ कल्लुणाई विलवमाणा अवरे चउरंगणियवद्धा पञ्चकडगा पमुचंते दूरपात बहुविसमपत्थरसहा अन्ने य गयचलणमलणय निम्मदिया की रंति पावकारी अट्ठारसखंडिया य कीरंति मुंडपरसूहिं केइ उकत्सकन्नोनासा उप्पाडियनयणदसणवसणा जिम्भिदियाछिया छिन्नकन्नसिरा पणिज्जंते छिजन्ते य असिणा निव्विसया छिन्नहत्थपाया पमुचंते जाव For Parts Only ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: M३ अधर्म प्रत प्रश्वव्याकर० श्रीअभयदेव. वृत्तिः चौरिका सू०१२ [१२] ॥५४॥ ज्जीवबंधणा य कीरति केइ परदव्वहरणलुद्धा कारग्गलनियलजुयलरुद्धा चारगावहतसारा सयणविप्पमुक्का मित्तजणनिरिक्खिया निरासा बहुजणधिकारसद्दलज्जायिता [अलज्जाविया] अलजा अणुबद्धखुहा पारखसीउण्हतण्हवेयणदुग्घट्टपट्टिया विवन्नमुहविच्छविया विहलमतिलदुब्बला किलंता कासंता वाहिया य आमाभिभूय गसा परूढनहकेसमंसुरोमा छगमुत्तमि णियगंमि खुत्ता तत्व मया अकामका बंधिऊण पादेसु कहिया खाइयाए छुढा तत्थ य बगसुणगसियालकोलमज्जारचंडसंदंसगतुंडपक्खिगणविविहमुहसयलविलुत्तगत्ता कयविहंगा केई किमिणा य कुहियदेहा अणिवयणेहिं सप्पमाणा सुट्ठ कयं जं मउत्ति पावो तुट्ठणं जणेण हम्ममाणा लज्जावणका य होंति सयणस्सविय दीहकालं मया संता, पुणो परलोगसमावन्ना नरए गच्छंति निरभिरामे अंगारपलित्तककपअचस्थसीतवेदणअस्साउदिन्नसयतदुक्खसयसमभिहुते ततोवि उब्वट्टिया समाणा पुणोवि पवजति तिरियजोणिं तहिंपि निरयोवर्म अणुहवंति वेयणं, ते अणंतकालेण जति नाम कहिं वि मणुयभावं लभंति णेगेहिं णिरयगतिगमणतिरियभवसयसहस्सपारयट्टेहिं तत्थविय भवंतऽणारिया नीचकुलसमुप्पण्णा आरियजणेवि लोगवज्झा तिरिक्खभूता य अकुसला कामभोगतिसिया जहिं निबंधति निरयवत्तणिभवप्पवंचकरणपणोलिं पुणोवि संसार(रा)वत्तणेममूले धम्मसुतिविवजिया अणज्जा कूरा मिच्छत्तसुतिपवना य होति एगंतदंडरुइणो वेटेंता कोसिकारकीडोव्व अप्पगं अट्टकम्मतंतुषणबंधणेणं एवं नरगतिरियनरअमरगमणपेरंतचक्कवालं जम्मजरामरणकरणगम्भीरदुक्खपखुभियपउरसलिलं संजोगविओगवीची दीप अनुक्रम [१६] 9E44 ॥५४॥ ~111 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२]] चिंतापसंगपसरियवहबंधमहल्लविपुलकलोलकलुणविलवितलोभकलकलिंतबोलबहुलं अवमाणणफेणे तिच्चखिसणपुलपुलप्पभूयरोगवेयणपराभवविणिवातफरुसरिसणसमावडियकठिणकम्मपत्थरतरंगरंगतनिश्चमशुभयतोयपहुं कसायपायालसंकुलं भवसयसहस्सजलसंचयं अणंतं उब्वेवणयं अणोरपारं महन्भयं भयंकर पइभ यंअपरिमियमहिच्छकलुसमतिवाउवेगउद्धम्ममाणआसापिवासपायालकामरतिरागदोसबंधणबहुविहसंकप्पविपुलदगरयरयंधकार मोहमहावत्तभोगभममाणगुप्पमाणुच्छलतबहुगम्भवासपचोणियत्तपाणियं पधावितवसणसमावन्नरुनचंडमारुयसमाहयामणुन्नवीचीवाकुलितभग्गफुट्टतनिट्ठकल्लोलसंकुलजलं पमातबहुचंडदुद्दसावयसमाहयउद्धायमाणगपूरपोरविद्धसणत्थबहुलं अण्णाणभमतमच्छपरिहत्थं अनिहुतिंदियमहामगरतुरियचरियखोखुम्भमाणसंतावनिचयचलंतचवलचंचल अत्ताणऽसरणपुब्धकयकम्मसंचयोदिन्नवजवेइज्जमाणदहसयविपाकघुनंतजलसमूह इडिरससायगारवोहारगहियकम्मपडिबद्धसत्तकड्डिजमाणनिरयतलहुत्तसन्नविसन्तबहुला अरहरइभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकर्ड अणातिसंताणकम्मबंधणकिलेसचिक्खिल्लसुदुत्तारं अमरनरतिरियनिरयगतिगमणकुडिलपरियत्तविपुलवेलं हिंसालियअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारंभकरणकारावणाणुमोदणअढविहअणिढकम्मपिंडितगुरुभारकंतदुग्गजलोघदूरपणोलिजमाणउम्मुग्गनिमुग्गदुल्लभतलं सारीरमणोमयाणि दुक्खाणि उप्पियंता सातस्सायपरित्तावणमयं उबुद्धनिबुड्यं करेंता चउरंतमहंतमणवयम्गं रुई संसारसागरं अट्ठियं अणालंबणमपतिठाणमप्पमेयं चुलसीतिजोणिसबसहस्सगुविलं अणालोकमंधकारं अणंतकालं दीप अनक्रम [१६] म.व्या.१० MAHamaa ~112~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [१६] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याकर० श्रीमभयदेव० वृत्तिः ॥ ५५ ॥ “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) - अध्ययनं [३] Eturatur निचं उत्तत्सुण्णभयसण्णसंपत्ता वसंति उच्चगावासवसहिं जहिं आउयं निबंधंति पावकम्मकारी बंधवजणसयणमित्तपरिवज्जिया अणिट्ठा भवंति अणादेजदुत्रिणीया कुठाणासणकुसेज्जकुभोयणा असुइणो कुसंघयणकुप्पमाणकुसंठिया कुरुवा बहुकोहमाणमायालोमा बहुमोहा धम्मसन्नसम्मत्तपन्भट्ठा दारिद्दोबदवाभिभूया निच्चं परकम्मकारिणो जीवणत्थर हिया किविणा परपिंडतकका दुक्खलद्धाहारा अरसविरसतुच्छ कय कुच्छिपूरा परस्स पेच्छंता रिद्धिसक्कार भोयणविसेससमुदयविहिं निदंता अप्पर्क कर्यतं च परिवयंता इह य पुरेकडाई कम्माई पावगाईं विमणसो सोएण डज्झमाणा परिभूया होंति सत्तपरिवज्जिया य छोभासिष्पकलासमय सत्यपरिवज्जिया जहाजायपसुभूया अवियत्ता णिञ्चनीयकम्मोवजीविणो लोयकुच्छणिज्जा मोघमणोरहा निरासबहुला आसापास पडिबद्धपाणा अत्थोपायाणकामसोक्खे य लोयसारे होंति अफलवंतका य सुडुविय उज्जमंता तद्दिवसुज्जुत्तकम् मकयदुक्खसंतवियसित्थपिंड संचय पक्खीणदव्वसारा निचं अधुवधणघणको सपरिभोगविवज्जिया रहियकामभोगपरिभोगसव्वसोक्खा परसिरिभोगोवभोगनिस्साणमग्गणपरायणा रागा अकामिकाए विर्णेति दुक्खं णेव सुहं णेव निब्बुतिं ज्वलति अचंतविपुलदुक्खसयसंपलित्ता परस्स दव्येहिं जे अविरया, एसो सो अदिण्णादाणस्स फलवियागो इहलोइओ पारलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महभओ बहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो असाओ वाससहस्सेहिं मुञ्चति, न य अवेयइत्ता अस्थि उ मोक्खत्ति, एवमाहं णायकुलनंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरनामधेज्जो कहेसी य अदिण्णादाणस्स फल For Park Use Only ~113~ ३ अधर्म द्वारे चौरिकाफलं सू० १२ ।। ५५ ।। Contrary org Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [१६] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) - श्रुतस्कन्ध: [१], अध्ययनं [३] मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विवागं एवं तं ततियंपि अदिन्नादाणं हरदहमरणभयकलुसता सण पर संतिक भेजलोभमूलं एवं जाय चिरपरिगतमणुगतं दुरंतं ॥ ततियं अहम्मदारं समतं तिबेमि ॥ ३ ॥ ( सू० १२ ) 'तथैव' यथा पूर्वमभिहिताः केचित् केचन परस्य द्रव्यं गवेषयन्त इति प्रतीतं गृहीताश्च राजपुरुषैर्हताच यष्ट्यादिभिः बद्धा रुद्वाश्च रज्वादिभिः संयमिताः चारकादिनिरुद्धाश्रतुरियं'ति त्वरितं शीघ्रं अतित्राडिताः भ्रामिताः अतिवर्त्तिता वा भ्रामिता एव पुरवरं नगरं समर्पिताः- ढौकिता: चौरग्राहाच चारभटाश्च चाटुकराश्च ये ते तथा तैश्च चौरग्राहचारभटचा टुकरैश्चारकवसतिं प्रवेशिता इति सम्बन्धः, कर्पट प्रहा राश्च-लकुटाकारवलितचीवरैस्ताडनानि निर्दया निष्करुणा ये आरक्षिकाः तेषां सम्बन्धीनि यानि खरपरुपवचनानि अतिकर्कशभणितानि तानि च तर्जनानि च-वचनविशेषाः 'गलच्छत्ति गलग्रहणं तथा या उल्लच्छणत्ति-अपवर्त्तना अपप्रेरणा इत्यर्थः, तास्तथा, ताचेति पदचतुष्टयस्य द्वन्द्वः, ताभिर्विमनसो विषण्णचेतसः सन्तः चारकवसतिं गुप्तिग्रहं प्रवेशिताः किंभूतां तां ? -निरपवसतिसदृशीमिति व्यक्तं तत्रापि चारकबसतो 'गोम्मिक'ति गौल्मिकस्य - गुप्तिपालस्य सम्बन्धिनो ये महाराः-घाताः 'दूमण'न्ति दवनानि उपतापनानि निर्भर्त्सनानि आक्रोशविशेषाः कटुकवचनानि च कटुकवचनैर्वा भेषणकानि च भयजननानि तैरभिभूता ये ते तथा, पाठान्तरेण एभ्यो यद्भयं तेनाभिभूता ये ते तथा, आक्षिप्तनिवसना- आकृष्टपरिधानवस्त्राः मलिनं दण्डिखंडरूपं वसनं वस्त्रं येषां ते तथा, उस्कोटालंचयोः -द्रव्यस्य बहुत्वेतरादिभिलोंके प्रतीत भेदयोः For Penal Use On ~114~ Ansaray or Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अधर्म द्वारे प्रत चौरिकाफलं सू०१२ सुत्रांक [१२] प्रश्नव्याक-पादू-गुप्तिगतनरसमीपाद् यन्मार्गणं-याचनं तत्परायणा:-तनिष्ठा येते तथा तैः गौल्मिकभटैः कर्तृभि- र०श्रीअ- विविधैः बन्धनैः करणभूतैर्वध्यन्ते इति सम्बन्धः, 'किं तेति तद्यथा 'हडि'त्ति काष्ठविशेषः निगडानि-लोभयदेव० हमयानि वालरजूका-गवादिवालमयी रज्जुः कुदण्डकं-काष्ठमयं प्रान्तरजुपाशं वरत्रा-चर्ममयी महारज्जुः वृत्तिः लोहसङ्कला-प्रतीता हस्तान्दुक-लोहादिमयं हस्तयन्त्रणं वर्धपहा-चर्मपट्टिका दाम-रजुमयपादसंयमनं निष्कोटनं च-बन्धनविशेष इति द्वन्द्वः ततस्तैरन्यैश्च-उक्तव्यतिरिक्तैरेवमादिकैः-एवंप्रकारेगौल्मिकभाण्डोपकरणै:-गौप्तिकपरिच्छेदविशेषैर्दुःखसमुदीरण:-असुखप्रवर्तकः तथा सङ्कोटना-गात्रसङ्कोचनं मोटना च-गात्रभञ्जना ताभ्यां, किमित्याह-वध्यन्ते, के इत्याह-मन्दपुण्याः, तथा सम्पुट-काष्ठयत्रं कपाटं प्रतीतं लोहपञ्जरे भूमिगृहे च यो निरोधा-प्रवेशनं स तथा, कूपः-अन्धकूपादिः चारको-गुप्तिगृहं कीलकाः-प्रतीता यूपो-युगं| चक्र-रथाङ्गं विततवन्धन-प्रमर्दितबाहुजलाशिरसः संयंत्रणं 'खंभालणं'ति स्तम्भालगनं स्तम्भालिङ्गनमित्यर्थः, ऊर्द्ध चरणस्य यद्वन्धनं तत्तथा, एतेषां द्वन्दूस्तत एतैर्या विधर्मणा:-कदर्थनास्तास्तथा ताभिश्व, 'विहे|डयंत'त्ति विहेश्यमाना-बाध्यमानाः सङ्कोटितमोटिताः क्रियन्त इति सम्बन्धः, अवकोटकेन-कोटाया-ग्री|वाया अघोनयनेन गाढं-बाई उरसि-हृदये शिरसि च-मस्तके ये बद्धास्ते तथा ते च ऊर्द्धपूरिता:-श्वासपूरितोर्द्धकायाः ऊळ वा स्थिता धूल्या पूरिताः पाठान्तरे 'उद्धपुरीयत्ति ऊबैपुरीततः-ऊर्द्धगतानाः स्फुरदुराकटकाश्च-कम्पमानवक्षःस्थला इति द्वन्द्वः तेषां सतां यन्मोटनं-मईनं आनेडना च-विपर्यस्तीकरणं ते दीप अनुक्रम [१६] & ॥५६॥ ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [१६] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) - अध्ययनं [३] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तथा ताभ्यां विहेव्यमाना इति प्रकृतं, अथवा 'स्फुरदुरःकटका' इह प्रथमा बहुवचनलोपो दृश्यस्ततश्च मोट नाब्रेडनाभ्यामित्येतदुत्तरत्र योज्यते, तथा बद्धाः सन्तो निःश्वसन्तो निःश्वासान् विमुञ्चन्तः शीर्षावेष्टकश्ववर्धादिना शिरोवेष्टनं 'करुयाल 'त्ति कय:- जङ्घयोदरो-दारणं ज्वालो वा ज्वालनं यः स तथा पाठान्तरेण 'उरुयावल'न्ति ऊरुकयोरावलनं ऊरुकावलः चप्पडकानां-काष्ठयन्त्रविशेषाणां सन्धिषु-जानुकूर्परादिषु बन्धनं चर्पटकसन्धिबन्धनं तच तप्तानां शलाकानां - कीलरूपाणां शूचीनां च लक्ष्णाग्राणां यान्याकोटनानि-कुनेनाङ्गे प्रवेशनानि, तथा तानि चेति द्वन्द्वोऽतस्तानि प्राप्यमाणा इति सम्बन्धः, तक्षणानि च-वास्था काष्ठस्येव विमाननानि च- कदर्थनानि तानि च तथा क्षाराणि-तिलक्षारादीनि कटुकानि-मरीचादीनि तिक्तानि निम्बादीनि तैर्यत् 'नावण'ति तस्य दानं तदादीनि यानि यातनाकारणशतानि - कदर्थना हेतुशतानि तानि बहुकानि प्राप्यमाणाः, तथा उरसि वक्षसि 'खोडित्ति महाकाष्ठं तस्याः दत्ताया- वितीर्णाया निवेशिताया इत्यर्थः यद् गाढप्रेरणं तेनास्थिकानि हड्डानि सम्भनानि 'सपांसुलिगति सपार्श्वाथीनि येषां ते तथा, गल इव-बडिशमिव घातकत्वेन यः स गलः स चासौ कालकलोहदण्डश्च - कालायसयष्टि: तेन उरसि वक्षसि उदरे च जठरे वस्ती च गुद्यदेशे पृष्ठौ च पृष्ठे परिपीडिता ये ते तथा, 'मच्छंत'त्ति मध्यमानं हृदयं येषां ते तथा, इह च थकारस्य छकारादेशः छान्दसत्वात्, यथा 'पुण्णस्स कच्छ' इत्यत्र पूर्णस्य कथ्यत इति, ते च सचूर्णिताङ्गोपाङ्गाश्चेति समासः, आज्ञतिकिङ्करैः- यथादेशकारिकिंकुर्वाणैः केचित् केचन For Parts Only ~116~ inerary org Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: द्वारे प्रत सूत्रांक [१२] ५७ प्रश्नच्याक- अविराधिता एव-अनपराद्धा एव वैरिका येते तथा तैर्यमपुरुषसन्निभैः प्रहता इति प्रकटं, ते अदत्तहारिणः अधर्मर० श्रीअ- तत्र-चारकवन्धने मन्दपुण्या-निर्भाग्याः चडवेला-चपेटाः वर्धपट्टा-चर्मविशेषपट्टिका पाराइंति-लोहकुभयदेव दासीविशेषः छिवा-लक्षणकषः कषः-चर्मयष्टिका लता-कम्बा बरत्रा-चर्ममयी महारजुः बेत्रो-जलवंशः एभियें || चौरिकावृत्तिः Pमहारास्तेषां यानि शतानि तेस्ताडितान्योपानानि येषां ते तथा, कृपणा:-दुःस्था लम्बमानचर्माणि यानि फलं व्रणानि-क्षतानि तेषु या वेदना-पीडा तया विमुखीकृतं-चौर्याद्विरञ्जितं मनो येषां ते तथा, धनकुडेन सू०१२ अयोधनताडनेन निर्वृत्तं धनकुहिम तेन निगडयुगलेन प्रतीतेन सङ्कोदिता:-सोचिताङ्गाः मोटिताश्च-भग्नाङ्गा येते तथा ते च क्रियन्ते-विधीयन्ते आज्ञप्तिकिङ्करैरिति प्रकृतं, किंभूताः ?-निरुचारा:-निरुद्धपुरीपोत्सर्गाः अविद्यमानसश्चरणा नष्टवचनोचारणा वा एता अन्याश्च एवमादिका-एवंप्रकारा: वेदनाः पापा:-पापफलभूताः पापकारिणो वा प्रामुवन्त्यदान्तेन्द्रिया: 'वसहति वशेन-विषयपारतब्येण कता:-पीडिता वशार्ता बहुमोहमोहिताः परधने लुब्धा इति प्रतीतं, स्पर्शनेन्द्रियविषये-स्त्रीकडेवरादी तीव्र-अत्यर्थं गुद्धा-अध्युपपन्ना येते तथा, स्त्रीगता ये रूपशब्दरसगन्धास्तेषु इष्टा-अभिमता या रतिः तथा स्त्रीगत एव मोहितो-वान्छितो यो भोगो-निधुवनं तयोर्या तृष्णा-आकाङ्का तया अर्दिता-पाधिता येते तथा, ते च धनेन तुष्यन्तीति धनतोषकाः गृहीताभ राजपुरुषैरिति गम्यं, ये केचन नरगणाः-चौरनरसमूहाः 'पणरवित्ति एकदा ते गौ-IN ल्मिकनराणां समपितास्तैश्च विविधवन्धनबद्धाः क्रियन्ते इत्युक्तं, ततः तेभ्यः सकाशात् पुनरपि ते 'कर्मदु दीप अनुक्रम [१६] ~117~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत -CRACKAGAR सूत्रांक [१२]] हाविदग्धाः कर्मसु-पापक्रियासु विषये फलपरिज्ञानं प्रति अविज्ञा उपनीता-दौकिताः राजकिङ्कराणां, कि विधानां?-'तेसिं'ति ये निर्दयादिधर्मयुक्तास्तेषां, तथा वधशास्त्रपाठकानां इति व्यक्तं, 'विलउलीकारकाणां |ति विटपोल्लककर्तृणां विलोकनाकारकाणां वा 'लञ्चाशतग्राहकाणां' तत्र लश्चा-उत्कोटाविशेषस्तथा कुट -मानादीनामन्यथाकरणं कपट-वेषभाषावैपरीत्यकरणं माया-प्रतारणबुद्धिः निकृति:-वचनक्रिया मायाया वा प्रच्छादनार्था मायाक्रियैव एतामां यदाचरणं प्रणिधिना-तदेकाग्रचित्तप्रधानेन यदञ्चनं प्रणिधानं वा-गूढपुरुषाणां यद्दश्चनं तच तयोर्विशारदाः-पण्डिता येते तथा तेषां, बहुविधालीकशतजल्पकानां परलोकपरा सुखानां निरयगतिगाभिकानामिति व्यक्तं, तैश्च राजकिङ्करैः आज्ञप्तं-आदिष्टं जीयन्ति-दुष्टनिग्रहविषयमाचKारितं दण्डश-प्रतीतः जीतदण्डो वा-रूढदण्डो जीवदण्डो वा-जीवितनिग्रहलक्षणो येषां ते तथा खरितं- शीघ्रमुद्घाटिता:-प्रकाशिताः पुरवरे शृङ्गाटकादिषु, तत्र शृङ्गाटक-सिङ्घाटक सिहाटकाकारं त्रिकोणं स्थान४ मित्यर्थः त्रिक-रथ्यात्रयमीलनस्थानं चतुष्क-रथ्याचतुकमीलनस्थानं चत्वरं-अनेकरध्यापतमस्थानं चतुर्मुखं -तथाविधदेवकुलिकादि महापथो-राजमार्गः पन्था:-सामान्यमार्गः, किंविधाः सन्तः प्रकाशिता इत्याह ?वेत्रदण्डो लकुटः काष्टं लेष्टुः प्रस्तरश्च प्रसिद्धाः 'पणालि'त्ति प्रकृष्टा नाली-शरीरप्रमाणा दीर्घतरा यष्टिः 'पणोल्लित्ति प्रणोदी पाजनकदण्डः मुष्टिलता (पादः) पाणिः पादपाणिर्वा जानुकूपरं च एतान्यपि प्रसिहानि एभिर्ये प्रहारास्तैः सम्भग्नानि-आमर्दितानि मथितानि च-विलोडितानि गात्राणि येषां ते तथा, अ दीप अनुक्रम [१६] REaiaudio PHManasurary.org ~118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [१६] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) - अध्ययनं [३] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक २० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ॥ ५८ ॥ |ष्टादशकर्मकारणात्-अष्टादशचौरप्रसूति हेतुना, तत्र चौरस्य तत्प्रसूतीनां च लक्षणमिदं- “चौरः १ चौरापको २ मन्त्री ३, भेदज्ञः ४ काणकक्रयी ५। असदः ६ स्थानदश्चैव, चौरः सप्तविधः स्मृतः ॥ १ ॥" तत्र काण कक्रयी बहुमूल्यमपि अल्पमूल्येन चौराहतं काणकं- दीनं कृत्वा क्रीणातीत्येवंशीलः, “भलनं १ कुशलं २ तर्जी ३, राजभागो ४ ऽवलोकनम् ५ । अमार्गदर्शनं ६ शय्या ७ पदभङ्ग ८ स्तथैव च ॥ १ ॥ विश्रामः ९ पादपतन १० मासनं ११ गोपनं १२ तथा । खण्डस्य खादनं चैत्र १३, तथाऽन्यन्माहराजिकम् १४ ॥ २ ॥ पया६१५ यु १६ दक १७ रजूनां १८, प्रदानं ज्ञानपूर्वकम् । एताः प्रसूनयो ज्ञेया, अष्टादश मनीषिभिः ॥ ३ ॥” तत्र भलनं न भेतव्यं भवता अहमेव त्वद्विषये भलिष्यामीत्यादिवाक्यैः चौर्यविषयं प्रोत्साहनं १, कुशलं | मिलितानां सुखदुःखादितद्वार्ताप्रश्नः २, तर्जी हस्तादिना वीर्य प्रति प्रेषणादिसंज्ञाकरणं ३, राजभागोराजाभाव्यद्रव्यापह्नवः ४, अवलोकनं- हरतां चौराणामुपेक्षा बुद्ध्या दर्शनं ५, अमार्गदर्शनं चीरमार्गप्रच्छकानां मार्गान्तरकथनेन तदज्ञापनं ६ शय्या-शयनीयसमर्पणादि ७ पदभङ्गः पञ्चाच्चतुष्पदप्रचाराद्द्विारेण ८ विश्रामः खगृह एव वासकाद्यनुज्ञा ९ पादपतनं प्रणामादिगौरवं १० आसनं विष्टरदानं ११ गोपनंचौरापह्नवः १२ खण्डखादनं-खण्डमण्डकादिभक्तप्रयोगः १३ महाराजिक-लोकप्रसिद्धं १४ पयाम्युदकरजूनां प्रदानमिति प्रक्षालनाभ्यङ्गाभ्यां दूरमार्गागमजनितश्रमापनोदित्वेन पादेभ्यो हितं पर्य- उष्णजलतेलादि तस्य १५ पाकाद्यर्थं चाग्नेः १६ पानाद्यर्थं च शीतोदकस्य १७ चौराहतचतुष्पदादिबन्धनाद्यर्थे च र Educator International For Park Use Only ~119~ ३ अधर्म द्वारे चौरिकाफलं सू० १२ ॥ ५८ ॥ org Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२]] ज्वाश्च १८ प्रदान-वितरणं ज्ञानपूर्वकं चेति सर्वत्र योज्यं, अज्ञानपूर्वकस्य निरपराधित्वादिति, तथा यातिता-1 झोपाङ्गा:-कर्थिताङ्गोपाङ्गाः तैः राजकिङ्करैरिति प्रकृतं, करुणाः शुष्कोष्ठकण्ठगलतालुगलजिह्वाः याचमानाः पानीयं विगतजीविताशाः तृष्णार्दिता वराका इति स्फुट, 'तंपियति तदपि पानीयमपि न लभन्ते, वध्येषु नियुक्ता ये पुरुषा वध्या वा पुरुषा येषां ते वध्यपुरुषाः तैीयमानाः-प्रेर्यमाणाः तत्र च-ध्राडने खरपरुषः-अस्वर्थकठिनो यः पदहको-डिण्डिमकः तेन प्रचलनार्थ पृष्ठदेशे घहिताः-प्रेरिता येते तथा कूटे ग्रहः कूटग्रहस्ते-1|| नैव गाढरुष्टैर्निमृष्ट-अत्यर्थं परामृष्टा-गृहीता येते तथा, ततः कर्मधारयः, वध्यानां सम्बन्धि यत्करकुटीयुगंवस्त्रविशेषयुगलं तत्तथा तन्निवसिताः-परिहिता पाठान्तरे वध्याश्च करकुव्योः-हस्तलक्षणकुटीरकयोयुगंयुगलं निवसिताश्च येते तथा, सुरक्तकणवीर:-कुसुमविशेषग्रंथितं-गुम्फित विमुकुलं-विकसितं कण्ठे गुण इच कण्ठेगुणः कण्ठसूत्रसदृशमित्यर्थः वध्यदूत इव वध्यदतः वध्यचिह्नमित्यर्थः आविर्द्ध-परिहितं माल्यदामकुसुममाला येषां ते तथा, मरणभयानुत्पन्नो यः खेदः तेनायतं-आयामो यथा भवतीत्येवं लेहेन उत्तुपितानीवस्नेहितानीव क्लिन्नानीव आर्दीकृतानि गात्राणि येषां ते तथा, चूर्णेनाकारादीनां गुण्डितं शरीरं येषां ते तथा, रजसा-वातोल्खातेन रेणुना च-धूलीरूपेण भरिताश्च-भृताः केशा येषां ते तथा, कुसुम्भकेन-रागविशेषेण उत्कीर्णा-गुण्डिता मूर्धजा येषां ते तथा, छिन्नजीविताशा इति प्रतीतं, धूर्णमानाः भयविह्वलत्वात् वध्याश्च ४-हन्तव्याः प्राणप्रीताश्च-उच्छ्रासाविप्राणप्रियाः प्राणपीता वा-भक्षितप्राणा ये तथा, पाठान्तरेण 'वज्झयाण दीप अनुक्रम [१६] SAREaiam ond Barasaram.org ~120 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] प्रश्नव्याक- भीय'त्ति वधकेभ्यो भीता इत्यर्थः, 'तिलं तिलं चेव छिज्जमाणा'इति व्यक्तं, शरीराद्विकृत्तानि-छिन्नानि लोहि-18| अधर्मर०श्रीअ- तावलिप्सानि-रक्तलिप्सानि यानि काकिणीमांसानि-लक्ष्णखण्डपिशितानि तानि तथा खायमानाः पापा:- | द्वारे भयदेव०पापिनः खरकरशतैः-लक्ष्णपाषाणभृतचर्मकोशकविशेषशतैः स्फुटितवंशशतवा ताज्यमानदेहा चातिकनरना- | चौरिकावृत्तिः रीसम्परिवृता:-बातो येषामस्ति ते चातिका बातिका इव वातिका अनियनिता इत्यर्थः तैनरैनारीभिश्व फलं समन्तात्परिवृता येते तथा, प्रेक्ष्यमाणाव नागरजनेनेति व्यक्तं, वध्यनेपथ्यं सञ्जातं येषां ते वध्यनेपथ्यिताः टा सू०१२ ॥ ५९॥ मनीयन्ते-नीयन्ते नगरमध्येन-सन्निवेशमध्यभागेन कृपणानां मध्ये करुणाः कृपणकरुणाः अत्यन्तकरुणा इत्यर्थः अनाणाः अनर्थप्रतिघातकाभावात् अशरणा अर्थप्रापकाभावात् अनाथाः योगक्षेमकारिविरहितत्वात अपान्धवाः पान्धवानामनर्थकत्वात् बन्धुविहीणाः वान्धवैः परित्यक्तत्त्वात् विप्रेक्षमाणाः-पक्ष्यन्तः दिशोदिशन्ति-एकस्था दिशोऽन्यां दिशं पुनस्तस्या अन्यां दिशमित्यर्थः, मरणभयेनोद्विग्ना येते तथा 'आघाय-| पण'त्ति आघातनस्य वध्यभूमिमण्डलस्य प्रतिद्वारं-द्वारमेव सम्प्रापिता-नीता येते तथा, अधन्याः शूलाग्रे-18 शूलिकान्ते विलग्ना-अवस्थितो भिन्नो-विदारितो देहो येषां ते तथा, तत्रेति-आघातने क्रियन्ते-विधीयन्ते, तथा परिकल्पिताङ्गोपाङ्गा:-छिन्नावयवाः उल्लम्व्यन्ते वृक्षशाखामु केचित् करुणानि वचनानीति गम्यते |विलपन्त इति, तथा अपरे चतुर्यु अङ्गेषु-हस्तपादलक्षणेषु धणियंगाद बद्धा येते तथा, पचेतकटकात्-भृगोः। प्रमुच्यन्ते-क्षिप्यन्ते दूरात् पात-पतनं बहुविषमप्रस्तरेषु-अत्यन्तासमपाषाणेषु सहन्ते येते तथा, तथाऽन्ये | दीप अनुक्रम [१६] ~121 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 45* %* प्रत सूत्रांक [१२]] च-अपरे गजचरणमलनेन निमर्दिता-दलिता येते तथा, ते क्रियन्ते पापकारिणः-चौर्यविधायिनः अष्टादशसु स्थानेषु खण्डिताः येते तथा, ते च क्रियन्ते कैरित्याह-मुसुण्डपरशुभिः-मुण्ड[कुण्ठ]कुठारैः, तीक्ष्णैर्हि तैः अत्यन्तं वेदनोत्पद्यत इति मुण्ड इति विशेषणमिति, तथा केचित्-अन्ये उत्कृत्तकर्णोष्ठनाशाः-छिन्नश्रवणदशनच्छदघाणा उत्पादितनयनदशनवृषणा इति प्रतीतं जिला-रसना आग्छिता-आकृष्टा छिन्नी कौँ शिरश्च शिरा वा-नाड्यो येषां ते तथा प्रनीयन्ते आघातस्थानमिति गम्यते, छिद्यन्ते असिना-खङ्गेन, तथा निर्विषया MI-देशानिष्कासिता छिन्नहस्तपादाश्च प्रमुच्यन्ते-राजकिङ्करैस्त्यज्यन्ते, छिन्नहस्तपादा देशान्निष्काल्यन्त इति भावः, तथा यावज्जीववन्धनाश्च क्रियन्ते केचिद्-अपरे, के इत्याह-परद्रव्यहरणलुब्धा इति प्रतीतं, कारागलया| -चारकपरिघेन निगलयुगलैश्च रुहा-नियनिता ये ते तथा, ते च केल्याह-चारगाए'त्ति चारके-गुप्ता, किंविधाः सन्त इत्याह-हतसारा:--अपहतद्रव्याः खजनविप्रमुक्ता मित्रजननिराकृता निराशाति प्रतीतं, बहुजनधिक्कारशब्देन लज्जापिताः-प्रापितलज्जा येते तथा, अलजा-विगलितलज्जाः, अनुवक्षुिधा-सततवुभुक्षया प्रारब्धा-अभिभूताः अपराद्धा वा ये ते तथा शीतोष्णतृष्णावेद नया दुर्घटया-दुराच्छादया घट्टिता:स्पृष्टा ये ते तथा, विवर्णमुखं विरूपा च छवी-शरीरत्वक येषां ते विवर्णमुखविच्छविकाः ततोऽनुबद्धेत्यादि-17 पदानां कर्मधारयः, तथा विफला-अप्रासेप्सितार्थाः मलिना:-मलीमसा दुबैलाश्र-असमर्थी येते तथा, क्लान्ता-ग्लानाः तथा काशमाना-रोगविशेषात् कुत्सितशब्दं कुर्वाणाः व्याधिताच-सञ्जातकुष्ठादिरोगाः दीप अनुक्रम [१६] 564564%95%250- REngland ~122~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत | फलं सुत्रांक [१२] प्रश्नव्याक- आमेन-अपक्करसेनाभिभूतानि गात्राणि-अङ्गानि येषां ते तथा, प्ररूढानि-वृद्धिमुपगतानि बद्धत्वेनासं-14३ अधर्मर० श्रीअ- स्कारात् नखकेशश्मश्रुरोमाणि येषां ते तथा, तत्र केशा:-शिरोजाः इमभूणि-कूर्चरोमाणि शेषाणि तु रोमा- द्वारे भयदेवणीति, 'छगमुत्समि'सि पुरीषमूत्रे निजकेषु खुत्तत्ति-निमनाः तत्रैव-चारकबन्धने मृता अकामका:-मरणे - | चौरिका नभिलाषाः, ततश्च बद्धा पादयोराकृष्टाः स्वातिकायां 'छूढ'त्ति क्षिप्ताः, तत्र तु खातिकायां वृकशुनकशृगालकोलमार्जारबृन्दस्य संदंशकतुण्डपक्षिगणस्य च विविधमुखशतैर्विलुप्सानि गात्राणि येषां ते तथा, कृता-1 सू०१२ विहिता वृकादिभिरेव 'विहंगत्ति विभागाः वण्डशः कृता इत्यर्थः केचिदू-अन्ये 'किमिणा यत्ति कृमि-18 वन्तश्च कुथितदेहा इति प्रतीतं, अनिष्टवचनैः शाप्यमानाः-आक्रोश्यमानाः, कथमित्याह-सुष्टु कृतं तत्कदर्थनमिति गम्यते यदिति यस्मात्कदर्थनान्मृतः पाप इति, अथवा सुष्टु कृतं-मुटु सम्पन्नं यन्मृत एष पाप इति, तथा तुष्टेन जनेन हन्यमाना लजामापयन्ति-प्रापयन्तीति लज्जापनास्त एवं कुत्सिता लज्जापनका ल जावहा इत्यर्थः, ते च भवंति-जायन्ते न केवलमन्येषां? खजनस्यापि च दीर्घकालं यावदिति, तथा मृताः है सन्तः पुनमरणानन्तरं परलोकसमापन्ना:-जन्मान्तरसमापन्नाः निरये गच्छन्ति निरभिरामे, कथम्भूते? अङ्गाराश्च प्रतीताः प्रदीप्तकं च-प्रदीपनकं तत्कल्पा-तदुपमो यः अत्यर्धशीतवेदनश्वासातेन कम्मेणा उदीरजाणानि-उदीरितानि सततानि-अविच्छिन्नानि यानि दाखशतानि तः समभिभूतश्च-उपद्रतो यः स तथा तत स्ततोऽपि नरकादुद्धृताः सन्तः पुनरपि प्रपद्यन्ते तिर्यग्योनि, तत्रापि नरयोपमामनुभवन्ति वेदनां ते-अनन्तरो दीप अनुक्रम [१६] ~1234 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: - - - प्रत ACCOCAX* सूत्रांक [१२]] --- गदितादत्तग्राहिणः, अनन्तकालेन यदि नाम कथञ्चिन्मनुजभावं लभन्ते इति व्यक्त, कथमित्याह-नकेषु-बहुषु निरयगती यानि गमनानि तिरश्चां च ये भवास्तेषां ये शतसहस्रसङ्ख्याः परिवस्तेि तथा तेष्वतिक्रान्तेषु सखिति गम्यते, तत्रापि च-मनुजत्वलाभे भवन्ति-जायन्ते अनार्या:-शकयवनबर्बरादयः, किम्भूताः?-| नीचकुलसमुत्पन्नाः, तथा आर्यजनेऽपि-मगधादौ समुत्पन्ना इति शेषः लोकबाह्या-जनवर्जनीया भवन्तीनि| गम्यं, तिर्यग्भूताश्च पशुकल्पा इत्यर्थः, कथमित्याह-अकुशला:-तत्त्वेषु अनिपुणाः कामभोगतृषिता इति व्यक्तं, 'जहिंति नरकादिपरिवृत्ती तत् मनुजत्वं लभते यत्र नियन्ति-चिन्वन्ति निरयवर्तिन्यां-नरकमागें| भवप्रपञ्चकरणेन-जन्मप्राचुर्यकरणेन 'पणोल्लिति प्रणोदीनि तत्प्रवर्तकानि तेषां जीवानामिति हृदयं यानि | तानि तथा, अत्र द्वितीयायहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, पुनरपि आवृत्त्या संसारो-भयो नेमत्ति-मूल येषां तानि | तथा दुःखानीति भावः तेषां यानि मूलानि तानि तथा, कर्माणीत्यर्थः, तानि नियनन्तीति प्रकृतं, इह च मूलाइंति चाच्ये मूल इत्युक्तं प्राकृतत्वेन लिङ्गव्यत्ययादिति, किम्भूतास्ते मनुजवे वर्तमाना भवन्तीत्याहधर्मश्रुतिविवर्जिताः धर्मशास्त्रविकला इत्यर्थः अनार्या:-आर्येतराः क्रूरा-जीवोपधातोपदेशकत्वात् क्षुद्रा तथा| मिथ्यात्वप्रधाना-विपरीततत्वोपदेशका श्रुतिः-सिद्धान्तस्तां प्रपन्ना:-अभ्युपगता येते तथा ते च भवन्तीति, एकान्तदण्डरुचयः-सर्वथा हिंसनश्रद्धा इत्यर्थः वेष्टयन्ति कोशिकारकीट इवात्माननिति प्रतीतं अष्टकर्मल-1 क्षणैस्तन्तुभिर्यदू धनं बन्धनं तत्तथा तेन, एवमनेन आत्मनः कर्मभिर्यन्धनलक्षणप्रकारेण नरकतिर्यङ्गरामरेषु - दीप - अनुक्रम [१६] -- म.न्या .११ ~124~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत फलं सुत्रांक सू०१२ [१२] प्रेमब्याक-18 यद् गमनं तदेव पर्यन्तचक्रवाल-बाह्यपरिधिर्यस्य स तथा तं संसारसागरं वसन्तीति सम्बन्धः, किम्भूत-| अधर्म२० श्रीअ दामित्याह-जन्मजरामरणान्येव कारणानि-साधनानि यस्य तत्तथा तब तदु गम्भीरदुःखं च तदेव प्रक्षुभितं- द्वारे भयदेव० सञ्चलितं प्रचुर सलिलं यत्र स तथा तं, संयोगवियोगा एव वीचय:-तरङ्गा यत्र स तथा, चिन्ताप्रसङ्ग:-चिवृत्तिः न्तासातत्यं तदेव प्रसृतं-प्रसरो यस्य स तथा वधा-हननानि बन्धाः-संयमनानि तान्येव महान्तो दीर्घतया विपुलाश्च विस्तीर्णतया (महा) कल्लोला-महोर्मयो यत्र स तथा, करुणविलपिते लोभ एव कलकलायमानो ॥ ६१॥ यो बोलो-ध्वनिः स बहुलो यन्त्र स तथा, ततः संयोगादिपदानां कर्मधारयः अतस्तं, अपमानमेव-अपूजन मेव फेनो यन्त्र स तथा, तीव्रखिंसनं च-अत्यर्थं निन्दा पुलंपुला-प्रभूता अनवरतोद्भूता या रोगवेदनास्ताश्च दापरिभवविनिपातस-पराभिभवसम्पर्कः परुषघर्षणानि च-निछुरवचननिर्भत्सनानि च समापतितानि-स-18 मापन्नानि येभ्यस्तानि तथा तानि च तानि कठिनानि-कर्कशानि दुर्भेदानीत्यर्थः कर्माणि च-ज्ञानावरणादीनि| क्रिया वा तान्येव ये प्रस्तरा:-पाषाणास्तैः कृत्वा तरङ्गवत्-वीचिवलत नित्य-ध्रुवं मृत्युभयमेव मृत्युश्च| भयं चेति ते एव वा तोयपृष्ठं-जलोपरितनभागो यत्र स तथा, ततः कर्मधारयः, अथवाऽपमानेन फेनेन | फेनमिति तोयपृष्ठविशेषणमतो बहुव्रीहिरेवातस्तं, कषाया एवं पाताला:-पातालकलशास्तैः सङ्कलो यास तथा तं, भवसहस्राण्येच जलसञ्चयः-तोयसमूहो यत्र स तथा तं, पूर्व जननादिजन्यदुःखस्य सलिलतोक्ता इह तु भवनानां जननादिधर्मवतां जलविशेषसमुदायतोक्तेति न पुनरुक्तत्वं, अनन्त-अक्षयं उद्वेजनक-उ-| दीप अनुक्रम [१६] ॥६१॥ Baitaram.org ~125 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [१६] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) - श्रुतस्कन्ध: [१], अध्ययनं [३] मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः द्वेगकरं अनवक्पारं विस्तीर्णस्वरूपं महाभयादिविशेषणत्रयमेकार्थ अपरिमिता अपरिमाणा ये महेच्छाबृहदभिलाषा अविरतलोकास्तेषां कलुषा-अविशुद्धा या मतिः स एव वायुवेगस्तेन उद्धम्ममाणत्ति उत्पा यमानं यत्तत्तथा तस्य, आशा- अप्राप्तार्थसम्भावना पिपासा च प्रासार्थाकाङ्क्षास्ता एवं पातालाः- पातालकलशाः पाताल वा समुद्रजलतलं तेभ्यस्तस्माद्वा कामरतिः शब्दादिष्वभिरतिः रागद्वेषबन्धनेन बहुविधसङ्कल्पाश्चेति दन्द्रः, तल्लक्षणस्य विपुलस्योदकरजसः- उदकरेणोर्यो रयो- वेगस्तेनान्धकारो यः स तथा तं, कलु पमतिवातेनाशादिपातालादुत्पाद्यमानका मूख्या युद्धकरजोरयोऽन्धकारमित्यर्थः, मोह एव महावर्त्ती मोहमहावर्त्तस्तत्र भोगा एव-कामा एव भ्राम्यन्तो मण्डलेन सञ्चरन्तो गुप्यन्तो व्याकुलीभवन्तः उदूलन्त उच्छ लन्तो बहवः प्रचुराः गर्भवासे- मध्यभागविस्तारे प्रत्यवनिवृत्ताश्च- उत्पत्य निपतिताः प्राणिनो यत्र जले त तथा, तथा प्रधावितानि इतस्ततः प्रकर्षेण गतानि यानि व्यसनानि तानि समापन्नाः प्राप्ता ये ते पाठान्तरेण प्रबाधिताः पीडिता ये व्यसनसमापन्ना- व्यसनिनस्तेषां यद् रुदितं प्रलपितं तदेव चण्डमारुतस्तेन समाहूतममनोज्ञं वीचिव्याकुलितं भङ्गैः तरङ्गैः स्फुटन-विदलन अनिष्ठितैः कल्लोले:-महोर्मिभिः सङ्कुलं च जलं - तोयं यत्र स तथा तं महामोहावर्त्त भोगरूपभ्राम्यदादिविशेषणप्राणिकं व्यसनसमापन्नरुदितलक्षणचण्डमारुतसमाहतादिविशेषणं जलं यत्रेत्यर्थः, प्रमादा-मयादयस्त एव बहवचण्डा-रौद्रा दुष्टाः क्षुद्राः श्वापदा-व्याघ्राद्यस्तैः समाहता - अभिभूता ये 'उद्धायमाण'त्ति उत्तिष्ठन्तो विविधचेष्टासु समुद्रपक्षे मत्स्यादयः संसारपक्षे पुरु For Pale Only ~126~ andiary.org Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अधर्म द्वारे प्रत चौरिका फलं सू०१२ सुत्रांक [१२] प्रश्रव्याक-सपादयः तेषां यः पूरः-समूहस्तस्य ये घोरा-रौद्राः विध्वंसाना:-विनाशलक्षणा अनथा-अपायास्तैः बहुलो र०श्रीअ- यास तथा तं, अज्ञानान्येव भ्रमन्तो मत्स्याः 'परिहत्य'त्ति दक्षा यत्र स तथा अनिभृतानि-अनुपशान्तानि भयदेव० यानीन्द्रियाणि अनिभृतेन्द्रिया वा ये देहिनस्तान्येव त एष वा महामकरास्तेषां यानि चरितानि-शीघ्राणि वृत्तिः चरितानि-चेष्टनानि तैः 'खोखुन्भमाण'सि भृशं क्षुभ्यमाणो यः स तथा, सन्ताप:-एकत्र शोकादिकृतोऽ न्यत्र चाडवाग्निकृतो नित्यं यत्र स सन्तापनित्यकः, तथा चलन चपला चश्चलश्च यः स तथा, अतिचपल इ॥६२RI त्यर्थः, स च अत्राणाशरणानां पूर्वकृतकर्मसञ्चयानां प्राणिनामिति गम्यं यदीण वज्र्प-पापं तस्य यो वेद्यMमानो दुःखशतरूपो विपाकः स एव घूर्णश्च-भ्रमन जलसमूहो यत्र स तथा, ततोऽज्ञानादिपदानां कर्मधार योऽतस्तं, ऋद्धिरससातलक्षणानि यानि गौरवाणि-अशुभाध्यवसायविशेषास्त एवापहारा-जलचरविशेषाः तः गृहीता ये कर्मप्रतिबद्धाः सत्वाः संसारपक्षे ज्ञानावरणादिवद्धाः समुद्रपक्षे विचित्रचेष्टाप्रसक्ताः 'कहिजमाण'त्ति आकृष्यमाणा नरक एव तलं-पातालं 'इत्तंति तदभिमुखं सन्ना इति-सन्नकाः खिन्ना विषण्णाश्च-1 शोकितास्तवेहुलो यः स तथा, अरतिरतिभयानि प्रतीतानि विषादो-दैन्यं शोकः-तदेव प्रकर्षावस्थं मिबाध्यात्वं-विषयोंस एतान्येव शैला:-पर्वतास्तैः सङ्कटो यः स तथा अनादिः सन्तानो यस्य कर्मवन्धनस्य तKसधा तथ क्लेशाश्व-रागादयस्तल्लक्षणं पविक्खिल्लं-कर्दमस्तेन सुष्ट दुरुत्तारो यः स तथा, ततः ऋद्धीत्यादि [पदानां कर्मधारयोऽतस्तं, अमरनरतिर्यग्निरयगतिषु यद् गमनं सैव कुटिलपरिवर्त्ता-वपरिवर्तना विपुला दीप अनुक्रम [१६] ~127 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२]] च-विस्तीर्णा वेला-जलवृद्धिलक्षणा यत्र स तथा तं, हिंसाऽलीकादत्तादानमैथुनपरिग्रहलक्षणा ये आरम्भा P-व्यापारास्तेषां यानि करणकारणानुमोदनानि तैरष्टविधमनिष्टं यत् कर्म पिण्डितं-सञ्चितं तदेव गुरुभारस्तेनाक्रान्ता येते तथा तैर्दुर्गाण्येव-व्यसनान्येव यो जलौघस्तेन दूर-अत्यर्थ निबोल्यमानैः-निमज्यमानैः 'उम्मग्गनिमग्ग'त्ति उन्मग्ननिमग्नैः-ऊर्ध्वाधोजलगमनानि कुर्वाणैर्दुर्लभं तलं-प्रतिष्ठानं यस्य स तथा तं, शरीरमनो|मयानि दुःखानि उत्पियन्त:-आसादयन्तः सातं च-मुखं असातपरितापनं च-दुःखजनितोपतापः एतन्मयं-12 एतदात्मकं 'उबुडनिवुडय'ति उन्मग्ननिमग्नत्वं कुर्वन्तः, तत्र सातमुन्मनत्वमिव असातपरितापनं निमग्नत्व-R |मिवेति, चतुरन्तं-चतुर्विभागं दिग्भेदगतिभेदाभ्यां महान्तं प्रतीतं कर्मधारयोऽन्न दृश्यः अनवदग्रं-अनन्तं रुद्रंMI-विस्तीर्ण संसारसागरमिति प्रतीतं, किम्भूतमित्याह-अस्थिताना-संपमाब्यवस्थितानां अविद्यमानमालम्बनं || प्रतिष्ठानं च-त्राणकारणं यत्र स तथा तं, अप्रमेयं-असर्ववेदिनाऽपरिच्छेद्यं, चतुरशीतियोनिशतसहस्रगुपिलं, तत्र योनयो-जीवानामुत्पत्तिस्थानानि तेषां चासङ्ख्यातत्वेऽपि समवर्णगन्धरसस्पर्शानामेकत्वविवक्षणादुक्तसङ्ख्याया अविरोधित्वं द्रष्टव्यं, तत्र गाथे-"पुढवि ७दग ७ अगणि मारुय ७ एकेके सत्त जोणिलक्खाओ। वणपत्तेप १० अर्णते १४ दस चोइस जोणिलक्खाओ॥ १ ॥ विगलिदिएम दो दो चउरो चउरो य नारलायसुरेसु । तिरिएसु हुंति चउरो चोद्दस लक्खा य मणुएसु ॥२॥" अनालोकानां-अज्ञानानामन्धकारो यः स तथा तं, अनन्तकालं-अपर्यवसितकालं यावत् नित्यं-सर्वदा उत्रस्ता-उद्तत्रासाः सुन्ना-इतिकर्तव्य दीप अनुक्रम [१६] SHARERIESimifiniortal Jiunnaturary.org ~128~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक [१२] तामूहा भयेन संज्ञाभिश्च-आहारमैथुनपरिग्रहादिभिः सम्प्रयुक्ता-युक्तास्ततः कर्मधारयः, बसन्ति-अध्यासते अधर्मर० श्रीअ- संसारसांगरमिति प्रकृतं, इह च बसेर्निरुपसर्गस्यापि सकर्मकत्वं छान्दसत्वादिति, किम्भूतं संसारं?-उद्वि- द्वारे भयदेव | ग्रानां वासस्य-वसनस्य वसति:-स्थानं यः स तथा तं, तथा यत्र २ ग्रामकुलादी आयुर्निवान्ति पापका- चौरिकावृत्तिः |रिण:-चौर्यविधायिनः तत्र तत्रेति गम्यते घान्धवजनादिवर्जिता भवन्तीति क्रियासम्बन्धः, बान्धवजनेन- फलं भ्रात्रादिना खजनेन-पुत्रादिना मित्रैश्च-सुहृद्भिः परिवर्जिता येते तथा, अनिष्टा जनस्येति गम्यते, भवन्ति- सू०१२ जायन्ते अनादेयदुर्विनीता इति प्रतीतं, कुस्थानासनकुशय्याश्च ते कुभोजनाश्चेति समासः 'असुइणोत्ति अशुचयोऽश्रुतयो वा कुसंहननाः-सेवा+दिसंहननयुक्ताः कुममाणा-अतिदीर्घा अतिहस्खा वा कुसंस्थिता |-हुण्डादिसंस्थाना इति पदत्रयस्य कर्मधारया, कुरूपा:-कुत्सितवर्णाः, बहुक्रोधमानमायालोमा इति प्रतीतं, |बहुमोहा-अतिकामाः अत्यर्थाज्ञाना वा, धर्मसंज्ञाया-धर्मबुद्धेः सम्यक्त्वाच ये परिभ्रष्टास्ते तथा, दारिद्र्योपद्रवाभिभूता नित्यं परकर्मकारिण इति प्रतीतं, जीव्यते येनार्थेन-द्रव्येण तद्रव्यरहिता येते तथा, कृपणारङ्काः परिपिण्डतर्ककाः-परदत्तभोजनगवेषकाः दुःखलब्धाहारा इति व्यक्तं, अरसेन-हिमवादिभिरसंस्कृत तेन विरसेन-पुराणादिना तुच्छेन-अल्पेन भोजनेनेति गम्यते कृतः कुक्षिपूरो पैस्ते तथा, तथा परस्य सम्ब-18|| *न्धिर्न प्रेक्षामाणाः पश्यन्तः कमित्याह-ऋद्धिः-सम्पत् सत्कार:-पूजा भोजनं-अशनं एतेषां ये विशेषाः-10 हा प्रकाराः तेषां यः समुदया-समुदायः उदयवर्तिवं वा तस्य यो विधि-विधानमनुष्टानं स तथा, ततश्च नि दीप अनुक्रम [१६] ~129~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२]] न्वन्तः-जुगुप्समाना अप्पगन्ति-आत्मानं कृतान्तं च-देवं तथा परिवदन्तो-निन्दन्तः, कानीयाह-इह य पुरेकडाई कम्माई पायगाईति इहैवमक्षरघटना-पुराकृतानि च-जन्मान्तरकृतानि कर्माणि इह-जन्मनि पापकानि-अशुभानि कचित्पापकारिण इति पाठः, विमनसो-दीनाः शोकेन दद्यमानाः परिभूता भवन्तीति। सर्वत्र सम्बन्धनीयं, तथा सत्वपरिवर्जिताच 'छोभसि निस्सहायाः क्षोभणीया वा शिल्पं-चित्रादि कलाधनुर्वेदादिः समयशास्त्रं-जैनबौद्धादिसिद्धान्तशास्त्रं एभिः परिवर्जिता येते तथा, यथाजातपशुभूता:शिक्षारक्षणादिवर्जितबलीवादिसदृशाः निर्विज्ञानस्वादिसाधात् 'अचियस सि अप्रतीत्युत्पादका नित्यं -सदा नीचानि-अधमजनोचितानि कर्माण्युपजीवन्ति-तैवृत्तिं कुर्वन्ति येते तथा, लोककुत्सनीया इति प्रतीतं, मोहाद ये मनोरथा-अभिलाषास्तेषां ये निरासा:-क्षेपास्तैर्वहुला ये ते तथा अथवा मोघमनोरथा|निष्फलममोरथा निराशबहुलाश्च-आशाभावप्रचुरा येते तथा, आशा-इच्छाविशेषः सैष पाशो-बन्धन | तेन प्रतिबद्धाः-संरुद्धा निर्यान्त इति गम्यं प्राणा येषां ते तथा, अर्थोपादान-द्रव्यावर्जनं कामसौख्यं च प्रतीत तत्र च लोकसारे-लोकप्रधाने भवन्ति-जायन्ते अफलवंतगा यत्ति अफलवन्तः अप्राप्तिका इखयोलोकसारता च तयोः प्रतीता, यथा:-“यस्यार्थास्तस्य मित्राणि, यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः । यस्याः स पुमान लोके, यस्यार्थाः स च पण्डितः॥१॥” इति, "राज्ये सारं वसुधा वसुन्धरायां पुरं पुरे सौधम् । सौधे तल्पं हातिल्पे वराङ्गनाऽनङ्गसर्वस्व ॥१॥” मिति, किम्भूता अपीत्याह-सुष्ठपि च उद्यच्छन्तः-अत्यर्थमपि च प्रयत-1 दीप अनुक्रम [१६] REAMMonal naurary.om ~130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रश्नब्याक २०श्रीन- भवदेव० वृत्तिः अधर्मद्वारे चौरिका प्रत सूत्रांक [१२] सू०१२ मानाः, उक्तं च-"यद्यदारभते कर्म, नरो दुष्कर्मसञ्चयः । तत्तद्विफलतां याति, यथा बीज महोषरे ॥१॥" तदिवसं-प्रतिदिनमुद्युक्तैः-उद्यतः सद्भिः कर्मणा-व्यापारेण कृतेन यो दुःखेन-कष्टेन संस्थापितो-मीलितः सिक्थानां पिण्डस्तस्यापि सञ्चये परा:-प्रधाना ये ते तथा, क्षीणद्रव्यसारा इति व्यक्तं, नित्यं-सदा अभुषाअस्थिरा धनानां-गणिमादीनां धान्यानां-शाल्यादीनां कोशा-आश्रया येषां स्थिरत्वेऽपि तत्परिभोगेन वर्जिताच येते तथा, रहितं-त्यक्तं कामयोः-शब्दरूपयोः भोगानां च-गन्धरसस्पर्शानां परिभोगे-आसेवने यत्तत्सर्वसौख्यं-आनन्दो यैस्ते स तथा, परेषां यो श्रिया भोगोपभोगी तयोर्यन्निश्राण-निश्रा तस्य मार्गणपरायणा-वेषणपरा येते तथा, तत्र भोगोपभोगयोरयं विशेषः-'सद भुजइत्ति भोगो सो पुण आहारपुप्फमाइओ । उवभोगो उ पुणो पुण उचभुजह वत्थनिलयाइ ।।१॥' त्ति [सकृद्भुज्यते इति भोगः स पुनराहारपुष्पादिकः । उपभोगस्तु पुनः पुनरुपभुज्यते वस्खनिलयादि ॥१॥] वराका:-तपखिनः अकामिकयाअनिच्छया विनयन्ति-प्रेरयन्ति अतिवाहयन्तीत्यर्थः, किं तदित्याह-दुःख-असुखं, नैव सुखं नैव निवृतिवास्थ्यमुपलभन्ते-प्राप्नुवन्ति अस्यन्तविपुलदुःखशतसम्पदीसाः,परस्य द्रव्येषु ये अविरता भवन्ति ते नैव सुखं लभते इति प्रस्तुतं । तदेवं यादृशं फलं ददातीत्यभिहितं, अधुनाऽध्ययनोपसंहाराधेमाह-एसो सो इत्यादि, सर्व पूर्ववत् ।। प्रमब्याकरणतृतीयाध्ययनविवरणं समाप्तमिति ॥ ३ ॥ दीप अनुक्रम [१६] ६४ DDEE अत्र प्रथमे श्रुतस्कन्धे तृतीयं अध्ययनं “अदत्तादान" परिसमाप्तं ~131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ तुर्यमब्रह्माध्ययनम् * * प्रत सूत्रांक [१३] ** अथ तृतीयाध्ययनानन्तरं चतुर्थमारभ्यते, अस्य च सूत्रनिर्देशक्रमेण सम्बद्धस्य अदत्तादानं प्रायो अब्रह्मासक्तचित्तो विदधातीति तदनन्तरमब्रह्म प्ररूप्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्य यादृशाद्यर्थपञ्चकप्रतिवद्धस्य यादृशमब्रह्मति द्वारार्थप्रतिपादनायेदं सूत्रम् जंबू! अबभं च चउत्थं सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पत्थणिज पंकपणयपासजालभूयं धीपुरिसनपुंसवेदचिंधं तयसंजमयंभचेरविग्धं भेदायतणबहुपमादमूलं कायरकापुरिससेवियं सुयणजणवजणिज उहुनरयतिरियतिलोकपइहाणं जरामरणरोगसोगबहुलं वधबंधविधातदुविघायं दसणचरित्तमोहस्स हेउभूयं चिरपरि गयमणुगयं दुरंतं चउत्थं अधम्मदार (सूत्र १३) 'जंबू' इत्यादि, जम्बूरिति शिष्यामन्त्रणं, अब्रह्म-अकुशलं कर्म तच्चेह मैथुनं विवक्षितमत्यन्ताकुशलत्वात्तस्य, आह च-"नवि किंचि अणुन्नायं पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं । मोत्तुं मेहुणमेगं न जं विणा रागदो सेहिं ॥१॥" [नैव किश्चिदनुज्ञातं नच प्रतिषिद्धं वापिजिनवरेन्द्रः। मुक्त्वा मैथुनमेकं न यत् विना रागद्वेषाभ्यार |॥१॥] चकारः पुनरर्थः, चतुर्थं सूत्रक्रमापेक्षया, सह देवमनुजासुरैयों लोकः स तथा तस्य प्रार्थनीयं-अभि- दीप * अनुक्रम [१७] Hetanasurary.org अथ प्रथमे श्रुतस्कन्धे चतुर्थ अध्ययनं “अब्रह्म" आरभ्यते "अब्रह्म" - नामक चतुर्थं अधर्मद्वारं अब्रह्मन: स्वरूपं ~132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: द्वारे प्रत सूत्रांक ॥६५॥ [१३] प्रश्वव्याक- लषणीयं, यतः-"हरिहरहरिण्यगर्भप्रमुखे भुवने न कोऽध्यसौ सूरः । कुसुमविशिखस्य विशिखान् अस्खलयत ४४ अधर्म र० श्रीअ यो जिनादन्यः॥१॥" पङ्को-महान् कर्दमः पनक:-स एव प्रतला सूक्ष्मः पाशो-पन्धनविशेषो जालं-मत्स्यबन्धन | भयदेव० एतद्भूत-एतदुपमं कलङ्कनिमित्तत्वेन दुर्विमोचनत्वेन साधात्, उक्तं च-"सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरु- अब्रह्मवृत्तिः पस्तावदेवेन्द्रियाणां, लज्जा तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव । भ्रूचापाकृष्ठमुक्ताः श्रवणपथजुषो स्वरूपं नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति ॥१॥" तथा स्त्रीपुरुषनपुंसकवे- सू०१३ दानां चिहूं-लक्षणं यसत्सथा, तपःसंयमब्रह्मचर्यविन्न इति व्यक्तं, तथा भेदस्य-चारित्रजीवितनाशस्यायतनानि-आश्रया ये बहवः प्रमादा-मद्यविकथादयस्तेषां मूलं-कारणं यत्तत्तथा, आह च-"किं किं ण कुणइ किं किं न भासप चिंतएवियन किं किं? । पुरिसो विसयासत्तो विहलंघलिउच्च मजेण ॥१॥"किं किं न करोति किं किंन भाषते चिन्तयत्यपि च न किं किम् । पुरुषो विषयासक्तो मधेन मत्त इव ॥१॥] कातरा:-परीषहभीरवः अत एव कापुरुषा:-कुत्सितनरास्तैः सेवितं यत्तत्तथा, सुजनानां सर्वपापविरतानां यो जना-समूहस्तस्य वर्जनीयं-परिहरणीयं च यत्तत्तथा, ऊर्द्ध च-अर्द्धलोको नरकश्च-अधोलोकस्तिर्यक-तिर्य ग्लोकः एतल्लक्षणं यत्रैलोक्यं तत्र प्रतिष्ठानं यस्य तसथा, जरामरणरोगशोकबहुलं, तत्रान्यत्र जन्मनि जराxमरणादिकारणत्वात्, उच्यते च-"जो सेवह किं लहई" (धामं हारेइ दुबलो होइ । पावेड चेमणस्संद- In क्खाणि अ अत्तदोसेणं ॥१॥) गाहा [यः सेवते किं लभते स्थाम हारयति दुर्बलो भवति । प्रामोति वैम दीप अनुक्रम [१७]] अब्रह्मन: स्वरूप ~133~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] नस्य दुःखानि चात्मदोषेण ॥१॥] बधा-ताडनं बन्धः-संयमनं विघातो-मारणमेभिरपि दुष्करी विघातो यस्य तन्धविघातदुर्विघात, गाढरागाणां हि महापद्यप्यब्रह्मेच्छा नोपशाम्यति, आह च-"कृशः काण: खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकला, क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरककपालार्पितगलः । बणैः पूक्लिीः कृमिकुलचि|तरावृततनुः, शुनीमन्वेति वा हतमपि च हन्त्येव मदनः ॥ १॥" दर्शनचारित्रमोहस्य हेतुभूतं-सन्निमित्तं. ननु चारित्रमोहस्य हेतुरिदमिति प्रतीतं, यदाह-"तिब्बकसाओ बहुमोहपरिणओ रागदोससंजुत्तो । बंधा चरितमोहं दविहंपि चरित्सगुणघाई ॥१॥" [तीव्रकषायो बहुमोहपरिणतो रागद्वेषसंयुक्त बनाति चारित्रगुणघातिनं द्विविधमपि चारित्रमोहं ।। १॥] द्विविध-कषायनोकषायमोहनीयभेदात्, यत्पुनदर्शनमोहस्य हेतुभूतमिदमिति तन्न प्रतिपद्यामहे, तद्धेतुत्वेनाभणनात्, तथाहि-तद्धेतुप्रतिपादिका गाथैवं भूयते-'अरिहंतसिद्धचेहअतवसुअगुरुसाहुसंघपडणीओ । बंधति दंसणमोहं अणंतसंसारिओ जेणं ॥१॥" [अर्हत्सि चैत्यतपखिश्रुतगुरुसाधुसंघप्रत्यनीकः । बनाति दर्शनमोहमनन्तसंसारिको येन ॥१॥] भवतीतीह वा8|क्यशेषः, सत्यं, किन्तु खपक्षानमासेवनेन या सङ्घप्रत्यनीकता तया दर्शनमोहं बनतोऽब्रह्मचर्य दर्शनमो-1 हाहहेतुः न व्यभिचरति, भण्यते च खपक्षाब्रह्मासेवकस्य मिथ्यात्वबन्धोऽन्यथा कथं दुर्लभवोधिरसावभाभिहितः, आह च-"संजइचउत्थभंगे चेहयदवे य पक्ष्यणुद्धाहे । रिसिघाए य चउत्थे मूलग्गी बोहिला भस्स ॥१॥"ति, [संयतीचतुर्थभने चैत्वद्रव्यभक्षणादी च प्रवचनोड्डाहे । ऋषिघाते च चतुर्थे मूलेऽग्नियोंधि दीप अनुक्रम [१७]] REscandid In sanmarary.org अब्रह्मन: स्वरूप 2134 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१७] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याकर० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ।। ६६ ।। “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) - अध्ययनं [ ४ ] लाभस्य ॥ १ ॥ ] चिरपरिचितं- अनादिकाला सेवितं चिरपरिगतं वा पाठः अनुगतं - अनवच्छिन्नं दुरन्तं दुष्टफलं चतुर्थमधर्म्मद्वारं- आश्रवद्वारमिति । अब्रह्मखरूपमुक्तं, अथ तदेकार्धिकद्वारमाह तरस य णामाणि गोन्नाणि इमाणि होति तीसं, तंजहा - अवंभं १ मेहुणं २ चरंतं ३ संसग्गि ४ सेवणाधिकारो ५ संकप्पो ६ वाहणा पदाणं ७ दप्पो ८ मोहो ९ मणसंखेवो १० अणिग्गहो ११ बुग्गहो १२ विधाओ १३ विभंगो १४ विन्भमो १५ अधम्मो १६ असीलया १७ गामधम्मतित्ती १८ रती १९ रागकामभोगमारो २१ बेरं २२ रहस् २३ गुज्झं २४ बहुमाणो २५ बंभचेर विग्घो २६ वावत्ति २७ विराहणा २८ पसंगो २९ कामगुणो ३० त्तिविय तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेजाणि होति तीसं ( सूत्रं १४ ) 'तस्से' त्यादि सुगमं, अब्रह्म-अकुशलानुष्ठानं १ 'मैथुनं' मिथुनस्य युग्मस्य कर्म २ चतुर्थ आश्रवदारमिति गम्यते, पाठान्तरेण 'चरंतं'ति चरत्-विश्वं व्यामुवत् ३ संसर्गिः सम्पर्कः ततः, स्त्रीपुंससङ्गविशेषरूपत्वात् संसर्गजन्यत्वाद्वाऽस्य संसगिरित्युच्यते, आह च - "नामापि स्त्रीति संहादि, विकरोत्येव मानसम् । किं पुनदर्शनं तस्या, विलासोल्लासितवः १ ॥ १ ॥" ४ सेवनानां चौर्यादिप्रतिसेवनानामधिकारो नियोगः सेवनाधिकारः, अब्रह्मप्रवृत्तो हि चौर्याद्यनर्थसेवावधिकृतो भवति, आह च- "सर्वेऽनर्था विधीयन्ते, नरैरर्थैक| लालसैः । अर्थस्तु प्रार्थ्यते प्रायः, प्रेयसी प्रेमकामिभिः ॥ १ ॥ ५ सङ्कल्पो विकल्पस्तत्प्रभवत्वादस्य सङ्कल्प इत्युक्तं, उक्तं च "काम ! जानामि ते रूपं, सङ्कल्पात्किल जायसे । न त्वां सङ्कल्पयिष्यामि ततो मे न भ Eucation Internationa अब्रह्मन: त्रिंशत् नामानि For Pernal Use On ~135~ ४ अधर्म द्वारे अब्रह्मनामानि सू० १४ ।। ६६ ।। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [१८] अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], अध्ययनं [ ४ ] मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्र.व्या. १२ Eraton "प्रश्नव्याकरणदशा" अब्रह्मन: त्रिंशत् नामानि - |विष्यसी ॥१॥" ति ६ वाधना बाधहेतुत्वात् केषामित्याह - 'पदानां' संगमस्थानां प्रजानां वा-लोकानां, आह च - "यचेह लोकेऽधपरे नराणामुत्पद्यते दुःखमसह्यवेगम् । विकाशनीलोत्पल चारुनेत्रा, मुक्त्वा स्त्रियस्तत्र न हेतुरन्यः ॥ १ ॥” ७ दप-देहहसता तज्जन्यत्वादस्य दर्प इत्युच्यते, आह च - "रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दितिकरा हवंति। दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति, दुमं जहा साउफलं तु पक्खी ॥ १ ॥ ” [रसाः प्रकामं न निषेवितव्याः प्रायो रसा दृप्तिकरा भवन्ति । दृप्तं च कामाः समभिद्रवन्ति द्रुमं यथा खादुफलं तु पक्षिणः ॥ १ ॥ ] अथवा दणः- सौभाग्याद्यभिमानस्तत्प्रभवं चेदं नहि प्रशमान्याद्वा पुरुषस्यात्र प्रवृत्तिः सम्भवतीति दर्प एवोच्यते, तदुक्तम्- "प्रशान्तवाहिचित्तस्य, सम्भवन्त्यखिलाः क्रियाः । मैथुनव्यतिरेकिण्यो, यदि रागं न मैथुनम् ॥ १ ॥” ८ मोहो-मोहनं वेदरूपमोहनीयोदय सम्पाद्यत्वादस्याज्ञानरूपत्वाद्वा मोह इत्युच्यते, आह च- "दृइयं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितं रागान्धस्तु यदस्ति तत्परिहरन् यन्नास्ति तत्पश्यति । कुन्देन्दीवर पूर्ण चन्द्रकलश श्रीमलता पल्लवानारोप्याशुचिराशिपु प्रियतमागात्रेषु यन्मोदते ॥१॥" ९ मनः संक्षोभः - चित्तचलनं तद्विनेदं न जायते इति तदेवोच्यते, उच्यते च "निकडकडक्खकंडप्पहारनिभिन्नजोगसन्नाहा । महरिसिजोहा जुवईण जंति सेवं विगवमोहा ॥१॥" [. निकृष्टकटाक्षकाण्डप्रहारनिर्भिन्नयोगसन्नाहाः। महर्षयो योद्धारो युवतीनां सेवां यान्ति विगतमोहाः ॥ १ ॥ उपशान्तमोहा अपि ] १० अनिग्रहः-अनिषेधो मनसो विषयेषु प्रवर्त्तमानस्येति गम्यते, एतत्प्रभवत्वाच्चास्यानिग्रह इत्युक्तं ११ For Parts Only ~136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ज सूत्रांक [१४] प्रश्नच्याक-8 विग्गहों त्ति विग्रह-कलहः तद्धेतुत्वादस्य विग्रह इत्युच्यते, उक्तं च-"ये रामरावणादीनां, सङ्घामा ग्र- अधर्मर० श्रीअ-1| स्तमानवाः । श्रूयन्ते स्त्रीनिमित्तेन, तेषु कामो निवन्धनम् ॥१॥" अथवा 'बुग्गहो'त्ति व्युग्रहो-विपरीतो- द्वारे भयदेव०ऽभिनिवेशस्तत्प्रभवत्वाचास्य तथैवोच्यते, यतः कामिनामिदं खरूपम्-“दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः, अब्रह्मवृत्तिः सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः । उत्कीर्णवर्णपदपतिरिवान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात्नामानि ॥१॥"१२ विघातो गुणानामिति गम्यते, यदाह-जइ ठागी' [जइ मोणी जइ मुंडी बक्कली तबस्सी वा। सू०१४ ॥६७॥ पत्थंतो अ अभं बंभावि न रोयए मझं ॥१॥ तो पढियं तो गुणियं तो मुणियं तो य चेइओ अप्पा । आवडियपेल्लियामंतिओऽवि जइ न कुणइ अकजं ॥२॥ यदि कायोत्सर्गवान् यदि मीनी यदि मुण्डः ब-18 ल्कली तपखी वा । प्रार्थयन् अब्रह्म ब्रह्मापि न रोचते मम ॥१॥ तर्हि पठितं तर्हि गुणितं तर्हि मुणितंतथेच चेतित आत्मा ॥ आपत्तिप्रेरितोऽपि यदि न करोत्यकार्यम् ॥२॥] गाथाद्वयं १३ विभङ्गो-विराधना गुणानामेव १४ विभ्रमो-भ्रान्तवमनुपादेयेष्वपि विषयेषु परमार्थबुद्ध्या प्रवर्त्तनात् विभ्रमाणां चा-मदनवि-H काराणामाश्रयत्वाद्विभ्रम इति १५ अधर्मः अचारित्ररूपत्वात् १६ अशीलता-चारित्रवर्जितत्वम् १७ ग्रामधर्माः-शब्दादयः कामगुणास्तेषां तप्तिः-गवेषणं पालनं वा ग्रामधर्मतप्तिः अब्रह्मपरो हि तां करोतीति अ ब्रह्मापि तथोच्यते १८ रतिः-रतं निधुवनमित्यर्थः १९ रागो-रागानुभूतिरूपत्वादस्य कचिद्रागचिन्तेतिपाठः द/२० कामभोगैः सह मारो-मदनः मरणं वा कामभोगमार, २१ वैरं वैरहेतुत्वात् २२ रहस्यमेकान्तकृत्यत्वात्। दीप अनक्रम PRACT [१८] SAMEniradAIL अब्रह्मनः त्रिंशत् नामानि ~137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] |२३ गुह्यं गोपनीयत्वात् २४ बहुमानः बहूनां मतत्वात् २६ ब्रह्मचर्य-मैथुनविरमणं तस्य विनो-व्याघातो यः स तथा २६ व्यापत्ति:-भ्रंशो गुणानामिति गम्यते २७ एवं विराधना २८ प्रसङ्ग:-कामेषु प्रसजनमभिष्वङ्गः |२९ कामगुणो-मकरकेतुकार्य ३० इतिः-उपप्रदर्शनेऽपिचेति समुच्चये तस्य-अब्रह्मणः एतानि-उपदर्शितस्वरूपाणि एवमादीनि-एवंप्रकाराणि नामधेयानि त्रिंशत् भवन्ति, काकाऽध्येयं, प्रकारान्तरेण पुनरन्यान्यपि भवन्तीति भावः । उक्तं यन्नामेति द्वारं, अथ ये तत् कुर्वन्तीति द्वारमुच्यते तं च पुण निसेवंति सुरगणा सअच्छरा मोहमोहियमती असुरभुयगगरुलविजुजलणदीवउदहिदिसिपवपथणिया अणवंनिपणवंनियइसिवादियभूयवादियकंदियमहाकदियकूहडपयंगदेवा पिसायभूयजक्खरक्खसकिंनरकिंपुरिसमहोरगगंधव्वा ८ तिरियजोइसविमाणवासिमणुयगणा जलयरथलयरखहवरा य मोहपडिबद्धचित्ता अवितण्हा कामभोगतिसिया तहाए बलवईए महईए समभिभूया गढिया य अतिमुच्छिया य अर्बभे उस्सण्णा तामसेण भावेण अणुम्मुक्का दंसणचरितमोहस्स पंजरं पिव करेंति अन्नोऽयं सेवमाणा, भुजो असुरसुरतिरियमणुअभोगरतिविहारसंपउत्ता य चक्कवट्टी सुरनरवतिसकया सुरवरुब्य देवलोए भरहणगणगरणियमजणवयपुरवरदोणमुहखेडकब्बडमडंबसंवाहपट्टणसहस्समंडियं थिमियमेयणियं एगच्छत्तं ससागरं भुंजिऊण वसुहं नरसीहा नरवई नरिंदा नरवसभा मरुयवसभकप्पा अध्भहियं रायतेयलच्छीए दिपमाणा सोमा रायसतिलगा रविससिसंखयरचकसोत्थियपडागजवमच्छकुम्मरहबरभगभवणविमाण दीप अनक्रम [१८] REaram Imurary.om अब्रह्मन: त्रिंशत् नामानि ~138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ४ अधर्म प्रश्नच्याकर०श्रीअभयदेव० वृत्तिः प्रत मैथुनसे विनः सूत्रांक [१५]] तुरयतोरणगोपुरमणिरयणनंदियावत्तमसलणंगलसुरइयवरकप्परुक्खमिगवतिभद्दासणसुरुविधूभवरमउडसरियकुंडलकुंजरवरवसभदीवमंदिरगलद्धयइंदकेउदप्पणअट्ठावयचावबाणनक्खत्तमेहमेहलवीणाजुगछत्तदामदामिणिकमंडलुकमलघंटावरपोतसूइसागरकुमुदागरमगरहारगागरनेउरणगणगरवइरकिन्नरमयूरवररायहससारसचकोरचकवागमिहुणचामरखेडगपब्बीसगविपंचिवरतालियंटसिरियाभिसेयमेइणिखग्गंकुसविमलकलसभिंगारवद्धमाणगपसत्थउत्तमविभत्तवरपुरिसलक्खणधरा बत्तीसं वररायसहस्साणुजायमग्गा चउसद्विसहस्सपवरजुवतीण णयणकता रत्ताभा पउमपम्हकोरंटगदामचंपकसुतयवरकणकमिहसवन्ना सुजायसब्ब. गसुंदरंगा महग्यवरपट्टणुग्गयविचित्तरागएणिपेणिणिम्मियदुगुलवरचीणपट्टकोसेजसोणीसुत्तकविभूसियंगा वरसुरभिगंधवरचुण्णवासवरकुसुमभरियसिरया कप्पियछेयायरियसुकयरइतमालकडगंगयतुडियपवरभूसणपिणद्धदेहा एकावलिकंठसुरइयवच्छा पालंबपलबमाणसुकयपडउत्तरिजमुदियापिंगलंगुलिया उजलनेवस्थरइयचेलगविरायमाणा तेएण दिवाकरोब्व दित्ता सारयनवत्थणियमहुरगंभीरनिद्धघोसा उप्पन्नसमत्तरयणचकरयणप्पहाणा नवनिहिवाइणो समिद्धकोसा चाउरंता चाउराहिं सेणाहिं समणुजातिजमाणमग्गा तुर. गवती गयवती रहवती नरवती विपुलकुलवीसुयजसा सारयससिसकलसोमवयणा सूरा तेलोकनिग्गयपभावलद्धसद्दा समत्तभरहाहिवा नरिंदा ससेलवणकाणणं च हिमवंतसागरंतं धीरा भूत्तुण भरहवासं जियसत्तू पवररायसीहा पुब्बकडतवप्पभावा निविट्ठसंचियसुहा अणेगवाससयमायुबंतो भजाहि य जणवय चक्रवर्षि वर्णन सू०१५ दीप अनक्रम [१९]] ॥६६॥ ~139~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] प्पहाणाहिं लालियंता अतुलसद्दफरिसरसरूवगंधे य अणुभवेत्ता तेवि उवणमंति मरणधम्म अवितत्ता कामाणं। तच पुन:-अब्रह्म निषेवन्ते सुरगणा-वैमानिकदेवसमूहाः साप्सरसा-सदेवीकाः देव्योऽपि सेवन्त इत्यर्थः, मोहेन मोहिता मतिर्येषां ते तथा, असुरा-असुरकुमाराः 'भुयगति नागकुमाराः गरुडा:-गरुडध्वजाः सुपर्ण|कुमाराः 'विजु'त्ति विगुत्कुमाराः 'जलण'त्ति अग्निकुमाराः 'दीवत्ति द्वीपकुमारा: 'उदहित्ति उदधिकुमारा: 'दिसित्ति दिकुमाराः 'पवण'त्ति वायुकुमाराः 'थणिय'त्ति स्तनितकुमाराः एते दश भवनपतिभेदाः एतेषां द्वन्द्वः, अणपन्निकाः पणपन्निकाः ऋषिवादिकाः भूतवादिकाः क्रन्दिता महान्दिताः कृष्माण्डाः पतङ्गा इत्यष्टी व्यन्तरनिकायानामुपरिवर्तिनो व्यन्तरजातिविशेषा एव एषामपि द्वन्द्वस्ते च ते देवाश्चेति कर्मधारयः तथा पिशाचादयोऽष्टौ व्यन्तरभेदाः प्रतीताः, 'तिरियजोतिसविमाणवासित्ति तिरश्चि-तिर्यग्लोके यानि ज्योति-18 कविमानानि तेषु निवसन्ति ये ते तथा ज्योतिष्का इत्यर्थः मनुजा-मानवा एतेषां द्वन्द्वः ततस्तेषां ये गणाः-समूहास्ते तथा, जलचरादयः मोहमतिपद्धचित्ता इति प्रतीत, अवितृष्णा:-प्राप्तेषु कामेषु अविगत-18 तृष्णा इत्यर्थः, कामभोगतृषिता-अप्रासकामभोगेच्छवः, एतदेव प्रपञ्चयन्नाह-तृष्णया-भोगाभिलाषेण बल-18 वत्या-तीव्रया महत्या-महाविषयया समभिभूताः-परिभूताः अथिताश्च-विषयैः सह सन्दर्भिताः अतिम्छिताच-विषपदोषदर्शनं प्रत्यतिमूढतामुपगता: अब्रह्मणि अवसन्ना:-पङ्क इव निमग्ना तामसेन भावेन-1 दीप अनक्रम [१९]] JMERurati anditurary.com ~140 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१९] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - श्रुतस्कन्धः [१], अध्ययनं [४] मूलं [१५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education Internation वृत्तिः ॥ ६९ ॥ मर- ५ प्रश्नव्याक अज्ञानपरिणामेनानुन्मुक्ता-अविमुक्ताः तथा दर्शनचारित्रमोहस्य - द्विरूपमोहनीयकर्मणः बन्धनमिति गम्यते र० श्रीअ-पञ्जरमिव-आत्मशकुने बन्धनस्थानमिव कुर्वन्ति-विद्धति सुरादय इति प्रकृतं कथं? -- 'अन्योऽन्यस्य' परस्पभयदेव० रस्यासेवनया - अब्रह्माश्रितभोगेन, कचित्पाठः 'अण्णोऽण्णं सेवमाण'त्ति कण्ठ्यश्च पूर्वोक्तप्रपञ्चार्थमेवाह-भूयः * - पुनरपीदं विशेषेणाभिधीयते-असुरसुरतिर्यमनुष्येभ्यो ये भोगाः शब्दादयस्तेषु या रतिः- आसक्तिस्तत्म- * 6. धाना ये विहाराः - विचित्रक्रीडाः तैः सम्प्रयुक्ता ये ते तथा ते च के ते इत्याह- चक्रवर्त्तिनः - राजातिशयाः ससागरां भुक्त्वा वसुधां मण्डलिकत्वं च भुक्त्वा भरतवर्ष चक्रवर्त्तित्वेऽतुलशब्दादींश्चानुभूयोपनमन्ति णधर्म अवितृसाः कामानामिति सम्बन्धः, किंविधास्ते इत्याह- सुरनरपतिभिः सुरेश्वरनरेश्वरैः सत्कृताःपूजिताः ये ते तथा के इवानुभूयेत्याह- सुरवरा इव-देवप्रवरा इव क? -देवलोके खर्गे, तथा भरतस्य-भारतवर्षस्य सम्बन्धिनां नगानां पर्वतानां नगराणां - करविरहितस्थानानां निगमानां वणिग्जनप्रधानस्थानानां जनपदानां देशानां पुरवराणां राजधानीरूपाणां द्रोणमुखानां - जलस्थलपथयुक्तानां खेदानां धूलीमाकाराणां कर्बटानां कुनगराणां मडम्बानां-दूरस्थितसन्निवेशान्तराणां संवाहानां रक्षार्थ धान्यादिसंवहनोचि तदुर्गविशेषरूपाणां पतनानां च जलपथस्थलपथयोरेकतरयुक्तानां सहस्रमण्डिता या सा तथा तां, स्तिमि तमेदिनीकां-निर्भयत्वेन स्थिरविश्वम्भराश्रितजनां एकमेव छत्रं यत्र एकराजत्वात्सा एकछत्रा तां ससा ॥ ६९ ॥ गरां तां भुक्त्वा पालयित्वा वसुधां पृथ्वीं भरतादिरूपां माण्डलिकत्वे, एतच पदद्वयमुत्तरत्र 'हिमवन्त For Parts Only ४ अधर्म द्वारे मैथुनासेविनः चक्रवर्त्तिवर्णनं सू० १५ ~141~ www.ora Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] ------- मा.मा . मूलं [१५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] सागरंतं धीरो भोलूण भरहवासमिति समस्तभरतक्षेत्रभोक्तृत्वापेक्षया भणनादवसीयते, नरसिंहाः शूरत्वात् नरपतयः तत्स्वामित्वात् नरेन्द्राः तेषां मध्ये ईश्वरत्वात् नरवृषभा गुणैः प्रधानत्वात् मरुद्धृषभकल्पा:देवनाथभूताः मरुजवृषभकल्पा वा-मरुदेशोत्पन्नगवयभूता अङ्गीकृतकार्यभारनिर्वाहकत्वात् अध्यधिकंअत्यर्थ राजतेजोलक्ष्म्या दीप्यमानाः सौम्या-अदारुणा नीरुजा वा राजवंशतिलका:-तन्मण्डनभूताः, तथा रविशश्यादीनि वरपुरुषलक्षणानि ये धारयन्ति ते तथा, तन्त्र रवि शशी शङ्खो वरचक्रं खस्तिकं पताका यवो मत्स्यश्च प्रतीताः कर्मक:-कच्छपः रथवर:-प्रतीतः भगो-योनिः भवन-भवनपतिदेवावासो विमान-वैमा- निकनिवासः तुरगस्तोरणं गोपुरं च प्रसिद्धानि मणि:-चन्द्रकान्तादि रत्नं-कतनादि नन्यावतों-नवकोणः खस्तिकविशेषः मुशलं लागलं च प्रसिद्धे सुरचितः-सुष्ठकृतः सुरतिदो वा-सुखकरो यो वरः कल्पवृक्षाकल्पद्रुमः स तथा मृगपति:-सिंहो भद्रासनं-सिंहासनं सुरुची रूदिगम्या आभरणविशेष इति केचित हा स्तूप-प्रतीतः वरमुकुट-प्रवरशेखरः 'सरियत्ति मुक्तावली कुण्डलं-कर्णाभरणं कुञ्जरो वरवृषभश्च प्रतीती| लाद्वीपो-जलभृतो भूदेशो मन्दरो-मेरुः मन्दिरं वा गृहं गरुड:-सुपर्णः ध्वजा-केतुः इन्द्र केतुः-इन्द्रयष्टिः दर्पण आदर्शः अष्टापद-गृतफलक कैलाशः पर्चतविशेषो वा चापं च-धनुः बाणो-मार्गणः नक्षत्रं मेघश्च प्रतीती| 8 मेखला-काशी वीणा-प्रतीता युग-यूपः छत्रं-प्रतीतं दाम-माला दामिनी-लोकरूढिगम्या कमण्डलु:-कुराण्डिका कमलं घण्टा च प्रतीते वरपोतो-बोधित्थः शूची-प्रतीता सागर:-समुद्रः कुमुदाकर:-कुमुदखण्डः दीप अनक्रम [१९]] ~142~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१९] “प्रश्नव्याकरणदशा” - प्रश्नव्याकर० श्रीअभयदेव० वृत्तिः अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], अध्ययनं [४] मूलं [१५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ॥ ७० ॥ | मकरो-जलचरविशेषः हारः-प्रतीतः 'गागर'ति स्त्रीपरिधानविशेषः नूपुरं पादाभरणं नगः- पर्वतो नगरंप्रतीतं वैरं वज्रं किन्नरो वायविशेषो देवविशेषो वा मयूरवर राजहंससारसचकोरचक्रवाकमिथुनानि प्रसि द्वानि चामरं प्रकीर्णकं खेटकं फलकं पब्बीसकं विपक्षी वाद्यविशेषी वरतालवृन्तं व्यञ्जनविशेषः श्रीकाभिषेको-लक्ष्म्यभिषेचनं मेदिनी पृथ्वी खड्गः-असि अङ्कुशध-सृणिर्विमलकलशो भृङ्गारश्च भाजनविशेषः बर्डमानकं शरावं पुरुषारूढः पुरुषो वा एतेषां द्वन्द्वः तत एतानि प्रशस्तानि माङ्गल्यानि उत्तमानि - प्रधानानि ॐ विभक्तानि च विविक्तानि यानि वरपुरुषाणां लक्षणानि तानि धारयन्ति ये ते तथा, तथा द्वात्रिंशता राजवराणां सहस्रैरनुयातः- अनुगतो मार्गों येषां ते तथा चतुःषष्टिः सहस्राणि यासां तास्तथा ताम्र ताः प्रवरयुवतयश्च तरुण्य इति समासः तासां नयनकान्ताः- लोचनाभिरामाः परिणयनभर्त्तारो वा रक्ता-लोहिता आभा-प्रभा येषां ते रक्ताभाः 'पमपम्ह'त्ति पद्मगर्भाः कोरण्टकदाम- कोरण्टकाभिधानपुष्पत्रक चम्पकः- कुसुमविशेषः सुतप्तवरकनकस्य यो निकषो-रेखा स तथा तत एतेषामिव वर्णो येषां ते तथा, सुजातानि सुनिष्पन्नानि सर्वा व्यङ्गानि अवयवा यत्र तदेवंविधं सुन्दरमङ्गं शरीरं येषां ते तथा महार्घाणि - महामूल्यानि वरपतनोनतानि-प्रवरक्षेत्रविशेषोत्पन्नानि विचित्ररागाणि विविधरागरञ्जितानि एणी-हरिणी प्रेणी च-तद्विशेष एव तचम्र्मनिम्मितानि यानि वस्त्राणि तानि एणीप्रेणीनिर्मितानि उच्यन्ते, श्रूयन्ते च निषीथे 'कालमृगाणि नी| लमृगाणि चेत्यादिभिर्वचनैर्मृगचर्मवस्त्राणीति, तथा दुकूलानीति दुकूलो वृक्षविशेषस्तस्य वल्कं गृहीत्वा For Park Lise Only ~ 143~ ४ अधर्म द्वारे मैथुनासेविनः चक्रवर्त्ति वर्णनं सू० १५ ॥ ७० ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] उदूखले जलेन सह कुदृयित्वा वुसीकृत्य सूत्रीकृत्य च वूयन्ते यानि तानि दुकूलानि वरचीनानीति-दुकूलवृक्षवल्कस्यैव यानि अभ्यन्तरहीनिष्पाद्यन्ते सूक्ष्मतराणि च भवति तानि चीनदेशोत्पन्नानि वा चीनान्युच्यन्ते, पदृसूत्रमयानि-पट्टानि कौशेयकानि-कौशेयककारोवानि वस्त्राणि श्रोणीसूत्रक-कटीसन्त्रक एभि-IN विभूषितान्यङ्गानि येषां ते तथा, वाचनान्तरे निम्मितस्थाने क्षोमिक इति पठ्यते, तत्र क्षौमिकाणि-कापीII सिकानि वृक्षेभ्यो निर्गतानीत्यन्ये अतसीमयानीत्यपरे, तथा वरसुरभिगन्धाः-प्रधानमनोज्ञपुटपाकलक्षणास गन्धा तथा चरचूर्णरूपा वासास्ताडिता इत्यर्थः वरकुसुमानि च प्रतीतानि तेषां भरितानि-भृतानि शि-IN रासि-मस्तकानि येषां ते तथा, कल्पितानि-ईप्सितानि छेकाचार्येण-निपुणशिल्पिना सुकृतानि-सुष्टु विहि-12 तानि रतिदानि-सुखकारीणि माला-आभरणविशेषः कटकानि-कणानि पाठान्तरेण कुण्डलानि-प्रतीतानि अङ्गदानि-याहाभरणविशेषाः तुटिका-बाहुरक्षिकाः प्रवरभूषणानि च-मुकुटादीनि मालादीन्येव वा प्रवरभूषणानि पिनहानि-बद्धानि देहे येषां ते तथा, एकावली-विचित्रमणिका एकसरिका कण्ठे-गले सुर-17 चिता वक्षसि-हृदये येषां ते तथा, प्रलम्बो-दीर्घः प्रलम्बमानो-लम्बमानः सुकृता-सुरचितः पटशाटक:-उत्त। रीयं उपरिकायवस्त्रं यैस्ते तथा मुद्रिकाभि:-अङ्गुलीयकैः पिङ्गला:-पिङ्गाः अङ्गुल्यो येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः, उज्वलं नेपथ्य-वेषो रचितं रतिदं वा 'चिल्लगंति लीनं दीप्यमानं वा विराजमान-शोभमानं येषां तेन वा विराजमाना येते तथा, तेजसा दिवाकर इव दीसा इति प्रतीतं, शारद-शरत्कालीनं यत् नव-उत्प दीप अनक्रम [१९]] ~144~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] --------- --------- मूलं [१५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रश्नब्याकर.श्रीअभयदेव० (वृत्तिः प्रत विन - सूत्रांक [१५]] ॥ ७१॥ वर्णन सू०१५ यमानावस्थं न तु विरामावस्थं स्तनितं-मेघगर्जितं तन्मधुरो गम्भीरः स्निग्धश्च घोषो येषां ते तथा, वाच-18|४ अधर्मनान्तरे 'सागरनवे'त्यादि दृश्यते, उत्पन्नसमस्तरत्नाश्च ते चक्ररत्नप्रधानाश्चेति विग्रहः, रत्नानि च तेषां चतु-दाद्वारे श, तद्यथा-'सेणावह १गाहावइ २ पुरोहिय ३ तुरग ४ वहद ५ गय ६ इस्थी। चकं ८ छत्तं ९ चम्म भथुनास१० मणि ११ कागणि १२ खग्ग १३ दंडो य १४ ॥१॥" नवनिधिपतयः, निधयश्चैवम्-"नेसप्पं १ पंटु । पिंगलय ३ सव्वरयणे ४ तहा महापउमे ५ । काले य ६ महाकाले ७ माणवग महानिही ८ संखे ९॥१॥" चक्रवर्तिसमृद्धकोशा इति प्रतीतं, चत्वारोऽन्ता-भूविभागाः पूर्वसमुद्रादिरूपा येषां ते तथा ते एव चातुरन्ताः, तथा टी |चतुर्भिरंशः-हस्त्यश्वरथपदातिलक्षणैरुपेताश्चातुर्यस्ताभिः सेनाभिः समनुयायमानमार्गा:-समनुगम्यमान-| पथाः, एतदेव दर्शयति-तुरगपतय इत्यादि, विपुलकुलाश्च ते विश्रुतयशसश्च-प्रतीतख्यातय इति विग्रहः, शारदशशी या सकला-पूर्णस्तद्वत्सौम्यं वदनं येषां ते तथा, शरा:-शौण्डीरास्त्रैलोक्यनिर्गतप्रभावाश्च ते लब्धशब्दाश्च-पासख्यातय इति विग्रहः, समस्तभरताधिपा नरेन्द्रा इति प्रतीतं, सह शैलैः-पर्वतैः वनैः-नग-2 | रविप्रकृष्टै काननैश्च-नगरासन्नैर्यत्तत्तथा हिमवत्सागरान्तं धीरा भुक्त्वा भरतवर्ष जितशत्रवः प्रवरराजसिंहाः पूर्वकृततपाप्रभावा इति प्रतीतं, निर्विष्ट-परिभुक्तं सञ्चितं-पोषितं सुखं यैस्ते तथा, अनेकवर्षशतायुष्मन्तः[६॥ ७१ ॥ |भार्याभिश्च जनपदप्रधानाभिाल्यमानाः-विलास्यमानाः अतुला-निरुपमा ये शब्दस्पर्शरसरूपगन्धास्ते दीप अनक्रम [१९]] lundstaram.org ~145~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] -------- --------- मूलं [१५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] तथा तांश्चानुभूय, तेऽपि आसतामपरे, उपनमन्ति-प्राप्नुवन्ति मरणधर्म-मृत्युलक्षणं जीवपर्यायं अवितृप्ताः-- अतृप्ताः कामानां-अब्रह्माङ्गानाम् । भुजो भुजो बलदेववासुदेवा य पवरपुरिसा महाबलपरक्कमा महाधणुवियट्टका महासत्तसागरा दुद्धरा घणुद्धरा नरवसभा रामकेसवा भायरो सपरिसा वसुदेवसमुद्दविजयमादियदसाराणं पजुन्नपतिवसंवअनिरुद्धनिसहउम्मुयसारणगयसुमुहदुम्मुहादीण जायवाणं अछुट्टाणयि कुमारकोडीणं हिययदयिया दे वीए रोहिणीए देवीए देवकीए य आणंदहिययभावनंदणकरा सोलसरायवरसहस्साणुजातमग्गा सोलसदेवीसहस्सवरणयणहिययदइया णाणामणिकणगरयणमोत्तियपवालधणधन्नसंचयरिद्धिसमिद्धकोसा हयगयरहसहस्ससामी गामागरनगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसहस्सथिमिणिवुयपमुदितजणविविहसासनिष्फज्जमाणमेइणिसरसरियतलागसेलकाणणआरामुजाणमणाभिरामपरिमंडियस्स दाहिणडवेयहगिरिविभत्तस्स लवणजलहिपरिगयस्स छचिहकालगुणकामजुत्तस्स अद्धभरहस्स सामिका धीरकित्तिपुरिसा ओहवला अइबला अनिहया अपराजियसत्तुमद्दणरिपुसहस्समाणमहणा साणुकोसा अमच्छरी अ. चवला अचंडा मितमंजुलपलावा हसियगंभीरमहुरभणिया अन्भुवगयवच्छला सरपणा लक्खणवंजणगुणोषवेया माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंगसुंदरंगा ससिसोमागारकतपियदसणा अमरिसणा पयंडडंडप्पयारगंभीरदरिसणिज्जा तालद्धउब्बिद्धगरुलकेऊ बलवगगजंतदरितदप्पितमुट्ठियचाणूरमूरगा रि दीप अनक्रम [१९]] REaurana ~146~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रश्नव्याको .श्रीअभयदेव वृत्तिः अधर्मद्वारे प्रत सूत्रांक [१५] ॥७२॥ बलदेववासुदेव वर्णनं वसभघातिणो केसरिमुहविष्फाडगा दरितनागदपमहणा जमलज्जुणभंजगा महासउणिपूतणारिवू कंसमजडमोडगा जरासिंघमाणमहणा तेहि य अविरलसमसहियचंडमंडलसमप्पभेहिं सूरमिरीयकवयं विणिम्मुयंतेहिं सपतिदंडेहिं आयवत्तेहिं धरिजंतेहिं विरायंता ताहि य पवरगिरिकुहरविहरणसमुद्वियाहिं निरुवहयचमरपच्छिमसरीरसंजाताहिं अमइलसियकमलविमुकुलुज्जलितरयतगिरिसिहरविमलससिकिरणसरिसकलहोयनिम्मलाहिं पवणायचवलचलियसललियपणच्चियवीइपसरियखीरोदगपवरसागरुप्पूरचंचलाहिं माणससरपसरपरिचियावासविसदवेसाहिं कणगगिरिसिहरसंसिताहिं उचाउप्पातचवलजयिणसिग्धवेगाहिं हंसवधूयाहिं चेव कलिया नाणामणिकणगमहरिहतवणिजुजलविचित्तडंडाहिं सललियाहिं नरवतिसिरिसमुदयपगासणकरीहि वरपट्टणुग्गयाहिं समिद्धरायकुलसेवियाहि कालागुरुपवरकुंतुरुकतुरुकधववसवासविसदगंधुयाभिरामाहिं चिलिकाहिं उभयोपासंपि चामराहिं उक्खिप्पमाणाहिं सुहसीतलवातवीतियंगा अजिता अजितरहा हलमुसलकणगपाणी संखचक्कगयसत्तिणंदगधरा पवरजलसुकतविमलकोथूभतिरोडधारी कुंडलउज्जोवियाणणा पुंडरीयणयणा एगावलीकंठरतियवच्छा सिरिवच्छसुलंछणा वरजसा सव्वोउयसुरभिकुसुमसुरइयपलंबसोहंतवियसंतचित्तवणमालरतियवच्छा अट्ठसयविभत्तलक्खणपसत्थसुंदरविराइयंगमंगा मत्तगयवरिंदललियविक्कमविलसियगती कडिसुत्तगनीलपीतकोसिज्जवाससा पवरदित्ततेया सारयनवणियमहुरगंभीरनिद्धघोसा नरसीहा सीहविक्कमगई अत्यमियपवररायसीहा सोमा बारवइपुन्नचंदा सू०१५ दीप अनक्रम [१९]] ॥७२॥ ~147~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१९] प्र.व्या. १३ “प्रश्नव्याकरणदशा” nirati - श्रुतस्कन्ध: [१], अध्ययनं [४] मूलं [... १५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) पुष्यकयतवप्पभावा निविट्ठसंचियसुहा अणेगवाससयमातुवंतो भज्जाहि य जणवयप्पहाणाहिं लालियंता अतुल सद्दफरिसरसरूवगंधे अणुभवेत्ता तेवि उवणमंति मरणधम्मं अवितत्सा कामाणं ॥ भूय इति निपातस्तथाऽर्थः बलदेव वासुदेवाञ्च उपनमन्ति मरणधम्मै अवितृप्ताः कामानामिति सम्बन्धः, किम्भूतास्ते ?-प्रवरपुरुषा इति प्रतीतं, कथमेवं ते?, यतो 'महाबलपराक्रमाः' तत्र वलं- शारीरः प्राणः पराक्रमस्तु -साधिताभिमतफलः पुरुषकारः, अत एव महाधनुर्विकर्षका इति प्रतीतं, महासत्त्वस्य- सत्साहसस्य सागरा इव सागरा ये ते तथा दुर्द्धराः प्रतिस्पर्द्धिनामनिवार्याः धनुर्धराः प्रधानघानुष्किका नरवृषभाः - नराणां प्रधानाः 'रामकेसव'त्ति इह येष्विति शेषो दृश्यः ततश्च येषु बलदेववासुदेवेषु मध्येऽस्यामवसर्पिण्यां नवमस्थानवतिनौ बहुजनप्रतीतात भूतजनचरिती 'अत्थमिया' इत्यनेन 'तेवि उवणमन्ति मरणधम्म मित्यनेन च वक्ष्यमाणपदेन योगः कार्यः, प्रथमाद्विवचनान्तता च सर्वपदानां व्याख्येया 'बारवदपुण्णचंद्रा' इति पदं यावत्, | अथवा पलदेवादीनेव नामान्तरेणाह - 'रामकेसवन्ति नामान्तरेण रामकेशवाः, अथ कीदृशास्ते इत्याहभ्रातरौ द्वन्द्वापेक्षया सपरिषदः सपरिवाराः तथा वसुदेवसमुद्रविजयौ आदी येषां ते वसुदेवसमुद्रविजयादिकास्ते च ते दशाहश्चेति समासस्तेषां हृदयदयिता इति योगः, एषां च समुद्रविजय आद्यो वसुदेवश्व दशमः, आह च - "समुद्रविजयोऽक्षोभ्यः स्तिमितः सागरस्तथा । हिमवान चलश्चैव, धरणः पूरणस्तथा ॥ १ ॥ अभिचन्द्रश्च नवमो, वसुदेवश्च वीर्यवान् ॥” इति, तथा प्रयुन्नप्रतिवशम्यानिरुद्धनिपधौल्सुकसारणगजसुमु For Park Use Only ~148~ *% Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] --------- -------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] प्रश्नव्याक- खदुर्मुखादीनां यदोरपत्यानां अध्युष्टानामपि-अर्वाधिकतिसूणामपि कुमारकोटीनां हृदयदयिता-वल्लभाः, अधर्मर० श्रीअ- इदं चान्तिमबलदेवाद्याश्रितमपि विशेषणं समुदायविशेषणतया अवसेयं, यथा 'राजताः सौवर्णाश्च कुलप- द्वारे भयदेवता भवन्तीत्यत्र सौवा इति मेरुविशेषणमपि पर्वतानां, एवमुत्तरत्रापीति, तथा देव्या रोहिण्या-राम- मैथुनसेवृत्तिः मातुर्देव्या देवक्याश्च-कृष्णमातुः आनन्दलक्षणो यो हृदयभावस्तस्य नन्दनकरा-वृद्धिकरा ये ते तथा, षोड- विनः शराजचरसहस्रानुयातमागोंः, षोडशानां देवीसहस्राणां चरनयनानां हृदयदयिता-वल्लभा येते तथा, इदं चावलदेव. ॥७३॥ विशेषणं वासुदेवापेक्षमेव, तथा नानामणिकनकरत्नमौक्तिकप्रवालधनधान्यानां ये सञ्चयास्तल्लक्षणा या वासुदेवऋद्धिः-लक्ष्मीस्तया समृद्धो-वृद्धिमुपगतः कोश:-भाण्डागारं येषां ते तथा, तब मणय:-चन्द्रकान्ताद्याःर-18 वर्णन बानि-कतनादीनि प्रवालानि-विद्रुमाणि धनं-गणिमादि चतुर्विधमिति, तथा हयगजरथसहस्रवामिन सू०१५ इति प्रतीतं, ग्रामाकरनगरखेटकवटमडम्बद्रोणमुखपत्तनाश्रमसंवाहानां व्याख्यातरूपाणां सहस्राणि यत्र भ-7 रतार्द्ध स्तिमितनिवृत्तप्रमुदितजनाः-स्थिरखस्थप्रमोदवल्लोका विविधशस्यैः-नानाविधधान्यनिष्पद्यमाना-जा|यमाना मेदिनी च-भूमिर्यत्र सरोभिः-जलाशयविशेषैः सरिद्भिश्च-नदीभिः तडागैः-प्रतीतैः शैले:-गिरिभिः |काननै:-सामान्यवृक्षोपेतमगरासन्नवनविशेषैः आरामैः-दम्पतिरतिस्थानलतागृहोपेतबनविशेषैः उद्यानैश्च पुष्पादिमहक्षसङ्कुलबहुजनभोग्यवनविशेषैःमनोऽभिरामैः परिमण्डितं च यद्भरताई तत्तथा तस्य, तथा दक्षिणाई |च तद्विजयाधेगिरिविभक्तं चेति विग्रहस्तस्य, तथा लवणजलेन-लवणसमुद्रेण परिगतं-बेष्टितं देशतो यत्सत्तथा %%%ERON.* दीप अनक्रम [१९]] 4-%7-04 6- M amera ~149~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१९] “प्रश्नव्याकरणदशा” श्रुतस्कन्ध: [१], अध्ययनं [४] मूलं [... १५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Jan Educator - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः) तस्य, तथा षडिधस्य कालस्य ऋतुष्ट्ररूपस्य ये गुणाः कार्याणि तैः क्रमेण परिपाठ्या युक्तं सङ्गतं यत्तत्तथा | तस्य कस्येत्याह- अर्द्ध भरतस्य भरतार्द्धस्य, किं ? - स्वामिका-नाथाः, तथा धीराणां सतां या कीर्त्तिस्तत्प्रधानाः | पुरुषा धीरकीर्त्तिपुरुषाः ओघेन- प्रवाहेणाविच्छिन्नं बलं प्राणो येषां ते तथा, पुरुषान्तरबलान्यतिक्रान्ता अतिबलाः, न निहता अनिहता अपराजितान्-अपरिभूतान् शत्रून् मर्दयन्ति ये ते तथा, अत एव रिपुसहस्रमानमथना इति व्यक्तं, सानुक्रोशाः सद्या अमत्सरिणः- परगुणग्राहिणः अचपलाः- कायिकादिचापल्यरहिताः अचण्डा:- कारणविकलकोपविकलाः मितः परिमितो मञ्जुलो-मधुरः प्रलापो जल्पो येषां ते तथा हसितं गम्भीरमनहासं मधुरं च भणितं येषां ते तथा, पाठान्तरेण मधुरपरिपूर्णसत्यवचनाः, अभ्युपगतवत्सला इति प्रतीतं, 'सरपण 'त्ति शरणदायकत्वात् शरण्याः, तथा लक्षणं- पुरुषलक्षणशास्त्राभिहितं यथा-"अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे, त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु । गतौ यानं खरे चाज्ञा सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥ १ ॥" इत्यादि, मानोन्मानादिकं वक्ष्यमाणं व्यञ्जनं-तिलकमपादि तयोर्यो गुणः-प्रशस्तत्वं तेनोपेता ये ते तथा, लक्षणव्यञ्जनस्वरूपमिदं - " माणुम्माणपमाणादि लक्खणं वंजणं तु मसमाई । सहजं च लक्खणं वंजणं तु पच्छा समुपणं ॥ १ ॥” [ मानोन्मानप्रमाणादि लक्षणं व्यञ्जनं तु भषादि । सहर्ज वा लक्षणं व्यञ्जनं तु पश्चात् समुत्पन्नं ॥ १ ॥ ] इति, तथा मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि सुजातानि सर्वाण्यङ्गानि अवयवा यत्र तदेवंविधं सुन्दरम- शरीरं येषां ते तथा, तत्र मानं-जलद्रोणप्रमाणता, सा चैवं-जलभृतकुण्डे प्रमातव्ये पुरुषे उपवेशिते For Parts Only ~150~ jonary.org Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत वृत्तिः विनः सूत्रांक [१५]] ॥७४।। प्रश्चन्याक-यजलं ततो निर्गच्छति तद्यदि द्रोणप्रमाणं भवति तदा स पुरुषो मानोपपन्न इत्युच्यते, उन्मानं तु तुलारोपित- अधर्म स्था भारप्रमाणता, प्रमाणं पुनरात्माङ्गुलेनाष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्रयता, उक्तं च-"जलदोण १ अद्धभार द्वारे भयदेव० समुहाई समूसिओ व जो णव उ । माणुम्माणपमाणं तिविहं खलु लक्खणं एयं ॥१॥"ति, [जलद्रोणोऽर्धभार मैथुनसे खमुखानि नव तु समुच्छ्रितो यश्च । मानोन्मानप्रमाणानि त्रिविधं खलु लक्षणमेतत् ॥१॥] मुखस्य द्वादशाङ्गुलायामत्त्वात् नवभिमुखैरष्टोत्तरमङ्गलशतं भवतीति, शशिवत्सौम्य आकार कान्तं-कमनीयं प्रियं बलदेव1-प्रेमावहं दर्शनं येषां ते तथा 'अमरिसण'त्ति अमर्षणा अपराधासहिष्णवः अममृणा बा-कार्येष्वनलसाः वासुदेवप्रचण्डः प्रकाण्डो वा दुःसाध्यसाधकत्वाद् दण्डप्रचार-सैन्यविचरणं दण्डप्रकारो वा-आज्ञाविशेषो येषां ते वर्णन तथा गम्भीराः अलक्ष्यमाणान्तर्वृत्तित्वेन दृश्यन्ते ये ते गम्भीरदर्शनीयाः, ततः कर्मधारयः, तालो-वृक्षवि- सू० शेषो ध्वजा-केतुर्येषां ते तथा उद्विद्धः-उच्छ्रितः गरुडः केतुर्येषां ते तथा ततो द्वन्द्रस्ततस्ते क्रमेण रामकेशवाः 'बलवग'त्ति बलवन्तं गर्जन्तं-कोऽस्माकं प्रतिमल्ल ? इत्येवंशब्दायमान दृसानामपि मध्ये दर्पित-सञ्जातदर्प मौष्टिकं-मौष्टिकाभिधानं मलं चार-चाणराभिधानं मल्लमेव कंसराजसम्बन्धिनं मूरपन्ति-चूर्णेयन्ति येते तथा, तत्र किल मल्लयुद्धे कृष्णवधार्थ कंसेनारब्धे बलदेवेन मुष्टिकमल्लो वासुदेवेन चाणूरमहलो मारित इति, एवमन्यान्यपीतः कानिचिद्विशेषणानि अन्तिमौ पलदेववासदेवावाश्रित्याधीतानि, रिष्ठवृषभघातिन:-कंस-II राजसत्करिष्ठाभिधानदृप्तदुष्टमहावृषभमारकाः केसरिमुखविस्फाटकाः इदं च विशेषणं प्रथमवासुदेवमा-1 3-54 १५ दीप - अनक्रम [१९]] -0-% M ~151 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] श्रित्याधीतं, स हि किल त्रिपृष्ठाभिधानजनपदोपद्रवकारिणं विषमगिरिगुहायासिनं महाकेसरिणं उत्तराध रोष्ठग्रहणेन विदारयामासेति, इदं च विशेषणं द्वितीयव्याख्यायामेव घटते, प्रथमव्याख्यानपक्षे पुनरेवं पाठः, | केसिमुहविष्फाडग'त्ति तत्र केश्यभिधानः कंसकसत्को दुष्टोऽश्वस्तन्मुखं च कृष्णः कूपरप्रक्षेपेण विदारितवानिति, हप्तनागदर्पमथना इदं च कृष्णमाश्रित्याधीतं, स हि किल यमुनाहदवासिनं घोरविषं महानाग पद्मग्रहणार्थ देऽवतीर्य निर्मथितवान, यमलार्जुनभनका इदमपि तमेवाश्रित्याधीतं, स हि पितृवैरिणी वि-10 द्याधरौ रथारूढस्य गच्छतो मारणार्थ पथि विकुर्विलयमलार्जुनवृक्षरूपी सरथस्य मध्येन गच्छतभूर्णनप्रवृत्तौ हतवान , महाशकुनिपूतनारिपथः इदमपि तथैव कृष्णपितृवैरिण्योर्महाशकुनिपूतनाभिधानयोर्विद्याधरयोषितोः विकुर्वितगत्रीरूपयोः गन्त्रीसमारोपितयालावस्थकृष्णयोः कृष्णपक्षपातिदेवतया विनिपातितत्वात्, कसमुकुटमोटका इदमपि तथैव, यतः कृष्णेन मल्लयुद्धे विनिपातितचाणूरमल्लेन कंसाभिधानो मधुराराजोऽमर्यादुद्गीर्णखड्गो युयुत्सुर्मुकुटदेशे गृहीत्वा सिंहासनात् भुवि समाकृष्य विनिपातितः, तथा जरासन्धमानमथनाः इदमपि तथैव, यतः कृष्णो राजगृहनगरनायकं जरासन्धाभिधानं नवमप्रतिवासुदेवं कंसमारणप्रकुपितं महासङ्ग्रामप्रवृत्तं विनिपातितवान् , तथा 'तेहि यत्ति तैश्चातिशयवद्भिरातपत्रैर्विराजमाना इति सम्बन्धः, अविरलानि धन-18 शलाकावत्वेन समानि तुल्यशलाकतया सहितानि-संहितानि अनिम्नानि उन्नतशलाकायोगात् चन्द्रमण्डलसमप्रभाणि च शशधरविम्बवत् प्रभान्ति-वृत्ततया शोभन्ते यानि तानि तथा तैः, सूरमरीचय:-आदित्यकि दीप अनक्रम [१९]] SAREaratun ~152~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत वृत्तिः सूत्रांक [१५]] ॥७५॥ प्रश्नब्याक- रणात इव ये मरीचयः ते आदित्यमरीचयः तेषां कवचमिव कवचं-परिकरः परितो भावात् तं विनिर्मुश्चद्भिः वि| अधर्मर० श्रीअ-1किरद्भिः, पाठान्तरे शुचिभिर्मरीचिकवचं विनिर्मुञ्चद्भिः, वाचनान्तरे पुनरातपत्रवर्णक एवं दृश्यते-'अन्भपडल-शद्वारे भयदेव०पिंगलुजलेहिं' अभ्रपटलानीवाभ्रपटलानि बृहच्छायाहेतुत्वात् पिङ्गलानि च-कपिशानि सौवर्णशलाकामयत्वा-18 मैथुनसे दुज्वलानि च-निर्मलानि यानि तानि तथा तैः 'अविरलसमसहियचंदमंडलसमप्पहेहिं मंगलसयभत्तिच्छेय- विनः चित्तियविखिणिमणिहेमजालविरइयपरिगयरतकणयघंटियपयलियखिणिखिणितसुमहुरसुइसुहसद्दालसो- बलदेव|हिएहिं' मङ्गलाभिः-मङ्गल्याभिः शतभक्तिभिः-शतसहविच्छत्तिभिः छेकेन-निपुणशिल्पिना चित्रितानि-18| | वासुदेवयानि तानि तथा किङ्किणीभिः-क्षुब्रघण्टिकाभिः मणिहेमजालेन च-रत्नकनकजालकेन विरचितेन विशिष्ट- वर्णन रतिदेन वा परिगतानि-समन्तादेष्टितानि यानि तानि तथा पर्यन्तेषु-प्रान्तेषु कनकधण्टिकाभिः प्रचलि-10 सू०१५ ताभि:-कम्पमानाभिः खिणिखिणायमानाभिः सुमधुरः श्रुतिसुखश्च यः शब्दस्तद्वतीभिश्च यानि शोभितानि तानि तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, ततस्तैः, 'सपयरगमुत्तदामलम्बन्तभूसणेहिं' सप्रतरकाणि-आभरणविशेषयुक्तानि यानि मुक्तादामानि-मुक्ताफलमालाः लम्बनानि-प्रलम्बमानानि तानि भूषणानि येषां | तानि तथा : 'नरिंदवामप्पमाणकंदपरिमंडलेहि' नरेन्द्राणां तेषामेव राज्ञां वामप्रमाणेन-प्रसारितभुजयुगल-18| मानेन रुद्राणि-विस्तीर्णानि परिमण्डलानि च-वृत्तानि यानि तानि तथा तैः 'सीयायववायवरिसविसदोस- णासएहिं' शीतातपवातवर्षविषदोषाणां नाशकः 'तमरयमलबहुलपडलधाडणपहाकरेहिं तमा-अन्धकारं RANSACTRACTOR दीप अनक्रम [१९]] ॥७५॥ JHinmarary.orm ~153~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१९] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - श्रुतस्कन्धः [१], अध्ययनं [४] मूलं [... १५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः रजो-रेणुर्मलः प्रतीतः एतेषां बहुलं-घनं यत्पलं-वृन्दं तस्य घाडनी-नाशनी या प्रभा - कान्तिस्तत्कराणितत्कारीणि यानि तानि तथा तैः 'मुद्धमुहसिवच्छायसमणुबद्धेहिं मूर्धसुखा- शिरः सुखकरी शिवा- निरुपद्रवा या छाया आतपवारणलक्षणा तथा समनुषद्वानि-अनवच्छिन्नानि यानि तानि तथा तैः 'वेरुलिपदंडसज्जि एहिं' वैडूर्यमदण्डेषु सज्जितानि वितानितानि यानि तानि तथा तैः 'वयरामयवत्थिणिउणजोइयअडसहरसवरकंचणस लागनिम्मिएहिं' वज्रमय्यां वस्तौ-शलाकानिवेशनस्थाने निपुणेन शिल्पिना योजिता-निवेशिताः 'अइसहस्स'सि अष्टोत्तरसहस्रसङ्ख्या या: (वर) काञ्चनशलाकास्ताभिर्निर्मितानि - घटितानि यानि तानि तथा तैः, 'सुविमलरपयहुच्छइएहिं सुष्ठु बिमलेन रजतेन रौप्पेण सुष्ठु छदितानि-छादितानि यानि तानि तथा तैः 'णिउणोवियमिसिमिसितमणिरयण सूरमंडलवितिमिरकर निग्गयपडिय पुणरविपञ्चीवयंतचंचलमरीइकययं विणिम्मुयंतेहिं' निपुणैः- कुशलैः शिल्पिभिर्निपुणं वा यथा भवत्येवं ओपितानि-परिकर्मितानि मिसिमिसायमानानि - चिकचिकायमानानि यानि मणयश्च रत्नानि च तेषां सम्बन्धि यत् मरीचिकवचमिति सम्बन्धः किम्भूतं ? - सूरमण्डलस्य- आदित्यमण्डलस्य वितिमिरा-विहतान्धकारा ये करा:-किरणा निर्गता-अवपतिताः ते प्रतिहताः- प्रतिस्वलिताः सन्तः प्रत्यवपतन्तः- प्रतिनिवर्त्तमाना यतः तत्तथा तच तच अञ्चलमरीचिकवचं चेति समासः तद् विनिर्मुञ्चद्भिरित्यधिकृत वाचनातोऽर्गलं, सप्रतिदण्डैरिति गुरुत्वादेकदण्डेन धारयितुमशक्यत्वेन प्रतिदण्डोपेतेः आतपत्रैर्धियमाणैर्विराजमाना इति व्यक्तं, तथा 'ताहि यत्ति तै For Penal Use Only ~154~ Insuranc Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] -------- -------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] प्रश्नव्याक- श्रातिशयवद्भिश्यामरैः कलिता इति सम्बन्धः, किम्भूतैः?-प्रवरगिरेयत्कुहरं तत्र यद्विहरणं-विचरणं गवा- धर्म र० श्रीअ- मिति गम्यते तत्र समुद्धृतानि-उत्क्षिप्तानि कण्टकशाखिलगनभयात् यानि तानि तथा तैश्चामरैरिति प्रकृ- दारे भयदेव० तं, सूत्रे तु चामरशब्दस्य स्त्रीलिङ्गत्वेन विवक्षितत्वात् स्त्रीलिङ्गानिर्देशः कृत इति, निरूपहतं-नीरोगं यच्चमरी- सेवृत्तिः णां-गोविशेषाणां पश्चिमशरीरं-देहपश्चाद्भागः सत्र सजातानि यानि तानि तथा तैः 'अमइल'त्ति अमलिन विनः पाठान्तरेणाऽऽमलितं-आमृदितं यत् सितकमलं-पुण्डरीकं विमुकुलं च-विकसितं उज्वलितं च-दीसं यद्रजत | बलदेवलागिरिशिखरं विमलाच ये शशिन: किरणास्तत्सदृशानि वर्णतो यानि तानि तथा, कलधीतवद्-रजतव-IN | वासुदेवनिर्मलानि यानि तानि तथा, ततः कर्मधारयस्ततस्तैः, पवनाहतो-वायुताडितः सन् चपलं यथा भवत्येवं चलितः सललितं प्रवृत्त इव सललितप्रवृत्तः वीचिभिः प्रमृतक्षीरोदकप्रवरसागरस्य य उत्पूरो-जलप्लवः स. सू० १५ तथा तद्वचञ्चलानि यानि तानि तथा तः, चामराण्येव हंसवधूभिः उपमयन्नाह-मानसाभिधानस्य सरसः। प्रसरे-विस्तारे परिचितः-अभ्यस्त आवासो-निवासो विशदश्च-धवलो वेषो-नेपथ्यमाकारो यासा तास्तथा ४ ताभिः, कनकगिरिशिखरसंश्रिताभिरिति व्यक्तं, अवपातोल्पातयोः-अधोगमनोर्ध्वगमनयोः 'चवलजाण'त्ति चपलवस्त्वन्तरजयी शीधो वेगो यास तास्तथा ताभिहसवधूभिरिव-हंसिकाभिरिव कलिता-युक्ता वासुदेव-14 बलदेवा इति प्रक्रमः, पुनरपि किम्भूतैः चामरैः?-नानामणयः चन्द्रकान्तायाः कनकं च-पीतवर्ण सुवर्ण महान् ॥ ६॥ अहे:-अर्को यस्य तन्महार्ह तपनीयं-रक्तवर्ण सुवर्ण एतेषामज्वलविचित्रा दण्डा येषां तानि तथा तैः इह च वर्णन दीप अनक्रम [१९]] For P OW Histurary.com ~155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१९] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र -१० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [४] मूलं [... १५] श्रुतस्कन्ध: [१]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः हंसवधूनां विशद्वेषताभणनेन कनकगिरिशिखर संश्रितत्व भणने नोत्पातनिपातभणनेन च मणिकनकदण्डातिघवलचञ्चचामरोप मानतो तेति, सललितैः - लालित्ययुक्तः नरपतिश्रीसमुदयप्रकाशनकरैः, राजलक्ष्मीसमुदायो हि तैर्लक्ष्यते, वरपत्तनोङ्गतैः, पत्तनविशेषनिर्मितं हि शिल्पिविशेषात् प्रधानं भवति, अथवा वरपत्तनादू-वराच्छादनकोशकादुद्गतानि-निर्गतानि यानि तानि तथा तैः समृद्धराजकुलसेवितैः असमृद्धराजकुलस्य तु तयोग्यतापि न भवति, कालागुरुः- कृष्णागुरुः प्रवरकुन्द्रुकं- प्रधानचीडा तुरुकं-सिल्हकं एतल्लक्षणो यो धूपस्तद्वशेन यो वासो - वासना तेन विशदः स्पष्ट गन्धो गुणविशेषः उद्भूत उद्भूतोऽभिरामो-रम्यो येषां तानि तथा तैः, 'चिल्लिकाहिंति लीनैः दीप्यमानैर्वा 'उभयोपासंपत्ति उभयोरपि पा र्श्वयोः 'चामराहिँ उक्विप्पमाणाहिं ति प्रकीर्णकैरुत्क्षिप्यमाणैरित्यर्थः, कलिता इति प्रकृतं, तथा सुखशीलवातेन चामराणामेव वीजितानि अङ्गानि येषां ते तथा, अजिता अजितरथा इति प्रतीतं, हलं मुशलं च प्रतीते, कणकाञ्च वाणाः पाणौ हस्ते येषां ते तथा, इदं च बलदेवापेक्षया विशेषणं, शङ्खः पाञ्चजन्याभिधानः चक्रं सुदर्शनं गदा च - कौमोदकी नामा शक्तिश्च त्रिशूलविशेषः नन्दकञ्च-नन्दकाभिधानः खगः एतान् धारयन्ति ये ते तथा, इदं च विशेषणं वासुदेवाश्रयं, प्रवरोज्वलो-वरशुक्लः सुकृतः सुरचितो विमलो-निमेल: कौस्तुभो-वक्षोमणिस्तिरीटं च-मुकुटं धारयन्ति ये ते तथा कुण्डलोद्योतितानना इति व्यक्तं पुण्ड| रीकं-सितपद्मं तद्वनयने येषां ते तथा, एकावली कण्ठे रचिता वक्षसि-हृदये येषां ते तथा, श्रीवत्सः प्रतीतः For Parts On ~156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] --------- -------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत विना सूत्रांक [१५]] प्रश्नव्याक-ठास एवं शोभनं लाग्छनं येषां ते तथा, वरयशस इति व्यक्तं, सर्वनुकै सुरभिभिः कुसुमैः सुरचिता प्रलम्बा अधर्मर० श्रीअ- शोभमाना विकसन्ती चित्रा च वनमाला-मालाविशेषो रचिता रतिदा वा वक्षसि येषां ते तथा, अष्टशतेन भयदेव विभक्तलक्षणानां-विविक्तखस्तिकादिचिहानां प्रशस्तानि सुन्दराणि विराजितानि च अङ्गोपाङ्गानि येषां ते मनसेवृत्तिः । तथा, मत्तस्य गजवराणामिन्द्रस्य-सर्वगजप्रधानस्य यो ललितो-विलासवान् विक्रमः-चकमणं तद्वद्विलासि-18 ता-सञ्जातविलासा गतिर्येषां ते तथा, 'कडीमुलग'त्ति कटीसूत्रप्रधानानि नीलानि पीतानि च कौशेयकानि- बलदेव॥७७॥ वनविशेषरूपाणि वासांसि येषां ते तथा, तब नीलकौशेया बलदेवाः पीतकीशेयाश्च वासुदेवा इति, प्रवरदी-|| वासुदेवसतेजस इति व्यक्तं, शारदं यन्नवं स्तनितं-मेघगर्जितं तद्वन्मधुरो गम्भीरः लिग्धो घोषो येषां ते तथा, नर-18 वर्णनं सिंहा इति प्रतीतं, सिंहस्येव विक्रमश्च गतिश्च येषां ते तथा, 'अस्थमिय'त्ति प्रथमव्याख्यापक्षे येषु बलदेवा सू०१५ |दिषु मध्ये अस्तमिती-अस्तं गतौ रामकेशवाविति प्रकृतं, किंविधौ?-प्रवरराजसिंही, द्वितीयव्याख्याने तु अस्तमिताः प्रवरराजसिंहा येभ्यस्तेऽस्तमितप्रवरराजसिंहा, दीर्घत्वं च प्राकृतशैलीवशात्, सौम्या इति व्यक्तं, द्वारावती नगरी तस्या आनन्दकत्वेन पूर्णचन्द्रा इव पूर्णचन्द्रा येते तथा 'पुश्वकडतवपपभावा निविसंचितसुहा' इत्यादि तु चक्रवर्तिवर्णनवदवगन्तव्यं, यावद् 'अपितत्ता कामाणं'ति ॥ भुजो मंडलियनरवरेंदा सबला सतेउरा सपरिसा सपुरोहियामच्चदंडनायकसेणावतिमंतनीतिफुसला ना ॥७७॥ णामणिरयणविपुलधणधनसंचयनिहीसमिद्धकोसा रजसिरिं विपुलमणुभवित्ता विक्कोसंता बलेण मत्ता तेवि दीप अनक्रम [१९]] AA%CIE ~157~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] उवणमंति मरणधर्म अवितत्ता कामाणं । भुज्जो उत्तरकुरुदेवकुरुवणविवरपादचारिणो नरगणा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा भोगसस्सिरीया पसत्थसोमपडिपुण्णरूवदरसणिज्जा सुजातसव्वंगसुंदरंगा रत्तुप्पलपत्तकतकरचरणकोमलतला सुपइडियकुम्मचारुचलणा अणुपुव्वसुसंहयंगुलीया उन्नयतणुतंबनिद्धनखा संठितसुसिलिट्ठगूढगोंफा एणीकुरुविंदवत्तवट्टाणुपुब्धिजंघा समुग्गनिसग्गगूढजाणू बरवारणमत्ततुलविकमविलासितगती वरतुरगसुजायगुज्झदेसा आइन्नयब्ब निरुवलेवा पमुइयवरतुरगसीहअतिरेगवट्टियकडी गंगावत्तदाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणवोहियविकोसायंतपम्हगंभीरविगडनाभी साहतसोणंदमुसलदप्पणनिगरियवरकणगच्छरुसरिसवरवाइरवलियमझा उजुगसमसहियजयतणुकसिणणिद्धआदेजलडहसूमालमउयरोमराई झसविहगसुजातपीणकुच्छी झसोदरा पम्हविगडनाभा संनतपासा संगयपासा सुंदरपासा सुजातपासा मितमाइयपीणरइयपासा अकरंडुयकणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी कणगसिलातलपसस्थसमतल उवाइयविच्छिन्नपिहलवच्छा जुयसंनिभपीणरइयपीबरपउद्दसंठियमुसिलिट्ठविसिट्ठलहसुनिचितघणथिरसुव. संधी पुरवरवरफलिहयट्टियभुया भुयईसरविपुलभोगआयाणफलिउच्छूढदीहवाहू रत्ततलोवतियमउयमंसलसुजायलक्खणपसस्थअच्छिद्दजालपाणी पीवरसुजायकोमलवरंगुली तंबतलिणसुइरुइलनिद्धनक्खा निद्धपाणिलेहा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्कपाणिलेहा दिसासोवत्थियपाणिलेहा रविससिसंखवरचकदिसासोवस्थियविभत्तमुविरइयपाणिलेहा वरमहिसवराहसीहसद्दलसिंहनागवरपडिपुन्नविउलखंधा दीप अनक्रम [१९]] REaratundelna ~158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१९] श्रुतस्कन्धः [१], अध्ययनं [४] मूलं [... १५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक र० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ ७८ ॥ “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - Eucation Internation चरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसग्गीवा अवट्टियसुविभत्तचित्तमंसू उबचियमंसलपसत्यसङ्घलविपुलहणुया ओयवियसि लप्पवालबिंबफलसंनिभाधरोट्टा पंडुरससिसकल विमल संख गोखीर फेणकुंद दगरयमुणा लिया धवलदंतसेढी अखंडता अप्फुडियदंता अविरलता सुणिद्धदंता सुजायदंता एगदंतसेढिच्त्र अगदंता हुयवहनि द्वंतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततला तालुजीहा गरुलायत उज्जुतुंगनासा अवदालियपोंडरीयनयणा कोकासियधवलपत्तलच्छा आणामिचावरुइल किन्भराजिसंठिय संगयाययसुजायभुमगा अल्लीणपमाणजुत्तसवणा सुवणा पीणमंसलकबोल सभागा अचिरुग्गयबाल चंद संठियमहानिडाला उडुवतिरिव पडिपुन सोमवयणा छत्तागारुतमंगदेसा घणनिचियसुवद्ध लक्खणुन्नय कूडागारनिभपिंडियग्गसिरा हुयवहनिद्धंत धोय तत्ततवणिजरतकेसंतभूमी सामलीपोंडघणनिश्चियछोडिय मिउवि सतपसत्थसुहुमलक्खणसुगंधिसुंदर भुयमोयगभिंगनीलकज्जलपट्टभमरगणनिद्ध निगुरुंबनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरया सुजातसुविभत्तसंगयंगा लक्खणर्वजगुणोववेया पसत्यबत्तीसलक्खणधरा हंसस्सरा कुंचस्सरा दुंदुभिस्सरा सीहस्सरा उज्ज (ओघ ) सरा मेघसरा सुसरा सुसरनिग्धोसा वज्जरिसनारायसंघयणा समचउरंस संठाणसंठिया छायाज्जोवियंगमंगा पसत्थच्छवी निरातका कंकग्गहणी कवोतपरिणामा सगुणिपोसपितरोरुपरिणया पउमुप्पलसरिसगंधुस्साससुरविणा अणुलोमवावेगा अवदायनिद्धकाला विग्गहियन्नयकुच्छी अमयरसफलाहारा तिगाउयसम्सिया तिपलिओमतीका तिन्निय पलिओयमाई परमाउं पालयित्ता तेवि उवणमंति मरणधम्मं अवितित्ता For Park Use Only ~ 159~ ४ अधर्म द्वारे | माण्डलि | कदेवकुरुत्तरवर्णनं सू० १५ ॥ ७८ ॥ yor Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] ------- मा.मा . मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] कामाणं । पमयावि य तेसिं होति सोम्मा सुजायसव्वंगसुंदरीओ पहाणमहिलागुणेहिं जुत्ता अतिकतविसप्पमाणमउयसुकुमालकुम्मसंठियसिलिट्ठचलणा उज्जमउयपीवरसुसाहतंगुलीओ अन्भुन्नतरतिततलिणतंबसुइनिद्धनखा रोमरहियवट्टसंठियअजहन्नपसत्वलक्खणअकोप्पजंघजुयला सुणिम्मितसुनिगूढ जाणूमंसलपसत्थसुबद्धसंधी कयलीखंभातिरेकसंठियनिव्वणसुकुमालमउयकोमलअविरलसमसहितसुजायवट्टपीवरनिरन्तरोरू अट्ठावयवीइपसंठियपसत्थविच्छिन्नपिहुलसोणी बयणायामप्पमाणदुगुणियविसालमंसलसुबद्धजहणवरधारिणीओवजविराइयपसत्थलक्खणनिरोदरीओ तिवलिवलियतणुनमियमझियाओ उजुयसमसहियजचतणुकसिणनिद्धआदेजलडहसुकुमालमउयसुविभत्तरोमरातीओ गंगावत्तगपदाहिणावत्ततरंगभंगरविकिरणतरुणचोधितआकोसायंतपउमगंभीरविगडनाभा अणुम्भडपसत्थसुजातपीणकुच्छी सन्नतपासा सुजातपासा संगतपासा मियमायियपीणरतितपासा अकरंडुयकणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवहयगायलट्ठी कंचणकलसपमाणसमसहियलट्ठचुचूयआमेलगजमलजुयलवट्टियपओहराओ भुयंगअणुपुब्वतणुयगोपुच्छवट्टसमसहियनमियादेजलडहबाहा तंबनहा मंसलग्गहत्था कोमलपीवरवरंगुलीया निद्धपाणिलेहा ससिसूरसंखचकवरसोस्थियविभत्तसुविरइयपाणिलेहा पीणुण्णयकक्खवस्थिप्पदेसपडिपुनगलकवोला चउरंगुलसुप्पमाणकंबवरसरिसगीवा मंसलसंठियपसत्थहणुया दालिमपुष्फप्पगासपीवरपलंबकुंचितवराधरा सुंदरोत्तरोहा दधिदगरयकुंदचंदवासंतिमउल अच्छिद्दविमलदसणा रत्तुप्पलपउमपत्तसुकुमालतालुजीहा कणवीरमुउलऽकु दीप अनक्रम [१९] म.व्या.१४॥ hindiamera ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१९] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - श्रुतस्कन्ध: [१], अध्ययनं [४] मूलं [... १५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याकर० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ ७९ ॥ डिलऽब्भुन्नयउज्जुतुंगनासा सारदनवकमलकुमुतकुवलयद उ निगर सरि सलक्खणपसत्थ अजिम्हकंतनयणा आनामियचावरुइलकिण्ह्डभरा इसंगयसु जायत णुकसिणनिद्धभुमगा अल्लीणपमाणजुत्तसवणा सुस्वणा पीपामट्टगंडलेहा चउरंगुलविसालसमनिडाला कोमुदिरयणिकर विमलप डिपुन्नसोमवदणा छत्तुन्नयउत्तमंगा अकविलसुसिणिद्धदीहसिरया छत्तज्झयजूवथूभदामिणिकमंडलुकलसवाविसोत्थियषडागजवमच्छकुम्मरथवरमकरज्झय अंकथाल अंकुस अट्ठावय सुपइअ मर सिरियाभिसेयतोरणमेइणिउदधिवरपवरभवणगिरिवरवरायंससललियगयउ सभसीहचामरपसत्यबत्ती सलक्खणधरीओ हंससरित्थगतीओ कोइलमहुरगिराओ कंता सव्वस अणुमयाओ ववगयवलिपलित बंगदुव्वन्न वाधिदोहग्गसोयमुक्काओ उच्चत्तेण य नराण थोवूणमूसियाओ सिंग्गरागार चारुवेसाओ सुंदरथणजहणवयणकरचरणणयणा लावन्नरुवजोब्वणगुणोववेया नंदणaraarचारिणीओ व् अच्छराओ उत्तरकुरुमाणुसच्छराओ अच्छेरगपेच्छणिज्जियाओ तिन्निय पछि ओबमाई परमाउं पालयित्ता ताओऽवि उवणमंति मरणधम्मं अवितित्ता कामाणं ( सू० १५ ) 'भुज्जो' ति भूयस्तथा इत्यर्थः, माण्डलिका नरेन्द्रा-मण्डलाधिपतयः सबलाः सान्तःपुराः सपरिषद् इति व्यक्तं, सह पुरोहितेन- शान्तिकर्मकारिणा अमात्यैः- राज्यचिन्तकैः दण्डनायकैः प्रतिनियतकटकनायकैः सेनापतिभिः सकलानीकनायकैर्ये ते तथा ते च ते मन्त्रे मन्त्रणे नीती च सामादिकायां कुशलाश्चेति समासः, नानाप्रकारैर्मणिरत्नानां विपुलधनधान्यानां च सञ्चयैर्निधिभिश्व समृद्धः-परिपूर्णः कोशो येषां ते तथा राजश्रियं वि For Park Lise Only ~ 161~ ४ अधर्म. द्वारे माण्डलि कदेव कुरुत्तरवर्णनं सू० १५ ॥ ७९ ॥ andorary org Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] --------- -------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] पुलामनुभूय विक्रोशन्त:-परानाकोशन्तः विगतकोशान्ता वा बलेन मत्सा इति व्यक्तं तेऽपि च एवंविधा अपि उपनमन्ति मरणधर्ममवितृप्ताः कामानामिति । 'भुजोत्ति तथा उत्तरकुरुदेवकुरूणां यानि वनविवराणि तेषु पादैः चाहनाभावाचरणैर्विचरन्ति येते तथा नरगणाः-नृसमूहाः भोगैरुत्तमाः भोगोत्तमः भोगसूचकानि लक्षणानि-खस्तिकादीनि धारयन्तीति भोगलक्षणधराः भोगैः सश्रीका:-सशोभाः भोगसश्रीकाः, प्रशस्तं सौम्य प्रतिपूर्ण रूपं-आकृतिर्येषां तेऽत एव दर्शनीयाश्च-दर्शनार्दाश्च येते तथा,सुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गा इति पूर्ववत्, हारक्तोत्पलपत्रवत् कान्तानि करचरणानां कोमलानि च तलानि-अधोभागा येषां ते तथा, सुप्रतिष्ठिता: सत्प्रतिष्ठावन्तः कूर्मवत्-कच्छपवचारवश्चरणा येषां ते तथा, अनुपूर्वेण-परिपाट्या बर्द्धमाना हीयमाना वा इति गम्यते सुसंहता-अविरला अङ्गुल्या-पादानावयवा येषां ते तथा, वाचनान्तरे आनुपूर्व्यसुजातपीवराकुलीकाः प्रतीतं च, उन्नता:-तुङ्गाः तनवः-प्रतलाः ताम्रा-अरुणाः स्निग्धा:-कान्तिमन्तो नखा येषां ते तथा, संस्थितौ-संस्थानविशेषवन्ती सुश्लिष्टौ-सुघटनौ गूढौ-मांसलत्वादनुपलक्ष्यी गुल्फी-घुण्टको येषां ते तथा, एणी-हरिणी तस्याह जहा ग्राख्या कुरुविन्दः-तृणविशेषः वृत्तं च-सूत्रावलन एतानीय वृत्ते व ले। आनुपूर्येण स्थूलस्थूले चेति गम्यं जहे-अमृते येषां ते तथा, अथवा एण्या-स्नायवः कुरुविन्दा:-कुटलिकास्तत्वग्वत् वृत्ता आनुपूर्पण जङ्घा येषां ते तथा, 'समुग्ग'त्ति समुद्कतत्पिधानयोः सन्धिः तद्वनिसर्गगूढीस्वभावतो मांसलत्वादनुन्नते जानुनी-अष्टीवती येषां ते तथा, पाठान्तरेण समुद्गवत् निमुग्गे-निमग्ने अनुन्नते दीप अनक्रम [१९]] For P OW M unmurary.org ~162~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] --------- -------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥८७॥ [१५] 45 प्रश्वव्याक- इत्यर्थः गूढे-मांसलत्वादनुपलक्ष्ये जानुनी येषां त तथा, वरवारणस्य-गजन्द्रस्य मत्तस्य तुल्पः-सदृशो वि-13 . र०श्रीअ- क्रमः-पराक्रमो विलासिता-सञ्जातविलासा च गतिर्येषां ते तथा, वरतुरगस्येव सुजातः 'मुगुप्तत्वेन गुणदे- द्वारे भयदेव शो-लिङ्गलक्षणोऽवयवो येषां ते तथा आकीर्णहय इव-जात्याश्च इव निरुपलेपा:-तथाविधमलविकलाः, प्रमुदितो माण्डलिवृत्तिः -हष्टो यो वरतुरगः सिंहश्च ताभ्यां सकाशादतिरेकेण-अतिशयेन वर्तिता-वर्चला कटिर्येषां ते तथा, गङ्गा-16 कदेवकुरू वर्तक इव दक्षिणावर्त्ततरङ्गभङ्गुरा रविकिरणयोंधितं-विकासितं 'विकोसायंत'त्ति विगतकोश कृतं यत्प_- त्तरवर्णन मापाजं तद्वद् गम्भीरा विकटा च नाभिर्येषां ते तथा, 'साहय'ति संहित-सविसं यत्सोणंद-त्रिकाष्ठिका मु-1 सू०१५ शलं प्रतीतं दर्पण:-दर्पणगण्डो विवक्षितो 'निगरियत्ति सर्वधा शोधितं यदरकनकं तस्य यः सरु:-खड्गादिमुष्टिः स चेति द्वन्द्वस्तैः सदृशो यः वरवज्रवत् वलित:-क्षामो मध्यो-मध्यभागो येषां ते तथा, ऋजुकाणां -अवक्राणां समानां आयामादिप्रमाणतः 'सहियत्ति संहताना-अविरलानां जात्यानां स्वाभाविकानां तनूना-सूक्ष्माणां कृष्णानां-असितानां निग्धानां-कान्तानां आदेयानां-सौभाग्यवतां लडहाना-मनोज्ञाना सुकुमारमृदूना-कोमलकोमलानां रमणीयानां च रोम्णां-तनूरुहाणां राजि:-आवली येषां ते तथा, सषविमाहगयोरिव-मत्स्यपक्षिणोरिव सुजाती-सुष्टु भूतौ पीनी-उपचितौ कुक्षी-जठरदेशी येषां ते तथा, सषोदरा इति प्रतीतं, 'पम्हविगडनाभत्ति पद्मवद्विकटा नाभिर्येषां ते तथा, इदं च विशेषणं न पुनरुक्तं, पूर्वोक्तस्य नाभिविशेषणस्य बाहुल्येन पाठादिति, सन्नती-अधोनमन्ती पाचौं प्रतीतो येषां ते तथा, सङ्गत्तपावोः, दीप अनक्रम [१९]] ॥८ ॥ ~163~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१९] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - श्रुतस्कन्धः [१], अध्ययनं [४] मूलं [... १५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत एव सुन्दरपार्श्वाः सुजातपार्श्वः पार्श्वगुणोपेतपार्श्वा इत्यर्थः, 'मियमाइय'त्ति मिती - परिमितौ मात्रिकौमात्रोपेती एकार्थपदद्वययोगात् अतीवमात्रान्वितौ नोचितप्रमाणान्यूनाधिको पीनी- उपचितो रतिदी-रमणीयो पावों येषां ते तथा, 'अकरंडुय'त्ति मांसोपचितत्वात् अविद्यमानपृष्ठिपार्श्वास्थिक मिवकनकरुचकं-काचनकान्ति निर्मलं विमलं सुजातं - सुनिष्पन्नं निरुपहतं - रोगादिभिरनुपद्रुतं देहं शरीरं धारयन्ति ये ते तथा, कनकशिलातलमिव प्रशस्तं समतलं अविषमरूपं उपचितं -मांसलं विस्तीर्णपृथुलं- अतिविस्तीर्ण वक्षो-हृदयं येषां ते तथा, युगसन्निभी-यूपसदृशी पीनौ - मांसलो रतिदी- रमणीयौ पीवरी - महान्ती प्रकोष्ठौ - कलाचिकादेशी, तथा संस्थिताः - संस्थानविशेषवन्तः सुश्लिष्टाः सुघटना लष्टा - मनोज्ञाः सुनिचिताः सुष्ठु निविडा धना:- बहुप्रदेशाः स्थिरा नासुविघटाः सुबद्धा: -लायुभिः सुष्ठु बद्धाः सन्धय-अस्थिसन्धानानि येषां ते तथा, पुरवरस्य वरपरिघवद्-द्वारार्गलाबद्वर्त्तिती-वृत्तौ भुजी बाहू येषां ते तथा, भुजगेश्वरो-भुजङ्गराजस्तस्य विपुलो-महान यो भोगः शरीरं तद्वत् आदीयत इत्यादानः- आदेयो रम्यो यः परिघा - अर्गला 'उच्छूढ'त्ति स्वस्थानाद् अवक्षिप्तो निष्काशितः तद्वच दीर्घौ बाहू येषां ते तथा, रक्ततलौ-लोहिताधोभागौ, 'उचचिय'त्ति औपचरिको उपचयनिर्वृत्तौ औपयिको वा उचितो मृदुकौ - कोमली मांसली-मांसवन्तौ सुजाती- सुनिष्पन्नो लक्षणप्रशस्तौ प्रशस्तस्वस्तिका दिचिह्नो अच्छिद्रजाली - अविरलाङ्गुलिसमुदाय पाणी-हस्तौ येषां ते तथा पीवरा- उपचिताः सुजाता:- सुनिष्पन्नाः कोमला वराः अङ्गुल्यः-करशाखा येषां ते तथा, ताम्रा For Parts Only ~164~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] --------- -------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रश्नब्याकर० श्रीअभयदेव द्वारे प्रत ॐ सूत्रांक [१५]] ॥८१॥ |-अरुणाः तलिना:-प्रतलाः शुचयः-पवित्राः रुचिरा-दीसाः निग्धा-अरूक्षा नखा-हस्तनखरा येषां ते तथा, ४ अधर्मलिपाणिरेखा इति कण्ठ्य, चन्द्र इव पाणिरेखा येषां ते तथा, एवमन्यान्यपि चत्वारि पदानि नवरं दिक-13 प्रधानः स्वस्तिको दिकस्वस्तिको दक्षिणावर्त इत्यर्थः, रविशशिशङ्खवरचदिकवस्तिकरूपा विभक्ता-वि- | माण्डलिविक्ताः सुविरचिताः-सुकृताः पाणिषु रेखा येषां ते तथा, बरमहिषवराहशार्दूलऋषभनागवरप्रतिपूर्णविपुकालस्कन्धा इति कठ्य, नवरं वराहः-शूकरः शार्दूल:-व्याघ्र ऋषभो-वृषभो नागवरो-गजचरः, चत्वार्यकलानि सुष्टु प्रमाणं यस्याः कम्बुवरेण च-प्रधानशङ्ग्रेन सदृशी उन्नतत्त्ववलियोगाभ्यां समाना ग्रीषा-कण्ठो येषां ते सू०१५ सथा, अवस्थितानि-न हीयमानानि वर्द्धमानानि च सुविभक्तानि-विविक्तानि चित्राणि च-शोभया अद्भुतभूतानि इमभूणि-कूर्चकेशा येषां ते तथा, उपचितं-मांसलं प्रशस्तं शार्दूलस्येव विपुलं च हनु-चिबुकं येषां से तथा, 'ओपविर्य'ति परिकर्मितं यच्छिलाप्रवालं-विद्रुमं विम्बफलं च-गोल्हाफलं तत्सन्निभः-तत्सदृशो रक्तत्वेनाधरोष्ठः-अधस्तनदन्तच्छदो येषां ते तथा, पाण्डुरं यच्छशिसकलं-चन्द्रखण्डं तद्वद् विमलं शङ्खवद् गोक्षीरफेनवत् 'कुंद त्ति कुन्दपुष्पवत् दकरजोवत् मृणालिकावच-पद्मिनीमूलबद्भवला दन्तश्रेणीदशनपतिर्येषां ते तथा, अखण्डदन्ताः-परिपूर्णदशनाः अस्फुटितदन्ताः-राजीरहितदन्ताः अविरलदन्ताःधनदन्ताः सुलिग्धदन्ता:-अरुक्षवन्ताः सुजातदन्ताः-सुनिष्पन्नदन्ताः, एको दन्तो यस्यां सा एकदन्ता सा IM॥८१॥ श्रेणी येषां ते तथा, दन्तानामतिघनत्वादेकदन्तेव दन्तश्रेणिस्तेषामिति भावः, अनेकदन्ता द्वात्रिंशद्दन्ता दीप -%254 अनक्रम [१९]] Dastaram.org ~165 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] हा इति भावः, हुतवहेन-अग्निना निर्धमन-निर्दग्धं धौत-प्रक्षालितमलं यत्तपनीयं-सुवर्णविशेषः तद्वद्रक्ततलंहै लोहितरूपं तालु च-काकुदं जिह्वा च-रसना येषां ते तथा, गरुडस्येव-सुपर्णस्येव आयता-दीर्घा ऋज्वी सरला तुङ्गा-उन्नता नासा-घोणो येषां ते तथा, अवदालित-सञाताबदलनं विकसितं यत्पुण्डरीकं-शतपनं तद्वन्नयने-लोचने येषां ते तथा 'कोकासियत्ति विकसिते प्रायः प्रमुदितत्त्वात्तेषां धवले-सिते पत्रले-पक्ष्म-18 वती अक्षिणी-लोचने येषां ते तथा, आनामितं-ईषन्नामितं यच्चापं-धनुस्तद्रुचिरे-शोभने कृष्णाभ्रराजिसंस्थिते-कालमेघलेखासंस्थाने सङ्गते-उचिते आयते-दीर्धे सुजाते-सुनिष्पन्ने भ्रुवौ येषां ते तथा, आलीनौ नतु | टप्परौ प्रमाणयुक्तौ-उपपन्नप्रमाणी श्रवणौ-कर्णी येषां ते तथा अत एव सुश्रवणाः सुष्टु वा श्रवणं-शब्दोपलम्भो येषां ते तथा, पीनी-मांसलौ कपोललक्षणो देशभागौ-बदनस्यावयवौ येषां ते तथा,अचिरोद्गतस्येवात एष |बालचन्द्रस्य-अभिनवशशिनः संस्थितं-संस्थानं यस्य तत्तथा तदेवंविधं महदू-विस्तीर्ण 'निडाल'सि ललाटभालं येषां ते तथा, उद्धपतिरिव-चन्द्र व प्रतिपूर्ण सौम्यं च वदनं येषां ते तथा, तथा छत्राकारोत्तमातादेशा इति कण्ठ्यं, धनो-लोहमुद्गरस्तद्वनिचितं निविडं धनं वा-अतिशयेन निचितं घननिचितं सुबद्धं लायुभिः लक्षणोन्नत-महालक्षणं कूटागारनिर्भ-सशिखरभवनतुल्यं पिण्डिकेच वर्चुलत्वेन पिण्डिकायमानं अप्रशिरः-17 शिरोऽयं येषां ते तथा, हुतवहेन निर्मात धोतं तप्तं च यत्तपनीयं-रक्तवर्ण सुवर्ण तद्वद्रक्ता-लोहिता कसंतत्ति मध्यकेशा केशभूमिः-मस्तकत्वग येषां ते तथा, शाल्मली-वृक्षविशेषस्तस्य यत्पौण्डं-फलं धन दीप अनक्रम [१९]] marary.orm ~166~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] --------- -------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रश्नन्याक र०श्रीअमयदेव. *% प्रत सूत्रांक %% ॥८२॥ [१५] % निचितं-अत्यर्थं निचिड छोटितं च-घहितं तद्न्मृदवा-सुकुमाराः विशदा:-चिस्पष्टाः प्रशस्ता-मङ्गल्याः ४ अधर्मसूक्ष्मा:-लक्ष्णा: लक्षणाः-लक्षणवन्तः सुगन्धयः-सद्गन्धाः सुन्दरा:-शोभनाः भुजमोचको-रत्नविशेषस्तद्वतार भृङ्गः-कीटविशेषस्तद्वन्नीलो-रनविशेषः स इव कज्जलमिव प्रहष्टभ्रमरगणः-प्रमुदितमधुकरनिकरः स इव माण्डलिच लिग्धा:-कालकान्तयः निकुरुम्बा:-समूहरूपाः निचिता-अविकीर्णाः कुञ्चिता:-वक्राः प्रदक्षिणावश्चि-अवामवृत्तयो मूर्धनि-शिरसि शिरसिजा:-केशा येषां ते तथा, सुजातसुविभक्तसङ्गतामा इति कण्ठ्यं, लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता इति प्राग्वत्, प्रशस्तद्वात्रिंशल्लक्षणधरा इति कण्ठ्यं, हंसस्येव खर:-शब्दः षड्जादिर्वा येषां ते तथा, एवमन्यान्यपि, नवरं ओघेन-अविच्छेदेनावित्रुटितत्वेन स्वरो येषां ते तथा, तथा सुष्टु स्वरस्य-शब्दस्य निर्दोषो-निहादो येषां ते तथा, वाचनान्तरे सिंहघोषादिकानि विशेषणानि पठ्यन्ते, तत्र घण्टाशब्दानुप्रवृत्तरणितमिव यः शब्दः स घोष उच्यते, वज्रर्षभनाराचाभिधानं संहननं-अस्थिस|श्चयरूपं येषां ते तथा, तत्र-"रिसहो उ होइ पट्टो वजं पुण कीलिया बियाणाहि। उभओ मकडवन्धो नारायं तं वियाणाहि ॥१॥[ऋषभस्तु भवति पट्टो वजं पुनः कीलिकां विजानीहि । उभयतो मर्कटबन्धो यस्तं नाराचं विजानीहि ॥१॥] समचतुरस्राभिधानेन संस्थानेन संस्थिता येते तथा, तत्र समचतुरस्त्रत्वमूर्वका-IK याधःकाययोः समग्रवखलक्षणतया तुल्यत्वमिति, छाययोद्योतिताङ्गोपाङ्गा इति कण्ठ्यं, 'पसत्यच्छवित्ति प्रशस्तत्वचः निरातका:-नीरोगाः कङ्कस्येव-पक्षिविशेषस्येव ग्रहणी-गुदाशयो नीरोगवर्चस्कतया येषां ते % दीप % अनक्रम [१९]] ** * ~167~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] --------- -------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] तथा, कपोतस्येव-पक्षिविशेषस्येव परिणाम:-आहारपरिणतियेषां ते तथा, कपोतानां हि पाषाणा अपि जीर्यन्त इति श्रुतिः, शकुनेरिव-पक्षिण इव 'पोस'ति अपानं येषां ते तथा, पुरीषोत्सगर्गे निलेपापाना इत्यर्थः, पृष्ठ चान्तराणि च-पार्श्वदेशः ऊरूच परिणताः-सुजाता येषां ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, पद्मं च-कमलं उत्पलं च-नीलोत्पलं तत्सदृशो गन्धो यस्य स तथा तेन श्वासेन सुरभि वदनं येषां ते तथा, अनुलोमः-अनुकूलो मनोज्ञ इत्यर्थः वायुवेगः-शरीरसमीरणजवो येषां ते तथा, अवदाता:-गौराः स्निग्धाः कालाच-श्यामाश्च इति द्वन्द्वः, वैग्रहिको-शरीरानुरूपी उन्नती पीनौ कुक्षी-उदरदेशी येषां ते तथा, अमृतस्येव रसो येषां ते तथा तानि फलान्याहारो येषां ते तथा, त्रिगव्यूतसमुच्छ्रिता इत्यादि कण्ठ्यं । प्रमदा अपि च-खियोऽपि तेषां-मिथुनकराणां भवन्ति सौम्याः-अरौद्राः सुजातानि सर्वाण्यङ्गानि सुन्दराणि च यासां तास्तथा, प्रधानमहेलागुणयुक्ता इति कण्ठ्यं, अतिकान्ती-अतिकमनीयौ 'विसप्पमाण'त्ति विशिष्टखप्रमाणौ अथवा विसर्पन्तावपि-सञ्चरन्तावपि मृदूनां मध्ये सुकुमालौ कूर्मसंस्थिती-उन्नतत्वेन कच्छपसंस्थिती श्लिष्टी-मनोज्ञी चलनी-पादौ यासां तास्तथा, ऋजव:-सरला मृदवा-कोमला: पीवरा-उपचिताः सुसंहताः-अविरला: अकुल्या-पादाङ्गुलयो यासां तास्तथा, अभ्युन्नता-उन्नता रतिदाः-सुखदाः अथवा रचिता इव रचिताः तलिना:-प्रतलाःताम्रा-आरक्ताः शुचयः-पवित्राः स्निग्धा:-कान्ता नखा यासा तास्तथा, जारोमरहितं-निर्लोमकं वृत्तसंस्थितं-बर्नुलसंस्थानं अजघन्यप्रशस्तलक्षणं-प्रचुरमङ्गल्यचिहं 'अकोप्पत्ति अद्वेष्यं दीप अनक्रम [१९]] ~168~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] -------- -------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५]] ॥८३॥ प्रश्नच्याक-18रम्यं जवायुगलं यासां तास्तथा, सुनिर्मिती-सुन्यस्तो सुनिगूढी-अनुपलक्ष्यी जानुनो:-अष्ठीबतोर्मासली- ४ अधर्मर०श्रीअ-ला मांसोपचिती प्रशस्ती-माङ्गल्यौ सुबद्धौ लायुभिः सन्धी-सन्धाने यासां तास्तथा, कदलीस्तम्भात्-मोचा- द्वारे भयदेव० काण्डात् सकाशाद् अतिरेकेण-अतिशयेन संस्थितं-संस्थानं ययोस्ते कदलीस्तम्भातिरकसंस्थिते निर्बणे- माण्डलिवृत्तिः व्रणरहिते सुकुमालमृदुकोमले-अत्यर्थकोमले अविरले-परस्परासन्ने समे-प्रमाणतस्तुल्ये सहिते-युक्ते लक्ष-18 कदेवकुरू गरिति गम्यते सहिके वा-क्षमे सुजाते-सुनिष्पन्ने वृत्ते-वर्नुले पीवरे-सोपचये निरन्तरे-परस्परं निर्विशेषे ट। त्तरवणेने ऊरू-उपरितनजङ्के यासां तास्तथा, अष्टापदस्य-यूतविशेषस्य वीचय इव वीचय:-तरङ्गाकारा रेखास्तत्प्रधानं| सू०१५ पृष्ठमिव पृष्ठं-फलकं अष्टापदवीचिपृष्ठं तत्संस्थिता-तत्संस्थाना प्रशस्ता-विस्तीर्णा पृथुला-अतिविस्तीर्णा श्रोणि:-कटीयासां तास्तथा, वदनायामस्य-मुखदीर्घत्वस्य यत्प्रमाणं ततो द्विगुणितं-द्विगुणं चतुर्विशत्यनलमित्यर्थः विशालं-विस्तीर्ण मांसलसुबर्द्ध-उपचितालथं जघनवरं-प्रधानकटीपूर्वभागं धारयन्ति यास्तास्तथा, वज्रवत् विराजिताःक्षाममध्यस्खेन बजविराजिताः प्रशस्तलक्षणा निरुदराच-तुच्छोदरा यास्तास्तथा, तिमभिवेलि-18 भिर्वलित:-सातवलिकस्तनु:-कृशः नमितो-नतो मध्यो-मध्यभागो यासांतास्तथा, फजुकानां-अवक्राणां समानां-तुल्यानां संहितानां-अविरलानां जात्यानां-खभावजानां तनूना-सूक्ष्माणां कृष्णानां-कालानां | लिग्धानां-कान्तानां आदेयानां-रम्याणां लडहानां-ललितानां सुकुमालमृदूनां-अतिमृदूनां मुविभक्तानां |-विविक्तानां रोम्णां राजि:-पद्धतिः यासां तास्तथा, गङ्गावर्तक इव प्रदक्षिणावर्ता तरङ्गवद्भङ्गा यस्यां सा दीप अनक्रम [१९]] urmurary.om ~169~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] --------- -------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] तथा सा च रविकिरणैस्तरुणैयोंधितं आकोशायमानं-विमुकुलीभवत् यत्पनं तद्वत् गम्भीरा विकटा च नाभिर्यासां तास्तथा, अनुटो-अनुल्वणी प्रशस्ती-सुजातो पीनी च-उपचितौ कुक्षी यासां तास्तथा, सन्नभातपाश्वोदिविशेषणानि पूर्ववत् अकरंडका-अनुपलक्ष्यपृष्ठास्थिका कनकरुचकवत्-सुवर्णरुचिवन्निमेंला सु जाता निरूपहता च गात्रयष्टिर्यासां तास्तथा, काञ्चनकलशयोरिव प्रमाणं ययोस्ती तथा तौ समी-तुल्यौ सं. हिती-संहती लष्टचुचुकामेलको-शोभनस्तनमुखशेखरौ यमलौ-समश्रेणीको 'युगल'त्ति युगलरूपी वर्तितोवृत्ती पयोधरौ-स्तनौ यासा तास्तथा, भुजङ्गवत्-नागवदानुपूर्येण-क्रमेण तनूकौ-लक्षणी गोपुच्छवद्वृत्ती समौ-तुल्यौ संहिता-मध्यकायापेक्षया विरलौ नमिती-नम्रौ आदेया-सुभगौ लडही-ललितौ वाह-भुजौ। यासां तास्तथा, ताम्रनखाः मांसलाग्रहस्ताः कोमलपीवरवरानुलीकाः स्निग्धपाणिरेखाः शशिसूरशङ्खचक्रवरस्वस्तिकविभक्तमुविरचितपाणिरेखाश्चेति कण्ठ्यानि, पीनोन्नते कक्षे-भुजमूले बस्तिप्रदेशश्च-गुह्यदेशो यासां परिपूर्णः गलकपोलश्च यासांतास्तथा, चतुरङ्गुलमुप्रमाणा कम्बुवरसदृशी-वरशकतुल्या ग्रीवा यासां ता स्तथा, मांसलसंस्थितप्रशस्तहनुकाः, हनु-चिबुकं, शेष कण्ठ्यं, दाडिमपुष्पप्रकाशो रक्त इत्यर्थः, पीवर:-उपचितः प्रिलम्बा-ईषल्लम्बमानः कुश्चित:-आकुश्चितो वर:-प्रधानोऽधर:-अधस्तनो दशनच्छदो यासा तास्तथा, सु- न्दरोत्तरोष्ठा इति कण्ठ्यं, दधिवत् दकरजोवत् कुन्दवचंद्रवत् वासन्तिका-वनस्पतिविशेषस्तस्था मुकुलं-कोरकं तद्वच्च अच्छिद्रा-अविरला निर्मला दशना-दन्ता यासां तास्तथा, रक्तोत्पलवद्रक्त पद्मपत्रवच सुकुमाले दीप अनक्रम [१९]] ~170~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१९] “प्रश्नव्याकरणदशा” प्रश्नव्याकर० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ ८४ ॥ - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], अध्ययनं [४] मूलं [... १५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तालुजिहे यासां तास्तथा, करवीरमुकुलमिवाकुटिला-अवक्रा कचिदभ्युन्नता अग्रे उच्चा ऋजु - सरला तुङ्गा च - उच्चा तदन्यत्र मासा घोणो यासां तास्तथा, शरदि भवं शारदं नवकमलं च-आदित्यबोध्यं कुमुदं चचन्द्रविकाश्यं कुवलयं च नीलोत्पलं पद्मं एषां यो दलनिकरस्तत्सदृशे लक्षणप्रशस्ते अजिले-अमन्दे कान्ते नयने यासां तास्तथा, आनामितचापवदुचिरे कृष्णाभ्रराज्या सङ्गते - अनुगते सदृश्यावित्यर्थः सुजाते तनू कृष्णे स्निग्धे च भ्रुवौ यासां तास्तथा, आलीनप्रमाणयुक्तश्रवणाः सुश्रवणा इति च प्राग्वत्, पीना उपचिता मृष्टा-शुद्धा गण्डरेखा-कपोलपाली यासां तास्तथा, चतुरङ्गुलं- चतुरङ्गुलमानं विशालं विस्तीर्ण समं- अविधमं ललाटं यासां तास्तथा, कौमुदी - कार्त्तिकी तस्या यो रजनीकरः- चन्द्रस्तद्वद्विमलं परिपूर्ण सौम्यं च वदनं यासां तास्तथा, छत्रोन्नतोत्तमाङ्गाः अकपिलसुस्निग्धदीर्घशिरोजा इति कण्ट्यं, छथं १ ध्वजः २ यूपः ३ स्तूपः ४ एतान्यन्यान्यपि प्रायः प्रसिद्धानि 'दामणि'त्ति रूढिगम्यं ४ कमण्डलु ६ कलशो ७ वापी ८ स्वस्तिकः ९ पताका १० यवो ११ मत्स्यः १२ कूर्मः कच्छपः १३ रथवरो १४ मकरध्वजः कामदेवः १५ अंको- रूढिगम्यः १६ स्थालं १७ अङ्कुशः १८ अष्टापदं यूतफलकं १९ सुप्रतिष्ठकं -स्थापनक २० (अमर: ) मयूरः अमरो वा २१ श्रियाऽभिषेको-लक्ष्म्यभिषेकः २२ तोरणं २३ मेदिनी २४ उदधिः २५ वरप्रवरभवनं- वराणां प्रवरगेहं २६ गिरिवरः २७ वरादर्श:- वरदर्पणः २८ सललिताश्च - लीलावन्तो ये गजाः २९ ऋषभः ३० सिंह ३१ स्तथा चामरं ३२ एतानि प्रशस्तानि द्वात्रिंशलक्षणानि धारयन्ति यास्तास्तथा, हंससदक्षगतयः कोकिलमधुरगि For Parts Only ~ 171~ 196 969 ४ अधर्म द्वारे माण्डलि - कदेवकुरुतरवर्णनं सू० १५ ॥ ८४ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१९] १ “प्रश्नव्याकरणदशा” - श्रुतस्कन्धः [१], अध्ययनं [४] मूलं [... १५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education Internation अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) रखेति कण्ठ्यं, कान्ताः- कमनीयाः सर्वस्य जनस्य अनुमताः-अभिमताः व्यपगतवलीपलितव्यङ्गा दुर्वर्णच्या| विदौर्भाग्यशोकमुक्ताश्च यास्तास्तथा, उच्चत्वे नराणां स्तोकोनमुच्छ्रिताः किञ्चिन्नत्रिगन्यूनोच्छ्रिता इत्यर्थः | शृङ्गारस्य रसविशेषस्य अगारमिवागारं चारुवेषाश्च सुनेपथ्याः, तथा सुन्दराणि स्तनजघनवदनकरचरणनयनानि यासां तास्तथा, लावण्येन स्पृहणीयतया रूपेण-आकारविशेषेण नवयौवनेन गुणैश्चोपपेता यास्तास्तथा, नन्दवनविवरचारिण्य इव अप्सरसो- देव्यः तत्र नन्दनवनं मेरोर्द्वितीयवनं, उत्तरकुरुषु मानुष्यरूपा अप्सरसो पास्तास्तथा, आश्चर्य-अद्भुतमिति प्रेक्ष्यन्ते यास्तास्तथा, 'तिनी'त्यादि 'कामाणं'ति यावत्कण्ठ्यं, उक्तं च- "तिर्यञ्चो मानवा देवाः केचित् कान्तानुचिन्तनम् । मरणेऽपि न मुञ्चन्ति सद्योगं योगिनो यथा ॥ १ ॥" तदेवमेतावता ग्रन्थेनाब्रह्मकारिणो दर्शिताः । अथ यथा तत्क्रियते तत्फलं च तदेवं द्वारद्वयं युगपद् दर्शयितुमाह मेहुणसनासंपगिद्धा य मोहभरिया सत्थेहिं हणंति एकमेकं विसयविस उदीरएस, अवरे परदारेहिं हम्मंति विसुनिया धणमासं सयणविष्पधासं च पाउणंति, परस्स दाराओ जे अविरया मेहुणसन्नसंपगिद्धा य मोहरिया अस्सा हस्थी गया व महिला मिगा य मारेति एकमेकं मणुयगणा वानरा य पक्खी य विरुत्ति, मिसाणि लिप्यं भर्चत्ति सत्तू समये धम्मे गणे व निंदंति पारदारी, धम्मगुणरया य बंभयारी खणेण raige परिक्षाओ जसमन्तो मुल्या य पात्रेति अन्यसकित्ति रोगत्ता वाहिया पवहिंति रोयवाही, दुबे य For Parts Only ~ 172~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [२०] प्रश्नव्याक र० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ ८५ ॥ “प्रश्नव्याकरणदशा” Eucator Internation अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [ ४ ] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः - लोया दुआराहगा भवंति - इहलोए चेव परलोए परस्स दाराओ जे अविरया, तहेव केइ परस्स दारं गवेसमाण गहिया हया व बद्धरुद्धा य एवं जाव गच्छेति विपुलमोहाभिभूयसन्ना, मेहुणमूलं च सुब्बए तत्थ तत्थ वतपुत्रा संगामा जणक्खयकरा सीयाए दोवईए कए रुप्पिणीए पडमावईए ताराए कंचणाए रत्तसुभद्दा अहिलियाए सुवन्नगुलियाए किन्नरीए मुख्त्रविज्जुमतीए रोहिणीए य, अनेसु य एवमादिसुबहवो महिलाए सुव्वंति अइकंता संगामा गामधम्ममूला इहलोए ताव नहा परलोएवि य णट्टा महया मोहतिमिसंघकारे घोरे तस्थावरसुहुमबादरेसु पज्जत्तमपजत्तसाहारणसरीरपत्तेयसरीरेसु य अंडजपोतजजराज्यरस जसं सेइम संमुच्छिम उब्भिय उबवादिएस नरगतिरियदेवमाणुसेसु जरामरणरोगसोगबहुले पलिओमसागरोवमाई अणादीयं अणवदग्गं दीहमर्द्ध चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियईति जीवा मोहमसंनिविद्वा । एसो सो अवंभस्स फळविवागो इहलोइओ पारलोइओ य अप्पसुहो बहुदुक्खो महम्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चती, न य अवेदइत्ता अस्थि हु मोक्खत्ति, एवमाहंसु नायकुलनंदणो महत्या जिणो उ वीरवरनामधेज्जो कहेसी य अबंभस्त फलविवागं एवं तं अपि चत्थं सदेवमणुयासुरस्त लोगस्स पत्थणिज्जं एवं चिरपरिचियमणुगयं दुरंतं चत्थं अधम्मदारं समर्त्तति बेमि ४ ॥ ( सू० १६ ) 'मेहुणेत्यादि एतद्विभागश्च स्वयमूह्यः, तत्र मैथुनसंज्ञायां सम्प्रगृद्धा-आसक्ता ये ते तथा, मोहस्य-अ For Parts Only ~ 173~ ४ अधर्म द्वारे मैथुनफलं सू० १६ ।। ८५ ।। org Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ५ - प्रत सुत्रांक [१६] ज्ञानस्य कामस्य वा भृता मोहभृताः शस्त्रैः प्रन्ति 'एक्कमेकति परस्परेण 'विसयविस'त्ति सप्तम्याः षष्ठयर्थत्वाद्विषयविषस्य 'उईरएसुत्ति उदीरकेषु-प्रवर्तकेषु अपरे-केचन 'परदारेहिन्ति परदारेषु प्रवृत्ता इति गम्यते 'हम्मत'त्ति हन्यन्ते परैः 'विसुणियत्ति विशेषेण श्रुताः-विज्ञाताः सन्तो धननाशं स्वजनविप्रणाशं च 'पाउणंति' प्रामुवन्ति, राज्ञः सकाशादिति गम्यते, "परस्स दाराओ जे अविरय'त्ति परस्य दारेश्यो येडविरताः, तथा मैथुनसंज्ञासम्पगृद्धाच मोहभृताः अश्वा हस्तिनो गावश्च महिषा मृगाश्च मारयन्ति 'एकमे-14 कति परस्परं तथा मनुजगणाः वानराश पक्षिणश्च विरुध्यन्ते-विरुडा भवन्ति, एतदेवाह-मित्राणि क्षिप्रं भवन्ति शत्रवः, आह च-"सन्तापफलयुक्तस्य, नृणां प्रेमवतामपि । बद्धमूलस्य मूलं हि, महद्वैरतरोः शाखियः ॥१॥” समयान्-सिद्धान्तार्थान् धर्मान-समाचारान् गणांश्च-एकसमाचारजनसमूहान भिन्दन्ति व्यभिचरन्ति परदारिणः-परकलबासक्ताः, उक्तं च-“धर्म शीलं कुलाचारं, शौर्य स्नेहं च मानवाः । तापावदेव अपेक्षन्ते, यावन्न स्त्रीवशो भवेत् ॥१॥" धर्मगुणरताच ब्रह्मचारिणः क्षणेन-मुहलेनैव 'उलोहए'ति|| अपवर्त्तन्ते चरित्रात्-संयमात् मैथुनसंज्ञासम्प्रगृद्धा इति वर्तते, आह च-"श्लथसद्भावनाधर्मा, स्त्रीविKलासशिलीमुखैः । मुनियोंद्धो हतोऽधस्तानिपतेत्शीलकुञ्चरात् ॥१॥" 'जसमंतत्ति यशखिनः सुव्रताश्च प्रा मुवन्त्यकीत्ति, आह च-"अकीर्तिकारणं योषित्, योषिद्वैरस्य कारणम् । संसारकारणं योषित्, योषितं वर्जयेत् ततः ॥१॥" कचिदयश कीर्तिमिति पाठः, तत्र सर्वदिग्गामि यशः एकदिग्गामिनी कीर्तिरिति दीप अनुक्रम [२०]] ~174 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [२०] “प्रश्नव्याकरणदशा” प्रक्षव्याक र० श्रीअ भयदेव० वृत्ति: अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [ ४ ] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education International - ॥ ८६ ॥ विशेषः, यशसा सह कीर्त्तिरिति समासः तनिषेधस्त्वयशः कीर्त्तिस्तां, रोगार्त्ताः- ज्वरादिपीडिता व्याधिताच -कुष्ठाद्यभिभूता प्रवर्द्धयन्ति वृद्धिं नयन्ति रोगव्याधीन परदारेभ्योऽविरता इनि सम्बन्धः, आह च - "वर्जयेद्विदलं शूली, कुष्ठी मांसं ज्वरी घृतम् । द्रवद्रव्यमतीसारी, नेत्ररोगी व मैथुनम् ॥ १ ॥" तथा "व्रणैः श्वयथुराॐ पासात्स च रोग जागरात् । तौ च रुक्तं (भङ्गो) दिवाखापात, ते च मृत्युश्च मैथुना ॥ २ ॥ दिति, द्वावपि * लोको-जन्मनी दुराराधौ भवतः, तावेवोच्येते - इहलोकः परलोकश्च केषामित्याह- परस्य दारेभ्यः - कलनाद् ४ ये अविरताः- अनिवृत्ताः, आह च-परदारानिवृत्तानामिहा कीर्तिर्बिडम्बना । परत्र दुर्गतिप्रासिदौर्भाग्यं प ण्डता तथा ॥१॥" तथैव किंचेत्यर्थः केचित् परस्य दारान् गवेषयन्तः गृहीताश्च हताश्च बद्धरुद्धाश्च एवं 'जाव * गच्छति ति इह यावत्करणात् तृतीयाध्ययनाधीतो 'गहिया य हया व बद्धरुद्धा य' इत्यादि 'नरये गच्छन्ति ॐ निरभिरामे' इत्येतन्दतः सुबहु ग्रन्थः सूचितः, स च सव्याख्यानस्तत एवावधार्यः किम्भूतास्ते नरयं गच्छन्ति ? - विपुलेन मोहेन-अज्ञानेन मदनेन बाऽभिभूता विजिता संज्ञा-संज्ञानं येषां ते तथा, तथा मैथुनं मूलं यत्र वर्त्तते तन्मैथुनमूलं क्रियाविशेषणमिदं, चः पुनरर्थः, श्रूयंते-आकर्ण्यते तत्र तत्र तेषु तेषु शास्त्रेषु वृत्ता-जाताः पूर्व-पूर्वकाले वृत्तपूर्वाः सङ्ग्रामाः बहुजनक्षयकरा रामरावणादीनां कामलालसानां, किमर्थमित्याह-शीताया द्रौपद्याश्च कृते निमित्तं, तत्र शीता जनकाभिधानस्य मिथिलानगरीराजस्य दुहिता वैदेहीनाम्न्यास्तद्भार्यायाः देहजा भामण्डलस्य सहजातस्य भगिनी विद्याधरोपनीतं देवताधिष्ठितं धनुः खयंवरमण्डपे नानाखे For Parts Only ~175~ ४ अधर्म द्वारे मैथुनफल सू० १६ ।। ८६ ।। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक [१६] चरनाकिनिकरसमक्षं अयोध्याभिधाननगरीनिवासिनो दशरथाभिधानस्य नरनायकस्य सुतेन रामदेवेन पद्मापरनामा बलदेवेन लक्ष्मणाभिधानवासुदेवज्येष्ठनात्रा स्वप्रभावेनोपशान्ताधिष्ठातृदेवतमारोपितगुणं वि-13 धाय प्राप्तसाधुवादेन महाबलेन परिणीता, ततो दशरथराजे प्रवित्रजिषी रामदेवाय राज्यदानार्धमभ्यस्थिते। भरताभिधाने च रामदेवस्य मात्रान्तरसम्बन्धिनि भ्रातरि प्रवजितुकामे भरतमात्रा पूर्वप्रतिपन्नवरयाचनोपायेन राज्ये भरताय दापिते बन्धुलेहाचाप्रतिपद्यमाने राज्यं भरतपितृवचनसल्यतार्थ भरतस्य राज्यप्रतिपत्त्यर्थं वनवासमुपाश्रितेन सलक्ष्मणेन रामेण सह वनवासमधिष्ठिता, ततश्च लक्ष्मणेन कौतुकेन तत्र दण्डकारण्ये सञ्चरता आकाशस्थं खड्गरत्नमादाय कौतुकेनेव वंशजालिच्छेदे कृते छिन्ने च तन्मध्यवर्तिनि विद्यासाधनपरायणे रावणभागिनेये खरदूषणचन्द्रनखासुते संबुफाभिधाने विद्याधरकुमारे दृष्टा च तं पश्चात्तापमुपगतेन लक्ष्मणेनागत्य भ्रातुनिवेदितेऽस्मिन् व्यतिकरे एतद्व्यतिकरदर्शनकुपितायां चन्द्रनखायां पुनार रामलक्ष्मणयोर्दर्शनात् सञ्जातकामायां कृतकन्यारूपायां तत्प्रार्थनापरायां ताभ्यामनिष्टायां च पुत्रमारणादिव्यतिकरे च तया शोकरोषाभ्यां खरदूषणस्य निवेदिते तेन च वैरनिर्यातनोद्यतेन सह लक्ष्मणे योद्धमारब्धे ज्ञातभागिनेयमरणादिव्यतिकरण लङ्कानगरीत आकाशेन गच्छता रावणेन दृष्ट्वा दृष्ट्वा च तां तेन कुसुमशायकशरमसरविधुरितान्तःकरणेनागणितकुलमालिन्येन अपहसितविवेकरोन विमुक्तधर्मसंज्ञेन अनाकलितानर्थपरम्परेण विमुक्तपरलोकचिन्तेन जातशीतापहारबुद्धिना विद्यानुभावोपलन्धरामलक्ष्मणस्वरूपेण विज्ञात バババババババ दीप अनुक्रम [२०]] ~176~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक [१६] प्रश्नव्याक-नत्सत्कसिंहनादसङ्केतकरणेन लक्ष्मणसङ्ग्रामस्थाने गत्वा मुक्त सिंहनादे चलिते तदभिमुखे रामे एकाकिनी ४ अधर्म२० श्रीअ- सती अपहृता झिगिति नीता च लङ्कायां विमुक्ता गृहोद्याने प्रार्थिता च दशकन्धरेणानुकूलपतिकूलवाग्भिव- द्वारे भयदेव. हुशो न च तमिष्टवती, रामेण च सुग्रीवभामण्डलहनुमदादिविद्याधरवृन्दसहायेन महारणचिमई विधाय नाना- सीताद्रौपवृत्तिः विधानरेश्वरान्निहत्य दशवदनं च विनिपात्य नीता स्वगृहमिति । तथा द्रौपद्याः कृते सङ्ग्रामोऽभवत् , तथाहि- दीदृष्टान्तौ काम्पिल्यपुरे द्रुपदो नाम राजा बभूव, चुलनी च भार्या, तयोः सुता द्रौपदी धृष्टार्जुनस्य कनिष्ठा खयंवरम-| सू०१६ ॥८७॥ लण्डपविधिना हस्तिनागपुरनायकपाण्डराजपुत्रैयुधिष्ठिरादिभिः परिणीता, अन्यदा पाण्डुराजस्य कुन्तीभा या पाण्डवैद्रपद्या च परिवृतस्य सभायां नारदमुनिगगनादवततार अभ्युस्थितश्च सपरिवारेण पाण्डुना द्रौपद्या तु श्रमणोपासिकात्वेन मिथ्यादृष्टिमुनिरयमितिकृत्वा नाभ्युत्थितश्च ततोऽसौ तं प्रति द्वेषमागमत, अन्यदा चासौ धातकीग्वण्डे पूर्वभरतेऽमरकथाभिधानराजधान्याः पद्मनाभस्य नृपतेः सभायामवततार, तेन च कृताभ्युत्थानादिप्रतिपत्तिकः सन् पृष्टः-किमस्त्यन्यस्यापि कस्यचिदस्मदन्तःपुरनारीजनसमानो नारीजनः?, स पुनरुवाच-द्रीपचाः पादाङ्गुष्ठस्थापि समानो न रम्यतयाऽपमिति श्रुत्वा चैतजातानुरागोऽसौ तस्यां पूर्वसङ्गतिकदेवतासामर्थेन तामपहृतवान्, सा च तं प्रार्थनपरं परिपालय मां षण्मासान यावदिति प्रतिपाद्य षष्ठभक्तैरात्मानं भावयन्ती तस्थौ, ततो हस्तिनागपुरादायातया पाण्डवमात्रा द्वारिकावत्यां कृष्णाय तदपहारे निवेदिते कृष्णेन च नारदमुनेः सकाशात् पद्मनाभराजमन्दिरे दृष्टैच मया द्रौपदीति तद्वार्तायां दीप अनक्रम [२०]] ~177~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [२०] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) - अध्ययनं [ ४ ] श्रुतस्कन्ध: [१], मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः लब्धाया लवणसमुद्राधिपतिं सुस्थितदेवमष्टमभक्तेनाराध्य कृष्णः समुद्रमध्येन तेन वित्तीर्णमार्गः पञ्चभिः पाण्डवैः सरथेः सहामरकङ्का राजधान्या बहिरुद्याने जगाम, सारथिप्रेषणेन पद्मनाभमादर्पितवान् सोऽपि सबलो योद्धुं निर्जगाम, पाण्डवेषु तेन पुनर्महायुद्धेन निर्मथितमानेषु कृतेषु कृष्णः स्वयं युद्धाय तेन सहोपतस्थौ, ततः केशवः पाञ्चजन्यशङ्खनादेन तत्सैन्यविभागं निर्मथितवान् त्रिभागं च शार्ङ्गगण्डीवदण्डप्रत्यञ्चाटङ्कारेण त्रिभागावशेषबले च पद्मनाभे प्राणभयानगरीप्रविष्टे कृतनरसिंहरूपेण जनार्दनेन पाददर्दरककरणतः स भग्नप्राकारगो पुराहालका पर्यस्तभवनशिखरा राजधानी कृता, ततस्तेन भयभीतेनागत्य प्रणम्य च द्रौपदी तस्य समर्पिता, स च तां पाण्डवानां समर्पितवान् तैः सहैव च स्वक्षेत्रमाजगामेति । तथा रुक्मिण्याः कृते सङ्ग्रामोऽभूत्, तथाहि - कुण्डिन्यां नगर्यो भीष्म नरपतेः पुत्रस्य रुक्मिणो नृपस्य भगिनी रुक्मिणी कन्या बभूव, इतश्च द्वारिकायां कृष्णवासुदेवस्य भार्या सत्यभामा, तद्वेदे च नारदः कदाचिदवततार, तया तु व्यग्रतया न सम्यगुपचरितः, ततः कुपितोऽसौ तां प्रति सापन्यमस्याः करोमीति विभाव्य कुण्डिनीं नगरीमु पगतः, रुक्मिण्या च प्रणतः सन् कृष्णस्य महादेवी भवेत्याशिषमवादीत्, कृष्णगुणांच तत्पुरतो व्यावर्णयन् तं प्रति तां सानुरागामकरोत्, तद्रूपं च चित्रपटे विलिख्य कृष्णस्य तदुपद तां प्रति तमपि साभिलापमकार्षीत्, ततः कृष्णो रुक्मिणं तां याचितवान्, रुक्मिणोऽपि न दत्तवान्, शिशुपालाभिधानं च महाबलं राजसूनुमानीय विवाहमारम्भितवान्, रुक्मिणीसत्या पितृष्वस्रा च कृष्णस्य रुक्मिण्यपहरणार्थी For Parts Only ~178~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] प्रश्नव्याकलेखो दत्तः, ततश्च रामकेशवी तां नगरीमागती, रुक्मिणी च पितृष्वना सह चेटिकापरिवृता देवतार्चन ४ अधर्म२० श्रीअ-13 ब्याजेनोयानमागता, कृष्णेन रथमारोपिता, ततस्ती द्वारिकाभिमुखी तां गृहीत्वा प्रचलितो, पूत्कृतं च चेटि- द्वारे भयदेव. काभिः निर्गती सदों चतुरङ्गसैन्यसमग्रौ रुक्मिणीव्यावर्त्तनार्थ रुक्मिशिशुपालमहाराजौ, ततो विनि- रुक्मिणीवृत्तिः वृत्त्य हलिना हलमुशलाभ्यां दिव्यास्त्राभ्यां चूर्णितं तहलं विमुक्ती कृच्छ्रजीवितौ शिशुपालरुक्मिणाविति । पद्मावती तथा पद्मावतीकृते सङ्कामोऽभूत्, तत्र अरिष्ठनगरे राममातुलस्य हिरण्यनाभाभिधाननराधिपस्य दुहिता प- दृष्टान्तौ ॥८८॥ मावती पभूष, तस्याश्च स्वयंवरमुपश्रुत्य रामकेशवावन्ये च राजकुमारास्तवाजग्मुः, ततथ 'पूएइ भाइणिजे सू०१६ विहीऍ सो तत्थ रामगोविंदे । रेवगनामो जेट्ठो भाया य हिरण्णनाभस्स ॥१॥ पिउणा सह पब्बाओ सो| तत्य नमिजिणस्स गयमोहो । तस्स य रेवयनामा रामा सीमा य बंधुमई ॥२॥ दुहियाओ पढम चिय दिनाओ आसि तेण रामस्स । तत्थ य सयंवरमी सबसि नरवरिंदाणं ॥ ३ ॥ पुरओचिय तं गेहद आहबकुसलाण कन्नगं कण्हो । जायं च पत्थिवेहिं जुज्झं सह जायवाणऽजलं ॥४॥ सब्बत्तो विद्दविओ मुहुनमित्तेण सम्बनरनाहो । रामो कन्नच उक्कं हरीवि पउमाईकनं ॥ ५॥ गहिउं ताहिं समेया समागया नियपुरवरे सब्बे'त्ति । [पूजपति भागिनेयौ विधिना स तत्र रामगोविन्दौ । रैवतनामा ज्येष्ठो भ्राता च हिरण्पनाभस्य ॥१॥ ॥ ८ ॥ पित्रा सह प्रबजितः स तत्र नमिजिनस्य (तीर्थे ) गतमोहः । तस्य च रैवतनानी रामा सीमा च बन्धुमती ॥२॥ दुहितरः प्रथममेव दत्ता आसन् रामाय । तत्र च वयंवरे सर्वेषां नरवरेन्द्राणाम् ।। ३ ॥ पुरत एव दीप अनुक्रम [२०]] --%%% %A5% ~179~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: -- - प्रत - - सुत्रांक - [१६] तां गृह्णाति युद्धकुशलानां कन्यकां कृष्णः । जातं च पार्थिवैयुद्धं सह यादवानामतुलं ॥४॥ सर्वतो विद्रुतो मुहर्तमात्रेण सर्वेनरनाथः । रामः कन्यकाचतुष्कं हरिरपि पद्मावतीकन्यां ॥ ५॥ गृहीत्वा 'लाभिः || समेताः समागता निजपुरवरे सर्वे ॥] तारायाः कृते सङ्क्रामोऽभवत्, तथाहि-किंकिन्धपुरे वालिसुग्रीवाभि-IN धानावादित्यरथाभिधानस्य विद्याधरस्य सुती वानरविद्यावन्तौ विद्याधरौ बभूवतुः, तत्र 'अभिमाणेण य वाली दाऊणियरस्स तं नियं रजं । सिद्धो कयपव्वजो सुग्गीवो कुणइ पुण रज्जं ॥१॥"[अभिमानेन च वाली मदत्त्वेतरस्मै तद् निजं राज्यं । सिद्धः कृतप्रव्रज्यः सुग्रीवः पुनः करोति राज्यम् ॥१] तस्य भार्या ताराभिAधाना बभूव, ततः कश्चित् खेचराधिपः साहसगत्यभिधानः तारापरिभोगलालसः सुग्रीवरूपं विधायान्तःपुरं प्रविवेश, तया च चिहै। प्रत्यभिज्ञाय निवेदिती जम्बुवदादिमन्त्रिमण्डलस्य, नच सुग्रीवदयमुपलभ्य किमिदमा* श्चर्यमिति विस्मयं जगाम, ततश्च-"निद्धाडिया य दोन्निवि पुराउते मंतिवग्गवयणेण । जुझंति मच्छरेण । यचलितो ण एस अलियसुग्गीवो ॥१॥ [निर्धारिती च द्वावपि पुराद मन्त्रिवर्गवचनेन । युध्यतो मत्सरेण च चलितो नैषोऽलीकसुग्रीवः ॥१॥] ततश्चासौ सत्यसुग्रीवो हनुमदभिधानस्य महाविद्याधरराजस्य गत्वा निवेदयति स्म, स स्वागत्य तयोविशेषमजानन्नकृतोपकार एव स्वपुरमगमत्, ततश्च लक्ष्मणविनाशितखरदूषणसम्बन्धिनि पाताललङ्कापुरे राज्यावस्थं रामदेवमाकलय्य शरणं प्रपन्नः, ततस्तेन सह गतः सलक्ष्मणो रामः किष्किन्धपुरे स्थितो बहिः कृतश्च सुग्रीवेण बाहुशब्दस्तमुपश्रुत्य समागतोऽसावलीकसुग्रीवो रथारूढो दीप + %न अनुक्रम [२०]] ने - --- - ~180 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [२०] अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], अध्ययनं [ ४ ] मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः "प्रश्नव्याकरणदशा" - ४ अधर्म द्वारे तारारतसुभद्रासु ॥ ८९ ॥ वर्णगुलि प्रश्नव्याक - १ रणरसिकः सन् तयोर्विशेषमजानंस्तद्वलं रामश्च स्थित उदासीनतया, कदर्थितः सुग्रीव इतरेण, रामस्य र० श्रीअ गत्वा निवेदितं सुग्रीवेण देव! तव पश्यतोऽप्यहं कदर्थितस्तेन रामेणोक्तं कृतचिह्नः पुनर्युद्धख, ततोऽसौ भयदेव० ॐ पुनर्युध्यमानो रामेण शरप्रहारेण पञ्चत्वमापादितः, सुग्रीवश्च तारया सह भोगान् बुभुजे इति । काञ्चनासंवृत्तिः * विधानकमप्रतीतमिति न लिखितं । तथा रक्तसुभद्रायाः कृते सङ्ग्रामोऽभूत्, तत्र सुभद्रा कृष्णवासुदेवस्य ॐ भगिनी, सा च पाण्डुपुत्रेऽर्जुने रक्तेतिकृत्वा रक्तसुभद्रोक्ता, सा च रक्ता सत्यर्जुनसमीपमुपगता, कृष्णेन च तद्विनिवर्त्तनाय बलं प्रेषिनं अर्जुनेन च तयोल्लासितरणरसेन तद्विजित्य सा परिणीता, कालेन च तस्या 谷 कादृष्टाजातोऽभिमन्युनामा महाबलः पुत्र इति । अहिनिका अप्रतीता । तथा सुवर्णगुलिकायाः कृते सङ्ग्रामोऽभूत, 8 न्ताः तथाहि सिन्धुसौवीरेषु जनपदेषु विदर्भकनगरे उदायनस्य राज्ञः प्रभावत्या देव्या: सत्का देवदत्ताभिधाना दास्यभवत् सा च देवनिर्मितां गोशीर्षचन्दनमयीं श्रीमन्महावीरप्रतिमां राजमन्दिरान्तर्वर्त्तिचैत्यभवन- 2 व्यवस्थितां प्रतिचरति स्म तद्वन्दनार्थे च श्रावकः कोऽपि देशान् सञ्चरन् समायातः, तत्र चागतोऽसौ रोगेणापदशरीरो जातः तया च सम्यक् प्रतिचरितः तुष्टेन च तेन सर्वकामिकमाराधितदेवतावितीर्ण गुटिकाशतमदायि, तथा चाहं कुब्जा विरूपा सुरूपा भूयासमिति मनसि विभाव्यैका गुटिका भक्षिता, तत्प्रभावात् सा सुवर्णवर्णा जातेति सुवर्णगुलिकेति नाना प्रसिद्धिमुपगता, ततोऽसौ चिन्तितवती-जाता मे ४ ॥ ८९ ॥ रूपसम्पद्, एतया च किं भर्तृविहीनया ?, तत्र तावदयं राजा पितृतुल्यो न कामयितव्यः, शेषास्तु पुरुषमा सू० १६ For Penal Use Only ~ 181 ~ waryru Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [२०] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) - श्रुतस्कन्ध: [१], अध्ययनं [ ४ ] मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Era त्रमतः किन्तैः ?, ततः उज्जयिन्याः पतिं चण्डप्रद्योतराजं मनस्याधाय गुटिका भक्षिता, ततोऽसौ देवतानुभावात्तां विज्ञाय तदानयनाय हस्तिरत्नमारुह्य तत्रायातः, आकारिता च तेन सा, तयोक्तम् आगच्छामि यदि | प्रतिमां नयसि, तेनोक्तं तर्हि श्वो नेष्यामि ततोऽसौ खनगरीं गत्वा तद्रूपां प्रतिमां कारयित्वा तामादाय तथैव रात्रावायातः, स्वकीयप्रतिमां देवतानिर्मितप्रतिमास्थाने विमुच्यतां सुवर्णगुलिकां च गृहीत्वा गतः, प्रभाते च चण्डप्रद्योतगन्ध हस्तिविमुक्तमूत्रपुरीषगन्धेन विमदान खहस्तिनो विज्ञाय ज्ञातचण्डप्रयोतागमोऽवगतप्रतिमा सुवर्णगुलिकानयनोऽसाबुदायनराजः परं कोपमुपगतो दशभिर्महाबलै राजभिः सहोज्जयिनीं प्रति प्रस्थितः, अन्तरा पिपासावाधित सैन्यत्रिपुष्करकरणेन देवतया निस्तारित सैन्योऽक्षेपेणोज्जयिन्या वहिः प्राप्तः, रथारूढश्च धनुर्वेद कुशलतया सन्नद्धहस्तिरत्नारूढं चण्डप्रयोतं प्रजिहीर्षुर्मण्डस्या भ्रमन्तं चलनतलशव्यथितहस्तिनो भुचि निपातनेन वशीकृतवान्, दासीपतिरिति ललाटपट्टे मयूरपिच्छेनाङ्कितवानिति । किनरी सुरूपविद्युन्मती चामतीता । तथा रोहिणीकृते सङ्ग्रामोऽभूत्, तथाहि -अरिष्ठपुरे नगरे रुधिरो नाम राजा मित्रा नाम देवी तत्पुत्रो हिरण्यनाभः दुहिता च रोहिणी, तस्या विवाहार्थ रुधिरेण स्वयंवरो घोषितः मिलिताश्च जरासन्धप्रभृतयः समुद्रविजयादयो नराधिपतयः उपविष्टाश्च यथायथं रोहिणी च घाश्या क्रमेगोपदर्शितेषु राजसु रागमकुर्वती सूर्यवादकानां मध्ये व्यवस्थितेन समुद्रविजयादीनामनुजेन देशान्तरसञ्चा| रिणा तत्रायातेन वसुदेवेन राजसूनुना पाणविकाकारं बिभ्रता-मुग्धमृगनयनयुगले! शीघ्रमिहागच्छ मैव For Parts Only ~ 182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: भयदेव प्रत सूत्रांक [१६] ४ अधर्म द्वारे रोहिणीदृष्टान्ताः सू०१६ प्रश्नच्याक,चिरयख । कुलविक्रमगुणशालिनि! त्वदर्थमहमागतो यदिह ॥१॥ इत्यक्षरानुकारिध्वनी प्रवादिते पणवे| र० श्रीअ- समुत्फुल्ललोचना सञ्जातानुरागा सरभसमुपश्रुत्य स्वहस्तेन वसुदेवस्य गले मालामवलम्बितवती, ततस्ते रा- जान ईशिल्यवितुद्यमानमानसा वसुदेवेन साई सङ्घामायोपतस्थुः, तेन च रणरङ्गरमिकेन सर्वान् विनिवृत्तिः |र्जित्य रोहिणी परिणीता, जातश्च तस्या रामाभिधानो बलदेवः सूनुरिति । अन्येषु च एवमादिकेषु-एवंप्रका- रेषु बहवः सट्टामा इति सम्बन्धः महिलाकृतेषु-स्त्रीप्रयोजनेषु श्रूयन्ते अतिक्रान्ता:-अतीताः सङ्घामाः ग्रा- मधर्ममूला:-विषयहेतवः, ते चाब्रह्मसेविन इहलोके तावन्नष्टाः परदाराभिगमनेनाकीर्तिप्राप्त तथा परलोके|ऽपि च नष्टाः, किम्भूता इत्याह-'महयामोहतमिसंधयारे'त्ति महामोह एव तमिस्रान्धकार-अत्यन्ततमो यत्र स तथा तत्र घोरे-दारुणे, केषु जीवस्थानेषु नष्टा इत्याह-त्रसस्थावरसूक्ष्मवादरेषु समयप्रसिद्धेषु पर्यासकापर्याप्तकसाधारणशरीरप्रत्येकशरीरेषु च समयप्रसिद्धेष्येव तथा अण्डजा-पक्षिमत्स्यादयः पोतमिव-वस्त्रमिव जरायुवर्जितत्वेन पोतादिव घा-बोधित्थादिव जाताः पोतजा-हस्त्यादयः ते च जरायु:-गर्भवेष्टनं तत्र जाताः जरायुजा:- मनुष्यादयः ते च रसे-तीमनारनालादी जाता रसजाः ते च संखेदेन निवृत्ताः संखेदिमा-यूकामत्कुणादयः ते च सम्मूच्र्छन निर्वृत्ताः सम्मृच्छिमा:-दर्दरादयस्ते च उद्भिद्य भुवं जाता उद्भिजा:-खानकादयः ते च उपपाते भवा औपपातिका देवनारकास्ते चेति द्वन्द्वोऽतस्तेषु च, एतानेव सङ्कहेणाह-नरकतिर्यग्देवमनुष्येषु जरामरणरोगशोकबहुले परलोके चेति प्रकृतं, कियन्तं कालं यावत्ते तत्र नष्टा भवन्ती दीप अनुक्रम [२०]] ॥९ ॥ ~183~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [४] ----------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: *5 प्रात्युच्यते-पल्योपमसागरोपमाणि बहूनीति गम्यते, तथा अनादिकमनवदग्रं अनन्तं, एतदेवाह-'दीहम ईति दीर्घाई-दीर्घकालं दीर्घाध्वं वा-दीर्घमार्ग चातुरंतं-चतुर्गतिकं संसारकान्तारं अनुपरिवर्तन्ते जीचा महामोहवशेन सन्निविष्टा अब्रमणि ये ते तथा, 'एसों' इत्यादि पूर्ववदिति ॥ चतुर्थमध्ययनं विवरणतः समाप्तमिति ।। प्रत *4 सुत्रांक [१६] दीप अथ पञ्चमाश्रवाध्ययनम् । अध पञ्चमं व्याख्यायते-अस्य चैवं पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने अब्रह्मखरूपमुक्तं, तच परिग्रहे सत्येव भवतीति परिग्रहखरूपमत्रोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं परिग्रहखरूपप्रतिपादनप्रस्तावनापरमादिसूत्रम् जंब! इत्तो परिग्गहो पंचमो उ नियमा णाणामणिकणगरयणमहरिहपरिमलसपुत्तदारपरिजणदासीदासभयगपेसहयगयगोमहिसउदृखरअयगवेलगसीयासगडरहजाणजुग्गसंदणसयणासणवाहणकुवियधणधन्नपाणभोयणाच्छायणगंधमल्लभायणभवणविहिं चेव बहुविहीयं भरह णगणगरणियमजणवयपुरवरदोणमुहखेडकब्बडमडंवसंबाहपट्टणसहस्सपरिमंडियं थिमियमेइणीयं एगच्छत्तं ससागरं भुंजिऊण वसुहं अपरिमिय अनुक्रम [२०]] 444% AAP प्र.व्या.१६ अत्र प्रथमे श्रुतस्कन्धे चतुर्थ अध्ययनं "अब्रह्म" परिसमाप्तं अथ प्रथमे श्रुतस्कन्धे पंचमं अध्ययनं "परिग्रह आरभ्यते "परिग्रहः” - नामक पंचमं अधर्मद्वारं परिग्रहस्य स्वरूपं ~184 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [9] ----------------------- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: % % प्रत सूत्रांक वृत्तिः [१७]] प्रश्वब्याकमणंततःहमणुगयमहिच्छसारनिरयमूलो लोभकलिकसायमहक्खंधो चिंतासयनिचियविपुलसालो गारव ५अधर्मर० श्रीअ पविरलियग्गविडवो नियडितयापत्तपल्लवधरो पुप्फफलं जस्स कामभोगा आयासविसूरणाकलहपकंपि- | द्वारे भयदेव यग्गसिहरो नरवतिसंपूजितो बहुजणस्स हिययदइओ इमस्स मोक्खवरमोत्तिमग्गस्स फलिहभूओ चरिम परिग्रहअहम्मदार (सू०१७) स्वरूपं ॥११॥ 'जंबू इत्यादि, जम्बूरिति शिष्यामन्त्रणं, 'एत्तोत्ति इतश्चतुर्थाश्रवद्वारादनन्तरं परिग्रहणं परिगृह्यत इति | सू० १७ टेवा परिग्रहः, इह च परिग्रहशब्दोपादानेऽपि वक्ष्यमाणविशेषणान्यथानुपपत्त्या परिग्रहतरुरिति द्रष्टव्यं, प श्चमस्तु-पञ्चमः पुनराश्रवो भवतीति गम्यते, पञ्चमत्वं चास्य सूत्रक्रमाश्रयणात्, नियमात्-निश्चयेन नान्यः |पञ्चमत्वमाश्रवाणां मध्ये लभते, कथंभूतोऽसावित्याह-नानामणी'त्यादि, तत्र नानामण्यादिविधि भारत वसुधां च भुक्त्वापि या अपरिमिताऽनन्ता तृष्णा अनुगता च महेच्छा सैव मूलं यस्य परिग्रहतरोः स तथेति सम्बन्धः, तत्र नानाविधा ये मणया-चन्द्रकान्तायाः कनकं च-सुवर्ण रत्नानि च-कर्केतनादीनि महाहेपरिमला:-महाईमुगन्धद्रव्यामोदा ये सपुत्रदारा:-सुतयुक्तकलबाणि ते च परिजनश्च--परिवार दासीदासाच-चेटीचेटाः भृतकाश्च-कर्मकराः प्रेष्याश्च-प्रयोजनेषु प्रेषणीयाः हयगजगोमहिषउष्ट्रखरअजगवेलकाश्च प्रतीता: शियिकाश्च-कूटाच्छादितजम्पानविशेषाः शकटानि च-गच्या रथाश्च-प्रतीताः यानानि च- ॥९१ ॥ गत्रीविशेषाः युग्यानि च-वाहनानि गोल्लदेशप्रसिद्धजम्पानविशेषाः स्पन्दनाश्च-रथविशेषाः शयनासनानि 2-14-04-0% दीप अनुक्रम [२१] 4-04- परिग्रहस्य स्वरूप ~185 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [9] ----------------------- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 4 प्रत सूत्रांक [१७]] दीप अनुक्रम [२१] पाच प्रतीतानि वाहनानि च-यानपात्राणि 'कुविय'त्ति कुप्यानि च गृहोपस्कराः खटा-तूल्यादयः धनानि च गणिमादीनि धान्यपानभोजनाच्छादनगन्धमाल्यभाजनभवनानि च प्रतीतानीति द्वन्द्वस्ततस्तेषां विधिः-कार्य साध्यमिति तत्पुरुषः अतस्तं चैव बहुविधिक-अनेकप्रकार, तथा भरत-क्षेत्र विशेषं नगा:-पर्वताः नगराणिकरवर्जितानि निगमा-चणिजां स्थानानि जनपदा-देशाः पुरवराणि-नगरैकदेशभूतानि द्रोणमुखानि-जलस्थलपथोपेतानि खेटानि-धूलीप्राकारोपेतानि कर्बटानि-कुनगराणि मडम्बानि-दूरस्थवसिमान्तराणि सं- बाहाः- स्थापन्यः पत्तनानि-जलस्थलपथयोरन्यतरयुक्तानि तेषां यानि सहस्राणि तैर्मण्डितं यत्तत्तधा, स्तिमितमेदिनीक-निर्भयमेदिनीनिवासिजनं एकच्छन्न एकराजकमित्यर्थः ससागरं समुद्रान्तमित्यर्थः भुक्त्वापरिभुज्य तथा वसुधां-पृथिवीं भरतैकदेशभूतां च भुक्त्वा एतभोगेऽपीत्यर्थः 'अपरिमियमणंतण्हमणुगयमहेच्छसारनिरयमूलो'त्ति अपरिमितानन्ता-अत्यन्तानन्ता तृष्णा-प्राप्तार्थसंरक्षणरूपा या चानुगता-सन्तता महती चेच्छा-अप्राप्तार्थाभिलाषरूपा ते एव साराणि-अक्षय्याणि निरयानि-निर्गतशुभफलानि मूलानि-जदा यस्य परिग्रहतरोः अथवा अपरिमिताऽनन्ततृष्णया या अनुगता महेच्छा सारा निरया च-नरकहेतुर्विशिष्टवेगा वा सैव मूलं यस्य स तथा, इह च मकारी प्राकृतशैलीप्रभवी एवंविधसमासश्चेति, लोभः प्रतीतः कलि:-सङ्ग्रामः कषाया:-क्रोधमानमाया एत एच महान् स्कन्धो यस्य स तथा, इह च कषायग्रहणेऽपि यल्लोभग्रहणं तत्सस्य प्रधानत्वापेक्षं, तथा चिन्ताश्च-चिन्तनानि आयासाच-मनाप्रभृतीनां खेदाःत %ACCORCESCO % 15 SARERainintennatana परिग्रहस्य स्वरूप ~186~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [9] ----------------------- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक मापरिग्रह [१७] दीप अनुक्रम प्रश्नव्याक-एव पाठान्तरेण चिन्ताशतान्येव निचिता-निरन्तरा विपुला:-विस्तीर्णा शाला:-शाखा यस्य स तथा, तथालीप अधर्म 'गारवत्ति गौरवाणि-ऋद्यादिष्वादरकरणानि तान्येव 'पविरल्लियत्ति विस्तारवत् अग्रविटपं-शाखामध्य- काद्वारे भयदेव भागाम्यं विस्ताराग्रं वा यस्य स तथा, पाठान्तरे गौरवप्रविरेल्लिताग्रशिखरः, तथा 'नियडितयापत्तपल्लवधरो निकृतयः-अत्युपचारकरणेन वञ्चनानि मायाकर्माच्छादनार्थानि वा मायान्तराणि ता एव त्वक्पत्रपल्लवास्तान् धारयति यः स तथा, पल्लवाश्चेह कोमलं पत्रं, तथा पुष्पं फलं 'जस्स कामभोग'त्ति प्रतीतमेव, तथा 'आयासविसूरणाकलहपकंपियग्गसिहरों' आयासः-शरीरखेदः विसूरणा-चित्तखेदः कलहो-वचनभण्डनं एत एव प्रकम्पितं-प्रकम्पमानमग्रशिखरं-शिखराग्रं यस्य स तथा, नरपतिसंपूजितो बहुजनस्य हृदयदयित इति च प्रतीतं, अस्य-प्रत्यक्षस्य मोक्षवरस्य-भावमोक्षस्य मुक्तिरेच-निर्लोभतेव मार्गः-उपायो मोक्षवरमुक्तिमार्गः तस्य परिघभूत:-अर्गलोपमो मोक्षविघातक इतियावत् चरममधर्मद्वारं व्यक्तं । अनेन च यादृश इतिद्वारमुक्तं, अथ यन्नामेत्युच्यते तस्स य नामाणि इमाणि गोण्णाणि होति तीसं, तंजहा-परिग्गहो १ संचयो २ चयो ३ उपचओ ४ निहाण ५ संभारो ६ संकरो ७ आयरो ८ पिंडो ९ दब्बसारो १० तहा महिच्छा ११ पडिबंधो १२ लोहप्पा १३ महदी १४ उपकरण १५ संरक्खणा य १६ भारो १७ संपाउपायको १८ कलिकरंडो १९ पवित्थरो ॥ ९२॥ २० अणत्थो २१ संथवो २२ अगुत्ती २३ आयासो २४ अविओगो २५ अमुत्ती २६ तण्हा २७ [२१] Marainrary on परिग्रहस्य स्वरूपं परिग्रहस्य त्रिंशत् नामानि ~187~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------------ अध्ययनं [9] ----------------------- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८] दीप अनुक्रम • अणथको २८ आसत्ती २९ असंतोसोत्तिविय ३०, तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेजाणि होति तीस (सू०१८) तस्य च नामानीमानि गौणानि भवन्ति त्रिंशत्, तद्यथा-परिगृह्यत इति परिग्रहः-शरीरोपध्यादिः परिग्रहणं वा परिग्रहः-स्वीकारः१ संचीयत इति सञ्चयनं वा सञ्चयः २ एवं चयः ३ उपचयो ४ निधानं ५ सभ्रियते-धार्यते सम्भरणं वा-धारणं सम्भारः ६ सङ्कीर्यते सङ्करणं वा-सम्पिण्डनं सङ्करः ७ एचमादरः ८ पिण्डः पिण्डनीय पिण्डनं वा ९ द्रव्यसारो-द्रव्यलक्षणसारः १० तथा महेच्छा-अपरिमितवाञ्छा ११ प्रति-|| बन्धः-अभिष्वङ्गः१२ लोभात्मा-लोभखभावः१३ महती इच्छा, कचित् 'महद्दीति पाठः तत्र 'अई गती याचने चेति वचनादर्दिः-याचा महती-ज्ञानोपष्टम्भादिकारणविकलस्वादपरिमाणा अमिहार्दिः १४ उपकरणं I-उपधिः१५ संरक्षणा-अभिष्वङ्गवशाच्छरीरादिरक्षण १६ भारो-गुरुताकरणं १७ सम्पातानां-अनर्थमली 14 &ाकानामुत्पादकः संपातोत्पादकः १८ कलीना-कलहानां करण्ड इव-भाजनविशेष इव कलिकरंट: १९ प्र-15 विस्तारो-धनधान्यादिविस्तारः २० अनर्थ:-अनर्थहेतुत्वात् २१ संस्तवः-परिचयः स चाभिष्वङ्गहेतुत्वाल्परिग्रहः २२ अगुप्ति:-इच्छाया अगोपनं २३ आयासः-खेदः तद्धेतुत्वात्परिग्रहोऽप्यायास उक्तः, आह च-"वह-18 बंधणमारण [सेहणाउ काओ परिग्गहे नत्थि? | तं जड़ परिग्गहुचिय जइधम्मो तो नणु पवंचो॥१॥ विधवन्धनमारणशिक्षणाः काः परिग्रहे न सन्ति । तथापि यदि परिग्रह एव तर्हि यतिधर्मो ननु प्रपनः॥१॥]] [२२] ForBaramaLEPHEROIN wwwjangala परिग्रहस्य त्रिंशत् नामानि ~188~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ----------------------- अध्ययनं [५] ----------------------- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ५ अधर्म द्वारे परिग्रह कारकाः परिग्रहफलंच [१८] ॥१३॥ सू०१९ दीप अनुक्रम प्रश्नब्याक- गाहा” अवियोगो-धनादेरत्यजनं २६ अमुक्तिः-सलोभता २६ तृष्णा-धनाद्याकाङ्क्षा २७ अनर्थक:-परमार्थ- र० श्रीअ- वृत्त्या निरर्थकः २८ आसक्ति:-धनादावासः २९ असन्तोषः ३० इत्यपि च तस्य-परिग्रहस्य एतानि-प्रत्य- भयदेव हक्षाणि एचमादीनि उक्त कारवन्ति नामधेयानि भवन्ति त्रिंशदिति । अथ ये परिग्रहं कुर्वन्ति तानाहवृत्तिः तं च पुण परिग्गहं ममायंति लोभत्था भवणवरविमाणवासिणो परिग्गहरुती परिग्गहे विविहकरणबुद्धी देवनिकाया य असुरभुयगगरुलविजुजलणदीवउदहिदिसिपवणथणियअणवंनियपणवंनियइसिवातियभूतवाइयकंदियमहाकंदियकुहंडपतंगदेवा पिसायभूयजक्खरक्खसकिंनरकिंपुरिसमहोरगगंधव्या य तिरियवासी पंचविहा जोइसिया य देवा वहस्सतीचंदसूरसुक्कसनिच्छरा राहुधूमकेउबुधा य अंगारका य तत्ततवणिजकणयवण्णा जे य गहा जोइसम्मि चारं चरंति केऊ य गतिरतीया अट्ठावीसतिविहा य नक्खत्तदेवगणा नाणासंठाणसंठियाओ य तारगाओ ठियलेस्सा चारिणो य अविस्साममंडलगती उपरिचरा उहुलोगवासी दुविहा बेमाणिया य देवा सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंदबंभलोगलंतकमहामुकसहस्सारआणयपाणयआरणमया कप्पवरविमाणवासिणो सुरगणा गेवेजा अणुत्तरा दुविहा कप्पातीया विमाणवासी महिहिका उत्तमा सुरवरा एवं च ते चम्विहा सपरिसावि देवा ममायंति भवणवाहणजाणविमाणसयणासणाणि य नाणाविहवत्थभूसणा पवरपहरणाणि य नाणामणिपंचवन्नदिव्वं च भायणयिहिं नाणाविहकामरूवे वेउन्वितअच्छरगणसंघाते दीवसमुद्दे दिसाओ विदिसाओ चेतियाणि वणसंडे पवते य गामनगराणि य आरामुजाणकाण. Check [२] ॥ ९३॥ | परिग्रहस्य त्रिंशत् नामानि ~189~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------ अध्ययनं [9] ------------------ मूलं [१९-२०] + वृत्ति: गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९-२० + वृत्ति : गाथा: णाणि य कूवसरतलागवाविदीहियदेवकुलसभष्पववसहिमाइयाई बहुकाई कित्तणाणि य परिगेण्हित्ता परिग्गहं विपुलदब्बसारं देवावि सईदगा न तित्तिं न तुहिँ उवलभंति अञ्चंतविपुललोभाभिभूतसत्ता वासहरइक्खुगारवट्टपब्बयकुंडलरुचगवरमाणुसोत्तरकालोदधिलवणसलिलदहपतिरतिकर अंजणकसेलदहिमुहवपातुपायकंचणकचित्तविचित्तजमकवरसिहरकूडवासी वक्खारअकम्मभूमिसु सुविभत्तभागदेसासु कम्मभूमिसु, जेऽवि य नरा चाउरंतचकवट्टी वासुदेवा बलदेवा मंडलीया इस्सरा तलवरा सेणावती इभा सेट्ठी रट्ठिया पुरोहिया कुमारा दंडणायगा माडंबिया सत्थवाहा कोडंबिया अमच्चा एए अन्ने य एवमाती परिग्गहं संचिगंति अणंतं असरणं दुरंतं अधुवमणिचं असासयं पावकम्मनेम्म अवकिरियब्बं विणासमूलं यहवंधपरिकिलेसबहुलं अणंतसंकिलेसकारणं, ते तं धणकणगरयणनिचयं पिंडिता चेव लोभधत्था संसारं अतिवयंति सब्वदुक्खसंनिलयणं, परिग्गहस्स य अड्डाए सिप्पसयं सिक्खए बहुजणो कलाओ य चावत्तरि सुनिपुणाओ लेहाइयाओ सणरुयावसाणाओ गणियप्पहाणाओ चउसद्धिं च महिलागुणे रतिजणणे सिप्पसेवं असिमसिकिसिवाणिज्जं ववहारं अस्थइसत्थच्छरुप्पवा(ग)यं विविहाओ य जोगजुंजणाओ अन्नेसु एवमादिएसु बहूसु कारणसएसु जावज्जीवं नडिजए संचिणंति मंदबुद्धी परिग्गहस्सेव य अट्टाए करति पाणाण वहकरणं अलियनियडिसाइसंपओगे परदब्वअभिज्जा सपरदारअभिगमणासेवणाए आयासविसूरणं कलहभंडणवे. राणि य अवमाणणविमाणणाओ इच्छामहिच्छप्पिवाससतततिसिया तण्हगेहिलोभत्था अत्ताणा अणिग्ग दीप अनुक्रम [२३-२९] ~190~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------ अध्ययनं [9] ------------------ मूलं [१९-२०] + वृत्ति: गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ५अधर्मद्वारे सूत्रांक प्रश्वव्याक र०श्रीअभयदेव. वृत्तिः परिग्रह [१९-२०] कारकाः ॥१४॥ परिग्रहफलंच + वृत्ति : गाथा: १९७ %A5%ॐॐ हिया करेंति कोहमाणमायालोभे अकित्तणिजे परिग्गहे चेव हॉति नियमा सल्ला दंडा य गारवा य कसाया सन्ना य कामगुणअण्हगा य इंदियलेसाओ सयणसंपओगा सचिसाचित्तमीसगाई दवाई अणंतकाई इच्छंति परिपे सदेवमणुयासुरम्मि लोए लोभपरिग्गहो जिणवरेहिं भणिओ नस्थि एरिसो पासो पडिबंधो अस्थि सम्बजीवाणं सब्बलोए (सू० १९) परलोगम्मि य नट्ठा तमं पविट्ठा मयामोहमोहियमती तिमिसंधकारे तसथावरसुहुमबादरेसु पजत्तमपजत्तग एवं जाव परिय१ति दीहमखं जीवा लोभवससंनिविट्ठा । एसो सो परिग्गहस्स फलविवाओ इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महन्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ, न अवेतित्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति, एवमाहंसु नायकुलनदणो महप्पा जिणो उ धीरवरनामधेजो कहेसी य परिग्गहस्स फलविवागं । एसो सो परिग्गहो पंचमोउ नियमा नाणामणिकणगरयणमहरिह एवं जाव इमस्स मोक्खवरमोत्तिमग्गस्स फलिहभूयो चरिमं अधम्म दार समत्तं ॥ (सू०२०) तं च पुनः परिग्रहं 'ममायति'सि ममेत्येवं मूळवशात् कुर्वन्ति ममायन्ते-स्वीकुर्वन्ति, शब्दादेराकृतिगणत्वाचाया, लोभग्रस्ता भवनवरविमानवासिन इति च व्यक्तं, परिग्रहरुचयः सन् परिग्रहो रोचते येषां ते इत्यर्थः, परिग्रहे विविधकरणबुद्धयः-असन्तं परिग्रह विविधं चिकीर्षव इत्यर्थः, देवनिकाया वक्ष्यमाणा ममायन्त इति प्रकृतं, असुरा:-असुरकुमारा: भुजगा:-नागकुमारा: गरुडा:-गरुडध्वजत्वात् सुपर्णकुमारा: दीप अनुक्रम [२३-२९] ॥१४॥ ~191 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------ अध्ययनं [9] ------------------ मूलं [१९-२०] + वृत्ति: गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९-२० R + वृत्ति : गाथा: -5 'विजु'त्ति विद्युत्कुमाराः 'जलणत्ति अग्निकुमाराः 'दीव'त्ति द्वीपकुमाराः 'उदाहित्ति उदधिकुमाराः 'पवण'त्ति वायुकुमाराः 'विसि'त्ति दिकुमाराः 'धणिय'त्ति स्तनितकुमाराः एते भवनपतिभेदाः, अणपन्निकाः१ |पणपन्निकाः २ ऋषिवादिकाः ३ भूतवादिकाः ४ऋन्दिता ५ महाक्रन्दिताः ६ कूष्माण्डा: ७ पतका देवाः८ एते व्यन्तरनिकायोपरिवर्तिनो व्यन्तरप्रकारा अष्टौ निकायाः, एतेषां चासुरादीनां द्वन्द्वः, तथा पिशाचादयोऽष्टी व्यन्तरभेदाः, तथा तिर्यग्वासिन इति व्यन्तराणां वा विशेषणं, तथा पञ्चविधा ज्योतिष्काश्च देवाः चन्द्रादयः प्रसिद्धा एव तथा बृहस्पतिचन्द्रसूर्येशुक्रशनैश्चराः राहधूमकेतुबुधाच अङ्गारकाध एते ग्रहविशेषाः प्रतीता एव तप्ततपनीयकनकवर्गा:-निर्मातेन रक्तवर्णेन च हेम्ना तुल्यवर्णी इत्यर्थः, 'जे य गह'त्ति ये चान्ये उक्तव्यतिरिक्ता ग्रहा व्यालकादयो ज्योतिषे-ज्योतिश्चक्रे चार-चरणं चरन्ति-आचरन्ति केतवश्व-13 ज्योतिष्कविशेषाः, किम्भूताः?-गतिरतयः तथा अष्टाविंशतिविधाश्च नक्षत्रदेवगणा:-अभिजिदादयः। तथा नानासंस्थानसंस्थिताच तारकाः स्थितलेइया:-अवस्थितलेश्याः अवस्थितदीप्तयो मनुष्यक्षेत्राहियवस्थितत्वात्तासां तथा 'चारिणो यत्ति चारिण्यश्च मनुष्यक्षेत्रान्तः सञ्चरिष्णवः, कधम्भूताश्चारिण्यः ?|अविश्रामा:-अविश्रान्ता मण्डलेन-चक्रवालेन गतिर्यासांता अविश्राममण्डलगतयः उपरिचरा:-तिर्यग्लोकस्योपरितमभागवर्त्तिन्यः, तथा ऊर्द्धलोकवासिनो द्विविधा वैमानिकाश्च देवाः कल्पोपपन्नकल्पातीतभेदात्, तत्र कल्पोपपन्ना द्वादशधा, तानाह–'सोहम्मी'त्यादि कण्ठ्यं, द्विविधाश्च कल्पातीताः, एतदेवाह-'गेविजेर 5 दीप अनुक्रम [२३-२९] - ~192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------ अध्ययनं [9] ------------------ मूलं [१९-२०] + वृत्ति: गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९-२०] २०श्रीअभयदेव वृत्तिः अधर्मद्वारे परिग्रहकारकाः परिग्रहफलंच सू०१९ ॥९५॥ + वृत्ति : गाथा: त्यादि कण्ठ्यं च, प्रकृतं निगमयन्नाह--'एवं च ते' इत्यादि कण्ठ्यं । यत्तन्ममायन्ते तदाह-'भवने त्यादि दा'सईदग'त्ति एतदन्तं कठ्यं च, नवरं भवनानि-भवनपतिगृहाणि गृहाण्येव वा चाहनानि-गजादीनि यानानि-शकटविशेषाः विमानानि-ज्योतिषकवैमानिकदेवसम्बन्धिगृहाणि यानविमानानि च-पुष्पकपालकादीनि नानामणीनां सम्बन्धी पश्चवर्णों दिव्यश्च यः स नानामणिपश्चवर्णदिव्यस्तं च भाजनविधि-भाजनजातं तथा नानाविधानि कामेन-खेच्छया रूपाणि येषां ते तथा विकुर्विता-वस्त्रादिभिः कृतविभूषा येऽप्सरोगणानां सातास्ते तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्तान्नानाविधकामरूपविकुर्विताप्सरोगणसंघातान, 'चेदयाणिति चैत्यवृक्षान् आरामादीनां विशेषः प्राग्वदवगन्तव्यः 'कित्तणाई ति की|ते-संशब्धते यैः कारपिता तानि कीर्त-| नानि-देवकुलादीन्येव तानि च ममायन्ते इति प्रकृतं, ततश्च परिगृह्य परिग्रहं, किम्भूतमित्याह-विपुलद्रव्यसारं-प्रभूतवस्तुप्रधानं 'देवावि सईदग'त्ति सइन्द्रका अपि देवाः, इन्द्रा देवाब किल महर्द्धयो वाञ्छिता-IN हार्थप्रासिसमर्था दीर्घायुषश्च भवन्ति न च ते तथाविधा अपि सन्तस्तुट्यादिकं लभन्ते कुतः पुनरितरे इति प्रतिपादनार्थ देवावि सईदगा इत्युक्तमिति, 'न तित्तिं न तुहि उवल भति'त्ति तृप्ति-इच्छाविनिवृत्तिं तुष्टिंतोषमानन्दं न लभन्ते अपरापरविशेषप्रात्याकाङ्खाबाधितत्वात्, किम्भूतास्ते इत्याह-अत्यन्तविपुललोभाभिभूता संज्ञा-संज्ञानं येषां ते तथा, वर्षधरेषु-हिमवदादिषु पर्वतेषु इषुकारेषु-धातकीखण्डपुष्करवरद्वीपार्द्धयोः पूर्वापरार्द्धकारिषु दक्षिणोत्तरायतेषु पर्वतविशेषेषु वृत्तपर्वतेषु-शब्दापातिविकटापात्यादिषु वर्तुलविजयाई CAKRA दीप अनुक्रम [२३-२९] ॥९५॥ ~193~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------ अध्ययनं [9] ------------------ मूलं [१९-२०] + वृत्ति: गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९-२० + वृत्ति : गाथा: पर्वतेषु कुण्डले-जम्बूद्वीपादेकादशकुण्डलाभिधानद्वीपान्तर्वतिनि कुण्डलाकारपर्वते रुचकवरे-जम्बूद्वीपात्रयोदशरुचकवराभिधानद्वीपान्ततिनि मण्डलाकारपर्वते तथा मानुषोत्तरे-मनुध्यक्षेत्रावारके मण्डलाकारप ते कालोदधौ-द्वितीयसमुन्द्रे 'लवण'त्ति लवणसमुद्रे 'सलिल'त्ति सलिलासु गङ्गादिमहानदीषु इदपतिषु-नदप्रधानेषु पद्ममहापद्मादिषु महादेषु रतिकरेषु-नन्दीश्वराभिभनाष्टमद्वीपचक्रवालविदिकचतुष्टयव्यवस्थितेषु चतुर्यु झल्लरीसंस्थितेषु पर्वतेषु अञ्जनकेषु-नन्दीश्वरचक्रवालमध्यवर्तिषु पर्वतेषु दधिमुखेषु-अञ्जनकचतुष्टयपार्श्ववर्निपुष्करिणीषोडशमध्यभागवर्तिषु षोडशवेव पर्वतेषु अवपाता:-येषु वैमानिका देवा अवपतन्ति अवपत्य च मनुष्यक्षेत्रादावागच्छन्ति उत्पाताश्च-येभ्यो भवनपतय उत्पत्य मनुष्यक्षेत्रं समागच्छन्ति ते चानेके तिगिञ्छिकूटादयस्तेषु काश्चनेषु-उत्तरकुरुमध्ये देवकुरुमध्ये च प्रत्येकं पञ्चानां महादानां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोः दशसु दशसु सर्वाग्रेण द्विशतीपरिमाणेषु काश्चनमयपर्वतेषु 'चित्तविचित्त'त्ति निषधाभिधानवपंधरप्रत्यासन्नयोः शीतोदाभिधानमहानाभयतटवर्तिनोश्चित्रविचित्रकूटाभिधानयोः पर्वतयोः 'जमगवरत्ति नीलवर्षधरप्रत्यासन्नयोः शीताभिधानमहानाभयतटवर्सिनोमकवराभिधानपर्वतयोः शिखरेषु-समुद्रमध्यवर्तिगोस्तूपादिपर्वतेषु कूटेपु च-नन्दनवनकूटादिषु वस्तुं शीलं येषां ते वर्षधरादिवासिनो देवा न लभन्ते तृप्तिमिति प्रक्रमः, तथा-'वक्खारअकम्मभूमीसुत्ति बक्षस्काराः-चित्रकूटाढ्यो विजयविभागकारिणः अकर्मभूमय:-हैमवतादिकभोगभूमया तासु ये वर्तन्त इति गम्यते, तथा सुविभक्तभागा देशा-जनपदा यासु दीप अनुक्रम [२३-२९] ~194~ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक |[१९-२०] - वृत्तिः गाथा: + दीप अनुक्रम |[२३-२९] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Education Internation अध्ययनं [५] मूलं [१९-२० ] + वृत्तिः गाथा: आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ॥ ९६ ॥ प्रश्नव्याक तासु कर्म्मभूमिषु-कृष्णादिकर्म्मस्थानभूतासु भरतादिकासु पञ्चदशपरिमाणासु, किमित्याह-पेऽपि च नरायर० श्रीअ- तुरन्तचक्रवर्त्तिनो वासुदेवा बलदेवाः प्रतीताः माण्डलिका - महाराजा ईश्वरा युवराजादयः भोगिका इत्यन्ये + भयदेव० २ तलवराः - कृत पहबन्धाः राजस्थानीयाः सेनापतयः सैन्यनायका इभ्या-यावतो द्रव्यस्योत्करेणान्तरितो हस्ती वृत्तिः न दृश्यते तावद्रव्यपतयः श्रेष्ठिनः -श्रीदेवतालङ्कृतशिरोवेष्टनकवन्तो वणिनायकाः राष्ट्रिका राष्ट्रचिन्तानियुक्तका: पुरोहिताः- शान्तिकर्मकारिणः कुमारा राज्याहीः दण्डनायकाः- तत्रपालाः माडम्बिका:- प्रत्यन्तरा ४ जानः सार्थवाहाः प्रतीताः कौटुम्बिका ग्राममहत्तराः सन्तो ये सेवका अमात्या- राजचिन्तका एते च उक्तलक्षणाः अन्ये चैवमादयः परिग्रहं सञ्चिन्वन्ति-पिण्डयन्ति, किम्भूतं ? - अनन्तं अपरिमाणत्वात् अशरणं आ पद्भ्यो रक्षणासमर्थत्वात् दुरन्तं पर्यवसानदारुणत्वात् अध्रुवं नावश्यंभाविनमादित्योदयवत् अनित्यं न नित्यमस्थिरत्वात् अशाश्वतं प्रतिक्षणं विशरारुत्वात् 'पावकम्मनेम्म'न्ति पापकर्मणां ज्ञानावरणादीनां मूलं 'अबकिरियध्वं ति जिनागमाञ्जमाञ्जितबुद्धिचक्षुषामवकरणीयं विक्षेपणीयं त्याज्यमितियावत् विशालमूलं वधबन्धपरिक्लेशबहुलं अनन्त क्लेश कारणमिति च कण्ठ्यं, नवरं सङ्क्लेशः - चित्ताविशुद्धिः, ते देवादयः तं धनकनकरत्ननिचयं पिण्डयन्तचैव लोभग्रस्ता संसारमतिपतन्ति अतिव्रजन्ति वा इति व्यक्तं किम्भूतं ?- सर्वदु:खानि सन्निलीयन्ते - आश्रितानि भवन्ति यत्र स तथा तं सर्वदुःखसन्निलयनमिति । अथ यथा परिग्रहः क्रियते तदाह-परिग्रहस्यैव चार्थाय शिल्पशतं शिक्षते बहुजन इति कण्ठ्यं, किन्तु शिल्प- आचार्योपदेश For Park Use Only ~195~ ५ अधर्म द्वारे परिग्रह कारकाः परिग्रह फलं च सू० १९२० ॥ ९६ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------ अध्ययनं [9] ------------------ मूलं [१९-२०] + वृत्ति: गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९-२० + वृत्ति : गाथा: माप्राप्यं चित्रादि कलाश्च-द्विसप्ततिः सुनिपुणा लेखादिकाः शकुनरुतावसानाः-शकुनरुतपर्यवसानाः गणित-1 प्रधाना इति व्यक्तं, तथा चतुःषष्टिं च महिलागुणान् , आलिङ्गनादीनामष्टानां क्रियाविशेषाणां वात्स्यायनाभिहितानां प्रत्येकमष्टभेदत्वाच्चतुःषष्टिमहिलागुणा भवन्तीति, गीतनृत्यादयो वा खीजनोचिता वात्स्यायनाभिहिताश्चतुःषष्टिरेवेति, तांश्च किंविधान् ?-रतिजननानिति प्रतीतं, तथा 'सिप्पसेवं'ति शिल्पेन सेवा-वृत्त्य|र्थिना राजादीनामवलगनं शिल्पसेवा तां शिक्षते इति सम्बन्धः, तथा 'असिमसिकिसिवाणिज्जति| 'असित्ति खडाभ्यासं 'मसित्ति मपीकृत्यमक्षरलिपिविज्ञानं ऋषि-क्षेत्रकर्षणकर्म वाणिज्य-वणिव्यवहार तथा व्यवहारं-विवादच्छेदनं 'अत्थसत्थईसत्थच्छरुप्पगयंति अर्थशास्त्रं-अर्थोपायप्रतिपादनं शास्त्रं राज-18 नीत्यादि ईसत्य'ति इशाख धनुर्वेदं सरूपगतं-क्षुरिकादिमुष्टिग्रहणोपायजातं विविधांच योगयोजनानबहुप्रकारांश्च वशीकरणादियोगान् परिग्रहाय शिक्षत इति प्रतीनं, तथा अन्येषु एवमादिकेषु-एवंप्रकारेषु । बहुषु कारणशतेषु-परिग्रहोपादानहेतुशतेषु अधिकरणभूतेषु प्रवर्त्तमाना इति गम्यं, यावजीवं-आजन्म 'नडिजए'त्ति बहुवचनार्थत्वादेकवचनस्य नव्यन्ते-बिनव्यन्ते, तथा सञ्चिन्वन्ति अबुद्धयो मन्दबुद्धयो वा दुष्टबुद्धियुक्ताः परिग्रहमिति प्रस्तुतं, तथा परिग्रहस्यैव चार्थाय कुर्वन्ति प्राणानां-जीवानां वधकरणं-हननक्रिया, तथा 'अलीकनिकृतिसातिसम्प्रयोगान्' तत्रालीक-मृषावादः निकृतिः-अत्यन्तादरकरणेन परवश्वमा सातिसम्प्रयोगो-विगुणद्रव्यस्य द्रव्यान्तरमीलनेन गुणोत्कर्षनमोत्पादनं 'परदब्वाभिजन'त्ति परधनलोभी दीप अनुक्रम [२३-२९] SAREauratonintamational ~196~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------- अध्ययनं [9] ------------------ मूलं [१९-२०] + वृत्ति: गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९-२०] + वृत्ति : गाथा: प्रश्नच्याक- परद्रव्याभिधानं वा, प्रथमान्तत्वं च प्राकृनत्वात्, तथा 'सपरदारगमणंसेवणाए आयासविसूरण ति खदा- अधर्मर० श्रीअ- रगमने आयासं-शरीरमनोव्यायाम कुर्वन्तीति प्रकृतं, परदारसेवनायां च विसूरण-अप्राप्तौ मनाखेदं प- द्वारे भयदेवरस्य वा मनःपीडां कुर्वन्तीति, कलह भण्डनवैराणि च तत्र कलहो-वाचिकः भण्डनं-कायिकं वैरं-अनुश- |परिग्रह दृत्तिः दयानुबन्धः, 'अपमानविमानना' तत्रापमाननानि-विनयभ्रंशाः विमानना:-कदर्थनाः, किंभूताः सन्तः कुर्व- कारकाः ॥९७॥ जन्तीत्याह-'इच्छमहिच्छपिवाससययतिसिय'त्ति इच्छा-अभिलाषमात्रं महेच्छा-महाभिलाषश्चक्रवादीना- परिग्रहमिव ते एव पिपासा-पानेच्छा तया सततं-संततं तृषिता येते तथा, तथा 'तण्हगेहिलोभघस्था' तृष्णा-14 .फलं च द्रव्याव्ययेच्छा गृद्धि:-अप्राप्तार्थाकाडा लोभा-चित्तविमोहनं तैर्ग्रस्ता-अभिव्याप्ता येते तथा 'अत्तणा अणि-15 सू०१९गहिय'त्ति आत्मना अनिगृहीता अनिगृहीतात्मान इत्यर्थः कुर्वन्ति क्रोधमानमायालोभानिति कण्ठ्यं, अकी-12 |र्तनीयान-निन्दितान, तथा परिग्रह एव च भवन्ति नियमाच्छ ल्यानि-मायादीनि त्रीणि दण्डाश्च-दुष्पणि-1 हितमनोवाकायलक्षणाः गौरवाणि च-ऋद्धिरससातगौरवरूपाणि कषायाः संज्ञाश्च प्रतीता, 'कामगुणअहैण्हगा यत्ति कामगुणा:-शब्दादयः पनत एव आश्रवाः-आश्रवद्वाराणि च ते च 'इंदियलेसाओ'त्ति इन्द्रि-IK याणि असंवृतानि लेश्यामाप्रशस्ता भवन्तीत्यर्थः, तथा 'सयणसंपओग'शि स्वजनसंप्रयोगान इच्छन्तीति || सम्बन्धः, सचित्ताचित्तमिश्रकाणि द्रव्याणि अनन्तकानि इच्छन्ति परिग्रहीतुं, तथा सदेवमनुजासुरलोके ॥ ॥९७॥ लोभात्परिग्रहो लोभपरिग्रहो नतु धर्मार्थपरिग्रहो जिनवरैर्भणितः यदुत नास्ति ईदृशः परिग्रहादन्यः पाशx 5 २० 2 दीप अनुक्रम [२३-२९] रत्र SAREauratonintentiational ~197~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------- अध्ययनं [9] ------------------ मूलं [१९-२०] + वृत्ति: गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९-२० + वृत्ति : गाथा: इव पाशो-धन्धनं प्रतिवन्धः-प्रतिबन्धस्थानमभिष्वङ्गाश्रय इत्यर्थः, तथा अस्ति सर्वजीवानां सर्वलोके परिग्रह इति गम्यं, अविरतिद्वारेण सूक्ष्माणामपि परिग्रहसंज्ञासद्भावादिति । यथा कुर्वन्तीत्युक्तं, अथ यादृशं । फल परिग्रहो ददाति तदुच्यने-'परलोगम्मि यत्ति परलोके च-जन्मान्तरविषये चशब्दादिहलोके च मष्टाः सुगतिनाशात् सत्पथभ्रंशाच 'तमं पविट्ठत्ति अज्ञानमग्नाः 'महयामोहमोहियमइति प्राकृतवान्महामोहेन-प्रकृष्टोदयचारित्रमोहनीयेन मोहितमतयः, किम्भूत इत्याह-तमिस्रा-रजनी तवज्ञानादन्धकारो यः स तमिस्रान्धकारस्तत्र, केषु जीवस्थानेषु नष्टा इत्याह-त्रसस्थावरसूक्ष्मवादरेषु 'पजत्तग' इह एवं यावत्कर-ह णादिदं दृश्यं 'पजत्तमपजत्तगसाहारणपत्तेयसरीरेसु य अण्डजपोतजजरायुजरसजसंसेइमसमुच्छिमउदिभतउववाइएसु य नरगतिरियदेवमणुस्सेतु जरामरणरोगसोगबहुलेसु पलिओचमसागरोवमाणि अणाइयं अणवयग्गं दीडमदं चाउरंतसंसारकैनारमिति, अस्य च व्याख्या चतुर्थाध्ययनवदवसेया, के एवं फलभुजो भवन्तीत्याह-जीवा 'लोभवससन्निविट्ठा' लोभवशेन परिग्रहे सन्निविष्ठा अभिनिविष्ठा इत्यर्थः, 'एसो सो' इत्यायध्ययननिगमनं व्याख्या चास्य पूर्ववदिति । अधुनाऽऽश्रवपञ्चकनिगमनाय गाथाकदम्बकमाह-एएहिं।। गाहा, एतैः-अनन्तरोपवर्णितखरूपैः पञ्चभिः असंवरैः-प्राणातिपातादिभिराश्रयैः रज हव रजो-जीवखरूपो-IK परञ्जनात्कर्म ज्ञानावरणादि 'अचिणित्तु' आचित्य आत्मप्रदेशः सहोपचित्य 'अनुसमय' प्रतिक्षणं चतुर्विधाचतुःप्रकारा देवादिभेदेन गति:-गतिनामकर्मोदयसम्पाद्यो जीवपर्याय: पर्यन्तो-विभागो यस्य स तथा तं| दीप अनुक्रम [२३-२९] For P L Only anajarmnarayan 1 "एएहि०" अत्र गाथा-पंचकस्य मया पृथक् क्रमांक दत्त | [मेरे सभी सम्पादनो में यहाँ स्वतंत्ररूपसे भिन्न क्रम देकर ये पांच गाथा रक्खी गई है|] | ~198~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ------------------ अध्ययनं [9] ------------------ मूलं [१९-२०] + वृत्ति: गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत 153 सूत्रांक [१९-२०] वृत्तिः फलं च + वृत्ति : गाथा: प्रश्नव्याक-'अनुपरिवर्तन्ते' परिभ्रमन्ति 'संसारं भवमिति ॥१॥ 'सब्बगई' गाहा, सर्वगतीनां-नेवादिसम्बन्धिनीनां प्र- अधर्मर० श्रीअ स्कन्दा-गमनानि सर्वगतिमस्कन्दास्तान् करिष्यन्ति अनन्तकान्-अनन्तान् अकुलपुण्या:-अपिहिताश्रव-12 । द्वारे भयदेव निरोधलक्षणपवित्रानुष्ठानाः ये च न शृण्वन्ति धर्म-श्रुतरूपं श्रुत्वा च ये प्रमाद्यन्ति-श्लथयन्ति श्रुतार्थ-सं-12 |परिग्रहवरात्मक नानुतिष्ठन्तीत्यर्थः ॥२॥ "अणुसिहि गाहा अनुशिष्टमपि-गुरुणोपदिष्टमपि बहुविधं-बहुप्रकार कारका धम्ममिति सम्बन्धः, पाठान्तरेण अनुशिष्टा:-अनुशासिताः बहुविधं यथा भवति मिथ्यादृष्टयो नरा अ परिग्रह॥९८॥ बुद्धयो बद्धनिकाचितकर्माणः, तत्र बर्द्ध-प्रदेशेषु संश्लेषितं निकाचित-दृढतरं बढ़ उपशमनादिकरणानामवि-131 षयीकृतमिति भावः, शृण्वन्ति केवलमनुवृत्त्यादिना धर्म-शुनरूपं न च-न पुनः कुर्वन्ति-अनुतिष्ठन्तीतिमा सू०१९Plu३॥ "किं सका' गाहा, किं शक्यं कर्तुं ?, न शक्यमित्यर्थः, जे इति पादपूरणे यत्-यस्मान्नेच्छथ-नेप्सथ औ|षधं मुधा-प्रत्युपकारानपेक्षतया दीयमानमिति गम्यं, पातु-आपातुं, किंरूपमौषधमित्याह-जिनवचनं गुणमधुरं विरेचनं-त्यागकारि सर्वदुःखानाम् ॥ ४॥ पश्चैव-प्राणातिपाताचाश्रवद्वाराणि उज्झित्वा-त्यक्त्वा पञ्चैव प्राणातिपातचिरमणादिसंबरान रक्षित्वा-पालपित्वा भावेन-अन्तःकरणवृच्या कर्मरजोविप्रमुक्ता इति प्रतीतं, M सिद्धानां मध्ये बरा सिद्धिवरा-सकलकर्मक्षयलल्या भावसिद्धिरित्यर्थः तां अत एव अनुत्तरां-सर्वोत्तमा यान्ति-गच्छन्ति ॥५॥ इति प्रश्नव्याकरणे पञ्चमाध्ययनविवरणं समाप्तम् ॥ ५॥ ९८॥ तत्समाप्ती चाश्रवाध्ययनानां विवरण समाप्तम् ॥५॥ दीप अनुक्रम [२३-२९] SC-SAMA अत्र प्रथमे श्रुतस्कन्धे पंचमं अध्ययनं परिसमाप्तं तत्समाप्ते प्रथम-श्रुतस्कन्धोऽपि परिसमाप्त: ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] SHARE गाथा: अथ प्रथमं संवराध्ययनमादितः षष्ठम् ॥ उक्ता आश्रवाः अथ तत्पतिपक्षभूतानां संवराणां प्रथममहिंसालक्षणं संवरमभिधातुकामस्तत्प्रस्तावनार्थ शिष्यमामयेदमाह जंबू-एत्तो संवरदाराई पंच वोच्छामि आणुपुवीए । जह भणियाणि भगवया सव्वदुहविमोक्खणहाए ॥१॥ पढम होइ अहिंसा वितियं सच्चवयणंति पन्नत्तं । दत्तमणुन्नाय संवरो य बंभचेरमपरिग्गहतं च॥ २ ॥ तस्थ पढमं अहिंसा तसथावरसब्वभूयखेमकरी । तीसे सभावणाओ किंची चोच्छं गुणुद्देसं ॥३॥ ताणि उ इमाणि सुव्वय! महब्वयाई लोकहियसब्बयाई सुयसागरदेसियाई तवसंजममहव्ययाई सीलगुणवरब्बयाई सच्चज्जवव्वयाई नरगतिरियमणुयदेवगतिविवज्जकाई सम्वजिणसासणगाई कम्मरयविदारगाई भवसयविणासणकाई दुहसयविमोयणकाई सुहसयपवत्तणकाई कापुरिसदुरुत्तराई सप्पुरिसनिसेवियाई निब्वाणगमणसग्गप्पणायकाई संवरदाराई पंच कहियाणि उ भगवया ॥ तस्थ पढम अहिंसा जा सा सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स भवति दीवो ताणं सरणं गती पइट्टा निब्वाणं १ निब्बुई २ समाही ३ सत्ती ४ कित्ती ५ कंती ६ रती य ७ विरती य८ सुयंगतित्ती ९-१० दया ११ विमुत्ती १२ खन्ती १३ सम्मताराहणा १४ महंती १५ बोही १६ बुद्धी १७ धिती १८ समिद्धी १९ रिद्रि २० विद्धी २१ ठिती २२ दीप अनुक्रम [३०-३५] marary.orm • अत्र द्वितियो श्रुतस्कन्धो आरब्ध: . अथ द्वितिये श्रुतस्कन्धे प्रथम अध्ययनं अहिंसा" आरभ्यते "अहिंसा" - नामक प्रथमं संवर-द्वारं "अहिंसा" स्वरुपम एवं षष्ठी-नामानि ~200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२१-२३] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ३०-३५ ] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [१] मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक र० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ ९९ ॥ Eucation International पुट्टी २३ नंदा २४ भद्दा २५ विसुद्धी २६ लद्धी २७ बिसिदिट्ठी २४ का १९ मंगल ३० पमोओ ३१ विभूती ३२ रक्खा ३३ सिद्धावासी ३४ अणासको ३५ केवलीण ठाणं ३६ सि ३७ समिई १८ सील ३९ संजमो ४० सिय सीलपरिषरो ४१ संवरो ४२ य गुसी ४३ ववसाओ ४४ उस्सओ ४५ जम्मी ४६ आयत ४७ जण ४८ मध्यमातो ४९ अस्सासो ५० वीसासो ५१ अभओ ५२ सम्प्रस्सवि अमाघाओ ५३ चोकल ५४ पवित्ता ५५ सूती ५६ पूया ५७ विमल ५८ पभासा ५९ य निम्मलतर ६० सि एवमादीणि निययगुणनिम्मियाई पज्जवनामाणि होति अहिंसाए भगवतीए (सूत्रे २१ ) एसा सा भगवती अहिंसा जा सा भीयाणवि सरणं पक्खीणं पिव गमणं तिसियाणं पित्र सलिलं खुहियाणं पिव असणं समुद्दमशे व पोतवहणं चउपयाणं व आसमपयं दुहट्टियाणं च ओसहिबल अडवीमज्झे विसत्यगमणं एसो विसितरिका अहिंसा जा सा पुढबिजलअगणिमारुवणस्सइबीज हरित जलचरथल चरखह चरतसथावरसब्वभूयखेमकरी एसा भगवती अहिंसा जा सा अपरिमियनाणदंसणघरेहिं सीलगुणविणय तवसंयमनायकेहिं तिरथंकरेहिं सध्वजगजीववच्छ लेहिं तिलोग महिएहिं जिणचंदेहिं दिट्ठा ओहिजिणेहिं विष्णाया उज्जुमतीहिं विदिट्ठा विपुलमतीहिं विविदिता पुग्वधरेहिं अधीता वेडन्त्रीहिं पतिन्ना आभिणिवोहियनाणीहिं सुयमाणीहिं मणपज्जबनाणीहिं केवलनाणीहिं आमोसहिपतेहिं खेलोसहिपत्तेहिं जल्लोसहिपत्तेहिं विप्पोसहिपत्तेहिं सब्बोसहिप रोहिं बीजबुद्धीहिं कुट्ठबुद्धीहिं पदाणुसारीहि संभिन्न सोतेहिं सुयधरेहिं मणबलिएहिं वयवलिएहिं कायवलिएहिं "अहिंसा" स्वरुपम् एवं षष्ठी - नामानि For Parts Only ~ 201~ १ संवर द्वारे अहिंसा नामानि अहिंसा कारकाः सू० २१ २२ ॥ ९९ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२१-२३] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ३०-३५ ] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [१] मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education Internationa नाणलिएहिं दंसणवलिएहिं चरित्तवलिएहिं खीरासवेहिं मधुजसवेहिं सपियासयेहिं अवखीण महाणसिपहि चारणेहिं विजाहरेहिं त्थभत्तिएहिं एवं जाब छम्मासमत्तिएहिं उक्त्तिथरएहि निक्खित्तचरएहिं अंतचरएहिं पंतचरएहिं चरएहिं समुदाणचरएहिं अन्नलाएहिं मोणचरएहिं संसकप्पिएहिं तज्ज्ञायसंसकप्पिएहिं जयमिहिपहिं सुद्धेसणिएहिं संखादत्तिएहिं विठ्ठलाभिएहिं अविठ्ठलाभिरर्हि पुलाभिएहिं आयेंबिलिएहिं पुरिमडिएहिं एक्कासणिएहिं निष्वितिएहिं भिन्नपिंडवाइएहिं परिमियपिंडवाइएहि अंसाहारेहिं पंताहारेहिं अरसाहारेहिं विरसाहारेहिं लूहाहारेहिं तुच्छाहारेहिं अंतजीविहिं पंतजीविहि लहजीविहिं तुच्छजीवहिं वसंतजीवहिं पसंतजीविहिं विषित्तजीवीहिं अखीरमहुसप्पिएहिं अमजसासिएहिं ठाणाइएहिं मिठाई ठाकडिएहिं वीरासणिएहिं णेसजिएहिं डंडाइएहिं लगेडसाईहिं एगपासगेहिं आयावएहिं अप्पावहिं अणिभएहिं अकंडुयएहिं धुत समंसुलोमनखेहिं सम्यगायपडि कम्मविष्पमु केहि समशुचिना सुयधर विदितत्थकायबुद्धीहिं धीरमतिबुद्धिणी व जे ते आसी विसग्गतेयकप्पा निच्छयववसायपजतकयमतीया णिचं सज्झायज्झाणअणुवज्रधम्म झाणा पंचमहव्यय चरित्तजुत्ता समिता समितिसु समितपावा छवि जगवच्छला निञ्चमधमत्ता एएहिं अन्नेहिय जा सा अणुपालिया भगवती इमं च पुढविदगअगणिमारुयतरुगणतसथावर सन्भूयसंयमदययाते सुद्ध उच्छं गवेसियन्वं अकतमकारिणायमणुद्दि अकीयक नवहि य कोडिहिं सुपरिसुद्धं दसहि य दोसेहिं विप्यमुक्कं उग्गम उप्पायणेसणासुद्धं ववगयचुयचावियच "अहिंसा" स्वरुपम् एवं षष्ठी - नामानि For Park Use Only ~ 202~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---- ----- अध्ययनं [१] ------------------- मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] प्रश्नध्याका र०श्रीअभयदेव वृत्तिः १ संवर | द्वारे अहिंसाकारकाः सू० २२ गाथा: तदेहं च फासुयं च न निसजकहापओयणक्खासुओवणीयंति न तिगिच्छामंतमूलभेसजकज्जहेज न लक्खणुप्पायसुमिणजोइसनिमित्तकहकप्पउत्तं नवि डंभणाए नवि रक्खणाते नवि सासणाते नवि दंभणरक्षणसासणाते भिक्खं गवेसियच्वं नवि बंदणाते नवि माणणाते नचि पूयणाते नवि बंदणमाणणपूयणाते भिक्खें गवेसियच नवि हीलणाते नवि निंदणाते नवि गरहणाते नवि हीलणनिंदणगरहणाते भिक्खं गवेसियव्वं नवि भेसणाते नवि तज्जणाते नवि तालणाते नवि भेसणतज्जणतालनाते भिक्खं गवेसियवं नवि गारवेणं नवि कुहणयाते नवि वणीमयाते नवि गारवकुहवणीमयाए भिक्खं गवेसियध्वं नवि मित्सयाए नवि पत्थणाए नवि सेवणाए नवि मित्तपत्थणसेवणाते भिक्खं गवेसियव्वं अन्नाए अगढिए अदुढे अदीणे अविमणे अकलुणे अविसाती अपरितंतजोगी जयणघडणकरणचरियविणयगुणजोगसंपउसे भिक्खू भिक्खेसणाते निरते. इम च णं सब्यजीवरक्खणदयट्ठाते पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पञ्चाभावियं आगमेसिभई सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सब्वदुक्खपावाण विउसमणं (सू०२२) तस्स इमापंच भावणातो पढमस्स वयस्स होति पाणातिवायवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए पढम ठाणगमणगुणजोगजुंजणगंतरनिवातियाए दिटिए इरियब्वं कीडपयंगतसथावरदयावरेण निच्चं पुष्फफलतयपवालकंदमूलदगमट्टियबीजहरियपरिवजिएण संमं, एवं खलु सव्वपाणा न हीलियम्वा न निंदियब्वा न गरहियव्वा न हिंसियचा न छिदियब्वा न भिंदियब्वा न वहेयवान भयं दुक्खं च किंचिलब्भा पावेड एवं ईरियासमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा असब दीप अनुक्रम [३०-३५] ~203~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---- ----- अध्ययनं [१] ------------------- मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 45 प्रत सूत्रांक [२१-२३] % % गाथा: लमसंकिलिनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू, बितीयं च मणेण पाषएणं पावकं अहम्मियं दारुणं निस्संसं वहबंधपरिकिलेसबहुल भयमरणपरिकिलेससंकिलिटुं न कयावि मणेण पावतेणं पावगं किंचिविझायब्वं एवं मणसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा असबलमसंकिलिनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाह, ततियं च यतीते पावियाते पावकं न किंचिवि भासियव्य एवं पतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसओ संजओ सुसाहू, चउत्थं आहारएसणाए सुद्धं उछं गवेसियवं अन्नाए अगढिते अदुढे अदीणे अकलुणे अविसादी अपरितंतजोगी जयणघडणकरणचरियविणयगुणजोगसंपओगजुत्ते भिक्खू भिक्खेसणाते जुत्ते समुदाणेऊण भिक्खचरिय छ घेत्तूण आगतो गुरुजणस्स पासं गमणागमणातिचारे पडिक्कमणपडिकंते आलोयणदायणं च दाऊण गुरुजणस्स गुरुसंदिवस्स बा जहोवएस निरझ्यारं च अप्पमत्तो, पुणरवि असणाते पयतो पडिकमित्सा पसंते आसीणसुहनिसन्ने मुहुत्तमेत्तं च झाणसुहजोगनाणसज्झायगोवियमणे धम्ममणे अविमणे सुहमणे अविग्गहमणे समाहियमणे सद्धासंवेगनिजरमणे पवतणवच्छलभावियमणे उद्देऊण य पहढे जहारायणियं निमंतइत्ता य साहवे भावओ य विइण्णे य गुरुजणेणं उपविढे संपमज्जिऊण ससीसं कायं तहा करतलं अमुच्छिते अगिद्धे अगदिए अगरहिते अणज्झोवषण्णे अणाइले अलुद्धे अणत्तहिते असुरसुरं अचवचवं अदुतमविलंबियं अपरिसाडि आलोयभायणे जयं पयत्तेण ववगयसंजोगमणिगालं च विगयधूमं अक्खोवंजणाणुलेवणभूयं संजमजायामायानिमित्तं % दीप अनुक्रम [३०-३५] % %25 ~ 204~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---- ----- अध्ययनं [१] ------------------- मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: |१संवर प्रत सूत्रांक [२१-२३] %-4564%259-2-% द्वारे प्रथमत्रत भावनाः सू०२३ गाथा: प्रश्वव्याका संजमभारवहणट्टयाए भुंजेजा पाणधारणट्ठयाए संजएण समियं एवं आहारसमितिजोगेण माविओ भवति र० श्रीअ अंतरप्पा असवलमसंकिलिङनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाह, पंचम आदाननिक्लेवणभयदेव. समिई पीढफलगलिज्जासंधारगवत्थपत्तकंबलदंडगरयहरणचोलपट्टगमुहपोत्तिगपायपुष्छणादी एयंपि संजमवृत्तिः स्स उबवूहणट्ठयाए वातातवदंसमसगसीयपरिरक्षणट्ठयाए उवगरणं रागदोसरहितं परिहरितम्ब संजमेणं निच्च पडिलेहणपष्फोडणपमजणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेण होइ सययं निक्खियध्वं च गिहियवं च भा॥१०॥ यणभंडोबहिनवगरणं एवं आयाणभंडनिक्खेवणासमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठनिवणचरित्तभावणाएं अहिंसर संजते सुसाहू, एवमिण संवरस्स दारं सम्म संवरिय होति सुप्पणिहिय इमेहिं पंचहिवि कारणेहिं मणक्यणकायपरिरक्सियहिं णिचं आमरणतं च एस जोगो णेयब्वो धितिमया मेंतिमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो असंकिलिट्टो सुद्धो सम्बजिणमणुन्नातो, एवं पढम संवरदार फासियं पालियं सोहियं तिरिय किट्टियं आराहियं आणाते अणुपालियं भवति, एवं नायमुणिणा भगवया पन्नविय परूवियं पसिद्धं सिद्धं सिद्धवरसासणमिणे आपवितं सुदेसित पसत्थं पढम संकरदारं समत्तं तिवेमिः ॥ १॥ (सू०२३) A 'जंबुसि हे जम्बू। एसो गाहा इत-आश्रवद्वारगणनानन्तर संवरण संवर:-कर्मणामनुपादानं तस्य द्वा राणीव द्वाराणि-उपायाः संवरद्वाराणि पश्च वक्ष्यामि भणियामि आनुपूा-प्राणातिपातविरमणादिक्रमेण *% दीप अनुक्रम [३०-३५] ~205~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] गाथा: यथा भणितानि भगवता-श्रीमन्महावीरवर्द्वमानस्वामिना, अविपर्ययमात्रणेह साधय न तु युगपत्सकल-| संशयव्यवच्छे दसर्वखभाषानुगामिभाषादिमिरतिशयैरिति, सर्वदुःखविमोक्षणार्थमिति ॥१॥ पदम गाहा, प्रथमं संवरबारं भवति अहिंसा द्वितीयं सत्य वचनमित्येवंभूतनाम प्रज्ञप्त-प्ररूपितं दस-वितीर्णमशनादि अनुज्ञातं-भोग्यतयैव विनीणे पीठफलकावग्रहादि न वंशनादिवद्दत्तं ग्राद्यमिति शेषः, 'संवरों'त्ति दत्तानुज्ञातग्रहणलक्षणस्तृतीयः संवर इत्यर्थः, इदं च संवरशब्द विना गाधापश्चाई प्रसिद्धलक्षणं भवति. नंच संवरशब्दवर्जिता काचिद्वाचनोपलयते, तथा ब्रह्मचर्य अपरिग्रह त्वं च चतुर्थपञ्चमी संवराविति ॥२॥ 'तत्थ गाहा, तत्र-तेषु पञ्च तु मध्ये प्रथम संवरद्वारमाहिंसा 'तसथावरसंचभूयखेमकरित्ति सस्थावराणां सर्वेषां भूतानां क्षेमकरणशीला तस्या अहिंसायाः संभावनायास्तु-भावनापश्च कोपेताया एव 'किंचित्ति किञ्चनाल्पं वक्ष्ये गुणोद्देश-गुणदेशमिति । सम्प्रति सविशेषणमनन्तरोदितमेवार्थ गोनाह–'ताणि उत्ति यानि संवरशब्देनाभिहितानि तानि पुनरिमानि-वक्ष्यमाणानि, हे सुव्रत!-शोभनवत! जंबूनामन! महा|न्ति-करणत्रययोगत्रयेण यावजीवतया सर्व विषयनिवृत्तिरूपत्वात् अणुव्रतापेक्षया बृहन्ति व्रतानि-नियमा महाब्रतानि 'लोए बिइअव्वयाईति लोके धृतिदानि-जीवलोकचित्तवास्थ्यकारीणि व्रतानि यानि तानि तथा, वाचनान्तरे-'लोपहियसब्बयाईति तत्र लोकाय हितं सर्व ददति यानि तानि, श्रुतसागरे देशितानि ४ यानि तानि तथा, तथा तपा-अनशनादि पूर्वकर्मनिर्जरणफलं संयमा-पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणोऽभिनवक दीप अनुक्रम [३०-३५] "अहिंसा" स्वरुपम् एवं षष्ठी-नामानि ~ 206~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---- ----- अध्ययनं [१] ------------------- मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] गाथा: प्रश्नव्याकर्मानुपादानफलस्तद्रूपाणि वतानि तपासंयमयोर्वा नास्ति व्यय:-क्षयो येषु तानि तपःसंयमाध्ययानि, तथाला र० श्रीअ-IC तथा ४१ संवर शील-समाधानं गुणाच-विनयादयः तैर्वराणि-प्रधानानि यानि व्रतानि तानि शीलगुणवरव्रतानि शीलगु- रे भयदेव णवराव्ययानि वा अथवा शीलस्य गुणवराणां च-वरगुणानां ब्रजः-समुदायो येषु तानि शीलगुणवरवजानि, अहिंसाया वृत्तिः तथा सत्यं-मृषावादवर्जनं आर्जवं-मायावर्जनं तत्प्रधानानि ब्रतानि यानि तानि तथा सत्यार्जवाव्ययानि | नामानि वा, तथा नरकतिर्यग्मनुजदेवगतीर्विवर्जयन्ति-मोक्षप्रापकतया व्यवच्छेदयन्ति यानि तानि तथा, सर्जिनैः कारका ॥१०२॥ |शिष्यन्ते-प्रतिपाद्यन्ते यानि तानि सर्वजिनशासनानि तान्येव कप्रत्यये सर्वजिनशासनकानि, कर्मरजो वि भावनाश्च दारयन्ति-स्फोटयन्ति यानि तानि तथा, भवशतविनाशनकानि अत एव दुःखशतविमोचनकानि सुखशतमवर्सकानीति च कण्ठ्यं, कापुरुषः दुःखेनोत्तीर्यन्ते-निष्ठां नीयन्त इति कापुरुषदुरुत्तराणि, सत्पुरुषनिषेवितानि, वाचनान्तरे 'सप्पुरिसतीरियाईति सत्पुरुषप्राप्ततीराणीत्यर्थः, इह च पुरुषग्रहः स्त्रीणामुपलक्षणमिति न तनिषेधोऽत्र प्रतिपत्तव्यः, बहु चेह वाच्यं तच ग्रन्थान्तरेभ्योऽवसेयं, 'णिवाणगमणमग्गसग्गपणायगाईति |निवाणगमने मार्ग इव मार्गों यानि तानि तथा खर्गे च देहिनं प्रणयन्ति-नयन्ति यानि तानि तथा, कचित् 'सग्गपयाणगाई ति पाठः तत्र खर्गे गन्तव्ये प्रयाणकानीव-गमनानीव यानि तानि स्वर्गप्रयाणकानि, ततः कर्मधारयः, अथ महावतसंज्ञितानां संवरद्वाराणां परिमाणमाह-संवरद्वाराणि पश्च, एतेषामेव शिष्टप्रणेतृ ॥१०२॥ कत्वमाह-कथितानि तु भगवता-अभिहितानि पुनरेतानि भगवता-श्रीमन्महावीरेण अतः श्रद्धेयानि भ-I 26-5 सू०२३ दीप अनुक्रम [३०-३५] SARERatininemarana Wamurary.om "अहिंसा" स्वरुपम् एवं षष्ठी-नामानि ~207~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२१-२३] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ३०-३५ ] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [१] मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः वन्तीति भाव इति प्रथमसंवराध्ययनप्रस्तावना । अथ प्रथमसंवरनिरूपणायाह- 'तत्थे'त्यादि, तत्र तेषु पश्वसु संवरद्वारेषु मध्ये प्रथमं - आद्यं संवरद्वारमहिंसा, किंभूता ? - या सा सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य भवति, 'दीवो'न्ति द्वीपो दीपो वा यथाऽगाधजलधिमध्यमन्नानां खैरं श्वापदकदम्बकदर्धितानां महोर्मिमालामध्यमानगात्राणां त्राणं भवति द्वीपः प्राणिनां एवमियमहिंसा संसारसागरमध्यमधिगतानां व्यसनशतश्वापदपीडितानां संयोगवियोगवीचिविधुराणां त्राणं भवति, तस्याः संसारसागरोत्तारहेतुत्वात् इति अहिंसा द्वीप उक्तः, यथा वा दीपोऽन्धकारनिराकृतदृकमसराणां हेयोपादेयार्थहानोपादानविमूढमनसां तिमिरनिकरनिराकरणेन प्रवृत्त्यादिकारणं भवत्येवमहिंसा ज्ञानावरणादिकर्मतमित्रस्रंसनेन विशुद्धबुद्धिप्रभापटलप्रवर्त्तनेन प्रवृत्त्यादिकारणत्वाद्दीप उक्ता, तथा त्राणं खपरेषामापदः संरक्षणात् तथा शरणं तथैव सम्पदः सम्पादकत्वात् गम्यते श्रेयोऽर्थिभिराश्रीयते इति गतिः प्रतिष्ठन्ति आसते सर्वगुणाः सुखानि वा यस्यां सा प्रतिष्ठा तथा निर्वाणं-मोक्षस्तद्धेतुत्वात् निर्वाणं तथा निर्वृतिः - स्वास्थ्यं समाधिः- समता शक्तिः शक्तिहेतुत्वात् शान्तिर्वा-द्रोहविरतिः कीर्तिः ख्यातिहेतुत्वात् कान्तिः कमनीयताकारणत्वात् रतिश्च रतिहेतुत्वात् विरतिश्च निवृत्तिः पापात् श्रुतं श्रुतज्ञानम-कारणं यस्याः सा श्रुताङ्गा, आह च "पढमं नाणं तओ दए "त्यादि, तृप्तिहेतुत्वान्तसिः, ततः कर्मधारयः, १०, तथा दया- देहिरक्षा तथा विमुच्यते प्राणी सकलबन्धनेभ्यो यया सा विमुक्तिः तथा क्षान्तिः क्रोधनिग्रहस्तज्जन्यत्वादहिंसाऽपि क्षान्तिरुक्ता सम्यक्त्वं सम्यग्बोधिरूपमा Education Internation "अहिंसा" स्वरुपम् एवं षष्ठी - नामानि For Parts Only ~208~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) [२१-२३] ཟླ + [ ३०-३५ ] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [१] मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः कारका राध्यते यया सा सम्यक्त्वाराधना 'महंति'त्ति सर्वधर्मानुष्ठानाना वृहती, आह च - "एकं चिय एत्थ वयं निदिद्धं जिणवरेहिं सच्चेहिं । पाणातिवायविरमणमवसेसा तस्स रक्खट्ठा ॥ १ ॥ " [ एकमेवात्र व्रतं निर्दिष्टं भयदेव०जिनवरैः सर्वैः । प्राणातिपातविरमणमवशेषाणि तस्य रक्षार्थम् ॥ १ ॥ ] बोधिः सर्वज्ञधर्म्मप्राप्तिः अहिंसारूपवृत्तिः ५ त्वाच तस्याः अहिंसा बोधिरुक्ता, अथवा अहिंसा-अनुकम्पा सा च बोधिकारणमिति बोधिरेवोच्यते, बोधिकारणत्वं चानुकम्पायाः 'अणुकंपऽकामणिज्जरबालतचे दाणविणयविभंगे । संजोगविप्पजोगे बसणूसव॥ १०३ ॥ x हिसकारे ॥ १ ॥ [ अनुकम्पाऽकामनिर्जराबालतपोदान विनयविभङ्गाः । संयोगविप्रयोगौ व्यसनोत्सवर्द्धिस- ॐ भावनाश्च [स्काराः ॥ १ ॥ ] इति वचनादिति, तथा बुद्धिसाफल्यकारणत्वाद्बुद्धिः, पदाह – “बावत्तरिकलाकुसला पंडि यपुरिसा अपंडिया चेव । सम्बकलाणं पवरं जे धम्मकलं न याति ॥ १ ॥” [ द्वासप्ततिकलाकुशलाः पण्डि तपुरुषाः अपण्डिताश्चैव । सर्वकलानां प्रवरां ये न. धर्मकलां जानन्ति ॥ १ ॥ ] धर्मश्चाहिंसैव, धृतिः- चित्तदा तत्परिपालनीयत्वादस्या धृतिरेवोच्यते, समृद्धिहेतुत्वेन समृद्धिरेवोच्यते, एवं ऋद्धिः २०, वृद्धि:, तथा साथपर्यवसितमुक्तिस्थितेर्हेतुत्वात्स्थितिः, तथा पुष्टिः पुण्योपचयकारणत्वात्, आह च - "पुष्टिः पुण्योपचयः " नन्दव्यति-समृद्धि नयतीति नन्दा, भदन्ते-कल्याणीकरोति देहिनमिति भद्रा, विशुद्धिः पापक्षयोपायत्वेन जीवनिर्मलता खरूपत्वात्, आह च - "शुद्धिः पापक्षयेण [जीव ] निर्मलता" तथा केवलज्ञानादिलब्धिनिमित्तवालधिः, विशिष्टदृष्टि:-प्रधानं दर्शनं मतमित्यर्थः, तदन्यदर्शनस्याप्राधान्याद्, आह च - किं तीए पढियाए ? सू० २३ प्रश्नव्याकर० श्रीअ "अहिंसा" स्वरुपम् एवं षष्ठी - नामानि For Park Use Only ~209~ १ संवर द्वारे अहिंसाया नामानि ॥ १०३ ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२१-२३] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ३०-३५] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [१] मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः | पयकोडीए पलालभूयाए । जत्थेत्तियं न नायं परस्स पीडा न कायव्वा ॥ १ ॥ [किं तया पठितया पदकोट्या पलालभूतया । पत्रेयत् न ज्ञातं परस्य पीडा न कर्त्तव्या ॥१॥ ] कल्याणं कल्याणप्रापकत्वात् मङ्गलं दुरितोपशान्तिहेतुत्वात् ३०, प्रमोदः प्रमोदोत्पादकत्वात् विभूतिः सर्वविभूतिनिबन्धनत्वात् रक्षा जीवरक्षणस्वभावत्वात सिद्ध्यावासः मोक्षवासनिबन्धनत्वात् अनाश्रवः कम्मबन्धनिरोधोपायत्वात् केवलिनां स्थानं केवलिनामहिं सायां व्यवस्थितत्वात् 'सिवसमितिसीलसंजमोत्ति य' शिवहेतुत्वेन शिवं समितिः- सम्यक्प्रवृत्तिस्तद्रूपत्वा| दहिंसा समितिः शीलं -समाधानं तद्रूपत्वाच्छीलं संयमो-हिंसात उपरमः इतिः- उपप्रदर्शने चः समुच्चये ४०, 'सीलपरिघरो' त्ति शीलपरिगृहं चारित्रस्थानं संवरश्च प्रतीतः गुप्तिः-अशुभानां मनःप्रभृतीनां निरोधः विशि|ष्टोऽबसायो- निश्रयो व्यवसायः उच्छ्रयश्च भावोन्नतत्वं यज्ञो भावतो देवपूजा आयतनं गुणानामाश्रयः यजन- अभयस्य दानं यतनं वा प्राणिरक्षणं प्रयत्नः- अप्रमादः प्रमादवर्जनं आश्वासः - आश्वासनं प्राणिनामेव ५० विश्वासो विश्रंभः 'अभउ'त्ति अभयं सर्वस्यापीति प्राणिगणस्य 'अमाघातः' अमारिः चोक्षपवित्रा एकार्थशब्दद्वयोपादानात् अतिशयपवित्रा शुचिः-भावशौचरूपा, आह च - "सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया शौचं जलशौचं च पञ्चमम् ॥ १ ॥” इति पूता-पवित्रा पूजा वा भावतो देवताया अर्चनं विमलः प्रभासा च तन्निबन्धनत्वात् 'निम्मलयर'ति निर्मलं जीवं करोति या सा तथा अतिशयेन वा निर्मला निर्मलतरा ६०, इतिः नाम्नां समाप्तौ, एवमादीनि एवंप्रकाराणि निजकगुणनिर्मितानि यथार्थानीत्यर्थः, Internationa For Pale Only ~ 210~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] गाथा: 4 अत एवाह-पर्यायनामानि-तत्तद्धर्माश्रिताभिधानानि भवन्त्यहिंसायाः भगवत्या इति पूजावचनं, एषा भग-18 १ संवर वत्यहिंसा या सा भीतानामिव शरणमित्यत्राश्वासिका देहिनामिति गम्यं, 'पक्खीणंपिव गमणं'ति पक्षिणा द्वारे . भयदेव० मिव विहायोगमनं हिता देहिनामिति गम्यं, एवमन्यान्यपि षट् पदानि व्याख्येयानि, किं भीतादीनां शर अहिंसाया वृत्तिः लणादिसमैव सा?, नेत्याह-एत्तोत्ति एतेभ्यः-अनन्तरोदितेभ्यः शरणादिभ्यो विशिष्टतरिका-प्रधानतराला Hनामानि अहिंसा हिततयेति गम्यते, शरणादितो हितमनैकान्तिकमनात्यन्तिकं च भवति अहिंसातस्तु तद्विपरीतं | ॥१०४॥ कारका मोक्षाचासिरिति, तथा 'जा सा' इत्यादि याऽसौ पृथिव्यादीनि च पञ्च प्रतीतानि वीजहरितानि च-वनस्प का भावनाच तिविशेषाः आहारार्थत्वेन प्रधानतया शेषवनस्पते देनोक्ताः जलचरादीनि च प्रतीतानि यानि प्रसस्थाव सू०२३ राणि सर्वभूतानि तेषां क्षेमकरी या सा तथा, एषा-एषैव भगवती अहिंसा नान्या, यथा लौकिक: कशल्पिता-'कुलानि तारयेत् सप्त, यत्र गौर्वितृषीभवेत् । सर्वथा सर्वयनेन, भूयिष्ठमुदकं कुरु ॥१॥ इह गोदाविषये या दया सा किल तन्मतेनाहिंसा, अस्यां च पृथिव्यदकपूतरकादीनां हिंसाऽप्यस्तीत्येवंरूपा न| सम्यगहिंसेति ॥ अथ यैरियमुपलब्धा सेविता च तानाह-जा से'त्यादि अपरिमितज्ञानदर्शनधरैरिति कण्ठ्यं, शीलं-समाधानं तदेव गुणः शीलगुणः तं विनयतपःसंयमाच नयन्ति-प्रकर्ष प्रापयन्ति ये ते तथा दतैस्तीर्थकरैः-द्वादशाङ्गप्रणायकैः सर्वजगत्सलैः त्रिलोकमहितैरिति च कण्ठ्यं, कैरेवंविधैः किमित्याह-जिन ॥१०४॥ चन्द्रः-कारुणिकनिशाकरैः सुष्ठ दृष्टा-केबलावलोकन कारणतः खरूपतः कार्यतश्च सम्यग्विनिश्चिता, तत्र गुरू 5-ॐSTAR A दीप अनुक्रम [३०-३५] % ~211~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] गाथा: तोपदेशकर्मक्षयोपशमादि बाह्याभ्यन्तरं कारणमस्याः, प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणलक्षणहिंसाप्रतिपक्षः खरूपं |वर्गापवर्गमाप्तिलक्षणं च कार्यमिति, तथा अवधिजिना-विशिष्टावधिज्ञानिनस्तैरपि विज्ञाता-ज्ञपरिज्ञया वुद्धा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च सेविता, ऋज्वी-मनोमात्रग्राहिणी "रिजु सामन्नं तम्मत्तगाहिणी रिजुमई मणोनाणं । पायं विसेसविमुहं घडमेत चिंतियं मुणति ॥१॥"त्ति [ऋजुः सामान्यं तन्मात्रग्राहिणी ऋजुमतिर्मनोज्ञानं । प्रायो विशेषविमुखं घटमात्रं चिन्तितं जानाति ॥ १॥] वचनात् मतिः-मनःपर्यायज्ञानविशेषो येषां ते फजुमतयस्तैरपि दृष्टा-अवलोकिता विपुलमतयो-मनोविशेषग्राहिमनःपर्यायज्ञानिना, उक्तं च-"विउलं वत्थुविसेसणमाणं तग्गाहिणी मई विउला । चिंतियमणुसरइ घडं पसंगओ पज्जवसएहि ॥१॥" [विपुलं वस्तु. विशेषणमानं तद्राहिणी मतिविपुला । चिन्तितमनुसरति घट प्रसङ्गतः पर्यवशतैः॥१॥] तैरपि विदिताज्ञाता पूर्वधरैरधीता-श्रुतनिबद्धा सती पठिता, 'वेउब्दीहिं पइन्नत्ति विकुर्विभिः-वैक्रियकारिभिः प्रतीर्णा-निस्तीर्णा आजन्म पालितेत्यर्थः, 'आभिणियोहियणाणीही त्यादि 'समणुचिन्ने त्येतदन्तं सुगम, नवरं 'आमोसहिपत्तेहिं ति आमर्श:-संस्पर्शः स एवौषधिरिवौषधिः-सर्वरोगापहारित्वात्तपश्चरणप्रभवो लब्धिविशेषः तां माता येते तथा तः, एवमुत्तरत्रापि, नवरं खेलो-निष्ठीवनं जल:-शरीरमल: 'विप्पोसहि'त्ति विनषो-मूत्र-1X पुरीषावयवाः अथवा वित्ति-विट्र विष्ठा पत्ति-प्रश्रवणं मूत्रं, शेषं तथैव, 'सब्बोसहित्ति सर्व एवानन्तरो-I&I |दिता आमर्शादयोऽन्ये च बहव औषधयः सर्वोषधयः, बीजकल्पा बुद्धिर्येषां ते वीजबुद्धयः-अर्थमात्रमवाप्य दीप अनुक्रम [३०-३५] * * ~212~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] १संवर द्वारे | अहिंसाया नामानि गाथा: भावनाश्च सू०२३ प्रश्नब्याक- नानार्थसमूहाभ्यूहिका बुद्धिर्येषां ते इत्यर्थः, कोष्ठ इव बुद्धिर्येषां ते कोष्ठयुद्धयः सकृज्ज्ञाताविनष्टवुद्धय इर.श्रीअ- त्यर्थः, पदेनकेन पदशतान्यनुसरन्ति पदानुसारिणः, इह गाथा भवन्ति-"संफरिसणमामोसो मुत्तपुरीसाण| भयदेव० |चिप्पुसो विप्पा । अन्ने विडत्ति विट्ठा भासंति य पत्ति पासवर्ण ॥१॥ एए अन्ने य बहू जेसिं सब्वे य सुरवृत्ति भओऽवयवा । रोगोबसमसमत्था ते होंति तओसहिप्पत्ता ॥२॥ जो सुत्सपएण पहुं सुयमणुधावइ पया xणुसारी सो। जो अत्थपएणऽत्थं अणुसरइ स बीयबुद्धीओ॥३॥ कोट्टयधनसुनिग्गल सुत्तत्था कोहबुद्धीया" ॥१५॥ तथा सम्मिन्न-सर्वतः सर्वशरीरावयवैः शृण्वन्तीति सम्भिन्नश्रोतार अथवा संभिन्नानि-प्रत्येकं ग्राहकत्वेन शब्दादिविषयैः व्याप्तानि श्रोतांसि-इन्द्रियाणि येषां ते संभिन्नश्रोतसः सामस्त्येन वा भिन्नान्-परस्परभेदेन शब्दान् शृण्वन्तीति सम्भिन्नश्रोतारस्तैः, इह गाथा-"जो मुणइ सवओ मुणह सव्वविसए व सवसोएहिं । सुणह बहुए व सद्दे भन्नइ संभिन्नसोओ सो ॥१॥" मनोबलिक:-निश्चलमनोभिः वाग्ब|लिकैः-दृदप्रतिजैः कायवलिक:-परीषहापीडितशरीरैः ज्ञानादिवलिकः-दृढज्ञानादिभिः क्षीरमिव मधुरं वच18/नमाश्रयन्ति-क्षरन्ति ये ते क्षीराश्रवा-लब्धिविशेषवन्तस्तैः, एवमन्यदपि पदद्वयं, इह गाधा-खीरमहु|सप्पिसाओवमा उ चयणे तदासवा हुंति।" महानसं-रसवतीस्थानमुपचाराद्रसवत्यपि अक्षीणं महानसं येषां ते अक्षीणमहानसिका, खानीतभक्तेन लक्षमपि तृप्तितो भोजयतां यावदात्मना न तद्भुक्तं तावन्न क्षीयते तद्येषां ते इति भावना, अतस्तैः, तथाऽतिशयचरणाचारणा-विशिष्टाकाशगमनलब्धियुक्ताः ते च दीप अनुक्रम [३०-३५] bil॥१०५॥ ~213~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] गाथा: जवाचारणा विद्याचारणाश्चेति, इह गाथा:-"अइसयचरणसमस्था जंघाविजाहि चारणा मुणओ। जंघाहि जाइ पढमो णिस्सं काउं रविकरेवि ॥१॥ एगुप्पारण गओ रुयगवरंमि उ ततो पडिनियत्तो। बीएणं गंदीसरमिहं तओ एइ तइएणं ॥ २॥ पढमेण पंडगवणं बिइउप्पारण णंदणं एइ । तइउप्पारण तओ इह जंघाचारणो एइ ॥३॥ पढमेण माणुसोत्तरणगं स गंदीसरं बिईएणं । एइतओ तइएणं कयचेइयवंदणो इहहं|| ॥ ४॥ पढमेण णंदणवणे बीउप्पाएण पंडगवणम्मि । एइ इहं तइएणं जो विजाचारणो होइ ॥५॥"[अति शयचरणसमर्था जङ्घाविद्याभ्यां चारणाः मुनयः । जाभ्यां याति प्रथमः निश्रां कृत्वा रविकिरणानपि ॥१॥ दिएकोत्पोतेन गतो रुचकवरे ततः प्रतिनिवृत्तो द्वितीयेन नन्दीश्वरमिहैति ततस्तृतीयेन ॥२॥ प्रथमेन पाण्डुक वनं द्वितीयोत्पातेन नन्दनमायाति । तृतीयोत्पातेन तत इह जाचारण आयाति ॥३॥ प्रथमेन मानुषोत्तरनगं स नन्दीश्वरं द्वितीयेन कृतचैत्यवन्दनस्ततस्तृतीयेन आयातीह ॥ ४ ॥ प्रथमेन नन्दनवने द्वितीयोत्पातेन पाण्डकवने । तृतीयेनायातीह यो चिद्याचारणो भवति ॥५॥] 'चउत्थभत्तिपहिं' इह एवं यावकरणात् 'छहभत्तिएहिं अट्ठमभत्तिएहिं एवं दुसमदुवालसचोइससोलसअद्धमासमासदोमासतिमासचउमास पंचमासा' इति द्रष्टव्यं, उत्क्षिसं-पाकपिठरादुद्भुतमेव परन्ति-गवेषयन्ति ये ते उत्क्षिप्तचरकाः, एवं सर्वत्र, नवरं निक्षिप्त-पाकस्थालीस्थं अन्त-वल्लचणकादि प्रान्तं तदेव भुक्तावशेष पर्युषितं चा रूक्षं-निःलेह समुदान-भैक्ष्यं 'अन्नतिलाएहिं ति दोषान्नभोजिभिः 'मौनचरकैः' वाचंयमैः, संसृष्टेन हस्तेन भाजनेन च दीप अनुक्रम [३०-३५] N araurary.org ~214~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] द्वारे गाथा: प्रशच्याक-दीयमानमन्नादि ग्राह्यमित्येवंरूपः कल्पः-समाचारो येषां ते संसृष्टकल्पिकास्तैः, यत्प्रकारं देयं द्रव्यं तजार० श्रीअ-तिन-तत्प्रकारेण द्रव्येण ये संसष्टे हस्तभाजने ताभ्यां दीयमानं ग्राद्यमित्येवंरूपः कल्प:-समाचारो येषां तेXII तज्जातसंसृष्टकल्पिकास्तैः, उपनिधिना-प्रत्यासत्या चरन्ति-प्रत्यासन्नमेव गृह्णन्ति येते औपनिधिकाः तैः अहिंसाया वृत्तिः 'शुद्धषणिकाः' शङ्कितादिदोषपरिहारचारिणस्तैः सङ्ख्याप्रधानाभिः पञ्चषादिपरिमाणवतीभिर्दत्तिभि: नामानि ॥१०६॥ सकृद्रक्तादिपात्रपातलक्षणाभिश्चरन्ति ये ते सङ्ख्यादत्तिकास्तैः, दत्तिलक्षणं चैतत्-'दत्तीओ जत्तिए वारे, कारका खिवई होति तत्तिया । अब्बोछिन्ननिमायाओ, दत्ती होति दवेतरा ॥१॥ [दत्तयो यावतो वारान् क्षिपति भावनाश्च भवन्ति तावत्यः । अव्यवच्छिन्ननिपातात् दतिर्भवति द्रवेतरयोः॥१॥] दृष्टिलाभिका:-ये दृश्यमानस्था सू०२३ नादानीतं गृह्णन्ति, अदृष्टिलाभिका ये अदृष्टपूर्वेण दीयमानं गृह्णन्ति, पृष्टलाभिका ये कल्पते इदं इदं च |भवते साघो! इत्येवं प्रश्नपूर्वकमेव लब्धं गृह्णन्ति, भिन्नस्यैव-स्फोटितस्यैव पिण्डस्य-ओदनादिपिण्डस्य पात:-पात्रक्षेपो येषां ग्राह्यतयाऽस्ति ते भिन्नपिण्डपातिकाः तैः, परिमितपिण्डपातिक:-परिमितगृहप्रवेशादिना वृत्तिसङ्केपवद्भिः, अंताहारेत्यादि अन्तादीनि पदानि प्राग्वदेव नवरं पूर्वत्र चरणं गवेषणमात्रमुक्तमिह त्वाहारो-भोजनं जीवनं तु-तथैवाजन्मापि प्रवृत्तिरिति विशेषोऽवसेयः, तथा अरसं-हिमवादिभिरसंकास्कृतं विरसं-पुराणत्वात् गतरस तथा तुच्छ-अल्पं, तथा उपशान्तजीविभिः अन्तर्वृत्यपेक्षया प्रशान्तजी-15 विभिः पहियपेक्षया, विविक्रीः-दोषविकलैर्भक्तादिभिर्जीवन्ति येते विविक्तजीविनस्तैः, अक्षीरमधुस-IA दीप अनुक्रम [३०-३५]] ~215 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] गाथा: पिक:--दुग्धक्षौद्रघृतवर्जकैः [अमद्यमांसाशिभिः] 'ठाणाइएहिंति स्थान-ऊर्ध्वस्थानं निषीदनस्थानं त्वग्वतनस्थानं तदभिग्रहविशेषेणाददति-विदधति ये ते तथा तैः, एतदेव प्रपञ्चयति-प्रतिमास्थायिभिः' प्रतिमया-कायोत्सर्गेण भिक्षुप्रतिमया वा मासिक्यादिकया तिष्ठन्ति येते तथा तैः, स्थानमुत्कटुकं येषां ते स्थानोत्कटुकास्तैः वीरासनं-भून्यस्तपादस्य सिंहासनोपवेशनमिव तदस्ति येषां ते वीरासनिकास्तैः निषद्या-14 समपुतोपवेशनादिका तया चरन्तीति नैषयिकास्तैः, दण्डस्येवायतं संस्थानं घेषामस्ति ते दण्डायतिकास्तैः लगंडं-दुःसंस्थितं काष्ठं तच्छिरापाष्र्णीनां भूलग्नेन शेरते ये ते लगण्डशायिनस्तैः, उक्तं च-“चीरासणं तु सीहासणे व्व जह मुक्कजाणुग [मुत्कलपाद:> णिविट्ठो । दंडगलगंडउवमा आयत कुजे य दोपहंपि ॥१॥" [दण्डे आयतः लगण्डे कुब्जा] एक एव पाश्चों भूम्या सम्बध्यते येषां न द्वितीयेन पार्थेन भवन्तीत्येकपाचिंकास्तैः, आतापनैः-आतापनाकारिभिरिति, आतापना च त्रिविधा, यत आह-"आयावणा उ तिविहा भाउकोसा मज्झिमा जहन्ना य । उकोसा उणिवन्ना णिसन्न मज्झा ठिय जहना ॥१॥" [आतापना तु त्रिविधा उत्कृष्टा मध्यमा जघन्या च । उत्कृष्टा तु सुप्तस्य मध्यमा निषण्णस्य स्थितस्य जघन्या] अप्रावृतैः-प्रावरणवर्जितैः 'अनिट्ठभएहिंति अनिष्ठीवकर्मख श्लेष्मणोऽपरिष्ठापकः 'अकण्डूयकैः' अकण्डूयनकारकै: 'धूतकेशश्मश्रुरोमनखे धूता:-संस्कारापेक्षया त्यक्ताः केशा:-शिरोजाः इमणि-कृर्चाः केशाः रोमाणि-कक्षादिलोमानि नखाच प्रसिद्धा यैस्ते तथा तैः सर्वगात्रप्रतिकर्मविप्रमुक्तः अभ्यादिवर्जनात् 'समणुचिन्न'सि सम-| दीप अनुक्रम [३०-३५] ~216~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२१-२३] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ३०-३५] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२१-२३] + गाथा: श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः वृत्तिः ॥ १०७ ॥ प्रश्नव्याक- ४ नुचीर्णा आसेवितेत्यर्थः तथा श्रुतधराः - सूत्रधराः विदितोऽर्थकायः - अर्थराशिः श्रुताभिधेयो यथा सा तथा र० श्रीअसा विदितार्थकाया बुद्धि:- मतिर्येषां ते तथा ततः कर्मधारयः श्रुतधरविदितार्थका पबुद्धयस्तै समनुपालितेति भयदेव० सम्बन्धः, तथा धीरा-स्थिरा अक्षोभा वा मतिः- अवग्रहादिका बुद्धिश्व उत्पत्तिक्यादिका येषां ते तथा, ते च ये ते इत्युद्देशः, आशीर्विषा - नागास्ते च ते उग्रतेजसच-तीव्रप्रभावास्तीत्रविषा इत्यर्थः तत्कल्पाः- तत्सदृशाः शापेनोपघातकारित्वात्, तथा निश्श्रयो वस्तुनिर्णय व्यवसाय:- पुरुषकारस्तयोः पर्याप्तयोः - परिपूर्णयोः 22 कृता-विहिता मतिः बुद्धिर्यैस्ते तथा, पाठान्तरेण निश्चयव्यवसायी विनीती-आत्मनि प्रापितो यैः पर्याप्ता ४ च कृता मतिर्यैस्ते तथा नित्यं सदा स्वाध्यायो - वाचनादिर्थ्यांनं च-चित्तनिरोधरूपं येषां ते तथा, ध्यानविशेषोपदर्शनार्थमाह- अनुबद्धं सततं धर्म्मध्यानं आज्ञाविषयादिलक्षणं येषां तेऽनुबद्धधर्म्मध्यानाः ततः कर्म्मधारयः, पञ्चमहाव्रतरूपं यचरित्रं तेन युक्ता ये ते तथा, समिताः सम्यक्प्रवृत्ताः समितिवीर्यासमित्यादिषु शमितपापा:- क्षपितकिल्बिषाः षडूविधजगद्वत्सलाः- षड्जीवनिकाय हिताः 'निवमध्यमत्ता' इति 'एएहि अति ये ते पूर्वोक्तगुणा एतैश्चान्यैश्वानुकूललक्षणैर्गुणवद्भिर्याऽसावनुपालिता भगवती अहिंसा प्रथमं संवरद्वारमिति हृदयं । अथाहिंसापालनोद्यतस्य यद्विधेयं तदुच्यते- 'इमं वेत्यादि, अयं च वक्ष्यमाणविशेषण उच्छो गवेषणीय इति सम्बन्धः, किमर्थमत आह- पृथिव्युदकाग्निमारुततरुगणत्र सस्थावरसर्वभूतेषु विषये या संयमद्या-संयमात्मिका घृणा न तु मिथ्यादृशाभिव बन्धात्मिका तदर्थं तद्धेतोः शुद्धः Eucation internationa For Pass Use Only ~217~ १ संवर द्वारे अहिंसाया नामानि कारका भावनाश्च सू० २३ ॥ १०७ ॥ waryra Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] गाथा: अनवद्यः उञ्छो-भैक्ष्यं गवेषयितव्यः-अन्वेषणीयः, इह चोञ्छशब्दस्य पुंल्लिाखेऽपि प्राकृतत्वात् नपुंसकलिनिर्देशो म दोषायेति, उछमेव विशेषयनाह-'अकय'मित्यादि, अकृतः साध्व) दायकेन पाकतो न विहितः 'अकारिय'त्ति न चान्यैः कारितः 'अणाहय'ति अनाहूतो गृहस्थेन साधारनिमन्त्रणपूर्वकं दीयमानः 'अनुदिहों' यावन्तिकादिभेदवर्जितः 'अकीयकर्ड'ति न क्रीयते-न क्रयेण साध्वधं कृतः अफ्रीतकृता, एत8 देव प्रपञ्चयति-नवभिश्च कोटिभिः सुपरिशद्धः, ताश्चमा:-न हंति १ न घातयति २ अन्तं नानुजानाति ३.5 दन पचति ४ न पाचयति ५ पचन्तं नानुजानाति ६न क्रीणाति ७न क्रापयति ८ क्रीणन्तं नानुजानाति ९ तथा दशभिर्दोषैर्विममुक्तः, ते चामी-'संकिय १ मक्खिय २ निक्खित्त ३ पिहिय ४ साहरिय ५ दायगु ६मम्मीसे ७। अपरिणय ८लित्त ९ छयि १० एसणदोसा दस हवन्ति ॥१॥"[शङ्कितः प्रक्षितः निक्षिप्तः |पिहितः संहृतः दायकदुष्टः उन्मिश्रः । अपरिणतो लिप्तः छर्दितः एषणादोषा दश भवन्ति ॥१॥] 'उग्गमुप्पायणेसणासुद्धति उद्गमरूपा च या एषणा-गवेषणा तया शुद्धो यः स तथा, तन्त्रोदुगमः षोडशविधः, आह च-"आहाकम्मु १ देसिय २, पूइकम्मे य३मीसजाए य४ । ठवणा ५ पाहुडियाए ६, पाओयर ७ कीय ८ पामिचे ९॥ १ ॥ परियहिए १० अभिहडे ११, उभिन्न १२ मालोहडे इय १३ । अच्छिज्जे १४ अणिसिट्टे १५, अज्झोपरए १६ य सोलसमे ॥ २॥"[आधार्मिक औद्देशिकः पूतिकर्मा च मिश्रजातश्च । स्थापना प्राभृतिका पादुष्करणं क्रीतः प्रामित्यः ॥ १ ॥ परिवर्तितः अभ्याहृतः उद्भिन्नः मालापहत इति । ACCEEKESAKACCX दीप अनुक्रम [३०-३५] ~218~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२१-२३] गाथा: दीप अनुक्रम [ ३०-३५] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [१] मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०] अंग सूत्र [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक र० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ॥ १०८ ॥ आच्छिय अनिसृष्टः अध्ववपूरकश्च षोडशः ॥ २ ॥ ] उत्पादनाऽपि षोडशविधैष, आह च - "धाई १ दूइ २ निमित्ते ३ आजीव ४ वणीमगे ५ तिमिच्छा य ६ । कोहे ७ माणे ८ माया ९ लोभे य १० हवंति दस एए ॥ १ ॥ पुचि पच्छा संभव ११-१२ विजा १३ मं ते य १४ बुण्णजोगे य १५ । उप्पायणाय दोसा सोलसमे मूलकम्मे य १६ ॥ २ ॥" [धात्री दूती निमित्तं आजीवः वनीपकः चिकित्सा च । क्रोधो मानो माया लोभ भवन्ति दशैते ॥ १ ॥ पूर्वपञ्चात्संस्तवो विद्या मन्त्रः चूर्णयोगश्च उत्पादनायाश्च दोषाः षोडशो मूलकर्म च ॥ २ ॥ ] 'ववगयचुयचयचत्तदेह त्ति व्यपगताः स्वयं पृथग्भूताः देयवस्तुसम्भवा आगन्तुका वा कृम्यादयः च्युता-मृताः खतः परतो वा देयवस्त्वात्मकाः पृथिवीकायिकादयः 'चय'त्ति त्याजिताः देयद्रव्यात् पृथकारिताः दायकेन 'चत्त'त्ति स्वयमेव दायकेन त्यक्ताः देयद्रव्यात् पृथक्कृता देहा:- अभेदविवक्षया दे हिनो यस्मादुञ्छात् स तथा स च किमुक्तं भवति ? - प्राशुकश्च प्रगतप्राणिकः, वृद्धव्याख्या पुनरेवम्-विगतः - ओघतः चेतनापर्यायादचेतनत्वं प्राप्तः च्युतो - जीवनादिक्रियाभ्यो भ्रष्टः च्यावितः ताभ्य एव आयु:क्षयेण भ्रंशितः त्यक्तदेहः परित्यक्तजीव संसर्गसमुत्थशक्तिजनिताहारादिपरिणामप्रभवोपचय इति, उत्पादनादोषविवर्जितत्वं प्रपञ्श्चयन्नाह – 'ण णिसज्ज कहापओयणक्खासुओणीयं न-नैव निषय-गोचरगत आ सने उपविश्य कथाप्रयोजनं - धर्मकथाव्यापारं यत्करोति तन्निषद्यकथाप्रयोजनं तस्मात् आख्याश्रुताब-आख्यानकप्रतिवद्धश्रुतात् दायकावर्जनार्थ नदेनेव प्रयुक्तात् यदुपनीतं-दायकेन दानार्थमुपहितं तत्तथा, भैक्षं Education Internation For Penal Use Only ~219~ १ संवर द्वारे अहिंसाया नामानि कारका भावनाश्व सू० २३ ॥ १०८ ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२१-२३] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ३०-३५ ] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [१] मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः १९ गवेषयितव्यमिति सम्बन्धः, न-नैव चिकित्सा च-रोगप्रतीकारो मनश्च चेदिकादिदेवाधिष्ठिताक्षरानुपूर्वी मूलं कृताञ्जल्यायौषधिमूलं भैषजं च द्रव्यसंयोगरूपं हेतुः कारणं लाभापेक्षया यस्य भैक्षस्य ततधा न-नैव लक्षणं शब्दप्रमाण स्त्रीपुरुषवास्त्वादिलक्षणं उत्पाताः - प्रकृतिविकाराः रक्तवृष्ट्यादयः खमो- निद्राविकारः ज्योतिषं-नक्षत्रचन्द्र योगादिज्ञानोपायशास्त्रं निमित्तं चूडामण्याद्युपदेशेनातीतादिभावसंवादनं कथा-अर्थकथादिका कुहकं परेषां विस्मयोत्पादनप्रयोगः एभिराक्षिप्तेन यत्प्रयुक्तं दानाय दायकेन व्यापारितं मैक्षं तत्तथा, तथा नापि दम्भनया-दम्भेन मायाप्रयोगेण नापि रक्षणया दापकस्य पुत्रर्णकगृहादीनां नापि शासनया - शिक्षणया नाप्युक्तत्रय समुदायेनेत्याह- 'नवी'त्यादि मैक्षं भिक्षासमूहो गवेषयितव्यं - अन्वेषणीयं नापि वन्दनेन - स्तवनेन यथा-'सो एसो जस्स गुणा वियरंति अवारिया दसदिसामु । इहरा कहासु सुव्यसि पचक्खं अज दिट्ठोऽसि ॥ १ ॥ [ एष स प्रत्यक्षः यस्य गुणा अवारिता दशसु दिक्षु प्रसरन्ति अन्यथा कथासु श्रूयते अथ प्रत्यक्षं दृष्टोऽसि ॥ १ ॥ ] नापि माननया-आसनदानादिप्रतिपत्त्या नापि पूजनया - तीर्थनिर्माल्यदानमस्तक गन्धक्षेपमुखवस्त्रिका नमस्कार मालिकादानादिलक्षणया नाप्युक्तत्रययोगेनेत्याह - 'नवीत्यादि, तथा नापि हीलनया - जात्युद्यहनतः नापि निन्दनया-देयदायकदोषोदूहनेन नापि मह गया-लोकसमक्षदायकादिनिन्दया, नाप्येतत्रितयेनेत्याह- 'नवी 'त्यादि, नापि भेषणया अदित्सतो भयोत्पादनेन नापि तर्जनया- तर्जनी चालनेन ज्ञास्यसि रे दुष्ट ! इत्यादिभणनरूपया नापि ताडनया- चपेटा दिदा For Penal Use On ~220~ ra Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] गाथा: प्रश्नव्याक- नता, नाप्युक्तत्रययोगेनेत्याह-'नवी'त्यादि, नापि गौरवेण-गर्वेण राजपूजितोऽहमित्यायभिमानेन नापि कु- १ संवरर० श्रीअ- धनतया-दारिद्र्यभावेन प्राकृतत्वेन वा क्रोधनतया नापि वनीपकतया-रकवल्लूल्लिव्याकरणेन नाप्युक्तत्रय- द्वारे भयदेव० मीलनेनेत्याह-'नवी'त्यादि, नापि मित्रतया-मित्रभावमुपगम्घेत्यर्थः नापि प्रार्थनया-यावया अपि तु साधु-31 अहिंसाया वृत्तिः 18/रूपसन्दर्शनेन, आह च-"पडिरूवेण एसित्ता, मियं कालेण भक्खए।" [साधुरूपेणैषयित्वा मितं कालेन नामानि भिक्षयेत् ] नापि सेवनया-खामिनो भृत्यवत, नापि युगपदुक्तत्रयमीलनकेनेत्याह-'नवी'त्यादि, ययेवमेव च | कारका न गवेषयति भैक्षं भिक्षुस्तर्हि तद्गवेषणायां किंविधोऽसौ भवेदित्याह-अज्ञातः-खयं खजनादिसम्बन्धाक- भावनाश्च थनेन गृहस्थैरपरिज्ञातस्वजनादिभावः तथा 'अगदिए'त्ति अग्रथितः परिज्ञानेऽपि तेषु तेन सम्बन्धिनाऽम-18 सू०२३ तिबद्धः आहारे वाऽगृद्धः 'अनुढे 'त्ति आहारे दायके वाऽद्विष्टः अदुष्टो वा 'अहीणत्ति अद्रीण:-अक्षुभितः। अविमना-न विगतमानस: अलाभादिदोषात् अकरुणो-न दयास्थानं न्यग्वृत्तित्वात् अविषादी-अविषादधान् अदीन इत्यर्थः अपरितान्ताः-अश्रान्ताः योगा-मनाप्रभृतयः सदनुष्ठानेषु यस्य सोऽपरितान्तयोगी अत एव यतनं-प्रासेषु संयमयोगेषु प्रयत्न उद्यमः घदनं च-अप्राप्ससंयमयोगप्राप्तये यत्न एव ते कुरुते यः स यतन-14 Pघटनकरणः तथा चरितः-सेवितो विनयो येन स चरितविनयः, तथा गुणयोगेन-क्षमादिगुणसम्बन्धेन स-|| सम्प्रयुक्तो यः स तथा, ततः पन्चयस्य कर्मधारयः, भिक्षभिषणायां निरतो भवेदिति गम्यते, 'इमं च'त्ति। ॥१०९॥ इदं पुनः पूर्वोक्तगुणभक्षादिप्रतिपादनपरं प्रवचनमिति योगः सर्वजगज्जीवरक्षणरूपा या दया तदर्थ प्रावचनं ACCORROCEARCOACADEOCOCC दीप अनुक्रम [३०-३५] ~221 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [१] ------------------- मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] गाथा: -प्रवचनं शासनं भगवता श्रीमन्महावीरेण सुकथितं न्यायाबाधितत्वेन आत्मनां-जीवानां हितं आत्महितं पेचाभावियंति प्रेत्य-जन्मान्तरे भवति-शुद्धफलतया परिणमतीत्येवंशीलं प्रेत्यभाविकं आगमिष्यति काले दाभद्र-कल्याणं यतस्तदागमिष्यद्भद्रं शुद्ध-निर्दोष 'नेआउयति नैयायिकं न्यायवृत्ति अकुटिलं-मोक्षं प्रति ऋजु अनुत्तरं सर्वेषां दुःखाना-असुखानां पापानां च तत्कारणानां व्यपशमनं-उपशमकारकं यत्तत्तथा । || अथ यदुक्तं 'तीसे सभावणाए उ किंचि वोच्छं गुणुहेस'ति तत्र का भावनाः?, अस्यां जिज्ञासायामाह 'तस्से'त्यादि सस्य-प्रथमस्य व्रतस्य भवन्तीति घटना, इमा:-वक्ष्यमाणप्रत्यक्षाः पञ्च भावना, भाव्यते-वास्यते व्रतेनात्मा यकाभिस्ता भावनाः-ईर्यासमित्यादयः, किमर्था भवन्तीत्याह-'पाणा' इत्यादि, प्रथमव्रतस्य यत्प्राणातिपातविरमणलक्षणं स्वरूपं तस्य परिरक्षणार्थाय 'पढमति प्रथम भावनावस्त्विति गम्यते, स्थाने गमने च गुणयोग-वपरप्रवचनोपघातवर्जनलक्षणगुणसम्बन्धं योजयति-करोति या सा तथा, युगान्तरे-1 यूपप्रमाणभूभागे निपतति या सा युगान्तरनिपातिका ततः कर्मधारयस्ततस्तया दृष्ट्या-चक्षुषा 'इरिपवंति BI-इरितव्य-गन्तव्यं, केनेलाह-कीटपतङ्गादयनसाश्च स्थावराश्च कीटपतङ्गबसस्थावरास्तेषु दयापरो यस्तेन, नित्यं पुष्पफलस्वरुप्रवालकन्दमूलदकवृत्तिकाबीजहरितपरिवर्जकेन सम्यगिति प्रतीतं नवरं प्रथाल:-पल्लवाकुर दकं-उदकमिति, अथेासमित्या प्रवर्त्तमानस्य यत्स्यात्तदाह-एवं खलु'त्ति एवं च ईर्यासमित्या प्रवमानस्येत्यर्थः सर्वे प्राणा सर्वे जीवा न हीलयितव्या-अवज्ञातव्या भवन्ति, संरक्षणप्रपतत्वात् न तानव दीप अनुक्रम [३०-३५] ~222~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] 11१संबर द्वारे गाथा: प्रश्नव्या-ज्ञाविषयीकरोतीत्यर्थः, तथा न निन्दितव्या न गर्हितव्या भवन्ति सर्वथा पीडादर्जनोद्यतस्येन गौरव्याणामिव र० श्रीअ- दर्शनात् , निन्दा य-खसमक्षा गहीं च-परसमक्षा, तथा न हिंसितव्याः पादाक्रमणेन मारणतः, एवं न छेभयदेवतव्या द्विधाकरणतो न भेत्तव्याः स्फोटनतः 'न बहेयव्य सिन व्यथनीयाः परितापनात् न भयं-भीति दुःखं च शारीरादि किश्चिदल्पमपि लभ्या-योग्याः प्रापयितुं जे इति निपातो याक्यालङ्कारे एवं-अनेन न्यायेन | नामानि इर्यासमितियोगेन-ईयासमितिव्यापारण भावितो-वासितो भवत्यन्तरात्मा-जीवः, किंविध इत्याह-अशवलेन ॥११॥ कारका मा-मालिन्यमात्ररहितेन असइक्लिष्टन-विशुद्धवमानपरिणामवता निल-अक्षतेनाखण्डेनेतियावत् चारित्रेण -सामायिकादिना भावना-वासना यस्य सोऽशवलासक्लिष्टनिव्रणचारित्रभावनाकः अथवा अशवलासक्रिष्टनिव्रणचारित्रभावनया हेतुभूतया अहिंसक-अवधकः संयतों-मृवावादागुपरतिमान् सुसाधः-मोक्षसाधक इति । 'विइयं चत्ति द्वितीयं पुनर्भावनावस्तु मनासमितिः, तत्र मनसा पापं न ध्यातव्यं, एतदेवाहमनसा पापकेन, पापकमिति काकाऽध्येयं, ततश्च पापकेन-दुष्टेन सता मनसा यत् पापक-अशुभं तत्, न कदाचिन्मनसा पापेन पापकं किश्चिदू ध्यातव्यमिति वक्ष्यमाणवाक्येन सम्बन्धः, पुनः किम्भूतं पापकमित्याह-अधामार्मिकाणामिदमाधार्मिकं तच तदारुणं चेति आधार्मिकदारुणं नृशंसं-शुकावर्जितं बधेन-हननेन बन्धेन-संयम-15 |नेन परिक्लेशेन च-परितापनेन हिंसागतेन बहुलं-प्रचुरं यत्तसथा, जरामरणपरिक्लेशफलभूतैः वाचनान्तरे भयमरणपरिक्लेशः सक्लिष्ट-अशुभं यत्तत्तथा, न कदाचित्कचनापि काले 'मणेण पावर्य'ति पापकेनेदं मनसा । का सू०२३ दीप अनुक्रम [३०-३५] Baitaram.org ~223~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] गाथा: पावगति प्राणातिपातादिकं पापं किश्चिद्-अल्पमपि ध्यातव्यं-एकाग्रतया चिन्तनीयं, एवं-अनेन प्रकारेण मनःसमितियोगेन-चित्तसत्प्रवृत्तिलक्षणव्यापारेण भावितो-वासितो भवन्त्यन्तरात्मा-जीवा, किंविध इ. त्याह-अशवलासडूक्लिष्टनिर्बणचारित्रभावनाकः अशबलासक्लिष्टनिर्जणचारित्रभावनया चा अहिंसकः सं-1 यतः सुसाधुरिति प्राग्वत् । तइयं वशि तृतीयं पुनर्भावनावस्तु बचनसमितिः यत्र वाचा पापं न भणितव्यमिति, एतदेवाह-'बईए पाविधाए' इति काकाऽध्येतव्यं, एतदृव्याख्यानं च प्रारबत् । चतुर्थ भावनावस्तु आहारसमितिरिति, तामेवाह-'आहारएसगाए सुर्दू उंछ गवेसियव्य'ति व्यक्त, इदमेव भावयितुमाह-अज्ञातः-श्रीमत्प्रत्रजितादित्वेन दायकजने नामवगतः अकथितः खयमेव यथाऽहं श्रीमत्प्रवजितादिरिति अशिष्ट-अप्रतिपादितः परेण वाचनान्तरे 'अन्नाए अगढिए अदुढे'त्ति दृश्यते 'अद्दीणे'त्यादि तु पूर्ववत्, भिक्षुः-भिक्षैषणया युक्तः 'समुदाणेऊणति अटिवा भिक्षाचर्या-गोचरं उञ्छमियोच्छ-अल्पाल्पं गृहीतं भैक्ष्यं गृहीखा आगतो गुरुजनस्य पाच-समीपं गमनागमनातिचाराणां प्रतिक्रमणेन ईर्यापथिकादण्डकेनेत्यर्थः प्रतिक्रान्तं येन स तथा 'आलोयणदायणं चात्ति आलोचनं-यथागृहीतभक्तपाननिवेदनं तयोरवोपदर्शनं च 'वाउण'त्ति कृत्वा 'गुरुजणस्तति गुरोगुरुसन्दिष्टस्य वा वृषभस्य 'जहोयएस'ति उपदेशारतिक्रमेण निरतिचारं च-दोषवर्जनेन अग्रमसः पुनरपि च अनेषणायाः-अपरिज्ञातानालोचितदोषरूपायाः प्रयतो-दबवान् प्रतिक्रम्य कायोत्सर्गकरणेनेति भावः प्रशान्ता-उपशान्तोऽनुस्सुकः आसीन-उपविष्टः स एव विशे-| दीप अनुक्रम [३०-३५] ~224 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] वृत्तिः भावनाश्च गाथा: प्रश्नव्याक-प्यते-सुखनिषपण:-अनाराघवृत्त्योपविष्टः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, मुहर्तमानं च कालं ध्यानेन-धर्मा- १ संवरर०श्रीअ. दिना शुभयोगेन-संयमव्यापारेण गुरुविनयकरणादिना ज्ञानेन-ग्रन्थानुप्रेक्षणरूपेण खाध्यायेन च-अधीत- द्वारे भयदेव गुणनरूपेण गोपितं-विषयान्तरगमने निरुद्धं मनो येन स तथा अत एव धर्मे-श्रुतचारित्ररूपे मनो यस्य स अहिंसाया तथा अत एव अविमना:-अशून्यचित्तः शुभमना:-असक्लिष्टचेताः 'अविग्गहमणे'त्ति अविग्रहमना- नामानि अकलहचेताः अच्युग्रहमना वा-अविद्यमानासदभिनिवेशः 'समाहितमणे'त्ति सम-तुल्यं रागद्वेषानाकलितं कारका ॥१११॥ आहितं-उपनीतमात्मनि मनो येन स समाहितमनाः समेन वा-उपशमन अधिकं मनो यस्य समाधिकमनाः समाहितं वा-स्वस्थं मनो यस्य समाहितमना श्रद्धा च-तत्त्वश्रद्धानं संयमयोगविषयो वा निजोऽभिलाषा सू०२३ 3|संवेगव-मोक्षमार्गाभिलाषः संसारभयं वा निर्जरा च-कर्मक्षपर्ण मनसि यस्य स श्रद्धासंवेगनिर्जरमना:.IN प्रवचनवात्सल्यभावितमना इति कण्ठ्यं, उत्थाय च प्रहृष्टतुष्टः-अतिशयप्रमुदितः यथारानिक-यथाज्येष्ठं निमय च साधून-साधर्मिकान भावतश्च-भक्त्या विइपणे यत्ति वितीर्णे च भुकश्व स्वमिदमशनादीत्येवं अनुज्ञाते च सति भक्तादौ गुरुजनेन-गुरुणा उपविष्ट उचितासने संप्रमृज्य मुखवस्त्रिकारजोहरणाभ्यां सशीर्ष कार्य-समस्तकं शरीरं तथा करतलं-हस्ततलं च अमूछितः-आहारविषये भूढिमानमगतः अगृद्धः-अप्राप्तेषु मारसेष्वनाकाद्धावान् अग्रथितः-रसानुरागतन्तुभिरसन्दर्भितः अगर्हितः-आहारविषयेऽकृतगहें इत्यर्थः अन-IN ध्युपपन्नो-न रसेष्वेकाग्रमनाः अनाविल:-अकलुषः अलुब्धः-लोभविरहितः 'अणत्तट्टिए'त्ति नात्मार्थ एवं दीप अनुक्रम [३०-३५] ॥१११॥ ~225 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं २१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१-२३] गाथा: यस्यास्त्यसाचनात्मार्थिकः परमार्थकारीत्यर्थः, 'असुरसुति एवंभूतशब्दरहितं 'अचवचति चवचवेतिशब्दरहितं अद्भुतं-अनुत्सुकं अविलम्बित-अनतिमन्दं अपरिशाटि-परिशाटिवर्जितं 'भंजेला' इति क्रियायाः विशेषणानीमानि, 'आलोयभायणे'त्ति प्रकाशमुखे भाजने अथवा आलोके-प्रकाशे नान्धकारे, पिपीलिकाचालादीनामनुपलम्भात्, तथा भाजने-पात्रे, पात्रं विना जलादिसम्पतितसत्त्वादर्शनादिति, यत-मनोवाकायसंयतत्वेन प्रयोन-आदरेण व्यपगतसंयोग-संयोजनादोषरहितं 'अर्णिगालं 'त्ति रागपरिहारेणेत्यर्थः विगयधूम'ति द्वेषरहितं, आह च-"रागेण सइंगालं दोसेण सधूमगं वियाणाहि"त्ति [रागण साकारं द्वेषेण सधूमकं विजानीहि ] अक्षस्य-धुरः उपाञ्जनं-म्रक्षणं अक्षोपाञ्जनं तच्च व्रणानुलेपनं च ते भूत-प्राप्तं यत्तत्तथा 3 तत्कल्पमित्यर्थः, संयमयात्रा-संयमप्रवृत्तिः सैव संयमयात्रामात्रा तत् निमित्तं-हेतुर्यत्र तत्संयमयात्रामात्रा-14 निमित्तं, किमुक्तं भवति?-संयमभारवहनार्थतया, इयं भावना-इह यथाऽक्षस्योपाञ्जने भारवहनायैव विधीयते न प्रयोजनान्तरे एवं संयमभारवहनायैव साधुर्भुशीत न वर्णबलरूपनिमित्तं विषयलील्येन वा, भोजन-15 विकलो हि न संयमसाधनं शरीरं धारयितुं समर्थी भवतीति 'भुंजेज'त्ति भुञ्जीत भोजनं कुर्वीत, तथा भोजने कारणान्तरमाह-प्राणधारणार्थतया-जीवितव्यसंरक्षणायेत्यर्थः, संयतः-साधुः, णमिति वाक्यालङ्कारे, 'समय तिर सम्यक, निगमयन्नाह-एवमाहारसमितियोगेन भावितः सन् भावितो भवन्त्यन्तरात्मा अशयलासक्लिष्टनि--18 चारित्रभावनाकः अशबलासडूक्लिष्टनिव्रणचारित्रभावनया वा हेतुभूतया अहिंसकः संयतः सुसाधुरिति ।। दीप अनुक्रम [३०-३५] SAREsannintamanand Standiturary.com ~226~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२१-२३] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ३०-३५ ] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं [२१-२३] + गाथा: श्रुतस्कन्धः [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ॥ ११२ ॥ 'पंचमगं'ति पञ्चमं भावनावस्तु आदाननिक्षेपसमितिलक्षणं एतदेवाह-पीठादि द्वादशविधमुपकरणं प्रसिद्धं 'एयंपी'ति एतदपि अनन्तरोदितमुपकरणं अपिशब्दादन्यदपि संयमस्योपबृंहणार्थतया संयमपोषणाय तथा वातातपदंशमशकशीत परिरक्षणार्थतया उपकरणं-उपकारकं उपधिं रागद्वेपरहितं क्रियाविशेषणमिदं 'परिहरियवं'ति परिभोक्तव्यं, न विभूषादिनिमित्तमिति भावना, संयतेन साधुना नित्यं सदा तथा प्रत्युपेक्षणा४ प्रस्फोटनाभ्यां सह या प्रमार्जना सा तथा तथा, तत्र प्रत्युपेक्षणथा चक्षुर्व्यापारेण प्रस्फोटनया - आस्फोटनेन ॐ प्रमार्जनया च-रजोहरणादिव्यापाररूपया, 'अहो य राओ यन्ति अह्नि च रात्रौ च अप्रमत्तेन भवति सततं निक्षेप्तव्यं च मोक्तव्यं ग्रहीतव्यं च आदातव्यं, किं तदित्याह- भाजनं पात्रं भाण्डं तदेव मृन्मयं उपधिश्व| वस्त्रादिः एतत्रयलक्षणमुपकरणं उपकारि वस्त्विति कर्मधारयः, निगमयन्नाह - 'एवमादाने' त्यादि पूर्ववत् नवरं इह प्राकृतशैल्याऽन्यथा पूर्वापरपदनिपातः तेन भाण्डस्य - उपकरणस्यादानं च ग्रहणं निक्षेपणा चमोचनं तत्र समितिः भाण्डादाननिक्षेपणासमितिरिति वाच्ये आदानभाण्ड निक्षेपणासमितिरित्युक्तं, अथाध्ययनार्थं निगमयन्नाह - 'एवमिति उक्तक्रमेण इदं अहिंसालक्षणं संवरस्य-अनाश्रवस्य द्वारं-उपायः सम्यक संवृतं- आसेवितं भवति, किंविधं सदित्याह - सुप्रणिहितं सुप्रणिधानवत् सुरक्षितमित्यर्थः, की किंविधैरित्याह-एभिः पञ्चभिरपि कारणैः- भावनाविशेषः अहिंसापालन हेतुभिः मनोवाक्काय परिरक्षितैरिति, तथा नित्यं सदा आमरणान्तं च-मरणरूपमन्तं यावत् न मरणात्परतोऽपि असम्भवात्, तथा एषः- योगोऽ प्रश्नव्याक र० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः For Penal Use Only ~ 227~ १ संवर द्वारे अहिंसाया नामानि कारका भावनाश्च सू० २३ ॥ ११२ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], ------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [२१-२३] ** * गाथा: अनन्तरोदितभावनापञ्चकरूपो व्यापारो नेतव्यो-वोढव्य इति भावः, केन?-धृतिमता-खस्थचित्तेन मतिमताबुद्धिमता, किम्भूतोऽयं योगः?-अनाश्रया-नवकर्मानुपादानरूपः यतः अकलुषः-अपापस्वरूपः छिद्रमिव छिद्र कर्मजलप्रवेशात्तन्निषेधेनाच्छिद्रः, अच्छिद्ररूपत्वादेवापरिश्रावी-न परिश्रवति कर्मजलप्रवेशतः असङ्कक्लिष्टोन चित्तसइन्क्लेशरूपः शुद्धो-निषिः सर्वजिनैरनुज्ञाता-सार्हतामनुमतः, 'एव'मिति इयोसमित्यादिभावनापश्वकयोगेन प्रथमं संवरद्वार-अहिंसालक्षणं फासियंति स्पृष्टमुचिते काले विधिना प्रतिपन्नं 'पालितं सततं सम्यगुपयोगेन प्रतिचरितं 'सोहियोति शोभितमन्येषामपि तदुचितानां दानात् अतिचारवर्जनाद्वा शोधित वा-निरतिचारं कृतं 'तीरितं' तीरं-पारं प्रापितं कीर्तितं-अन्धेषामुपदिष्टं आराधितं-एभिरेव प्रकारैर्निष्ठां नीतं आज्ञया-सर्वज्ञवचनेनानुपालितं भवति पूर्वकालसाधुभिः पालितस्वाद्विवक्षितकालसाधुभिश्चानु-पशात् पालितमिति, केनेदं प्ररूपितमिस्याह-एवमित्युक्तरूपं ज्ञातमुनिना-क्षत्रियविशेषरूपेण यतिना श्रीमन्महावीरेणेत्यर्थः, भगवता-ऐश्वर्यादिभगयुक्तेन प्रज्ञापितं-सामान्यतो विनेयेभ्यः कथितं प्ररूपितं-भेदानु भेदकथनेन प्रसिद्ध-प्रख्यातं सिद्ध-प्रमाणप्रतिष्टितं सिद्धानां-निष्ठितार्थानां वरशासन-प्रधानाज्ञा सिद्धवरशा-14 सासनं इदं-एतत् 'आघधिय'ति अर्थ:-पूजा तस्य आपः-प्राप्तिर्जाता यस्य तदर्धापितं अर्घ वा आपितं-प्रापितं13 इयत्तदर्घापितं सुनु देशितं-सदेवमनुजासुरायां पर्षदि नानाविधनयप्रमाणैरभिहितं प्रशस्त-माङ्गल्यमिति । ANSAR * * दीप अनुक्रम [३०-३५] ** S ~228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२१-२३] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ३०-३५ ] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [१] मूलं [२१-२३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक- ५ प्रथमं संवरद्वारं समाप्तं ॥ इतिशब्दः समाप्तौ ब्रवीमि सर्वज्ञोपदेशेनाहमिदं सर्व पूर्वोक्तं प्रतिपादयामि न १२ संवर र० श्रीअस्वमनीषिकयेति । प्रश्नव्याकरणानां च षष्ठमध्ययनं विवरणतः समाप्तम् ॥ ६ ॥ द्वारे भयदेव० वृत्तिः ॥ ११३ ॥ Ja Educat - अथ द्वितीयसंवरात्मकं सप्तममध्ययनम् ॥ व्याख्यातं प्रथमसंवराध्ययनं, अथ सूत्रक्रमसम्बद्धमथवाऽनन्तराध्ययने प्राणातिपातविरमणमुक्तं तच सा|मान्यतोऽलीकविरमणवतामेव भवतीत्यलीकविरतिरथ प्रतिपादनीयेत्येवंसम्बद्धं द्वितीयमध्ययनमारभ्यतेअस्य चेदमादिसूत्रम् - जंबू ! वितियं च सचवणं सुद्धं सुचियं सिवं सुजायं सुभासियं सुब्वयं सुकहियं सुदिहं सुपतिट्ठियं सुपइ ट्टियजर्स सुसंमियवयणवुइयं सुरवरनरवसभपवरबलवगसुविहियजणवहुमयं परमसाहुधम्मचरणं तवनियमपरिग्गहिथं सुगतिपहृदेसकं च लोगुत्तमं वयमिणं विज्जाहरगगणगमणविजाणसाहकं सग्गमग्गसिद्धिपहदेसकं अवित तं सचं उज्जुयं अकुडिलं भूयत्थं अत्थतो विसुद्ध उज्जोयकरं पभासकं भवति सव्त्रभावाण जीव लोगे अविसंवादिजहत्थमधुरं पञ्चक्खं दयिवयंव जं तं अच्छेरकारकं अवत्थंतरेसु बहुए माणुसणं सच्चेण महासमुहमझे मूढाणियावि पोया सच्चेण य उदगसंभमंमिवि न वुझाइ न य मरंति चाहं ते अत्र द्वितिये श्रुतस्कन्धे प्रथमं अध्ययनं परिसमाप्तं अथ द्वितिये श्रुतस्कन्धे द्वितियम् अध्ययनं "सत्यं" आरभ्यते "अलिकविरति" द्वितीयं संवर-द्वारं नामक For Penal Use Only ~ 229~ सत्यस्य म हिमा स्वरूपं च सू० २४ ॥ ११३ ॥ incibrary org Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३६] श्रुतस्कन्धः [२], मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः * % % %%% % % “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - अध्ययनं [२] Eucation International लति सच्चेण य अगणिसंभमंमिवि न उज्झति उज्जुगा मणूसा सच्चेण य तत्ततेत उलोहसीसकाई छिवंति धरैति न य उज्झति मणूसा पव्ययकडकाहिं मुञ्चते न य मरति सच्चेण य परिग्गहिया असिपंजरगया समराओवि णिइति अणहा य सच्चवादी वहबंधभियोगबेरघोरेहिं पमुच्चंति य अमित्तमज्झाहिं निईति अणहा य सच्चवादी सादेव्वाणि य देवयाओ करेंति सच्चत्रयणे रताणं । तं सचं भगवं तित्थकरसुभासियं दसविहं चोपुत्रीहिं पाहुडत्थविदितं महरिसीण य समयप्पदिन्नं देविंदनरिंदभासियत्थं वेमाणियसाहियं महत्थं मंतोसहिविज्जासाणत्थं चारणगणसमणसिद्धविज्जं मणुयगणाणं वंदणिज्जं अमरगणाणं अवणिज्जं असुरगगाणं च पूयणि अणेगपासंडिपरिग्गहितं जं तं लोकंमि सारभूयं गंभीरतरं महासमुद्दाओ थिरतरगं मेरुपन्याओ सोमतरगं चंदमंडलाओ दित्ततरं सूरमंडलाओ बिमलतरं सरयनहलाओ सुरभितरं गंधमादणाओ जेविय लोगम्मि अपरिसेसा मंतजोगा जवा य विजा य जंभका य अत्याणि य सत्याणि यसि - क्खाओ य आगमा य सञ्चाणिवि ताई सच्चे पट्टियाई, सच्चंपिय संजमस्त उवरोहकारकं किंचि न वस्तव्यं हिंसासावज संपतं भेयविकहकारकं अगत्यवायकलहकारकं अणजं अववायवित्रायसंपत्तं वेलवं ओजधेबहुलं निल लोयगरहणिज्जं दुद्दिद्वं दुस्सुखं अमुणियं अपणो थवा परेसु निंदा न तंसि मेहावीण तंसि धन्नो न तंसि पयधम्मो न तं कुलीणो न तंसि दाणपती न तंसि सूरो न तंसि पडिरूवो न तंसि लट्ठो न पंडिओ न बहुस्सुओ नवि य तं तवस्ती ण यावि परलोगणिच्छियमतीऽसि सव्वकाल जातिकुलरूवचा For Penal Use Only ~ 230~ Contrary org Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२४] प्रश्नव्याक र०श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥११४ ॥ दीप अनुक्रम [३६] SAGRORSCR हिरोगेण बावि जं होइ बजणिज दुहओ उवयारमतिकंतं एवंविहं सच्चपि न वत्तव्यं, अह केरिसकं पुणाइ सचं तु भासियवं?, जं तं दब्वेहिं पजवेहि य गुणेहिं कम्मेहिं बहुबिहेहिं सिप्पेहिं आगमेहि य नामक्खायनिवाउबसगतद्धियसमाससंधिपदहेउजोगियउणादिकिरियाविहाणधातुसरविभत्तिवन्नजुत्तं तिकलं दसविहंपि सत्यस्य मसचं जह भणियं तह य कम्मुणा होइ दुवालसविहा होइ भासा वयणंपिय होइ सोलसविहं, एवं अरहंतम- हिमा स्वणुन्नार्य समिक्खियं संजएण कालंमि य बत्तब्ध (सू०२४) रूपं च 'जंबू' इत्यादि, तत्र जम्बूरिति शिष्यामन्त्रणं 'विइयं चत्ति द्वितीयं पुनः संवरद्वारं 'सत्यवचन' सङ्ग्यो-मु-11 सू० २४ |निभ्यो गुणभ्यः पदार्थेभ्यो वा हितं सत्यं, आह च-"सचं हियं सयामिह संतो मुणओ गुणा पयत्था था।" तथ तद्वचनं सत्यवचनं, एतदेव स्तुवन्नाह-शुद्धं-निदोष अत एव शुचिक-पवित्रं शिव-शिवहेतुः - जातं-शुभविवक्षोत्पन्नं अत एव सुभाषितं-शोभनव्यक्तवाररूपं शुभाश्रितं सुखाश्रितं सुधासितं वा सुव्रतं -शोभननियमरूपं शोभनो नाम मध्यस्थः कथः [थितं प्रतिपादको[यितव्यं यस्य तत्सुकथितं सुदृष्टं-अतीन्द्रियार्थदर्शिभिईठमपवर्गादिहेतुतयोपलब्धं सुप्रतिष्ठितं-समस्तप्रमाणरुपपादितं सुप्रतिष्ठितयश:-अव्याहतख्यातिकं 'सुसंजमियवयणबुइय'ति सुसंयमितवचनैः-सुनियन्त्रितवचनरुक्तं यत्तत्तधा, सुरवराणां नरवृषभाणां 3 'पवरबलवग'त्ति प्रवरवलवतां सुविहितजनस्य च बहुमत-सम्मतं यत्तत्तथा, परमसाधूनां-नैष्ठिकमुनीनां धर्मचरण-धर्मानुष्ठानं यत्तत्तथा, तपोनियमाभ्यां परिगृहीतं-अङ्गीकृतं यत्तत्तथा, तपोनियमी सत्यवादिन NRNA ~231 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३६] श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [२] मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः या. २० “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - एव स्यातां नापरस्येति भावः, सुगतिपथदेशकं च लोकोत्तमं व्रतमिदमिति व्यक्तं, विद्याधरगगनगमनविधानां | साधनं नासत्यवादिनस्ताः सिध्यन्तीति भावः स्वर्गमार्गस्य सिद्धिपथस्य च देशकं प्रवर्त्तकं यत्तत्तथा अवितथं वितथरहितं 'तं सर्वं उज्जुगं'ति सत्याभिधानं यद् द्वितीयं संवरद्वारमभिहितं तदृजुकं ऋजुभावप्रवत्तितत्वात् तथा अकुटिलं अकुटिलखरूपत्वात् भूतः - सद्भूतोऽर्थः - अभिषेयो यस्य तद्भूतार्थ अर्थतः प्रयोजनतो विशुद्धं निर्दोषं प्रयोजनापन्नमिति भावः, उद्योतकरं - प्रकाशकारि, कथं ? यतः प्रभाषकं प्रतिपादकं भवति केषां कस्मिन्नित्याह-सर्वभावानां जीवलोके - जीवाधारे क्षेत्रे, प्रभाषकमिति विशिनष्टि- अविसंवादि-अध्यभिचारि यथार्थमितिकृत्वा मधुरं कोमलं यथार्थमधुरं प्रत्यक्षं दैवतमिव-देवतेव यत्तदाचर्यकारक चितथिस्मयकर कार्यकारकं तदीदृशं केषु केषामित्याह-अवस्थान्तरेषु अवस्थाविशेषेषु बहुषु मनुष्याणां यदाह"सत्येनाग्निर्भवेच्छीतो, गाधं दत्तेऽम्बु सत्यतः । नासिरिछनन्ति सत्येन, सत्याद्रज्यते फणी ॥ १ ॥ एतदेवाह - सत्येन हेतुना महासमुद्रमध्ये तिष्ठन्ति न निमज्जन्ति, 'मूढाणियावि'त्ति मृदं नियतदिग्गमनाप्रत्ययं 'अ' नियंति अग्रे तुण्डं अनीकं वा तत्प्रवर्त्तकं जनसैन्यं येषां ते तथा तेsपि पोता-बोधिस्थाः, तथा सत्येन च उदकसम्भ्रमेऽपि सम्भ्रमकारणत्वादुदकलवः उदकसम्भ्रमस्तत्रापि 'न बुज्झइति वचनपरिणामान्नोद्यन्ते-न प्लाव्यन्ते न च म्रियन्ते स्ताघं च-गाधं च ते लभन्ते, सत्येन चाग्निसम्भ्रमेऽपि प्रदीपनकेऽपि न दह्यन्ते, कजुका-आर्जवोपेताः मनुष्या नराः सत्येन च तप्ततैल पुलोसीसकानि प्रतीतानि 'छिवंति'त्ति छुषंति धार Education Internationa For Par Use Only ~232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम प्रश्नब्याक- यन्ति हस्ताञ्जलिभिरिति गम्यते न च दह्यन्ते मनुष्याः, पर्वतकटकात-पर्वतैकदेशाद् विमुच्यन्ते न च म्रि- २ संबर२० श्रीअ- यन्ते, सत्येन च परिगृहीता युक्ता इत्यर्थः असिपञ्जरे-शक्तिपञ्जरे गताः खड्गशक्तिव्यग्रकररिपुपुरुषवेष्टिता इ- द्वारे भयदेवत्यथा समरान त्यर्थः समरादपि-रणादपि निति त्ति निर्यान्ति-निर्गच्छन्ति, अनघाश्च-अक्षतशरीरा इत्यर्थः, के इत्याह- सत्यस्य मवृत्तिः सत्यवादिनः-सत्यप्रतिज्ञाः वधवन्धाभियोगवैरघोरेभ्यः-ताडनसंयमनवलात्कारपोरशात्रवेभ्यः प्रमुच्यन्ते अ-IN हिमा स्व. ॥११५॥ मित्रमध्यात्-शत्रुमध्यान्निर्यान्ति अनघाश्च-निर्दोषाः सत्यवादिनः, सादेव्यानि च-सान्निध्यानि च देवताः रूपं च कुर्वन्ति सत्यवचनरतानां, आह च-"प्रियं सत्यं वाक्यं हरति हृदयं कस्य न जने?, गिरं सत्यां लोकः प्र- सू०२४ दातिपदमिमामर्थयति च । सुराः सत्याद्वाक्याइदति मुदिताः कामिकफलमतः सत्याद्वाक्यातमभिमतं नास्ति है| भुवने ॥१॥” 'त'मिति यस्मादेवं तस्मात्सत्यं द्वितीयं महाव्रतं भगवद्-भद्दारक तीर्थकरसुभाषितं जिन सुष्टुक्तं दशविध-दशप्रकार जनपदसम्मतसत्यादिभेदेन दशवकालिकादिप्रसिद्धं चतुर्दशपूर्विभिः प्राभृतार्थविदितं-पूर्वगतांशविशेषाभिधेयतया ज्ञातं महर्षीणां च समयेन-सिद्धान्तेन 'पइन्नति प्रदत्तं समयप्रतिज्ञा वा-समाचाराभ्युपगमः, पाठान्तरे 'महरिसिसमयपइन्नचिन्नं ति महर्षिभिः समयप्रतिज्ञा-सिद्धान्ताभ्युपगमः समाचाराभ्युपगमो वेति चरितं यत्तत्तथा, देवेन्द्रनरेन्द्रर्भाषित:-जनानामुक्तोऽङ्कः-पुरुषार्थस्तत्साध्यो धमादि-14 यस्य तत्तथा, अथवा देवेन्द्रनरेन्द्राणां भासितः-प्रतिभासितोऽर्थः-प्रयोजनं यस्य तत्तथा, अथवा देवेन्द्रा-14॥११५॥ दीनां भाषिताः अर्था-जीवादयो जिनवचनरूपेण येन तत्तथा, तथा वैमानिकानां साधितं-प्रतिपादितमुपा [३६]] ~233~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३६] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - श्रुतस्कन्ध: [२], अध्ययनं [२] मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः | देयतया जिनादिभिर्यत्तत्तथा, वैमानिकैर्वा साधितं कृतमासेवितं समर्थितं वा यत्तत्तथा, महार्थ- महाप्रयोजनं, | एतदेवाह - मन्त्रौषधीविद्यानां साधनमर्थः - प्रयोजनं यस्य तद्विना तस्याभावात्ततथा, तथा चारणगणानां वि याचारणादिवृन्दानां श्रमणानां च सिद्धाः विद्या आकाशगमनवैक्रियकरणादिप्रयोजना यस्मात्तत्तथा, मनुजगणानां च वन्दनीयं स्तुत्यं अमरगणानां चार्चनीयं पूज्यं असुरगणानां च पूजनीयं अनेकपाखण्डिपरिगृहीतं नानाविधवतिभिरङ्गीकृतं यत्तल्लोके सारभूतं गम्भीरतरं महासमुद्रादतिशयेनाक्षोभ्यत्वात् स्थिरतरकं मेरुपर्वतात् अचलितत्वेन सौम्यतरं चन्द्रमण्डलात् अतिशयेन सन्तापोपशमहेतुत्वात् दीप्ततरं सूरमण्डलात् | यथावद्वस्तुप्रकाशनात् तेजखिनां चात्यन्तानभिभवनीयत्वात् विमलतरं शरन्नभस्तलादतिनिर्दोषत्वात् सुरभितरमिव सुरभितरं गन्धमादनाद्-गजदन्तकगिरिविशेषात् सहृदयानामतीव हृदयावर्जकत्वात् येऽपि च लोकेऽपरिशेषा-निःशेषा मन्त्राः - हरिणेगमेषिमन्त्रादयः योगा:-वशीकरणादिप्रयोजनाः द्रव्यसंयोगाः जपानमन्त्रविद्याजपनानि विद्याश्व-प्रज्ञस्यादिकाः जृम्भकाञ्च तिर्यग्लोकवासिनो देवविशेषाः अस्त्राणि च नाराचादीनि क्षेप्यायुधानि सामान्यानि वा शास्त्राणि च - अर्थशास्त्रादीनि शस्त्राणि वा खड्गादीन्यक्षेप्यायुधानि | शिक्षाश्च कलाग्रहणानि आगमान-सिद्धान्ताः सर्वाण्यपि तानि सत्ये प्रतिष्ठितानि, असत्यवादिनां न केऽपि मन्त्रादयोऽर्थाः खसाध्यसाधकाः प्रायो भवन्तीति भावः, तथा सत्यमपि सद्भूतार्थमात्रतया संयमस्योपरोध| कारकं पाधकं किञ्चिद् अल्पमपि न वक्तव्यं, किंरूपं तदित्याह - हिंसया जीववधेन सावधेन च पापेन आला For Par Lise Only ~ 234~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम प्रश्नव्याक- पादिना सम्प्रयुक्तं यत्तत्तधा, आह च-"तहेव काणं काणित्ति, पंडगं पंजगत्ति य । चाहियं वा विरोगिति. र०श्रीअ तेणं चोरित्ति नो वए॥१॥"[तथैव काणं काणमिति पण्डक पण्डकमिति वा व्याधिमन्तं वापि रोगीति स्तेनं द्वारे भयदेव चौरमिति नो वदेत् ॥१॥ भेदः-चारित्रभेदस्तत्कारिका विकथा:-ख्यादिकथाः तत्कारकं यत्तत्तथा, तथा अनर्थ सत्यस्य मवृत्तिः वादो-निष्प्रयोजनो जल्पः कलहश्च-कलिस्तत्कारकं यत्तत्तथा, अनार्य-अनार्यप्रयुक्तं अन्याय्यं च-अन्यायो | हिमा स्वपेतं अपवादः-परदूषणाभिधानं विवादो-विप्रतिपत्तिस्तत्सम्प्रयुक्तं यत्तत्तथा, वेलम्ब-परेषां विडम्बनकारि रूपच ॥११६॥ ओजो-बलं धैर्य च-धृष्टता ताभ्यां बहुलं-प्रचुरमोजोधैर्यबहुल निर्लज-अपेतलजं लोकगर्हणीयं-निन्छ । सू०२४ दृष्टं-असम्यगीक्षितं दुःश्रुतं-असम्यगाकर्णितं दुर्मुणितं-असम्यग्ज्ञातं आत्मनः स्तवना-स्तुतिः परेषां निभन्दा-गहो, निन्दामेवाह-'नसित्ति नासि न भवसि त्वमिति गम्यते मेधावी-अपूर्वश्रुतदृष्टग्रहणशक्तियुतः तथा न त्वमसि धन्यो-धनं लब्धा तथा नासि-न भवसि प्रियधम्मा-धम्मप्रिया तथा न त्वं कुलीना-कुल-14 जातः तथा नासि-न भवसि दानपतिर्दानदातेत्यर्थः, तथा न त्वमसि सू:-चारभटः तथा न त्वमसि-न भवसि प्रतिरूपो-रूपवान् न त्वमसि लष्टा-सौभाग्यवान् न पण्डितो-बुद्धिमान् न बहुश्रुत:-आकर्णिताधीतबहुशाखः बहुसुतो वा-बहुपुत्रो बहुशिष्यो वा नापि च त्वं तपस्वी-क्षपका न चापि परलोकविषये नि|श्चिता-निःसंशया मतिरस्येति परलोकनिश्चितमतिरसि-भवसि सर्वकालं-आजन्मापीति, किं बहुनोक्तेन ?, ॥११६ ॥ वर्जनीयवचनविषयमुपदेशसर्वखमुच्यते, जातिकुलरूपव्याधिरोगेण चापीति, इह जात्यादीनां समाहारद्वन्द्वः, [३६]] ~235~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२४] दीप अनुक्रम ततो जात्यादिना निन्दितेन परचित्तपीडाकारित्वाद्यद्भवेद्वर्जनीयं-परिहर्त्तव्यं तदेवंवित्रं सत्यमपि न वक्तव्यमिति वाक्यार्थः, तत्र जातिः-मातृका पक्षः कुलं-पैतृकः पक्षः रूपं-आकृतिः व्याधिः-चिरस्थाता कुष्टादिः रोगः-| शीघ्रतरघाती ज्वरादिः वा विकल्पे अपिः समुच्चये 'दुहिलं ति द्रोहवत् पाठान्तरेण 'दुहओ'त्ति द्रव्यतो भा-18 वतश्च उपचार-पूजामुपकारं वा अतिक्रान्तं, एवंविधं तु-एवंप्रकारं पुनः सत्यमपि सद्भूततामात्रेण आस्ताम सत्यं न वक्तव्यं-न वाच्यं, 'अथ केरिसर्गति अथशब्दः परिप्रश्ने कीदृशक?-किंविघं 'पुणाई ति इह पुनरपि। ४पूर्ववाक्यार्थापेक्षयोत्तरवाक्यार्थस्य विशेषद्योतनार्थः आइन्ति वाक्यालङ्कारार्थः 'सचं तु'त्ति सत्यमपि भा-18 Mाषितव्य-वक्तव्यं यत्तद् द्रव्यैः-त्रिकालानुगतिलक्षणैः पुद्गलादिभिर्वस्तुभिः पर्यायैश्च-नवपुराणादिभिः क्रमब-131 कार्तिभिर्धम्मैः गुण:-वर्णादिभिः सहभाविभिड़म्मैरेव कर्मभिः-कप्यादिव्यापारः बहुविधैः शिल्पैः-साचा-1 प्रायश्चित्रकर्मादिभिः क्रियाविशेषैः आगमैश्च-सिद्धान्तायुक्तमिति सम्बन्धः कार्य:, युक्तशब्दस्योत्तरत्र सMमस्तनिर्देशेऽपि प्राकृतशैलीवशात् द्रव्यादियुक्तत्वं वचनस्य तदभिधायकत्वादू, अथवा द्रव्याविषु विषये द्रव्यादिगोचरमित्यर्थः, तथा 'नामाख्यातनिपातोपसगंतद्धितसमाससन्धिपदहेतुयोगिकोणादिक्रियाविधानधातुखरविभक्तिवर्णयुक्त मिति तत्र नामेति पदशब्दसम्बन्धानामपदमेवमुत्तरत्रापि, तचाव्युत्पन्नेतरभेदाः हाविधा, तत्र व्युत्पन्नं देवदत्तादि अव्युत्पन्नं डिस्थेत्यादि, आख्यातपदं साध्यक्रियापदं यथा अकरोत् करोति करिष्यति, तत्तदर्धद्योतनाय तेषु तेषु स्थानेषु निपतन्तीति निपाताः तत्पदं निपातपदं यथा च वा खल्वित्यादि, [३६]] ~236~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३६] प्रश्वव्याक- उपसृज्यन्ते-धातुसमीपे नियुज्यन्त इत्युपसर्गास्तद्रूपं पदमुपसर्गपदं प्र परा अपेत्यादिवत्, तस्मै हितं तद्धित- २ संवरर०श्रीअ-1 मित्याद्यर्थाभिधायका ये प्रत्ययास्ते तद्धिताः तदन्तं पदं तद्धितपदं यथा गोभ्यो हितो गव्यो देशः नाभेरपत्यं द्वारे भयदेव. नाभेय इत्यादि, समसनं समास:-पदानामेकीकरणरूपः तत्पुरुषादिस्तत्पदं समासपदं यथा राजपुरुष इ-18 सत्यस्य मवृत्तिः त्यादि, सन्धिः-सन्निकर्षस्तेन पदं यथा दधीदं तद्यथेत्यादि, तथा हेतुः-साध्याविनाभूतत्वलक्षणो यथाऽनित्यः हिमा स्व शब्दः कृतकत्वादिति, यौगिक-यदेतेषामेव ब्यादिसंयोगवत्, यथा उपकरोति सेनयाऽभियाति अभिषेणय- रूपं च ॥११७॥ दतीत्यादि, तथा उणादि-उणप्रभृतिप्रत्ययान्तं पदं यथा आशु स्वादु, तथा क्रियाविधानं-सिद्धक्रियाविधिः सू०२४ कान्तप्रत्ययान्त [कृत्प्रत्ययान्त ] पदविधिरित्यर्थः, यथा पाचकः पाक इत्यादि, तथा धातवो-भ्वादयः क्रियाप्रतिपादकाः खरा-अकारादयः षड्जादयो वा सप्त, कचिद्रसा इति पाठः तत्र रसाः-शृङ्गारादयो नव, यथा-"शृङ्गारहास्यकरुणा, रौद्रवीरभयानकाः । बीभत्साद्भुतशान्ताच, नव नाव्ये रसाः स्मृताः॥१॥" विभक्तया-प्रथमाद्याः सप्त वर्णाः-ककारादिव्यञ्जनानि एभियुक्तं यत्तत्तथा, अथ सत्यं भेदत आह-त्रैकाल्यं, -त्रिकालविषयं दशविधमपि सत्यं भवतीति योगः, दशविधत्वं च सत्यस्य जनपदसम्मतसत्यादिभेदात्, आह च-"जणवय १ संमय २ ठवणा ३ नामे ४ स्वे५ पडुच्चसच्चे य ६ । ववहार ७भाव ८ जोगे ९ दसमे ओवम्मसचे य १०॥१॥"त्ति, तत्र जनपदसत्यं यथा उदकार्थे कोंकणादिदेशरूल्या पय इति वचनं, संमतसत्यं यथा समानेऽपि पङ्कसम्भवे गोपालादीनामपि सम्मतत्वेनारविन्दमेव पङ्कजमुच्यते न कुवलयादीति, Al॥११७ HRJuniorary.org ~237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: -545 प्रत सुत्रांक [२४] ६ स्थापनासत्यं जिनप्रतिमादिषु जिनादिव्यपदेशः, नामसत्यं यथा कुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्डन इत्युच्यते, रूपसत्यं यथा भावतोऽश्रमणोऽपि तद्रूपधारी श्रमण इत्युच्यते, प्रतीतसत्यं यथा अनामिका कनिष्ठिकां प्रतीत्य दीर्घत्युच्यते, सैव मध्यमां प्रतीत्य इखेति, व्यवहारसत्यं यथा गिरिगततृणादिषु दद्यमानेषु व्यवहाराद गिरिदद्यत इति, भावसत्यं यथा सत्यपि पश्चवर्णत्वे शुक्खलक्षणभावोत्कटत्वात् शुक्ला बलाकेति, योग-18 सत्यं यथा दण्डयोगाद्दण्ड इत्यादि, औपम्यसत्यं यथा समुद्रवत्तडाग इत्यादि, तथा 'जह भणि तह य कम्मुणा होइ'त्ति यथा-पेन प्रकारेण भणितं-भणनक्रिया दशविधसत्यं सद्भतार्थतया भवति तथा-तेनैव || प्रकारेण कर्मणा वा-अक्षरलेखनादिक्रियया सद्भतार्थज्ञापनेन सत्यं दश विधमेव भवतीति. अनेन चेदमुक्त। भवति-न केवलं सत्यार्थं वचनं वाच्य हस्तादिकाप्यव्यभिचार्यर्थसूचकमेव कर्त्तव्यं, उभयत्राप्यव्यभिचारितया पराव्यंसनस्याकुटिलाध्यवसायस्य च तुल्यत्वादिति, तथा 'दुवालसविहा य होइ भास'त्ति द्वादशविधा च भवति भाषा, तथा च-"प्राकृतसंस्कृतभाषा मागधपैशाचसौरसेनी च। षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेपादपभ्रंशः ॥१॥” इयमेव पदविधा भाषा गद्यपद्यभेदेन भिद्यमाना द्वादशधा भवतीति, तथा वचनमपि षोडशविधं भवति, तथाहि-"वयणतियं ३ लिंगतियं ६ कालतिय ९तह परोक्खपथक्खं ११ उवणीयाइचउक |१५ अज्झत्थं" १६ चेव सोलसमं ॥१॥ तत्र वचनत्रयं एकवचन द्विवचनबहुवचनरूपं यथा वृक्षः वृक्षी वृक्षाः, लिङ्गत्रिकं खीपुनपुंसकरूपं यथा कुमारी वृक्षः कुण्डं, कालत्रिकं अतीतानागतवर्तमानकालरूपं, यथाऽकरोत् । दीप अनुक्रम [३६]] ~238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] ॥११८॥ दीप अनुक्रम [३६] प्रश्नच्याकः करिष्यति करोति, प्रत्यक्षं यथाऽयं एषः, परोक्षं यथा सा, तथा उपनीतवचन-गुणोपनयनरूपं यथा रूपवानयं, |२ संवरा२०श्रीअ- अपनीतवचनं-गुणापनयनरूपं यथा दुःशीलोऽयं, उपनीतापनीतवचनं यत्रैक गुणमुपनीय गुणान्तरमपनीयते ध्ययने भयदेव यथा रूपवानयं किंतु दुःशीला, विपर्ययेण तु अपनीतोपनीतवचनं तद्यथा दुःशीलोऽयं किन्तु रूपवान्, अ-1 सत्यवतवृत्तिः मध्यात्मवचनं-अभिप्रेतम) गोपयितुकामस्य सहसा तस्यैव भणनमिति, 'एवं'मिति उक्तसत्यादिवरूपावधा- भावना रणप्रकारेण अहेदनुज्ञातं समीक्षित-युद्धया पर्योलोचितं संयतेन-संयमवता काले च-अवसरे वक्तव्यं, नत || सू० २५ जिनाननुज्ञातमपर्यालोचितमसंयतेनाकाले चेति भावना, आह च-"वुद्धी' निएऊण भासेजा उभयलोगपरिसुद्धं । सपरोभयाण जं खलुन सब्वहा पीडजणगं तु ॥१॥"[बुद्ध्या विचार्य भाषेतोभयलोकपरि-15 शुद्धं । वपरोभयेषां यत् खलु न सर्वथा पीडाजनकं तु॥१॥] एतदर्थमेव जिनशासनमित्येतदाह इमं च अलियपिसुणफरुसकडुयचवलवयणपरिरक्खणट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेचाभाविक आगमेसिभई मुझे नेयाज्यं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विओसमणं, तस्स इमा पंच भावणाओ वितियस्स बयस्स अलियवयणस्स वेरमणपरिरक्षणट्टयाए पढम सोऊणं संवरई परमह सुह जाणिऊण न वेगिय न तुरियं न चवलं न कडुयं न फरुसं न साहसं न य परस्स पीलाकरं सावज सच्चं च हियं च मियं च गाहगं च सुद्ध संगयमकाहलं च समिक्खितं संजतेण कालंमि य बत्तव्य एवं अणुवीति ॥११८॥ समितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सञ्चजवसंपुनो, वितियं कोहो ~239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: CCCE प्रत सूत्रांक [२५]] दीप अनुक्रम ण सेवियब्यो, कुद्धो चंडिकिओ मणूसो अलियं भणेज्ज पिसुणं भणेज फरुसं भणेज अलियं पिसुर्ण फरुसं भणेज कलह करेजा वेरं करेजा विकह करेजा कलह वरं विकह करेजा सच्चं हणेज सीले हणेज विणयं हणेज सच्चं सीलं विणयं हणेज वेसो हवेज वत्थं भवेज गम्मो भवेज वेसो वत्थु गम्मो भवेज एवं अन्नं च एवमादियं भणेज कोहग्गिसंपलित्तो तम्हा कोहो न सेवियव्यो, एवं खंतीइ भाविओ भवति अंतरपा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सञ्चजवसंपन्नो, ततिय लोभो न सेवियब्यो लुतो लोलो भणेज्ज अलियं खेत्तस्स ब वत्थुस्स व कतेण १ लुतो लोलो भणेज्ज अलियं कित्तीए लोभस व कएण २ लुद्धो लोलो भणेज अलियं रिद्धीय व सोक्खस्स व कएण ३ लुद्धो लोलो भणेज अलियं भत्तस्स व पाणस्स व करण ४ लुतो लोलो भणेज अलियं पीढस्स व फलगरस व कएण ५ लुद्धो लोलो भणेज अलियं सेज्जाए घ संधारकरस व करण ६ लुद्धो लोलो भणेज अलिय वत्थस्स व पत्तस्स च कएण ७ लुतो लोलो भणेज्ज अलियं कंवलस्स व पायपुंछणस्स व करण ८ लुद्धो लोलो भणेज अलियं सीसस्स व सिस्सीणीए व कएण ९ लुखो लोलो भणेज अलियं अन्नेसु य एवमादिसु बहुसु कारणसतेसु, लुतो लोलो भणेज अलियं तम्हा लोभी न सेवियचो, एवं मुत्तीय भाविओ भवति अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चजवसंपन्नो, चउत्थं न भाइयव्वं भीतं खु भया अइति लहुयं भीतो अवितिजओ मणूसो भीतो भूतेहिं घिप्पइ भीतो अन्नंपिहु भेसेज्जा भीतो तवर्सजमंपिहु मुएज्जा भीतो य भरं न नित्थरेजा सप्पुरिसनिसेवियं [३७]] कर ~240~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३७] श्रुतस्कन्ध: [२], अध्ययनं [२] मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक र० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ ११९ ॥ “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - Education Internationa ari भीतो न समत्थो अणुचरितं तम्हा न भातियच्वं भयस्त वा वाहिस्स वा रोगस्स वा जराए वा मस्त वा अन्नरस वा एवमादियरस एवं घेज्जेण भाविओ भवति अंतरप्पा संजयकरचरणनयुणवयणो सूरो सच्चज्जव संपन्नो, पंचमकं हासं न सेवियन्त्रं अलियाई असंतकाई जंपति हासइत्ता परपरिभवकारणं च हासं पर परिवायप्पियं च हासं परपीलाकारगं च हासं भेदविमुत्तिकारकं च हासं अन्नोन्नजणियं च होज हासं अन्नोन्नगमणं च होज्ज मम्मं अन्नोन्नगमणं च होज कम्मं कंदप्पाभियोगमणं च होज हासं आसुरियं किव्विसत्तणं च जणेज्ज हासं तम्हा हासं न सेवियव्वं एवं मोणेण भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपन्नो, एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संबरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिवि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिए हिं निचं आमरणंतं च एस जोगो णेयच्वो धितिमया मतिमया अणासवो अकलुसो अच्छिदो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सम्बजिणमणुन्नाओ, एवं वितियं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं अणुपालियं आणाए आराहियं भवति, एवं नायमुणिणा भगवया पन्नवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धबरसासणमिणं आघवितं सुदेसियं यसत्थं वितियं संवरदारं समत्तं तिबेमि ॥ २ ॥ ( सू० २५ ) 'इमं 'त्यादि इमं च प्रत्यक्षं प्रवचनमिति योगः अलीकं असद्भूतार्थं पिशुनं परोक्षस्य परस्य दूषणाविष्करणरूपं परुषं- अश्राव्यभाषं कटुकं - अनिष्टार्थं चपलं उत्सुकतयाऽसमीक्षितं यद्वचनं वाक्यं तस्य परिर For Parts Only ~ 241 ~ २ संवरा ध्ययने सत्यत्रतभावनाः सू० २५ ॥ ११९ ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५]] दीप अनुक्रम [३७] क्षणलक्षणो योऽर्धस्तस्य भावस्तत्ता तस्यै च अलीकपिशुनपरुपकटुकचपलवचनपरिरक्षणार्थतायै प्रावचन-1 प्रवचनं शासनमित्यर्थः, भगवता श्रीमन्महावीरेण सुष्टु कथितं सुकथितमित्यादि 'पररक्खणट्ठयाए'त्ति यावत् । पूर्ववत, नवरं द्वितीयस्य व्रतस्य-अलीकवचनस्येति विशेषः, 'पढमति प्रथम भावनावस्तु अनुविचिन्त्यस-11 मितियोगलक्षणं, तचैवं-श्रुत्वा-आकर्ण्य सद्गुरुसमीपे 'संवरटुंति संवरस्य-प्रस्तावेन मृपावादविरतिलक्ष४ाणस्य अर्थ:-प्रयोजनं मोक्षलक्षणं प्रस्तुतसंवराध्ययनस्य वाऽर्थ:-अभिधेयस्संवरार्थस्तं, श्रवणाच 'परमह सुहर kiजाणिऊण ति परमार्थ-हेयोपादेयवचनैदम्पर्य सुष्ठ-सम्यक ज्ञात्वा न-नैव वेगित-वेगवत् विकल्पव्याकुल तयेत्यर्थः वक्तव्यमिति योगः, न त्वरितं-वचनचापल्यतः न कटुकमर्थतः न परुषं वर्णतः न साहसं-साहस प्रधानमतर्कितं वा न च परस्य-जन्तोः पीडाकरं सावधं-सपापं यत. वचनविधि निषेधतोऽभिधाय साम्प्रतं दिविधित आह-सत्यं च-सद्भतार्थ हितं च-पथ्यं मितं-परिमिताक्षरं ग्राहक च-प्रतिपाद्यस्य विवक्षितार्थप्रती तिजनक शुद्ध-पूर्वोक्तवचनदोषरहितं सङ्गतं उपपत्तिभिरबाधितं अकाहलं च-अमन्मनाक्षरं समीक्षितं-पूर्व बुद्धया पर्यालोचितं संयतेन-संयमवता काले च-अवसरे वक्तव्यं नान्यथा, एवमुक्तेन भाषणप्रकारेण 'अणुदाबीहसमितिजोगेण'ति अनुविचिन्त्य-पर्यालोच्य भाषणरूपा या समितिः-सम्यकप्रवृत्तिः साऽनुविचिन्त्य समितिः तया योगः-सम्बन्धः तद्रूपो वा व्यापारोऽनुविचिन्त्यसमितियोगस्तेन भावितो भवन्त्यन्तरात्माजीवः, किंविध इत्याह-संयतकरचरणनयनवदना सूरः सत्यार्जवसंपन्न इति प्रतीतमिति १ । 'विइयंति द्वि ~242~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३७] “प्रश्नव्याकरणदशा” अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [२], अध्ययनं [२] मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक २० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ॥ १२० ॥ - तीयं भावनावस्तु यत्क्रोधनिग्रहणं, एतदेवाह - क्रोधो न सेवितव्यः कस्मात्कारणादित्याह - क्रुद्धः - कुपितः चाण्डिक्यं रौद्ररूपत्वं सञ्जातमस्येति चाण्डिक्यितो मनुष्योऽलीकं भणेदित्यादि सुगमं, नवरं वैरं अनुश यानुबन्धं विकथां परिवादरूपां शीलं समाधिं 'वेसो 'ति द्वेष्य:-अप्रियो भवेत् एष वस्तु-दोषावासः गम्यःपरिभवस्थानं, निगमनमाह- 'एयंति अलीकादिकं गृह्यते, तदन्यस्य भणनक्रियाया अविषयत्वात्, अन्यच - उक्तव्यतिरिक्तमेवमादिकं एवंजातीयं भणेत् क्रोधाग्निसंप्रदीप्तः सन् 'तम्हेत्यादि सम्पन्नो' इत्येतदन्तं ॐ व्यक्तं २ । 'ततियं'ति तृतीयं भावनावस्तु, किं तदित्याह-लोभो न सेवितव्यः कस्मादित्यत आह- लुब्धो- लोभवान् लोलो-व्रते चञ्चलो भगेदलीकं, एतदेव विषयभेदेनाह क्षेत्रस्य वा प्रामादेः कृषिभूमेर्वा वास्तुनोगृहस्य 'करण' ति कृते हेतोः लुब्धो लोलो भणेदलीकं, एवमन्यान्यप्यष्टसूत्राणि नेतव्यानि, नवरं कीर्त्तिःख्यातिः लोभस्य-औषधादिप्राप्तेः कृते तथा ऋद्धे:-परिवारादिकायाः सौख्यस्य - शीतलच्छायादिसुखहेतोः | कृते तथा शय्याया बसतेः यत्र वा प्रसारितपादैः सुप्यते सा शय्या तस्यै संस्तारकस्य वा अर्द्धतृतीयह|स्तस्य कम्बलखण्डादेः कृते पादप्रच्छनस्य-रजोहरणस्य कृते उपसंहरन्नाह-अन्येषु च एवमादिषु बहुषु कारण| शतेष्वित्यादि व्यक्तमेव ३ । 'चस्थ'न्ति चतुर्थ भावनावस्तु यत् 'न भाइयन्वति न भेतव्यं न भयं विधेयं इति, यतो भीतं भयार्त्त प्राणिनं खुरिति वाक्यालङ्कारे भयानि विविधा भीतयः 'अर्तिति'त्ति आगच्छति, किंभूतं भीतं ?- 'लहुयं'ति लघुकं सत्वसारवर्जितत्वेन तुच्छं क्रियाविशेषणं वेदं तेन लघुकं शीघ्रं तथा भीतः Education Internation For Parts Only ~243~ २ संवरा ध्ययने सत्यव्रतभावनाः सू० २५ ॥ १२० ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५]] दीप अनुक्रम अद्वितीयः-सहायो न भवतीत्यर्थः मनुष्यो-नरः, तथा भीतो भूतैर्वा-प्रेतैयते-अधिष्ठीयते, तथा भीतोऽ न्यमपि भेषयेत्, तथा भीतः तपःप्रधानः संघमः तपासंयमस्तमपि हुरलङ्कारे मुश्चेत्-त्यजेत् अलीकमपि ट्रयादिति हृदयं, अहिंसाविरूपत्वात् संयमस्य, तथा भीतश्च भर न निस्तरेत, तथा सत्पुरुषनिषेवितं च मामार्ग-धर्मादिपुरुषार्थोपाय भीतो न समर्थोऽनुचरितु-आसेवितुं, यत एवं तस्मात् 'न भाइयब्बति न भेत्तव्यं । "भयस्स वीसि भयहेतो ह्यात् दुष्टतिर्यमनुष्यदेवादेः, तथा आत्मोद्भवादपि नेत्याह-वाहिस्स बत्ति व्याधेः क्रमेण प्राणापहारिणः कुष्ठादेः रोगाद्वा-शीघ्रतरप्राणापहारकाच ज्वरादेः जराया वा मृत्योवों अन्यस्मादा तादृशानयोत्पादकत्वेन ब्याध्यादिसदृशाद् इष्टवियोगादेकस्मादिति, वाचनान्तरे इदमधीतं अन्यस्मादा एवमादीति, एतन्निगमयन्नाह-एवं धैर्येण-सत्त्वेन भावितो भवत्यन्तरात्मा-जीवः, किंविधा ? इत्याह'संजए'त्यादि पूर्ववत् ४ । 'पंचमगंति पञ्चमकं भावनावस्त्विति गम्यते, यदुत हास्यं न सेवितव्य-परिहासो न साविधेयः, यतः अलीकानि-सद्भुतार्थनिहवरूपाणि 'असंतगाई ति असन्ति असद्भतार्थानि वचनानीति गकाम्यते अशोभनानि वा अशान्तानि वा-अनुपशमप्रधानानि 'जल्पन्ति' ब्रुवते 'हासइतत्ति हासवन्तः परिहासकारिणः परिभवकारणं च हास्य-अपमाननाहेतुरित्यर्थः, परपरिवादः-अन्यदूषणाभिधानं प्रिय-इष्टो यत्र तत्तथा तद्विधं च हास्यं, परपीडाकारकं च हास्यमिति व्यक्तं, "भेयविमुत्तिकारक चत्ति भेदः-चारित्रभेदो विमूर्तिश्च-विकृतनयनवदनादित्वेन विकृतशरीराकृतिः तयोः कारकं यत्तत्तथा, तच हास्यं, अथवा [३७] ALHaramera ~244 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------------------- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक २ संवराध्ययने सत्यवतभावना सू०२५ [२५] प्रश्नव्याक- राजदन्तादिदर्शनाद्विमुक्त-मोक्षमार्गस्य भेदकारकमिति वाच्ये भेदविमुक्तिकारकमित्युक्तं, अन्योऽन्यजनितं| र० श्रीअ- च-परस्परकृतं च भवेद्धास्यं यतस्ततोऽन्योऽन्यगमनं च-परस्परस्याभिगमनीयं च भवेत् मर्म-प्रच्छन्नपारदार्यादि भयदेव० 181 दुश्चेष्टितं, तथाऽन्योऽन्यगमनं च-परस्पराधिगम्यं च भवेत्कर्म-लोकनिन्द्यजीवनवृत्तिरूपं 'कन्दप्पाभियोग-18 वृत्तिः गमणं च'त्ति कन्दर्पाश्च-कान्दर्पिका देवविशेषा हास्यकारिणो भाण्डमाया आभियोग्याश्च-अभियोगाही CIआदेशकारिणो देवाः एतेषु गमन-गमनहेतुर्यत्तत्तथा तच भवेद्धास्य, अयमभिप्रायो-हास्यरतिसावारिसाद ॥१२१॥ भबलेशप्रभावादेवेपूत्पचमानः कान्दर्षिकेषु आभियोगिकेषु चोत्पद्यते न महद्धिकेष्विति हास्थमनायेति, आहा च-"जो संजओवि एयासु अप्पसत्थासु वहइ कहिंचि । सो तविहेसु गच्छइ नियमा भइओ चरणही-| दाणो ॥१॥" [पसंयतोऽप्येतासु अप्रशस्तासु वर्त्तते कथञ्चित् । स तद्विधेषु गच्छति नियमाद् भक्तारणहीनः ॥१॥] 'एयासु'त्ति कन्दर्पादिभावनाखिति, तथा 'आसुरियं किब्विसत्तं च जणेज हासं'ति 'आसुरियन्ति असुरभावं 'किब्धिसत्त'ति चाण्डालप्रायदेवविशेषत्वं चा विकल्पे जनयेत्-मापयेत् जन्मान्तरहास्यकारिचारित्रजीवं हास्यं-हासा, यस्मादेवं तस्माद्धासं न सेवितव्यमिति, अथैतन्निगमनमाह-एवमुक्तेन हासवर्जनप्रकारेण मौनेन-वचनसंयमेन भावितो भवन्त्यन्तरात्मा संयतादिविशेषणः, 'एवमिणमित्यायध्ययननिगमनं पूर्वोध्ययनवयाख्येयमिति । प्रश्नव्याकरणाङ्गस्य सप्तमाध्ययनविवरणं समाप्तमिति ।। S दीप अनुक्रम CRECONOCESSOCCAREER [३७]] ॥१२१॥ अत्र द्वितिये श्रुतस्कन्धे द्वितियम् अध्ययनं परिसमाप्तं अथ द्वितिये श्रुतस्कन्धे तृतीयं अध्ययनं “दत्तानुज्ञा" आरभ्यते ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६]] दीप अनुक्रम तृतीयसंवरात्मकमष्टममध्ययनं व्याख्यातं मृषावादसंवराख्यं द्वितीयं संवराध्ययनं, अथ सूत्रक्रमसम्बद्धमथवाऽनन्तराध्ययने मृषावाद|विरमणमुक्तं तचादत्तादानविरमणवतामेव सुनिर्वाहं भवतीत्यदत्तादानविरमणमथाभिधानीयं भवतीति तदनेन प्रतिपाद्यत इत्येवंसम्बद्धमदत्तादानसंवराख्यं तृतीयं संवराध्ययनमारभ्यते, अस्य चेदमादिसूत्रम् जंबू! दत्तमणुण्णायसंबरो नाम होति ततियं सुब्वता! महब्बतं गुणवतं परदव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तं अपरिमियमणंततण्हाणुगयमहिच्छमणवयणकलुसआयाणसुनिग्गहियं सुसंजमियमणहत्थपायनिभियं निग्गंथं णेडिकं निरुतं निरासर्व निम्भयं विमुत्तं उत्तमनरवसभपवरबलवगसुविहितजणसंमतं परमसाहुधम्मचरण जत्थ य गामागरनगरनिगमखेडकब्बडमडंबदोणमुहसंवाहपट्टणासमगयं च किंचि दव्यं मणिमुत्तसिलप्पवालकंसदूसरययवरकणगरयणमादिं पडियं पम्हुटुं विप्पणहूँ न कप्पति कस्सति कहे वा गेणिहां वा अहिरत्नसुवनिकेण समलेड्डकंचणेणं अपरिग्गहसंबुडेणं लोगमि विहरियवं, जंपिय होजाहि दवजातं खलगतं खेत्तगत रनमंतरगतं वा किंचि पुष्फफलतयप्पवालकंदमूलतणकट्ठसकरादि अप्पं च बहुं च अणुं च धूलगं वा न कप्पती उम्गहमि अदिण्णमि गिहिउँ जे, हणि हणि उग्गह अणुनविय गेण्हियवं वजेयव्यो सव्यकालं अचियत्तघरपवेसो अचियत्तभत्तपाणं अचियत्तपीढफलगसेजासंथारगवस्थपत्तकंबलदंडगरयहरण (३८) अथ द्वितिये श्रुतस्कन्धे तृतीयं अध्ययनं "दत्तानुज्ञा" आरभ्यते "अदत्तादानविरति" - नामक तृतीयं संवर-द्वारं अदत्तादान-विरमणस्य स्वरूपं ~246~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६]] प्रश्नव्याक२०श्रीअभयदेव० वृत्तिः धर्मद्वारे | सभावनाकमदत्तादानविर ॥१२२॥ मण सू०२६ दीप अनुक्रम निसेज्जचोलपट्टगमुहपोत्तियपायपुंछणाइ भायणभंडोवहिउबकरणं परपरिवाओ परस्स दोसो परववएसेणं जं च गेण्हा परस्स नासेइ जं च सुकयं दाणस्स य अंतरातियं दाणविप्पणासो पेसुन्नं चेव मच्छरित्तं च, जेविय पीढफलगसेज्जासंधारगवत्थपायकंबलमुहपोत्तियपायपुंछणादिभायणभंडोवहिउवकरणं असंविभागी असंगहरुती तवतेणे य वइतेणे य रूवतेणे य आयारे चेव भावतेणे य सहकरे झञ्झकरे कलहकरे वेरकरे विकहकरे असमाहिकरे सया अप्पमाणभोती सततं अणुबद्धवरे य निश्चरोसी से तारिसए नाराहए वयमिणं, अह केरिसए पुणाई आराहए वयमिणं, जे से उवहिभत्तपाणसंगणदाणकुसले अचंतवालदुब्बलगिलाणवुडखमके पवत्तिआयरियउवज्झाए सेहे साहम्मिके तवस्सीकुलगणसंघचेइयढे य निजरही बेयावर्थ अणिरिसय दसविहं वहुविहं करेति, न य अचियत्तस्स गिहं पविसइ न य अचियत्तस्स गेण्हइ भत्तपाणं न य अचियत्तस्स सेवा पीढफलगसेज्जासंथारगवत्थपायकंबलडंडगरयहरणनिसेज्जचोलपट्टयमुहपोत्तियपायपुंछणाइभायणभंडोबहिउयगरणं न य परिवायं परस्स जपति ण यावि दोसे परस्स गेण्हति परववएसेणवि न किंचि गेण्हति न य विपरिणामेति किंचि जणं न यावि णासेति दिन्नसुकयं दाऊण य न होइ पच्छाताविए संभागसीले संग्गहोवग्गहकुसले से तारिसते आराहते वयमिणं, इमं च परदव्वहरणवेरमणपरिरक्खगट्टयाए पावयणं भगवया सुकहितं अत्तहितं पञ्चाभावितं आगमेसिभई सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अगुत्तर सव्वदुक्खपावाण विओवसमणं, तस्स इमापंच भावणातो ततियस्स होंति परदव्वहरणवरमणपरि (३८) अदत्तादान-विरमणस्य स्वरूपं ~247~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक *5-49HABAR [२६]] दीप अनुक्रम रक्खणट्टयाए, पढम देवकुलसभप्पवावसहरुक्खमूल आरामकंदरागरगिरिगुहाकम्मउज्जाणजाणसालाकुवितसालामंडवसुन्नघरसुसाणलेणआवणे अन्नंमि य एवमादियंमि दगमट्टियचीजहरिततसपाणअसंसत्ते अहाकडे फासुए विविते पसत्थे उवस्सए होइ विहरियवं, आहाकम्मबहुले य जे से आसितसंमजि उस्सित्तसोहियछायणदूमणलिंपणअणुलिंपणजलणभंडचालण अंतो वहिं च असंजमो जत्थ बहती संजयाण अहा वजेयब्बो हु उपस्सओ से तारिसए सुत्तपडिकुटे, एवं विवित्तवासवसहिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा निच्चं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरतो दत्तमणुनायओग्गहरुती वितीयं आरामुजाणकाणणवणप्पदेसभागे जं किंचि इकई व कठिणगं च जंतुगं च परामेरकुच्चकुसडब्भपलालमूयगवषयपुष्फफलतयप्पवालकंदमूलतणकट्ठसकरादी गेण्हइ सेज्जोवहिस्स अट्ठा न कप्पए उम्गहे अदिन्नंमि गिण्हे जे हणि हणि उगगह अणुनविय गेण्हियचं एवं उम्गहसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरपा निच्च अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरते दत्तमणुनायओग्गहरुती । ततीयं पीढफलगसेज्जासंधारगट्ठयाए रुक्खा न छिदियब्वा न छे. दणेण भेयणेण सेज्जा कारेचव्या जस्सेव उवस्सते वसेज सेज तत्थेव गवेसेज्जा न य विसमं समं करेजा न निवायपवायउस्सुगत्तं न डंसमसगेसु खुभियव्वं अग्गी धूमो न कायन्वो, एवं संजमबहुले संवरबहुले संवुडबहुले समाहिबहुले धीरे कारण फासयंतो सययं अज्झप्पज्झाणजुत्ते समिए एगे घरेज धम्म, एवं सेज्जासमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा निचं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरते दत्तमणुनायउग्गहरुती । च (३८) niralaanasurary.org अदत्तादान-विरमणस्य स्वरूप ~248~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत *** सूत्रांक वृत्तिः [२६] मणं * दीप प्रश्रब्याक उरथं साहारणपिंडपातलाभे भोसब्ब संजएण समिव न सायसूयाहिकं न खर्द्ध ण वेगितं न तुरियं न च- ३ धर्मद्वारे र०श्रीअबलंन साहसं न य परस्त पीलाकरसावजं तह भोत्तवं जह से ततियवयं न सीदति साहारणपिंडपाय सभावनाभयदेव० लाभे सुहुमं अदिशादाणवयनियमवेरमण, एवं साहारणपिंडवायलाभे समितिजोगेण भावितो भवति अंत कमदत्तारप्पा निचं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरते दत्तमणुन्नाय उग्गहरुती। पंचमगं साहम्मिए विणओ पर्व दानविरजियब्यो उपकरणपारणासु विणओ पंउजियव्यो वायणपरियणासु विणओ पजियब्यो दाणगहणपुच्छणासु ॥१२३॥ विणओ पउंजियव्यो निक्खमणपवेसणासु विणओ पउंजियग्बो अन्नेसु य एवमादिसु बहुसु कारणसएसु विणओ पजियब्बो, विणोवि तवो तवोवि धम्मो तम्हा विणओ पउंजियब्बो गुरुसु सासु तवस्सीम य, एवं विणतेण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्च अधिकरणकरणकारायणपावकम्मविरते दत्तमणुन्नायजग्गहरुई। एवमिण संघरस्स दारं सम्र्म संवरियं होइ सुपणिहियं एवं जाव आपवियं सुदेसितं पसत्थं ॥ (सू०२६)ततियं संवरदारं समतंतिवेमि ॥३॥ 'जंबू' इत्यादि जम्बूरित्यामन्त्रणं 'दत्ताणुनायसंवरो नाम'त्ति दत्तं च-वितीर्णमन्नादिकमनुज्ञातं च-प्रतिहा|रिकपीठफलकादि ग्राह्यमिति गम्यते इत्येवंरूपः संवरो दत्तानुज्ञातसंवर इत्येषनामकं भवति तृतीयं संवरद्वा-12 रमिति गम्यते. हे सुनत! जम्बूनामन् ! महाव्रतमिदं, तथा गुणानां-ऐहिकामुष्मिकोपकाराणां कारणभूतं व्रतं || Plगुणवतं, किंखरूपमित्याह-परद्रव्यहरणप्रतिविरतिकरणयुक्तं तथा अपरिमिता-अपरिमाणद्रव्यविषया अनन्ता अनुक्रम [३८] २१.१.२.५.... ~249~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६]] दीप अनुक्रम चा-अक्षया या तृष्णा-विद्यमानद्रव्याव्ययेच्छा तया यदनुगतं महेच्छं च-अविद्यमानद्रव्यविषये महाभिलाषं यन्मनो-मानसं वचनं च-वाक् ताभ्यां यत्कलुषं-परधनविषयत्वेन पापरूपमादानं-ग्रहणं तत्सुष्टु निगृहीतं|नियमितं यत्र तत्तथा, सुसंयमितमनसा-संवृतेन चेतसा हेतुना हस्तौ च पादौ च निभृती-परधनादानव्यापारादुपरती यत्र तत्सुसंयमितमनोहस्तपादनिभृतं, अनेन च विशेषणद्येन मनोवाकायनिरोधः परधनं प्रति दर्शितः, तथा निर्ग्रन्थं-निर्गतवाद्याभ्यन्तरग्रन्थं नैष्ठिक-सर्वधर्मप्रकर्षपर्यन्तवर्ति नितरामुक्तं सर्वहरुPापादेयतयेति निरुक्तं अव्यभिचरितं वा निराश्रवं-कर्मादानरहितं निर्भयं-अविद्यमानराजादिभयं विमुक्तं लोभदोषत्यक्तं उत्तमनरवृषभाणां 'पवरबलवग'त्ति प्रधानबलवतां च सुविहितजनस्य च-मुसाधुलोकस्य सम्मत-अभिमतं यत्तत्तथा, परमसाधूनां धर्मचरण-धर्मानुष्ठानं यत्तत्तथा, यत्र च तृतीये संवरे ग्रामाकरनगरनिगमखेटकर्बटमडम्बद्रोणमुखसंवाहपत्तनाश्रमगतं च ग्रामादिव्याख्या पूर्ववत् किश्चिदू-अनिर्दिष्टखरूपं द्रव्यं, तदेवाह-मणिमौक्तिकशिलाप्रवालकांस्यदृष्यरजतवरकनकरत्नादि, किमित्याह-पतित-भ्रष्टं 'पम्हुहीति विस्मृतं विप्रणष्टं-स्वामिर्गवेषयद्भिरपि न प्राप्त न कल्पते-न युज्यते कस्यचित् असंयतस्य संयतस्य वा कथयितुं या-प्रतिपादयितुं अदत्तग्रहणप्रवर्तनं मा भूदितिकृत्वा ग्रहीतुं वा-आदातुं तन्निवृत्तत्वात्साधोः,। यतः साधुनैवंभूतेन विहर्त्तव्यमित्यत आह-हिरण्यं-रजतं सुवर्ण च-हेम ते वियेते यस्य स हिरण्यसुवर्णिकस्तन्निषेधेनाहिरण्यसुवर्णिकस्तेन, समे-तुल्ये उपेक्षणीयतया लेष्टुकाश्चने यस्य स तथा तेन, अपरिग्रहो (३८) Primarary.om ~250~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) ཡྻ सूत्रांक [२६] अनुक्रम [३८] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - अध्ययन [ ३ ] श्रुतस्कन्धः [२], मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक ३ धर्मद्वारे सभावना कमदत्ता वृत्तिः मणं ॥ १२४ ॥ सू० २६ धनादिरहितः संवृतश्चेन्द्रियसंवरेण यः सोऽपरिग्रह संवृतस्तेन, लोके मर्त्यलोके विहर्त्तव्यं - आसितव्यं सञ्चर० श्रीअ- * रितव्यं वा साधुनेति गम्यते, यदपि च भवेद् द्रव्यजातं द्रव्यप्रकारः खलगतं - धान्यमलनस्थानाश्रितं क्षेत्रभयदेव० गतं - कणभूमिसंश्रितं 'रनमन्तरगतं वत्ति अरण्यमध्यगतं वा, वाचनान्तरे 'जलथलगयं खेत्तमंतरगयं वत्ति इयते किञ्चिद्-अनिर्दिष्टखरूपं पुष्पफलत्वक प्रवाल कन्दमूलतृणकाष्ठ शर्करादीति प्रतीतं अल्पं वा दानविर४ मूल्यतो बहु वा तथैव अणु वा स्तोकं प्रमाणतः स्थूलकं वा तथैव न कल्पते न युज्यते अवग्रहे-गृहस्थ- 3 ण्डिलादिरूपे अदत्ते खामिनाऽननुज्ञाते ग्रहीतुं आदातुं जे इति निपातः, ग्रहणे निषेध उक्तोऽधुना तद्विधिमाह--'हणि हणित्ति अहन्यहनि प्रतिदिनमित्यर्थः अवग्रहमनुज्ञाप्य यथेह भवदीयेऽवग्रहे इदं इदं च साधुप्रायोग्यं द्रव्यं ग्रहीष्याम इति पृष्टेन तत्खामिना एवं कुरुतेत्यनुमते सतीत्यर्थी ग्रहीतव्यं - आदातव्यं वर्जवितव्यश्च सर्वकालं 'अधियत्त'त्ति साधून प्रत्यप्रीतिमतो यद् गृहं तत्र यः प्रवेशः स तथा 'अचियत्त'त्ति अप्रीतिकारिणः सम्बन्धि यद्भक्तूपानं तत्तथा तद्वर्जयितव्यमिति प्रक्रमः, तथा अचियत्तपीठफलकशय्यासं|स्तारक वस्त्र पात्र कम्बलदण्डकरजोहरणनिषया चोलपहक मुखपोतिकापादप्रोञ्छनादि प्रतीतमेव, किमेवंविधभेदमियाह- भाजनं पात्रं भाण्डं वा तदेव मृन्मयं उपधिन-वस्त्रादिः एत एवोपकरणमिति समासस्तद्वर्जयि तव्यमिति प्रक्रमः अदत्तमेव खामिनाऽननुज्ञातमितिकृत्वा, तथा परपरिवादो - विकत्थनं वर्जयितव्य इति, तथा परस्य दोषो दूषणं द्वेषो वा वर्जयितव्यः परिवदनीयेन दूषणीयेन च तीर्थकरगुरुभ्यां तयोरननुज्ञातत्वे Eaton Internationa For Parts Only ~251~ ॥ १२४ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६]] दीप अनुक्रम मानादत्तरूपत्वादिति, अदत्तलक्षणं हीदं-'सामीजीवादत्तं तित्थयरेणं तहेव य गुरूहि ति [खामिजीवादत्ते । तीर्थकरेण च तथैव गुरुभिः] तथा परस्य-आचार्यग्लानादेव्यपदेशेन-व्याजेन यच गृह्णाति-आदत्ते वैयावृ-3 यकरादिस्तत्तेनान्येन च वर्जयितव्यं, आचार्यादेरेव दायकेन दत्तत्वादिति, न परस्प-परसम्बन्धि नाशयतिमत्सरादपढ़ते यच सुकृतं-सचरितमुपकारं वा तत्सुकृतनाशनं वर्जयितव्यं, तथा दानस्य चान्तरायिक-विनो दानविप्रणाशो दत्तापलापः, तथा पैशून्यं चैव-पिशुनकर्म मत्सरित्वं च-परगुणानामसहनं तीर्थक्करायननुज्ञातत्वादर्जनीयमिति, तथा 'जेऽविए'त्यादि योऽपि च पीठफलकशय्यासंस्तारकवनपात्रकम्बलमुखपोतिकापादप्रोञ्छनादिभाजनभाण्डोपध्युपकरणं प्रतीत्येति गम्यते अविसंविभागी-आचार्यग्लानादीनामेषणागुण-IA विशुद्धिलब्धं सन्न विभजतेऽसौ नाराधयति व्रतमिदमिति सम्बन्धः, तथा 'असंगहरुइ'त्ति गच्छोपग्रहकरस्थ-पीठादिकस्योपकरणस्यैषणादोषविमुक्तस्य लभ्यमानस्यात्मभरित्वेन न विद्यते सङ्घहे रुचिर्यस्यासावस हरुचिः, 'तववइतेणे यत्ति तपश्च वाक तपोवाची तयोः स्तेन:-चौरस्तपोवाकस्तेना, तत्र स्वभावतो दुर्वलाङ्गमनगारमवलोक्य कोऽपि कञ्चन व्याकरोति-यथा भोः! साधो स त्वं यः श्रूयते तत्र गच्छे मासक्षपका?, एवं पृष्टे यो विवक्षितक्षपकोऽसन्नप्याह-एवमेतत्, अथवा धूत्तेतया ब्रूते-भोः श्रावक! साधवः क्षपका एव भवन्ति, श्रावकस्तु मन्यते-कथं खयमात्मानमयं भट्टारका क्षपकतया निःस्पृहत्वात् प्रकाशयतीति कृत्वैवंविधमात्मोद्धत्यपरिहारपरं सकलसाधुसाधारणं वचनमाविःकरोतीत्यतः स एवायं यो मया विवक्षित इत्येवं पर-1 (३८) ~252~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [३८] अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [२], अध्ययनं [३] मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “प्रश्नव्याकरणदशा” Eicati - प्रश्नव्याक र० श्रीअ ।। १२५ ।। सम्बन्धि तप आत्मनि परप्रतिपत्तितः सम्पादयंस्तपस्तेन उच्यते, एवं भगवन् । स त्वं वाग्ग्मीत्यादिभावनया परसम्बन्धिनीं वाचमात्मनि तथैव सम्पादयन् वाकस्तेन उच्यते, तथा 'रूवतेणे य'त्ति एवं रूपवन्तमुपलभ्य भयदेव० स त्वं रूपवानित्यादिभावनया रूपस्तेनो, रूपं च द्विधा-शारीरसुन्दरता सुविहितसाधुनेपथ्यं च तत्र साधुवृत्तिः 8 नेपथ्यं यथा- "देहो रुगा उसने जेसिं जल्लेण फासियं अंगं । मलिणा य घोलपट्टा दोन्नि य पाया समक्खाया ॥ १ ॥" [ देहो रुजातुरः अवममन्नं येषां जल्लेनाविलमङ्गम् । मलिनाथ घोलपट्टा द्वे च पात्रे समा* ख्याते ॥ १ ॥ ] तत्र सुविहिताकाररञ्जनीयजनमुपजीवितुकामोऽसुविहितः सुविहिताकारधारी रूपस्तेनः, * 'आधारे चेव'ति आचारे- साधुसामाचार्य विषये स्तेनो यथा स त्वं यस्तत्र क्रियारुचिः श्रूयते इत्यादिभावना तथैव, 'भावतेणे य'ति भावस्य श्रुतज्ञानादिविशेषस्य स्तेनो भावस्तेनो यथा कमपि कस्यापि श्रुतविशेपस्य व्याख्यानविशेषमन्यतो बहुश्रुतादुपश्रुत्य प्रतिपादयति यथाऽयं मयाऽपूर्वः श्रुतपर्यायोऽभ्यूहितो नान्य एवमभ्यूहितुं प्रभुरिति, तथा शब्दकरो- रात्रौ महता शब्देनोल्लापस्वाध्यायादिकारको गृहस्थभाषाभाषको वा, तथा झञ्झाकरो येन येन गणस्य भेदो भवति तत्तत्कारी येन च गणस्य मनोदुःखमुत्पद्यते तद्भाषी, तथा कलहकरः कलहहेतुभूत कर्तव्यकारी, तथा बैरकरः प्रतीतः विकथाकारी-रूपादिकथाकारी असमाधिकारक:| चित्तास्वास्थ्यकर्त्ता स्वस्य परस्य वा, तथा सदा अप्रमाणभोजी - द्वात्रिंशत्कवलाधिकाहारभोक्ता सततमनु- ७ ॥ १२५ ॥ बद्धवैरश्व-सन्ततमनुबद्धं प्रारब्धमित्यर्थः वैरं वैरिकर्म येन स तथा, तथा नित्यरोपी सदाकोप:, 'से तारिसे ति For Parts Use Only ~253~ ३ धर्मद्वारे सभावनाकमदत्तादानविर मणं सू० २६ Contrary org Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६]] दीप अनुक्रम स तादृशः-पूर्वोक्तरूपः 'नाराहए वयमिण ति नाराघयति न निरतिचारं करोति व्रतं-महाव्रतमिदं-अदत्तादानविरतिरूपं, खाम्यादिभिरननुज्ञातकारित्वात्तस्येति । 'अह केरिसएत्ति अथ परिप्रश्नार्थः, कीदृशः पुनः |'आई'ति अलङ्कारे आराधयति व्रतमिदं?, इह प्रश्ने उत्तरमाह-जे से'इत्यादि योऽसावुपधिभक्तपानानां दानं च सङ्ग्रहणं च तयोः कुशलो-विधिज्ञो यः स तथा, बालश्च दुर्बलश्चेत्यादिसमाहारद्वन्द्वस्ततोऽत्यन्तं यहालदुर्बलग्लानवृद्धक्षपर्क तत्तथा तत्र विषये चैयावृत्त्यं करोतीति योगः, तथा प्रवृत्त्याचार्योपाध्याये इह द्वन्द्वैकत्वात् प्रवृत्त्यादिषु, तत्र प्रवृत्तिलक्षणमिदं-"तवसंजमजोगेसुं जो जोगो तत्थ तं पवत्तेइ । असहुंच नियत्तेइ गणतत्तिल्लो पवित्ती उ॥१॥[तपासंयमयोगेषु यो यत्र योग्यस्तं तत्र प्रवर्तयति । असहं च निवर्त्त-| यति गणचिन्तकः प्रवृत्तिः॥१॥] इतरी प्रतीती, तथा 'सेहे'त्ति शैक्षे-अभिनवप्रवजिते साधर्मिके-समान-| धर्मके लिङ्गप्रवचनाभ्यां तपखिनि-चतुर्थभक्तादिकारिणि तथा कुलं-गच्छसमुदायरूपं चन्द्रादिकं गण:कुलसमुदायः कोटिकादिकः सङ्कः-तत्समुदायरूपः चैत्यानि-जिनप्रतिमा एतासां योऽर्थः-प्रयोजनं स तथा तत्र च निर्जरार्थी-कर्मक्षयकामः वैयावृत्त्य-व्यावृत्तकर्मरूपमुपष्टम्भनमित्यर्थः अनिश्रितं-कीर्त्यादिनिरपेक्ष दशविधं-दशप्रकारं, आह् च-"वेयावचं वावडभावो इह धम्मसाहणनिमित्तं । अन्नाइयाण विहिणा संपायणमेस भावत्यो ।॥ १॥ आयरिय १ उवज्झाए २ थेर ३ तबस्सी ४ गिलाण ५ सेहाणं । साहम्मिय ७ कुल ८ गण ९ संघ १० संगयं तमिह कायब्वं ॥२॥" ति [वैयावृत्त्यं व्याप्तभावः इह धर्मसाधननि (३८) ~254~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [३८] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - श्रुतस्कन्ध: [२], अध्ययन [ ३ ] मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक मित्तं अशादिकानां विधिना संपादनं एष भावार्थः ॥ १ ॥ आचार्योपाध्यायस्थ विरत पविग्लानशैक्षाणाम् to श्रीअ-साधर्मिककुलगणसंघसंगतं यत् तदिह कर्त्तव्यं ॥ २ ॥ ] बहुविधं भक्तपानादिदानभेदेनानेकप्रकारं करोभयदेव० २ तीति, तथा न च नैव च 'अचियत्तस्सत्ति अप्रीतिकारिणो गृहं प्रविशति न च नैव च 'अचियत्तस्सत्तिकमदत्तावृत्तिः ॐ अप्रीतिकारिणः सतं गृह्णाति भक्तपानं, न च 'अचियत्तस्स'सि अप्रीतिकर्तुः सेवते -भजते पीठफलकशय्यासंस्तारक वस्त्रपात्र कम्बलदण्ड करजोहरणनिपद्याचोलपट्टक मुखपोतिकापादप्रोञ्छनादिभाजनभाण्डोपध्युपक॥ १२६ ॥ ४ रणं, तथा न च परिवादं परस्य जल्पति, न चापि दोषान् परस्य गृह्णाति तथा परव्यपदेशेनापि - ग्लानादिव्याजेनापि न किञ्चिद् गृह्णाति, न च विपरिणमयति-दानादिधर्माद्विमुखीकरोति कश्चिदपि जनं, न चापि नाशयति- अपह्नबद्वारेण दत्तसुकृतं वितरणरूपं सुचरितं परसम्बन्धि, तथा दत्त्वा च देयं कृत्वा वैयावृत्यादिकार्य न भवति पश्चात्तापिकः पश्चात्तापवान्, तथा संविभागशीलः - लब्धभक्तादिसंविभागकारी तथा सङ्ग्रदे-शिष्यादिसङ्ग्रहणे उपग्रहे च तेषामेव भक्त श्रुतादिदानेनोपष्टम्भने यः कुशलः स तथा 'से तारिसे' ति स तादृशः आराधयति वनमिदं अदत्तादानविरनिलक्षणं, 'इमं चेत्यादि इमं च प्रत्यक्षं प्रवचनमितिसम्बन्धः परद्रव्यहरणविरमणस्य परिरक्षणं - पालनं स एवार्थस्तद् भावस्तत्ता तस्यैव प्रवचनं - शासनमित्यादि वक्तव्यं यावत् 'परिरक्खण्डयाए 'त्ति 'पढमंति प्रथमं भावनावस्तु विविक्तवसतिवासो नाम, तत्राह देवकुलं - प्रतीतं सभा महाजनस्थानं प्रपा- जलदानस्थानं आवसथः परिव्राजकस्थानं वृक्षमूलं प्रतीतं आरामो-माधवील Education international For Parks Use One ~ 255~ ३ धर्मद्वारे सभावना दानविरमणं सू० २६ ॥ १२६ ॥ war Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६]] दीप अनुक्रम ताशुपतो दम्पतिरमणाश्रयो वनविशेषः कन्दरा-दरी आकरो-लोहायुत्पत्तिस्थानं गिरिगुहा-प्रतीता कर्म| अन्तयेत्र सुधादि परिकपते उद्यानं-पुष्पादिमहक्षसङ्कलमुत्सवादी बहुजनभोग्यं पानशाला-रधादिगृहं। कुपितशाला-तुल्यादिगृहोपस्करशाला मण्डपो-यज्ञादिमण्डपः शून्यगृहं इमशानं च प्रतीतं लयन-शैलगृहं। आपण:-पण्यस्थानं एतेषां समाहारद्वन्द्वस्ततस्तत्र अन्यमिश्चैवमादिके-एवंप्रकारे उपाश्रये भवति विहत-| साव्यमिति सम्बन्धः, किंभूते?-उद-उदकं मृत्तिका-पृथिवीकायः बीजानि-शाल्पादीनि हरितं-दूवादिवन स्पतिनसमाणा-दीन्द्रियादयः तेरसंसक्ता-असंयुक्तो यः स तथा तत्र, यधाकृते-गृहस्थेन खार्थ निवेत्तिते |'फासुएत्ति पूर्वोक्तगुणयोगादेव प्रामुके-निर्जीव विविक्ते-ख्यादिदोषरहिते अत एव प्रशस्ते उपाश्रये ब-12 सतो भवति विहर्तव्य-आसितव्यं, यादृशे पुनर्नासितव्यं तथाऽसावुच्यते-'आहाकम्मबहुले यति आधया| -साधूनां मनस्याधानेन साधूनाश्रित्येत्यर्थः यत्कर्म-पृथिव्याद्यारम्भक्रिया तदाधाकर्म, आह च-"हिय-| मायमि समाहे एगमणेगं च गाहगं जंतु । वहणं करेह दाया कायाण तमाहकम्मं तु ॥१॥" [हदये समा-1 धायकमनेकं च ग्राहकं यत्तु । वधं करोति दाता कायानां तदाधाकर्म ॥१॥] तेन बहुला-प्रचुरस्तद्वा बहुलं यत्र स तथा, 'जे सेत्ति य एवंविधः स वर्जयितव्य एवोपाश्रय इति सम्बन्धः, अनेन मूलगुणाशुद्धस्य परिजहार उपदिष्टः, तथा 'आसिय'त्ति आसिक्त-आसेचनमीषदकच्छक इत्यर्थः 'संमज्जियत्ति सम्मार्जनं शलाकाहस्तेन कचवरशोधनं उत्सितं-अत्यर्थ जलाभिषेचनं 'सोहियत्ति शोभनं चन्दनमालाचतुष्कपू (३८) ~256~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) ཡྻ सूत्रांक [२६] अनुक्रम [३८] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - अध्ययनं [३] श्रुतस्कन्धः [२], मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक र० श्रीअ ॥ १२७ ॥ रणादिना शोभाकरणं 'छायण'ति छादनं दर्भादिपटलकरणं 'दूमण'त्ति सेटिकया धवलनं 'लिंपण'ति छगणादिना भूमेः प्रथमतो लेपनं 'अणुलिंपणं'ति सकुल्लिताया भूमेः पुनर्लेपनं 'जलणं'ति शैत्यापनोदाय भयदेव० वैश्वानरस्य ज्वलनं शोधनार्थ वा प्रकाशकरणाय या दीपप्रबोधनं 'भंडचालण'त्ति भाण्डादीनां पीटरवृत्तिः * कादीनां पण्यादीनां वा तत्र गृहस्थस्थापितानां साध्वर्थ चालनं स्थानान्तरस्थापनमेतेषां समाहारद्वन्द्वः विभक्तिलोपश्च दृश्यः, तत आसिक्तादिरूपः अन्तर्बहिश्च - उपाश्रयस्य मध्ये अमध्ये च असंयमो - जीवॐ विराधना यत्र यस्मिन्नुपाश्रये वर्त्तते भवति संयतानां साधूनामर्थाय हेतवे 'बज्जेयन्चो हु'न्ति वर्जितव्य * एव उपाश्रयो वसतिः स तादृशः सूत्रप्रतिकुष्टः- आगमनिषिद्धः, प्रथमभावनां निगमयन्नाह एवमुक्तेनानुधानप्रकरेण विविक्तो - लोकद्रयाश्रितदोषवर्जितो विविक्तानां वा निर्दोषाणां वासो निवासो यस्यां सा विविक्तवासा सा चासौ वसतिश्च विविक्तवासवसतिस्तद्विषया या समितिः- सम्यक्प्रवृत्तिस्तया यो योगः -सम्बन्धस्तेन भावितो भवत्यन्तरात्मा, किंविध इत्याह-नित्यं सदाऽधिक्रियते अधिकारीक्रियते दुर्गतावात्मा येन तदधिकरणं-दुरनुष्ठानं तस्य यत्करणं कारापणं च तदेव पापकर्म-पापोपादानक्रिया तयोविरतो यः स तथा तथा दत्तोऽनुज्ञातश्च योऽवग्रहः - अवग्रहणीयं वस्तु तत्र रुचिर्यस्य स तथेति १ । 'बीयंति द्वितीयं भावनावस्तु अनुज्ञातसंस्तारकग्रहणं नाम, तथैवम्-आरामो-दम्पतिरमणस्थानभूतमाधवीलतादिगृहयुक्तः उथानं-पुष्पादिमदृक्षसङ्कुलादी उत्सवादी बहुजनभोग्यं काननं-सामान्यवृक्षोपेतं नगरासनं च Education Internationa For Penal Use On ~ 257~ धर्मद्वारे सभावनाकमदत्तादानविर - मणं सू० २६ ॥ १२७ ॥ www.ncbrary.org Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: %% प्रत % सूत्रांक [२६]] CANCERCISCCC वन-नगरविप्रकृष्टं एतेषां प्रदेशरूपो यो भागः स तथा तत्र यत्किञ्चिदिति-सामान्येनावग्रहणीय वस्तु, तदेव विशेषेणाह-इकडं वा-ढंढणसदृशं तृणविशेषं एवं कठिनकं जन्तुकं च-जलाशयज तृणविशेषमेव पर्णमित्यर्थः तथा परा-तृणविशेषः मेरा तु-मुञ्जसरिका कूर्ची-येन तृणविशेषेण कुविन्दाः कूर्चान् कुर्वन्ति कुशदर्भयोराकारकृतो विशेषः पलालं-कमवादीनां मूयको-मेदपाटप्रसिद्धस्तृणविशेषः बल्बजः-तृणविशेषः पुष्पफलवकप्रवालकन्दमूलतृणकाष्ठशर्कराः प्रतीतास्ततः परादीनां द्वन्द्वः पुनस्ता आदिर्यस्य तत्तथा तद् गृह्णातिआदते, किमर्थं ?-शय्योपधेः-संस्तारकरूपस्योपधेरथवा संस्तारकस्योपाधेश्वार्थाय-हेतवे, इह तदिति शेषो दृश्या, ततस्तन्न कल्पते-न युज्यते अवग्रहे-उपाश्रयान्तर्सिनि अवनाये वस्तुनि अदरो-अननुज्ञाते शय्यादायिना 'गिहिउँ जेत्ति ग्रहीतु-आदातुं जे इति निपातः, अयमभिप्राय:-उपाश्रयमनुज्ञाप्य तन्मध्यगतं तृणाद्यप्यनुज्ञापनीयं, अन्यथा तदग्राह्यं स्यादिति, एतदेवाह–'हणि हणि'त्ति अहनि २-प्रतिदिवस, अयमभिप्राय:उपाश्रयानुज्ञापनादिने 'उग्गहति अवग्राह्यमिक्कडादि अनुज्ञाप्य ग्रहीतव्यमिति, 'एव'मित्यादि निगमनं प्रथमभावनावदवसेयं, नवरमवग्रहसमितियोगेन-अवग्रहणीयतृणादिविषयसम्पकप्रवृत्तिसम्बन्धेनेत्यर्थः। तइयति तृतीयं भावनावस्तु शय्यापरिकर्मवर्जनं नाम, तचैवं-पीठफलकशय्यासंस्तारकार्थतायै वृक्षा न छत्तव्याः न च छेदनेन-सद्भूम्याश्रितवृक्षादीनां कर्त्तनेन भेदनेन च तेषां पाषाणादीनां वा शय्या-शयनीयं कारयितव्या, तथा यस्यैव गृहपतेरुपाश्रये-निलये बसेत-निवासं करोति शय्यां शयनीयं तत्रैव गवेषयेत्-मृगयेत् न च विषमां %4%2595% दीप अनुक्रम [३८] % % % % ~258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [३८] श्रुतस्कन्ध: [२], मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) - अध्ययन [ ३ ] ॥ १२८ ॥ प्रश्नव्याक- ४ सतीं समां कुर्यात् न निवातप्रवाहोत्सुकत्वं कुर्यादिति वर्त्तते न च दंशमशकेषु विषये क्षुभितव्यं क्षोभः र० श्रीअ कार्य:, अतश्च वंशायपनयनार्थ अग्निर्धूमो वा न कर्त्तव्यः एवमुक्तप्रकारेण संयमबहुल :- पृथिव्यादिसंरक्षप्रचुरः संवरबहुल:- प्राणातिपातायाश्रवद्वारनिरोधप्रचुरः संवृतबहुल:- कषायेन्द्रियसंवृतत्वप्रचुरः समाधिॐ बहुल:- चित्तस्वास्थ्यमचुरः धीरो-बुद्धिमान् अक्षोभो वा परिषहेषु, कायेन स्पृशन् न मनोरथमात्रेण, तृतीयं * संवरमिति प्रक्रमगम्यं, सततं सन्ततमध्यात्मनि आत्मानमधिकृत्य आत्मालम्बनं ध्यानं चित्तनिरोधस्तेन श्र युक्तो यः स तथा तत्रात्मध्यानं अमुकोऽहं अमुककुले अनुगसिस्से अमुगधम्मट्ठाणठिइए न य तब्बिराहणे त्यादिरूपं, 'समिए'त्ति समितः समितिभिः एकः ससहायोऽपि रागाद्यभावात् चरेद्-अनुतिष्ठेत् धर्म्म-चारित्रं, अथ तृतीयभावनां निगमयन्नाह एवं अनन्तरोदितन्यायेन शय्यासमितियोगेन - शयनीयविषयस-+ म्यकप्रवृत्तियोगेन शेषं पूर्ववत् ३ । इह चतुर्थ भावनावस्तु अनुज्ञातभक्तादिभोजनलक्षणं, तथैवं-साधारण:सङ्घाटिकादिसाधार्मिकस्य सामान्यो यः पिण्डस्तस्य भक्तादेः पात्रस्य च पतद्रहलक्षणस्य उपलक्षणत्वादुपध्यन्तरस्य च पात्रे वा अधिकरणे लाभो -दायकात्सकाशात्प्राप्तिः स साधारणपिण्डपात्रलाभस्तत्र सति भोक्तव्यं अभ्यवहर्त्तव्यं परिभोक्तव्यं च केन कथमित्याह-संयतेन- साधुना 'समियं'ति सम्पक यथा अदसादानं न भवतीत्यर्थः, सम्यक्त्वमेवाह-न शाकसूपाधिक-साधारणस्य पिण्डस्य शाकमुपाधिके भोगे भुज्य- ५ ॥ १२८ ॥ |माने सङ्घाटिकादिसाधोरप्रीतिरुत्पद्यते ततस्तद्दत्तं भवति, तथा 'न खर्द्ध'ति प्रचुरं प्रचुर भोजनेऽप्यप्रीति भयदेव० वृत्तिः Eucation Internation For Park Lise Only ~ 259~ ३ धर्मद्वारे सभावनाकमदत्ता दानविर मण सू० २६ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक XXS [२६]] ट्राव, प्रचुरभोजनता च साधारणेऽपि पिण्डे भोजकान्तरापेक्षया बेगेन भुज्यमाने भवतीति तनिषेधायाह-न वेगितं-पासस्य गिलने वेगवत् न त्वरितं-मुखक्षेपे न चपलं-हस्तिग्रीवादिरूपकायचलनवत् न साहसं-अवितर्कितं अत एव न च परस्य पीडाकरं च तस्सावा चेति परपीडाकरसावयं, किं बहुनोक्तेन?, तथा भोक्तव्यं संयतेन नित्यं यथा 'से' तस्य संयतस्य तद्वा तृतीयव्रतं न सीदति-न भ्रश्यति, दूरक्षं चेदं सूक्ष्मत्वादित्यत आह-साधारणपिण्डपात्रलाभे विषयभूते सूक्ष्म-सुनिपुणमतिरक्षणीयत्वादणु, किं तदित्याहअदत्तादानविरमणलक्षणेन व्रतेन यनियमनं-आत्मनो नियन्त्रणं तत्तथा, पाठान्तरे अदत्तादानान्तमितिबुद्ध्या नियमेन-अवश्यतया यद्विरमणं-निवृत्तिस्तत्तथा, एतन्निगमनायाह-एवमुक्तन्यायेन साधारणपिण्डपात्रलाभे विषयभूते समितियोगेन-सम्पकमवृत्तिसम्बन्धेन भावितो भवत्यन्तरात्मा, किंभूत इत्याह-निच'मित्यादि तथैव ४।'पंचमगंति पशम भावनावस्तु, किंतदित्याह-साधर्मिकेषु विनयः प्रयोक्तव्यः, एतदेव विषयभेदेनाह–'उबकरणपारणासु'त्ति आत्मनोऽन्यस्य वा उपकरणं-लानाद्यवस्थायामन्येनोपकारकरणं तच्च पारणा च-तपसः श्रुतस्कन्धादिश्रुतस्य वा पारगमनं उपकारपारणे तयोविनयः प्रयोक्तव्यो, विनयश्चेच्छाकारादिदानेन बलात्कारपरिहारादिलक्षणः एकत्रान्यत्र च गुर्वनुज्ञया भोजनादिकृत्यकरणलक्षणः, तथा वाचना-सूत्रग्रहणं परिवर्तना-तस्यैव गुणनं तयोविनयः प्रयोक्तव्यो बन्दनादिदानलक्षणः, तथा दान-1 लब्धस्यान्नादेानादिभ्यो वितरणं ग्रहण-तस्यैव परेण दीयमानस्यादानं प्रच्छना-विस्मृतसूत्रार्थप्रश्नः एतासु दीप अनुक्रम (३८) ~260~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: (१०) प्रत सूत्रांक [२६]] सू०२६ प्रश्नच्याक-विनयः प्रयोक्तव्यः, तत्र दानग्रहणयोर्गुवनुज्ञालक्षणः प्रच्छनायां तु वन्दनादिर्विनयः, तथा निष्क्रमणप्रवेश- धर्मद्वारे २०श्रीअ- नयोविनयस्तु आवश्यकीनषेधिक्यादिकरणमथवा हस्तप्रसारणपूर्वकं भूप्रमार्जनानन्तरपादनिक्षेपलक्षणः, किं- सभावनाभयदेव. बहुना ? प्रत्येक विषयभणनेनेत्यत आह-अन्येषु चैवमादिकेषु बहुषु कारणशतेषु विनयः प्रयोक्तव्यः, कस्मादे-18 कमदत्तावृत्तिः वमित्याह-विनयोऽपि न केवलमनशनादि तपः अपि तु विनयोऽपि तपो वर्त्तते, अभ्यन्तरतपोभेदेषु पठितत्वात दानविर॥१२९॥ तस्य, यद्येवं ततः किमत आह-तपोऽपि धर्मः, न केवलं संयमो धर्मस्तपोऽपि धम्मों वर्तते चारित्रांशत्वात मणं तस्य, यत एवं तस्माद्विनयः प्रयोक्तव्या, केवित्याह-गुरुषु साधुपु तपखिषु च-अष्टमादिकारिपु, विनयप्रयोगे | हि तीर्थकरायनुज्ञाखरूपादत्तादानविरमणं परिपालितं भवतीति, पञ्चमभावनानिगमनार्थमाह-एवमुक्तम्या-18 येन भावितो भवत्यन्तरात्मा, किंभूतं ?-नित्यमित्यादि पूर्ववत् ५ । अध्ययनार्थोपसंहारार्थमाह-'एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिं कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं निचं आमरणंतं च एस जोगो नेयव्यो धितिमया मतिमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्साई असं-13 किलिट्ठो सुद्धो सब्बजिणमणुनाओ, एवं तइयं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरि किट्टि सम्म आराहियं आणाए अणुपालियं भवइ, एवं नायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धवरसासण- ॥१३९ मिणं आपवियं सुदेसियं पसत्यं ।। तइयं संवरदारं समतं तिबेमि' इदं च निगमनसूत्रं पुस्तकेषु किश्चिस्सा-1 दीप अनुक्रम (३८) ~261~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६]] दीप अनुक्रम क्षादेव यावत्करणेन च दर्शितं, व्याख्या चास्य प्रथमसंवराध्ययनवदवसेयेति । प्रश्नव्याकरणाने समाप्तमष्टमाध्ययनविचरणम् ॥ ३॥ अथ चतुर्थसंवरात्मकं नवममध्ययनम् व्याख्यातं तृतीयं संवराध्ययनं, अथ चतुर्थ ब्रह्मसंवराख्यमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सह सूत्रक्रमकृत एव सम्बन्धोऽथवाऽनन्तराध्ययनेऽदत्तादानविरमणमुक्तं तच्च प्रायो मैथुनविरमणोपेतानां सुकरं भवतीति तदि हाभिधीयत इत्ययमपरः, तदेवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्-- जंग! एतो य बंभचेरं उत्तमतवनियमणाणदंसणचरित्तसम्मत्तविणयमूलं यमनियमगुणप्पहाणजुत्तं हिमवंतमहंततेयमंतं पसरधगंभीरथिमितमज्झं अजवसाहुजणाचरितं मोक्खमग्गं विसुद्धसिद्धिगतिनिलयं सासयमव्वाबाहमपुणम्भवं पसत्थं सोमं सुभं सिवमचलमक्खयकरं जतिवरसारक्षितं सुचरिय सुभासिय नवरि मुणिवरेहिं महापुरिसधीरसूरधम्मियधितिमंताण य सया विसुद्धं भव्यं भव्यजणाणचिन्न निस्संकियं निभयं नितसं निरायासं निरुबलेवं नियुतिघरं नियमनिष्पकर्ष तवसंजममूलदलियम्मं पंचमहब्बयसुरक्खियं समितिगुत्तिगुत्तं झाणवरकवाडसुकयमझप्पदिन्नफलिहं संनद्धोच्छाइयदुग्गइपहं सुगतिपहदेसगं च (३८) अत्र द्वितिये श्रुतस्कन्धे तृतीयं अध्ययनं परिसमाप्तं अथ द्वितिये श्रुतस्कन्धे चतुर्थ अध्ययनं "ब्रह्मचर्य" आरभ्यते "मैथुनविरमण" - नामक चतुर्थ संवर-द्वारं ~262~ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) ལྦ + ལྕལླཱཡྻ [३९-४३] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० (मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [४] मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक र० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ॥ १३० ॥ लोगुत्तमं च वयमिणं परमसरतळागपालिभूयं महासगड अरगतुंत्र भूयं महाविडिमरुक्खक्लंधभूयं महानगरपागारकवाडफलिभूयं रज्जुपिणिद्धो व इंदकेतू विसुद्धणेगगुणसंपिणद्धं जंमि य भग्गमि होइ सहसा सच्वं संभग्गमधियन्नियकुसल्लियपलट्ट पडियखंडिय परिसडियविणासियं विणयसीलतवनियमगुणसमूहं तं वंभं भगवंतं गहगणन क्खत्ततारगाणं वा जहा उडुपती मणिमुत्तसिलप्पवालरतरयणागराणं च जहा समुद्दो वेरुलिओ चैव जहा मणीणं जहा मउडो चेव भूसणाणं वत्थाणं चैव खोमजुयलं अरविंदं चैव पुप्फजे गोसीसं चैव चंदणाणं हिमवंतो चेव ओसहीणं सीतोदा चैव निन्नगाणं उदहीसु जहा सर्वभुरमणो रुयगवर चैव मंडलिक याण पवरे एरावण इव कुंजराणं सीहोत्र जहा मिगाणं पवरे पत्रकाणं चैव वेणुदेवे धरणो जह पण्णगदराया कप्पाणं चैव बंभलोए सभासु य जहा भवे सुहम्मा ठितिसु वसत्तमन्त्र पवरा दाणा चैव अभयदानं किमिराउ चैव कंबलाणं संघयणे चैव वजारिसभे संठाणे चेव समचउरंसे झाणेसु य परमसुकझाणं णाणेसु य परमकेवलं तु सिद्धं लेसासु य परमसुकलेस्सा तित्थंकरे जहा चैत्र मुणीणं वासेसु जहा महाविदेहे गिरिराया चैव मंदरवरे वणेसु जह नंदणवणं पवरं दुमेसु जहा जंबू सुदंसणा वीसुयजसा जीय नामेण य अयं दीवो, तुरगवती गयवती रहवती नरवती जह बीसुए चेव, राया रहिए चैव जहा महारहगते, एवमणेगा गुणा अहीणा भवंति एकमि बंभचेरे जंमि य आराहियंमि आराहियं वयमि सव्यं सीलं तवो य विणओ य संजमो य खंती गुत्ती मुत्ती तहेव इहलोइयपारलोइयजसे य कित्ती For Par Lise Only ~263~ ४ धर्मद्वारे सभावनाक ब्रह्मचर्यम् सू० २७ ॥ १३० ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] -------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] + गाथा: य पश्चओ य, तम्हा निहुपण बंभचेर चरियव्वं सव्यओ विमुद्धं जावजीवाए जाव सेयविसंजउत्ति, एवं भणियं वयं भगवया, तं च इम-पंचमहब्वयसुब्वयमूलं, समणमणाइलसाहुसुचिन्नं । वेरविरामणपज्जयसाणं, सव्वसमहमहोदधितिरथं ॥१॥ तित्थकरेहि सुदेसियमग्गं, नरयतिरिच्छविवजियमगं । सयपवित्तिमनिम्मियसारं, सिद्धिविमाणअवंगुयदारं ॥२॥ देवनरिंदनमंसियपूर्य, सव्यजगुत्तममंगलमगं । दुद्धरिस गुणनायकमेक, मोक्खपहस्स बडिंसकभूयं ॥३॥ जेण सुद्धचरिएण भवइ सुबभणो सुसमणो सुसाहू सइसी समुणी ससंजए स एव भिक्खू जो सुद्धं चरति बंभचेरं, इमं च रतिरागदोसमोहपवणकरं किंमज्झपमायदोसपासस्थसीलकरणं अभंगणाणि य तेल्लमजणाणि य अभिक्खणं फक्खसीसकरचरणवदणधोवणसंवाहणगायकम्मपरिमद्दणाणुलेवणचुन्नवासधूवणसरीरपरिमंडणबाउसिकहसियभणियनहगीयवाइयनडनट्टकजालमतपेच्छणवेलंबक जाणि य सिंगारागाराणि य अन्नाणि य एवमादियाणि तवसंजमबंभचेरघातोषघातियाई अणुचरमाणेणं बंभचेर बजेयव्वाई सब्वकालं, भावेययो भवइ य अंतरप्पा इमेहिं तवनियमसीलजोगेहि निच्चकालं, किं ते?-अण्हाणकअदंतधावणसेयमलजल्लधारणं मूणवयकेसलोए य खमदमअचेलगखुप्पिवासलाघवसीतोसिणकट्ठसेजाभूमिनिसेज्जापरघरपवेसलद्धावलद्धमाणावमाणनिंदणदंसमसगफासनियमतवगुणविणयमादिएहिं जहा से घिरतरक होइ बंभचेर इमं च अवंभचेरविरमणपरिरक्खणद्वयाए पावयणं भगवया सुकहियं पेच्चाभाविकं आगमेसिभई सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सब्वदु दीप अनुक्रम [३९-४३] ACCSC Salaram.org ~264~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२७] + गाथा: दीप अनुक्रम [३९-४३] प्रश्नव्याक र० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ १३१ ॥ “प्रश्नव्याकरणदशा” Education inte - श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [४] मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः) क्खपावाण विउसवणं, तस्स इभा पंच भावणाओ चउत्थयस्स होंति अवंभ चेरवेरमणपरिरक्खणडयाए, पढमं सयणासणघरदुवार अंगण आगासगवक्खसाल अभिलोयणपच्छवत्थुकपसाहणकण्हाणिकावकासा अवकासा जे य वेसियाणं अच्छंतिय जरथ इत्थिकाओ अभिक्खणं मोहदोसरतिरागवणीओ कहिंति य कहाओ बहुबिहाओ तेऽवि हु वज्जणिज्जा इत्थिसंसत्तसंकिलिट्टा अन्नेवि य एवमादी अवकासा ते हु वज्जणिज्जा जत्थ मणोविarat वा भंगो वा भंसगो वा अहं रुई च हज्ज झाणं तं तं बजेज वज्जभीरु अणायतणं अंतपंतवासी एवमसंपत्तवासवसही समितिजोगेण भाषितो भवति अंतरप्पा आरतमण विरयगामधम्मे जितेंदिए गंभ चेरगुत्ते १। वितियं नारीजणस्स मज्झे न कहेयब्वा कहा विचित्ता विव्वोयविलाससंपडत्ता हाससिंगारलोइयन्त्र मोहजणणी न आवाहविवाहवरकहाविव इत्थीणं वा सुभगदुभगकहा चउस िच महिलागुणा न वनसजातिकुलरूवनामनेवरथपरिजणकह इत्थियाणं अन्नावि य एवमादियाओ कहाओ सिंगारकलुणाओ तव संजम बंभचेरघातोवघातियाओ अणुचरमाणेणं वंभचेरं न कहेयच्या न सुणेयच्या न चिंतेयच्या, एवं इत्थीकहविरतिसमितिजोगेणं भावितो भवति अंतरप्पा आरतमणविरयगामधम्मे जितिंदिए बंभचेरगुत्ते २ । ततीयं नारीण हसितभणितं चेद्वियविप्पेक्खि तराइविलासकीलियं वियोतियगीतवातियसरीरसंठाणवश कर चरणनयणलावन्नरूव जोन्वणपयोहरा धरवत्थालंकारभूसणाणि य गुज्झोवकासियाई अ नाणि य एवमादियाई तवसंजमबंभचेरघातोवघातियाइं अणुचरमाणेणं बंभवेरं न चक्खुसा न मणसा न For Parks Use Only ~265~ ४ धर्मद्वारे सभावनाक ब्रह्मचर्यम् सू० २७ ॥ १३१ ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२७] गाथा: दीप अनुक्रम [३९-४३] “प्रश्नव्याकरणदशा” श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [४] मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education Intention - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः) वयसा पत्थे वा पावकम्माई एवं इत्थीरूवविरतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा आरतमणविरयगामधम्मे जितेंदिए बंभचेरगुत्ते ३ । चउत्थं पुण्वरय पुष्वकीलिय पुच्व संगंथगंधसंथुया जे ते आवाहविवाहचलकेसु य तिथि जन्नेसु उत्सवेसु य सिंगारागारचारुवेसाहिं हावभाव पल लियविक्खेवविलाससालिणीहिं अणुकूलपेम्मिकाहिं सद्धिं अणुभूया सयणसंपओगा उदुसुहवरकुसुमसुरभिचंदण सुगंधिवरवासधूवसुहफरिसवत्थभूसणगुणोववेया रमणिज्जाउज्जगेयपउरनडन कजलमलमुहिक बेलंवग कहगपवगलासग आइक्खगलंखर्मखतूणइलतुंवचीणियतालायर पकरणाणि य वहूणि महुरसरगीतसुस्सराई अन्नाणि य एवमादियाणि तवसंजमवंभचेरघातोवघातियाई अणुचरमाणेणं बंभचेरं न तातिं समणेण लब्भा दहुं न कहे नवि सुमरिडं जे एवं पुल्वरयपुण्यकीलियविरतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा आरयमणविर तगामधम्मे जिईदिए बंभचेरगुत्ते ४ । पंचमगं आहारपणीयनिद्धभोयणविवज्जते संजते सुसाहू ववगयखीरदहिसप्पिनवनीयतेलगुलखंड मच्छंडिकम हुमज्जमंसखज्ज कविगतिपरिचत्तकयाहारे ण दप्पणं न बहुसो न नितिकं न सायसूपाहिकं न खद्धं तहा भोत्तव्यं जह से जायामाता य भवति न य भवति विग्भमो न भंसणा य धम्मस्स, एवं पणीयाहारविरतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा आरयमणविरतगामधम्मे जिईदिए बंभचेरगुत्ते ५ । एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुपणिहितं इमेहिं पञ्चहिवि कारणेहिं मणवयणकाय परिरक्खिएहिं णिचं आमरणंतं च एसो जोगो णेयन्वो वितिमया मतिमया अणासवो For Par Lise Only ~266~ www.nary org Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] ------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक धर्मद्वारे सभावनाकं | ब्रह्मचर्यम् [२७] प्रश्नब्याक- अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सुद्धो सव्वजिणमणुनातो, एवं चउत्थं संवरदारं फासियं पालितं र०श्रीअ-IN सोहितं तीरित किट्टितं आणाए अणुपालियं भवति, एवं नायमुणिणा भगवया पन्नवियं परूवियं पसिद्ध भयदेव सिद्धवरसासणमिणं आववियं सुदेसितं पसत्धं (सू० २७) चउत्थं संवरदारं समत्तंतिबेमि ॥ ४॥ वृत्तिः 'जंबू' इत्यादि, तत्र जम्बूरिति आमन्त्रणं 'एत्तो यत्ति इतश्चादत्तादानविरमणाभिधानसंवरभणनादन न्तरं 'बंभचेर ति ब्रह्मचर्याभिधानं चतुर्थ संवरद्वारमुच्यते इति शेषः, किंखरूपं तदित्याह-उत्तमाः-प्रधाना ॥१३२॥ जाये तपाप्रभृतयस्ते तथा, तत्र तपः-अनशनादि नियमा:-पिण्डविशुद्धयादयः उत्तरगुणाः ज्ञान-विशेषयोधः दर्शनं-सामान्यबोधः चारित्रं-सावययोगनिवृत्तिलक्षणं सम्यक्त्वं-मिथ्यात्वमोहनीयक्षयोपशमादिसमुत्थो जीवपरिणामः विनयः-अभ्युत्थानापथारः तत एतेषां मूलमिय मूलं-कारणं यत्तत्तथा, ब्रह्मचर्यवान् हि | तपाप्रभृतीनुत्तमान् प्रामोति नान्यथा, यदाह-"जइ ठाणी जइ मोणी जइ झाणी वकली तवस्सी वा। पत्थंतो अ अबभं बंभावि न रोयए मज्झ ॥१॥तो पढियं तो गुणियं तो मुणियं तो य चेइओ अप्पा । आवडियपे|ल्लियामंतिओवि न कुणइ अकजं ॥२॥ [यदि कायोत्सर्गवान् यदि मौनी यदि ध्यानी वल्कली तपखी वा। सामाधेयान्नब्रह्म ब्रह्मापि न रोचते मह्यम् ॥१॥ तदा पठितं तदा गुणितं तदा ज्ञातं तदा चेतित आत्मा । आपत्पतित आमन्त्रितोऽपि न करोत्यकार्यम् ॥२॥] यमा-अहिंसादयः नियमाः-द्रव्याद्यभिग्रहाः पिण्डविशुयादयो वा ते च ते गुणाना मध्ये प्रधानाश्च तैर्युक्तं यत्तत्तथा, 'हिमवन्तमहंततेयमंतंति हिमवतः पर्वतचिशे **63-940585 गाथा: दीप अनुक्रम [३९-४३] ॥१३२॥ 12 % 25 ~267~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] -------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक -%84% [२७] A1-56* गाथा: Pषात् सकाशात् महत्-गुरुकं तेजखि-प्रभावत् यत्तत्तथा, यथा हि पर्वतानां मध्ये हिमवान् गुरुकः प्रभावांश्च एवं व्रतानामिदमिति भावः, आह च-"व्रतानां ब्रह्मचर्य हि, निर्दिष्टं गुरुकं व्रतम् । तजन्यपुण्यसम्भारसंयोगाद् गुरुरुच्यते ॥१॥ तत्रान्तरीयैरप्युक्तं-"एकतश्चतुरो वेदाः, ब्रह्मचर्य च एकतः । एकतः सर्वपापानि, मद्यं मांसं च एकतः॥१॥"प्रशस्त-प्रशस्यं गम्भीरं-अतुच्छं स्तिमितं-स्थिरं मध्यं देहिनोऽन्तःकरणं यस्मिन् सति तत्तथा, आर्जवैः-ऋजुतोपेतैः साधुजनैराचरित-आसेवितं मोक्षस्य च मार्ग इव मार्गों यत्तत्तथा, वाचनान्तरे प्रशस्तैः-प्रशस्यैः गम्भीरैः-अलक्ष्यदैन्यादिविकारैः स्तिमितैः-कायचापलादिरहितैः मध्यस्थैः-रागद्वेषानाकलितैः आर्जवसाधुजनैराचरितं मोक्षमार्गस्य यत्तत्तथा, तथा विशुद्धा-रागादिदोषरहितत्वेन निर्मला या |सिद्धिः-कृतकृत्यता सैव गम्यमानत्वाद गतिर्विशुद्धसिद्धिगतिः-जीवस्य स्वरूपं सैव निलय इव निलयः स्वरूपैः सर्वसिद्धानां निलयनाद्विशुद्धसिद्धिगतिनिलयः शाश्वतः साद्यपर्यवसितत्वात् अपुनर्भवः ततः पुनभवसम्भवाभावात् प्रशस्तः उक्तगुणयोगादेव सौम्यो रागाद्यभावात् सुखः सुखखरूपत्वात् शिवः सकलद्वन्द्ववर्जितत्वात् अक्षयश्च तत्पर्यायाणामपि कथंचिदक्षयत्वात् अक्षतो वा पूर्णमासीचन्द्रवत् तं करोतीत्येवंशीलं यत्तत्तधा, मकारस्त्विह पाठे आगमिका, पाठान्तरे सिद्धिगतिनिलयं शाश्वतहेतुत्वात् शाश्वतं अव्या बाघहेतुत्वादव्यावा अपुनर्भवहेतुत्वादपुनर्भवं अत एव प्रशस्तं सौम्यं च सुखहेतुत्वाच्छिवहेतुत्वाच सुख२३ शिवं अचल नहेतुत्वादचलनं अक्षयकरणादक्षयकरणं ब्रह्मचर्यमिति प्रक्रमा, यतिवरैः-मुनिप्रधानः संरक्षितं 4-04- दीप अनुक्रम [३९-४३] 4-5% % * ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२७] + गाथाः दीप अनुक्रम [३९-४३] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [४] मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक र० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ १३३ ॥ पालितं यत्तत्तथा, सुचरितं शोभनं शोभनानुष्ठानं सुचरितत्वेऽपि नाविशेषेणोपदिष्टं मुनिभिरिति दर्शयनाह सुसाधितं सुष्ठु प्रतिपादितं, 'नवरि'त्ति केवलं मुनिवरैः - महर्षिभिः महापुरुषाश्च ते जात्याद्युत्तमाः धीराणां मध्ये शूराश्र-अत्यन्त साहसघनाः ते च ते धार्मिका धृतिमन्तश्चेति कर्मधारयः अतस्तेषामेव, चशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, सदा विशुद्धं निर्दोषं अथवा सदापि सर्वदेव कुमाराद्यवस्थासु सर्वास्वपीत्यर्थः शुद्ध-निर्दोष, अनेन चैतदपास्तं यदुत "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति, खर्गो नैव च नैव च । तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा, पश्चाद्ध चरिव्यसि ॥ १ ॥” इति, अत एवोच्यते - "अनेकानि सहस्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् । दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसन्ततिम् ॥ १ ॥” भव्यं योग्यं कल्याणमित्यर्थः तथा भव्यजनानुचरितं निःशङ्कितं अशङ्कनीयं ब्रह्मचारी हि जनानां विषयनिःस्पृहत्वादशङ्कनीयो भवति, तथा निर्भयं ब्रह्मचारी हि अशङ्कनीयत्वान्निर्भयो भवति, निस्तुषमिव निस्तुषं विशुद्धतन्दुकल्पं निरायासं-न खेदकारणं निरुपलेप-स्नेहवर्जितं तथा निवृत्तेः चिसस्वास्थ्यस्य गृहमिव गृहं यत्तत्तथा, आह च- "क यामः क नु तिष्ठामः, किं कुर्मः किन्न कुर्महे । रागिणश्चिन्तयन्त्येवं, नीरागाः सुखमासते ॥ १ ॥ नीरागाश्च ब्रह्मचारिण एव, तथा नियमेनअवश्यंभावि निष्प्रकम्पं अविचलं निरतिचारं यत्तराधा, व्रतान्तरं हि सापवादमपि स्यात् इदं च निरपवा दमेवेत्यर्थः, आह "नवि किंचि अणुन्नायं पडिसिद्धं बावि जिणवरिंदेहिं । मोतुं मेहुणभावं पण तं विणा रागदो सेहिं ॥ १ ॥" [ नैव किञ्चिदनुज्ञातं प्रतिषिद्धं वाऽपि जिनवरेन्द्रः । मुक्खा मैथुनभावं यत् न तद्विना Education Intiation For Parts Only ~ 269~ ४ धर्मद्वारे सभावनाक ब्रह्मचर्यम् सू० २७ ॥ १३३ ॥ www.ncbrary.org Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] ------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] गाथा: रागद्वेषौ ॥१॥ ततः पदद्वयस्य कर्मधारये निवृत्तिगृहनियमनिष्पकम्पमिति भवति, तपःसंयमयोर्मूलदलिक-मूलदलं आदिभूतद्रव्यं तस्य 'नेमति निभं-सदृशं यत्तत्तथा, पचानां महाव्रतानां मध्ये सुत्रु-अत्यन्तं रक्षण-पालनं यस्य तत्तथा, समितिभिः-ईर्यासमित्यादिभिर्गुप्तिभि:-मनोगुप्त्यादिभिर्वसत्यादिभिर्वा | नवभिब्रह्मचर्यगुप्तिभिर्युक्तं गुप्तं वा यत्तसथा, ध्यानवरमेव-प्रधानध्यानमेव कपाटं सुकृतं-सुविरचितं रक्षणार्थ यस्य अध्यात्मैव च-सद्भावनारूढ़ चित्तमेव 'दिपणों'त्ति दत्तो ध्यानकपाटदृढीकरणार्थ परिघः-अर्गला रक्षणार्थ मेव यस्य तत्तथा, सन्नद्ध इव बद्ध इव ओच्छाइयत्ति-आच्छादित इव निगद्ध इत्यर्थः दुर्गतिपथो दुर्गतिमार्गों मायेन तत्तथा सुगतिपथस्य देशकं-दर्शकं यत्तत्तथा तच, लोकोत्तमं च व्रतमिदं दुष्करत्वात्, यदाह-'देवदाणवर्ग-16 धम्या जक्खरक्खस्सकिंनरावंभचारि नमसंति दुक्करं जं करिति ते॥१॥[देवदानवगान्धर्वा पक्षराक्ष-TV सकिन्नराः। ब्रह्मचारिणं नमस्यन्ति यद् दुष्करं तत्ते कुर्वन्ति ॥१॥] 'पउमसरतलागपालिभूर्य'ति सरा-खतः सम्भवो जलाशयविशेषः तडागश्च स एव पुरुषादिकृत इति समाहारद्वन्द्वः पद्मप्रधानं सरस्तडागं पासर-1 ४ स्तडागं पद्मसरस्तडागमिव मनोहरखेनोपादेयत्वात् पद्मसरस्तडाग-धर्मस्तस्य पालिभूतं-रक्षकत्वेन पालि कल्पं यत्तत्तथा, तथा महाशकटारका इव महाशकटारका:-क्षान्त्यादिगुणास्तेषां तुम्बभूत-आधारसामयोनाभिकल्पं यत्तत्तथा, महाविटपवृक्ष इव-अतिविस्तारभूमह इव महाविटपवृक्ष:-आश्रितानां परमोपकारत्वसाधाद्धर्मः तस्य स्कन्धभूतं-तस्मिन् सति सर्वस्य धर्मशाखिन उपपद्यमानत्वेन नालकल्पं यत्सत्तधा 'म दीप अनुक्रम [३९-४३] SAREnatininitariana ~270~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] ------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] गाथा: प्रक्षव्याक हानगरपागारकवाडफलिहभूय'ति महानगरमिव महानगरं-विविधमुखहेतुत्वसाधाद्धर्मः तस्य प्राकार || धर्मद्वारे र०श्रीअ- हाइव कपाटमिव परिघमिव यत्तत् महानगरकपादपरिधभूतमिति, रज्जुपिनद्ध इव इन्द्रकेतुः-रश्मिनियन्त्रिते- सभावनाक भयदेव वन्द्रयष्टि: विशुद्धानेकगुणसंपिनद्ध-निर्मलबहुगुणपरिवृतं, यमिश्च-यत्र च ब्रह्मचर्ये भग्ने विराधिते भवति- ब्रह्मचर्यम दृत्तिः सम्पद्यते सहसा-अकस्मात् सर्व-सर्वथा सम्भग्नं घट इव मथितं-बधीव विलोडितं चूर्णितं-चणक इव पिष्टं सू०२७ कुशल्यितं-अन्त प्रविष्टतोमरादिशल्यशरीरमिव सनातदुष्टशल्यं 'पल्लहत्ति पर्वतशिखरादू गण्डशैल इव ॥१३४॥ स्वाश्रयाचलितं पतित-प्रासादशिखरादेः कलशादिरिवाधो निपतितं खण्डितं-दण्ड इव विभागेन छिन्नं परि-13 शटितं-कुष्ठाग्रुपहताङ्गमिव विध्वस्तं विनाशितं च-भस्मीभूतपवनविकीर्णदार्विव निस्सत्ताकतां गतं एषां समाहारद्वन्द्रः कर्मधारयो चा, किमेवंविधं भवतीत्याह-विनयशीलतपोनियमगुणसमूह-विनयशीलतपोनियमलक्षणानां गुणानां वृन्द, इह च समूहशब्दस्य छान्दसत्वान्नपुंसकनिर्देशा, 'त'मिति तदेवंभूतं ब्रह्मचय भगवन्तं-भट्टारकं, तथा ग्रहगणनक्षत्रतारकाणां वा यधा उडुपतिः-चन्द्रः प्रवर इति योगस्तथेदं व्रतानामिति शेषा, वाशब्दः पूर्वविशेषणापेक्षया समुच्चये, तथा मणय:-चन्द्रकान्तायाः मुक्का-मुक्ताफलानि शिलामवालानि-विद्रुमाणि रक्तरनानि-पद्मरागादीनि तेषामाकरा-उत्पत्तिभूमयो येते तथा तेषां वा यथा| समुद्रः प्रवरस्तथैवं व्रतानामिति शेषः सर्वत्र दृश्यः, वैय चैव रत्नविशेषो यथा मणीनां यथा मुकुटं चैव ॥१३४॥ भूषणानां वखाणामिव क्षीमयुगलं कापासिकवस्त्रस्य प्रधानत्वात् , इह चेवशब्दो यथार्थों द्रष्टव्या, 'अरविंद RSSC दीप अनुक्रम [३९-४३] ~271~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] ------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] गाथा: 'सि अरविन्द-पद्मं यथा पुष्पज्येष्ठमेवमिदं व्रतानां, 'गोसीसं चेत्ति गोशीर्षाभिधानं चन्दनं यथा चन्दनानां 'हिमवंतं चेव'त्ति हिमवानिय औषधीनां, यथा हिमवान्-गिरिविशेषः औषधीनां-अद्भुतकार्यकारिवनस्पतिविशेषाणामुत्पत्तिस्थानमेवं ब्रह्मचर्यमौषधीनां-आमशोषध्यादीनामागमप्रसिद्धानामुत्पत्तिस्थानमिति भावा, 'सीतोदा चेव'त्ति शीतोदेव निम्नगाना-नदीनां यथा नदीनां शीतोदा प्रवरा तथेदं बतानामित्यर्थः, उदधिषु यथा खयम्भूरमण:-अन्तिमसमुद्रो महत्त्वे प्रवरः एवमिदं व्रतानां प्रवरमिति 'रुयगवरे चेच मंडलिए पव्वयाण पवरे'त्ति यथा माण्डलिकपर्वताना-मानुषोत्तरकुण्डलवररुचकवराभिधानानां मध्ये रुच-13 कवर:-त्रयोदशदीपवर्ती प्रवरः एवमिदं व्रतानां प्रवरमिति भावः, तथा ऐरावण इव-शक्रगजो यथा कुञ्जराणां प्रवरा एवमिदं बतानां, सिंहो वा यथा मृगाणां-आटव्यपशूनां प्रवर:-प्रधानः एवमिदं व्रतानां 'पवगाणं चेय'त्ति प्रबकाणामिव-प्रक्रमात् सुपर्णकुमाराणां यथा वेणुदेवः प्रवर तथा व्रतानां ब्रह्मचर्यमिति प्रकृतं, तथा धरणो यथा पन्नगेन्द्राणां-भुजगवराणां नागकुमाराणां राजा पन्नगेन्द्रराजः पन्नगानां प्रवरः एवमिदं व्रतानामिति प्रक्रमः, कल्पानामिव-देवलोकानां यथा ब्रह्मलोक:-पश्चमदेवलोकः तत्क्षेत्रस्य महत्त्वात् तदिन्द्रस्यातिशुभपरिणामत्वात् प्रवरः एवमिदं व्रतानां, सभासु च-प्रतिभवनविमानभाविनीषु सुधर्मसभा उत्पादसभा अभिषेकसभा अलङ्कारसभा व्यवसायसभा चेत्येवंलक्षणासु पञ्चसु मध्ये यथा सुधर्मा भवति प्रवरा तथेदं बतानामिति, स्थितिषु-आयुष्केषु मध्ये लवसप्तमा-अनुत्तरसुरभवस्थितिः चाशब्दो यथाश दीप अनुक्रम [३९-४३] ~272~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२७] गाथाः दीप अनुक्रम [३९-४३] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [४] मूलं [२७] + गाथा: श्रुतस्कन्धः [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक-ब्दार्थः ततो यथा प्रवरा - प्रधाना तथेदं व्रतानामिति, तत्रैकोनपञ्चाशत उच्छ्रासानां लवो भवति, व्रीह्यादिर० श्रीअ ४ स्तम्बलवनं वा लवस्तत्प्रमाणः कालोऽपि लवः, ततो लवैः सप्तमैः- सप्तप्रमाणैः सप्तसयैर्विवक्षिताध्यवसायभयदेव० * विशेषस्य मुक्तिसम्पादकस्यापूर्यमाणैर्या स्थितिर्वध्यते सा लवसप्तमेत्यभिधीयते, तथा 'दाणाणं चैव अभयवृत्तिः दाणं ति दानानां मध्येऽभयदानमिव प्रवरमिदं तत्र दानानि ज्ञानधर्मोपग्रहाभयदानभेदात्रीणि, 'किमिरा॥ १३५ ॥ ४ गोब्ब कंबलाणं ति कम्बलानां वासोविशेषाणां मध्ये कृमिराग इव- कृमिरागरक्तकम्बल इव प्रवरमिदं त्रॐ तानां तथा 'संहणणे चैव वज्ररिसहति संहननानां षण्णां मध्ये वज्रर्षभनाराचसंहननमिव प्रवरमिदं व्रतानामिति 'संठाणे चेव चउरंसे'ति शेषसंस्थानानां चतुरस्रसंस्थानमिवेदं प्रवरं व्रतानां तथा ध्यानेषु च परमशुक्लध्यानं - शुक्लध्यान चतुर्थभेदरूपं यथा प्रवरमेवमिदं व्रतेष्विति गम्यं 'नाणेसु य परमकेवलं तु सि द्धति ज्ञानेषु-आभिनिबोधिकादिषु परमं च तत्केवलं व परिपूर्ण विशुद्धं वा मतिश्रुतावधिमनःपर्यायापेक्षया परमकेवलं क्षायिकज्ञानमित्यर्थः तुरेधकारार्थः सिद्धं प्रवरतया प्रसिद्धं यथा तथेदमपि व्रतेष्विति गमनीयं, लेयासु च कृष्णायासु परमशुक्ललेश्या-शुक्रुध्यानतृतीय भेदवर्त्तिनी यथा प्रवरा तथेदं व्रतेष्विति गम्यं, तीर्थकरश्चैव यथा मुनीनां प्रवरस्तयैवेदं व्रतानां वर्षेषु क्षेत्रेषु यथा महाविदेहस्तथेदं व्रतेषु, 'गिरिराया चेव मंदरवरे 'ति चेवशब्दस्य यथार्थत्वात् यथा मन्दरवरो - जम्बूद्वीपमेरुर्गिरिराजस्तथेदं व्रतराजः, वनेषु - ४ ॥ १३५ ॥ भद्रशाल नन्दन सौमनसपण्डकाभिधानेषु मेरुसम्बन्धिषु यथा नन्दनवनं प्रवरमेवमिदमिति, द्रुमेषु-तरुषु For Penal Lise On ~273~ ४ धर्मद्वारे सभावनाक ब्रह्मचयम् सू० २७ andrary org Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] -------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक CCCCC [२७] गाथा: मध्ये यथा जम्बूर सुदर्शनेति-सुदर्शनाभिधाना विश्रुतयशाः-विख्याता एवमिदमिति, किम्भूता जम्बूः?-18 यस्था नानाऽयं द्वीपः जम्बूद्वीप इत्यर्थः, तथा तुरगपतिर्गजपती रथपतिर्नरपतिः यथा विश्रुतीष राजा तधेद-1 मपि विश्रुतमिति भावः, रथिकश्चैव यथा महारथगतः पराभिभावी भवतीत्येवमिहस्थः कर्मरिपुसैन्याभिभाची भवतीति, निगमयन्नाह-एवं-उक्तक्रमेणानेके गुणाः प्रवरत्वविश्रुतत्त्वादयोऽनेकनिदर्शनाभिधेयाः अहीना:-प्रकृष्ठा अधीना वा-स्वायत्ता भवन्ति, केत्याह-एकस्मिन् ब्रह्मचर्ये-चतुर्थे व्रते, तथा यस्मिंश्च ब्रह्मचर्य आराधिते-पालिते आराधितं-पालितं व्रतमिदं-निर्ग्रन्थप्रव्रज्यालक्षणं सर्व-अखण्डं, तथा शील-समाधानं तपश्च विनयश्च संयमश्च क्षान्तिर्गुप्तिर्मुक्ति:-निर्लोभता सिद्धिर्वा तथैवेति समुच्चये तथा ऐहिकलौकिकयशांसि च कीर्तयश्च प्रत्ययश्च आराधिता भवन्तीति प्रक्रमः, तत्र यश:-पराक्रमकृतं कीर्तिः-दानपुण्यफलभूता अथवा सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धिर्यशः एकदिग्गामिनी कीर्तिः प्रत्ययः-साधुरयं इत्यादिरूपा जनप्रतीतिरिति, यत एवंभूतं तस्मान्निभृतेन-स्तिमितेन ब्रह्मचर्य चरितव्यं-आसेवनीयं, किंभूतं?-सर्वतो-मनाप्रभृतिकरणत्रययोगत्रयेण विशुद्ध-निरवयं यावजीवया प्रतिज्ञया यावजीवतया वा आजन्मेत्यर्थः, एतदेवाह-पावत् श्वेतास्थिसंयत इति, श्वेतास्थिता च साधोप॑तस्य क्षीणमांसादिभावे सतीति, इतिशब्दो विवक्षितवाक्यार्थसमाप्ती, भगवन्तरेण ब्रह्मचर्य व्रतं स्तोतुं प्रस्तावयति-एवं वक्ष्यमाणेन वचनेन भणितं व्रतं-ब्रह्मलक्षणं भगवता श्रीमहावीरेण 'तंच इमति तच्चेदं वचनं पचत्रयप्रभृतिक-पश्चमहश्वयसुब्बयमूल' पत्रमहावतनामकानि दीप अनुक्रम [३९-४३] PRIMGorary.org ~274 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्क न्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] ----------- -- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक % [२७] गाथा: प्रश्नव्याकयानि सुव्रतानि तेषां मूलमिव मूलं यत् अथवा पश्चमहावता:-साधवस्तेषां सम्बन्धिनां शोभननियमानां धर्मद्वारे र० श्रीअ- मूलं यत् अथवा पश्चानां महाव्रतानां सुव्रतानां च-अणुव्रतानां मूलं यत्तत्तथा, अथवा-हे पञ्चमहानतसु-| सभावनाकं भयदेवव्रत! मूलमिदं ब्रह्मचर्यमिति प्रकृतं, 'समणमणाइलसाहुसुचिण्णं 'समणति सभावं यथा भवतीत्येवं अना- ब्रह्मचर्यम् वृत्तिः विलै:-अकलुषैः शुद्धस्वभावैः साधुभिः-यतिभिः सुष्टु चरित-आसेवितं यत्तत्तथा, 'वेरविरमणपजवसाणं वै सू० २७ सारस्प-परस्परानुशयस्य विरमणं-विरामकरणमुपशमनयनं निवर्तनं पर्यवसान-निष्टाफलं यस्य तत्तथा. 'सव्व-IRI समुहमहोदहितित्थं सर्वेभ्यः समुद्रेभ्यः सकाशात् महानुदधिः-स्वयंभूरमण इत्यर्थः तद्वद्यहुनिस्तरत्वेन तत्स-II समुद्रमहोदधिस्तथा तीर्थमिव तीर्थ-पवित्रताहेतुर्यत्र तत्तथा, अथवा सर्वसमुद्रमहोदधिः-संसारोऽतिदुस्तरत्वात्तन्निस्तरणे तीर्थमिव-तरणोपाय इव तत्तथेति वृत्तार्थः ॥१॥ 'तित्थयरेहि सुदेसियमग्गति तीर्थकर:जिनः सुदेशितमार्ग-मुष्ठदर्शितगुस्यादितत्पालनोपायं, 'निरयतिरिच्छविवजिपमग्गं नरकतिरश्चां सम्बन्धी विवर्जितो-निषिदो मार्गा-गतिर्यन तत्तथा, 'सब्बपवित्तसुनिम्मियसारं सर्वपवित्राणि-समस्तपावनानि सु|निर्मितानि-सुष्ठ विहितानि साराणि-प्रधानानि येन तत्तथा, 'सिद्धिविमाणअवंगुयदार सिद्धेर्विमानानां चाप्रावृतं-अपगतावरणीकृतमुद्घाटितमित्यों द्वार-प्रवेशमुखं येन तत्तथेति वृत्तार्थः ॥२॥ 'देवनरिंदनमंसियपूर्य' ॥१३ ॥ देवानां नराणां चेन्नैर्नमस्थिता-नमस्कृता ये तेषां पूज्यं-अर्चनीयं यत्तत्तथा, 'सव्वजगुत्तममंगलमगं' सर्व-12 जगदुत्तमानां मङ्गलानां मार्गः-उपायोऽयं वा-प्रधानं यत्तत्तथा, 'दुद्धरिसं गुणनायकमेकं दुष-अनभिभव-| %%254545 दीप अनुक्रम [३९-४३] RORS ~275~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] ------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] X गाथा: मनीयं गुणान्नयति-प्रापयतीति गुणनायकमेक-अद्वितीयमसदृशं, 'मोक्खपहस्सऽवडिंसगभूअं मोक्षपथस्य सम्यग्दर्शनादेरवतंसकभूतं-शेखरकल्पं प्रधानमित्यर्थः इति दोधकार्थः ॥ तथा येन शुद्धचरितेन-सम्यगासे, वितेन भवति सुब्राह्मणो यथार्थनामत्वात् सुश्रमणः-सुतपाः सुसाधुः-निर्वाणसाधकयोगसाधका तथा 'सइसित्ति स यथोक्तऋषियथावदस्तुद्रष्टा या शुद्धं चरति ब्रह्मचर्यमिति योगः 'स मुणिति स यथोक्तो मुनिः -मन्ता स संयतः-संयमवान् स एव भिक्षुः-भिक्षणशीलो यः शुद्धं चरति ब्रह्मचर्यमिति, अब्रह्मचारी तु न ब्राह्मणादिरिति, आह च-"सकलकलाकलापकलितोऽपि कविरपि पण्डितोऽपि हि, प्रकटितसर्वशास्त्रतत्वोऽपि हि वेदविशारदोऽपि हि। मुनिरपि वियति विततनानागुतविभ्रमदर्शकोऽपि हि, स्फुटमिह जगति तदपि न स कोऽपि हि यदि नाक्षाणि रक्षति ॥१॥" तथा इदं च-वक्ष्यमाणं पार्श्वस्थशीलकरणं अनुचरता || ब्रह्मचर्य वर्जेयितव्यानीत्यस्य चक्ष्यमाणपदस्य वचनपरिणामात् वर्जयितव्यमिति योगः, किम्भूतं?-रतिश्च-1 विषयरागो रागश्च-पित्रादिषु नेहरागो द्वेषश्च-प्रतीतो मोहश्च-अज्ञानमेषां प्रवर्द्धनं करोति यत्तत्तथा, कि मध्यं यस्य तत्किमध्यं-किंशब्दस्य क्षेपार्थवादसारमित्यर्थः, प्रमाद एव दोषो यतः तत्तत्पमाददोष, पाश्वेस्थानां-ज्ञानाचारादिवहिर्वतिनां साध्वाभासानां शीलं-अनुष्ठानं निष्कारणं शय्यातरपिण्डपरिभोगादि पार्श्वस्थशीलं ततः पदत्रयस्य कर्मधारयस्तस्य करणं-आसेवनं यत्तत्तथा एतदेव प्रपश्यते-अभ्यञ्जनानि च घृतवशाम्रक्षणादिना तैलमज्जनानि च-तैलस्नानानि तथा अभीक्ष्णं-अनवरतं कक्षाशीर्षकरचरणवदनानां 十六六六玲六十六中学毕水中二中六十六 दीप अनुक्रम [३९-४३] ~276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] ------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रश्नव्याक- र० श्रीअ- भयदेव. वृत्तिः [२७] ॥१३७॥ गाथा: धावनं च-प्रक्षालनं संचाहनं गात्रकर्म च-हस्तादिगानचम्पनरूपमङ्गपरिकर्म परिमर्दनं च-सर्वतः शरीरमलनं धर्मद्वारे अनुलेपनं च-विलेपनं चूर्ण:-गन्धद्रव्यक्षोदैर्वासश्च-शरीरादिवासनं धूपनं च-अगुरुधूमादिभिः शरीरपरि- सभावनाक मण्डनं च-तनुभूषणं बकरी-कर्वरं चरित्रं प्रयोजनमस्येति बाकुशिकं-नखकेशवखसमारचनादिकं तच ह- ब्रह्मचर्यम सितं च-हासः भणितं च-प्रक्रमाद्विकृतं नाट्यं च-नृत्तं च गीतं च-गानं वादितं च-पटहादिवादनं नटाच- सू०२७ नाटयितारो नर्तकाश्च-ये नृत्यन्ति जल्लाश्च-वरनाखेलकाः मल्लाश्च-प्रतीताः एतेषां प्रेक्षणं च नानाविधवंशखेलकादिसम्बन्धि वेलम्बकाश्च-विडम्बका विदूषका इति द्वन्दूः छान्दसत्त्वाच प्रथमावहुवचनलोपो दृश्यः, वर्जयितव्या इति योगः, किंबहुना?, यानि च वस्तूनि शृङ्गारागाराणि-शृङ्गाररसगेहानीव अन्यानि चउक्तव्यतिरिक्तानि एवमादिकानि-एवंप्रकाराणि तपासंयमब्रह्मचर्याणां घातश्च देशत उपघातश्च सर्वतो विद्यते येषु तानि तपासंयमब्रह्मचर्यघातोपधातिकानि, किमत आह-अनुचरता-आसेवमानेन ब्रह्मचर्य वर्जयितव्यानि सर्वकालमन्यथा ब्रह्मचर्यव्याघातो भवतीति, तथा भावयितव्यश्च भवत्यन्तरात्मा एभिवक्ष्य-18 माणैः तपोनियमशीलयोगैः-तपःप्रभृतिव्यापारः नित्यकाल-सर्वदा, 'किं ते तद्यथा अस्नानकं चादन्तधावनं च प्रतीते 'खेदमलधारणं च तत्र खेदः-प्रखेदः मल:-कक्खडीभूतः याति च लगति चेति जल्लो-मलविशेष C एव मौनव्रतं च केशलोचश्च प्रतीती क्षमा च-क्रोधनिग्रहः दमश्च-इन्द्रियनिग्रहः अचेलकं च-वस्त्राभावः। ॥१३७॥ क्षुत्पिपासे प्रतीते लाघवं च-अल्पोपधित्त्वं शीतोष्णे च प्रतीते काष्ठशय्या च-फलकादिशयनं भूमिनिषद्या दीप अनुक्रम [३९-४३] ~277~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२७] गाथा: दीप अनुक्रम [३९-४३] “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [४] मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ·3% 4% 436 4 च - भूम्यासनं तथा परगृहप्रवेशे च शय्याभिक्षाद्यर्थं लब्धे च-अभिमताशनादी अपलब्धे वा ईषलब्धेऽलब्धे वा यो मानव-अभिमानः अपमानश्च दैन्यं निन्दनं कुत्सनं दंशमशकस्पर्शश्च नियमश्च द्रव्याद्यभिग्रहः तपश्च-अनशनादि गुणाश्च मूलगुणादयः विनयश्च - अभ्युत्थानादिरिति द्वन्द्वस्तत एते आदिर्येषां योगानां ते तथा तेर्भावयितव्योऽन्तरात्मेति प्रकृतं भावना अस्नानादीनामासेवा मानापमाननिन्दनदंशादिस्पर्शानां चोपेक्षा, कथमेभिर्भावयितव्यो भवन्त्यन्तरात्मेत्याह-यथा 'से' तस्य ब्रह्मचारिणः स्थिरतरकं भवति ब्रह्मचर्य, 'इमं चेत्यादि प्रवचनस्तवनं पूर्ववत् 'तस्से'त्यादि तस्य चतुर्थस्य व्रतस्येमाः पञ्च भावना भ वन्ति अब्रह्मचर्यविरमणपरिरक्षणार्थतायै तत्र 'पहमति पञ्चानां प्रथमं भावनावस्तु स्त्रीसंसक्ताश्रयवर्जनलक्षणं, तचैवं शयनं शय्या आसनं विष्टरं गृहद्वारं तस्यैव मुखं अङ्गणं-अजिरं आकाशं- अनावृतस्थानं ग वाक्षो वातायनः शाला-भाण्डशालादिका अभिलोक्यते यत्रस्यैस्तदभिलोकनं - उन्नतस्थानं 'पच्छ्वस्थगति पञ्चाद्वास्तुकं - पश्चाद्गृहकं तथा प्रसाधकस्य-मण्डनस्य स्नातिकायाश्च-स्नानक्रियाया येऽवकाशा-आअयास्ते तथा ते चेति द्वन्द्वः, ततः एते स्त्रीसंसक्तेन सङ्क्लिष्टा वर्जनीया इति सम्बन्धः, तथा अवकाशाआश्रया 'जेय वेसियाणं'ति ये च वेश्यानां तथा आसते च तिष्ठन्ति च यत्र-येष्ववकाशेषु च स्त्रियः, किम्भूताः ?- अभीक्ष्णं अनवरतं मोहदोषस्य- अज्ञानस्य रते:- कामरागस्य रागस्य च-स्नेहरागस्य वर्धना-वृद्धि| कारिका यास्तास्तथा कथयन्ति च प्रतिपादयन्ति तथा बहुविधा:- बहुप्रकाराः जातिकुलरूपनेपथ्यविषयाः Education Internationa For Penal Use On ~278~ jandrary org Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] ------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] सू०२७ -10-1-59-2- गाथा: प्रश्नच्याक-शास्त्रीसम्बन्धिनीः पुरुषाः स्त्रियो वा यत्रेति प्रकृतं, मोहदोषेत्यादि विशेषणं कथास्वपि युज्यते, 'ते हु बजणि-1|| धर्मद्वारे र०श्री- जसि ये शयनादयो ये च वेश्यानामवकाशा येषु चासते स्त्रियः कथयन्ति च कथास्ते वर्जनीया:, हुर्वाक्या-सभावनाक भयदेव लङ्कारे, किंविधा इत्याह-इस्थिसंसत्तसंकिलिट्टत्ति स्त्रीसंसक्तेन-स्त्रीसम्बन्धेन सक्लिष्टा येते तथा, न ब्रह्मचर्यम् वृत्तिः केवलमुक्तरूपा वर्जनीयाः अन्ये चैवमादयः अवकाशा-आश्रया वर्जनीया इति, किंबहुना?-'जस्थेत्यादि| उत्तरत्र वीप्साप्रयोगादिह वीप्सा दृश्या ततो यत्र यत्र जायते मनोविभ्रमो वा-चित्तभ्रान्तिः ब्रह्मचर्यमनु॥ १३८॥ पालयामि नवेत्येवंरूपं शृङ्गाररसप्रभवं मनसोऽस्थिरत्वं, आह च-"यत् चित्तवृत्तेरनवस्थितत्त्वं, शृङ्गारजं विभ्रम उच्यतेऽसौ।" भङ्गो वा ब्रह्मत्रतस्य सर्वभङ्ग इत्यर्थः, अंशमा बा-देशतो भङ्गः आत-इष्टविषयसंयोगा-3 भिलाषरूपं रौद्र वा भवेद् ध्यानं तदुपायभूतहिंसातादत्तग्रहणानुबन्धरूपं तत्सदनायतनमिति योगः वर्ज-1 येत्, कोऽसावित्याह-अवद्यभीरु:-पापभीरु बज्यभीरुवा वयत इति धज्ये-पापं वनभीरुवों व च-वन-15 ट्रवद् गुरुत्वात्पापमेवेति, अनायतनं-साधूनामनाश्रय इति, किंभूतोऽवद्यभीरुः?-अन्ते-इन्द्रियाननुकूले प्रा-14 न्ते-तत्रैव प्रकृष्टतरे आश्रये वस्तुं शीलमस्थत्यन्तप्रान्तवासी, निगमयन्नाह-एवं-अनन्तरोक्तन्यायेन असं-IN सक्ता-स्त्रीभिरसम्बद्धो चासो-निवासो यस्याः सा तथाविधा या वसतिः-आश्रयस्तद्विषयो यः समिति-| योगः-सत्प्रवृत्तिसम्बन्धः स तथा तेन भावितो भवन्त्यन्तरात्मा, किंविधा-आरत-अभिविधिना आसक्तं ब्रह्मचर्ये मनो यस्य स आरतमनाः विरतो-निवृत्तो ग्रामस्य-इन्द्रियवर्गस्य धर्मो-लोलुपतया तद्विषयग्रहण-| दीप अनुक्रम [३९-४३] *2xM भा॥१२८॥ ~279~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] -------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: *- प्रत सूत्रांक *- *- [२७] *-% RECENSAMOCRACOLLECOOT गाथा: % स्वभावो यस्य स तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, अत एवाह जितेन्द्रियः ब्रह्मचर्यगुप्त इति १॥'बीइयंति द्वितीय भावनावस्तु, किं तदित्याह-नारीजनस्य मध्ये-स्त्रीपर्षदोऽन्तः 'न' नैव कथयितव्या, केत्याह-कथावचनप्रबन्धरूपा विचित्रा-विविधा विविक्ता वा-ज्ञानोपष्टम्भादिकारणवर्जा कीदृशीत्याह-विचोकचिलाससम्पयुक्ता' तत्र विब्बोकलक्षणं इदं-"इष्टानामर्थानां प्रासावभिमानगर्वसम्भूतः । स्त्रीणामनादरकृतो विव्योको नाम विज्ञेयः ॥१॥" विलासलक्षणं पुनरिदं-"स्थानासनगमनानां हस्तधूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टः स तु विलासः स्यात् ॥१॥" अन्ये त्वाः-"विलासो नेत्रजो ज्ञेयः" इति, तथा हासः-प्रहसनिकाभिधानो रसविशेषः शृङ्गारोऽपि रसविशेष एव, तयोश्च स्वरूपमिदं-"हास्यो हासप्रकृतिहाँसो विकृताङ्गवेषचेष्टाभ्यः । भवति परस्थाभ्यः स च भूना स्त्रीनीचबालगतः ॥१॥" तथा "व्यवहार: &ापुनारन्योऽन्यं रक्तयो रतिप्रकृतिः। शृङ्गारस द्वेधा-सम्भोगो विप्रलम्भश्च ॥१॥” एतत्पधाना या लौकिकी-12 असंविग्नलोकसम्बन्धिनी कथा-वचनरचना सा तथा सा वा मोहजननी-मोहोदीरिका वाशब्दो विकल्पार्थः, तथा न-नैव आवाह:-अभिनवपरिणीतस्य वधूवरस्थानयनं विवाहश्च-पाणिग्रहणं तत्प्रधाना या वरकथापरणेतृकथा आवाहविचाहवरा बा या कथा सा तथा, साऽपि न कथयितव्येति प्रक्रमः, स्त्रीणां वा सुभगदुर्भगकथा सा, सा च सुभगा दुर्भगा वा इंदशी वा सुभगा दुर्भगा वा भवतीत्येवंरूपा न कथयितव्येति प्रक्रमः चतुःषष्टिश्च महिलागुणाः आलिङ्गनादीनामष्टानां कामकर्मणां प्रत्येकमष्ठभेदत्वेन चतुःषष्टिमहिलागुणा वा दीप अनुक्रम [३९-४३] % ~280~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२७] गाथाः दीप अनुक्रम [३९-४३] “प्रश्नव्याकरणदशा” - Education Internation अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [४] मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः वृत्तिः ॥ १३९ ॥ प्रश्नव्याक-त्स्यायनप्रसिद्धास्ते वा न कथयितव्याः तथा न-नैव देशजातिकुलरूपनामनेपथ्यपरिजनकथा वा स्त्रीणां र० श्रीअ- 8 कथयितव्येति प्रक्रमः, तत्र लाटादिदेशसम्बन्धेन स्त्रीणां वर्णनं देशकथा, यथा- “लाट्यः कोमलवचना रतिनिभयदेव० पुणा वा भवन्ती" त्याह, जातिकथा यथा - “धिक ब्राह्मणीर्धवाभावे, या जीवन्ति मृता इव । धन्या मन्ये जने शूद्रीः, पतिलक्षेऽप्यनिन्दिताः ॥ १ ॥” तथा कुलकथा यथा--"अहो चौलुक्यपुत्रीणां साहसं जगतोऽधिकम् हे पत्युर्मृत्यो विशंत्यग्नौ याः प्रेमरहिता अपि ॥ १ ॥ रूपकथा यथा - "चन्द्रवक्त्रा सरोजाक्षी, सद्गीः पीनघनस्तनी। किं लाटी न मता साऽस्य, देवानामपि दुर्लभा ॥ १ ॥” नामकथा सा सुन्दरीति सत्यं सौन्दर्यातिशयसमन्वितत्वात्, नेपथ्यकथा यथा - "धिग ! नारीरौदीच्या बहुवसनाच्छादिताङ्गलतिकत्वात् । यथौवनं न यूनां चक्षुमदाय भवति सदा ॥ १ ॥” परिजनकथा यथा - "चेटिका परिवारोऽपि तस्याः कान्तो विचक्षणः । भावज्ञः स्नेहवान् दक्षो, विनीतः सत्कुलस्तथा ॥ १ ॥" किं बहुना ?, अन्या अपि च एवमादिका:-उक्तमकाराः कथाः स्त्रीसम्बन्धिकथाः शृङ्गारकरुणाः-शृङ्गारमृदवः शृङ्गाररसेन करुणापादिका इत्यर्थः तपःसंयमब्रह्मचर्यघातकोपघातिकाः अनुचरता ब्रह्मचर्ये न कथयितव्या न श्रोतव्या अन्यतः न चिन्तयितव्या या पतिजनेन, द्वितीय भावनानिगमनायाह एवं स्त्रीकथाविरतिसमितियोगेन भावितो भवत्यन्तरात्मा आरतमनोविरतग्रामधर्मः जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्त इति प्रकटमेव २ । 'तय'ति तृतीयं भावनावस्तु स्त्रीरूपनिरीक्षणवर्जनं, तचैवम्-नारीणां स्त्रीणां हसितं भणितं -हास्यं सविकारं भणितं च तथा वेष्टितं हस्तन्यासादि विप्रेक्षितं For Parts Only ~ 281~ ४ धर्मद्वारे संभावना के ब्रह्मचर्यम् सू० २७ ॥ १३९ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] -------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] निरीक्षितं गतिः-गमनं विलास:-पूर्वोक्तलक्षण: क्रीडितं-वृतादिक्रीडा एषां समाहारद्वन्द्रः विग्बोकिर्त-पू-1। दोक्तलक्षणो विन्बोकः नाट्य-मृत्तं गीत-गानं वादितं-वीणावादनं शरीरसंस्थान-हखदीर्घादिकं वर्गों-गौरवत्वादिलक्षणः करचरणनयनानां लावण्यं-स्पृहणीयता रूपं च-आकृत्तिः यौवनं-तारुण्यं पयोधरौ-स्तनी | अधर:-अधस्तनौष्ठः वस्त्राणि-वसनानि अलङ्कारा-हारादयः भूषणं च-मण्डनादिना विभूषाकरणमिति द्वन्दूस्ततस्तानि च न प्रार्थयितव्यानीति सम्बन्धः, तथा गुह्यावकाशिकानि गुह्यभूता-लज्जनीयत्वात् स्थग-10 नीयाः अवकाशा-देशा अपयवा इत्यर्थः, अन्यानि च-हासादिव्यतिरिक्तानि एवमादिकानि-एवंप्रकाराणि तपःसंयमब्रह्मचर्यघातोपघातिकानि अनुचरता ब्रह्मचर्य न चक्षुषा न मनसा न वचसा प्रार्थयितव्यानि पापकानि पापहेतुस्वादिति, एवं स्त्रीरूपविरतिसमितियोगेन भावितो भवत्यन्तरात्मेत्यादि निगमनवाक्यं ध्यक्तमेवेति । 'चउत्थंति चतुर्थं भावनावस्तु यत्कामोदयकारिवस्तुदर्शनभणनस्मरणवर्जनं, तचैव-पूर्वरतं गृहस्थावस्थाभाविनी कामरतिः पूर्वक्रीडितं-गृहस्थावस्थाश्रयं द्यूतादिक्रीडनं तथा पूर्वे-पूर्वकालभाविनः सग्रन्थाः-श्व|शुरकुलसम्बन्धसम्बद्धाः शालकशालिकादयः ग्रन्धाश्व-शालकादिसम्बद्धास्तद्भार्यास्तत्पुत्रादयः संश्रुताश्च-10 दर्शनभाषणादिभिः परिचिता येते तथा तत एतेषां द्वन्द्वस्तत एते न अमणेम लभ्याः द्रष्टुं न कधयितुं नापि| च मर्नुमिति सम्बन्धः, सथा 'जे तेति ये एते वक्ष्यमाणाः, केवित्याह-'आवाहविवाहचोलएसुय'त्ति आवाहो-वध्वा वरगृहानयनं विवाहा-पाणिग्रहणं 'चोलके ति 'विहिणा चूलाकर्म बालाणं चोलयं नाम'ति 4%ARCCC गाथा: दीप अनुक्रम [३९-४३] SAREairabin Hamaranorm ~282~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] -------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] गाथा: प्रश्वव्याक वचनाचोलक-बालचूडाकर्म शिखाधारणमित्यर्थः, ततस्तेषु, चशब्दः पूर्ववाक्यापेक्षया समुच्चयार्थः, तिथिषु- धर्मद्वारे र०श्रीअ- मवनत्रयोदशीप्रभृतिषु यज्ञेषु-नागादिपूजासु उत्सवेषु च-इन्द्रोत्सवादिषु ये स्त्रीभिः सार्द्ध शयनसम्पयो- भावना भयदेव मागास्ते न लभ्या द्रष्टुमिति योगः, किंभूताभिः?-शृङ्गारागारचारुवेषाभि:-शृङ्गाररसागारभूताभिः शोभनने-ब्रह्मचर्यम वृत्तिः पथ्याभिश्चेत्यर्थः स्त्रीभिरिति गम्यते, किंभूताभिः?-हावभावप्रललितविक्षेपविलासशालिनीभिः, तत्र हाचा-| सू०२७ IMIदिलक्षणं-हावो मुखविकारः स्यात्, भावः स्याचित्तसंभवः। विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो प्रयगान्तयोः ॥१४०॥ ॥१॥" अथवा विलासलक्षणमिदम्-"स्थानासनगमनानां हस्तभ्रनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः प्रश्लिष्टः स तु विलासः स्यात् ॥१॥” प्रललितं-ललितमेव, तल्लक्षणं चेदं-"हस्तपादाङ्गविन्यासो, भ्रनेत्रोMमयोजितः । सुकुमारो विधानेन, ललितं तत्प्रकीर्तितम् ॥१॥" विक्षेपलक्षणं त्विदम्--"अप्रयत्नेन रचितो, घम्मिल्लः श्लथवन्धनः । एकांशदेशधरणैस्ताम्बूललवलाञ्छनः ॥ १॥ ललाटे कान्तलिखितां, विषमां पत्रले-४ खिकाम् । असमञ्जसविन्यस्तमञ्जनं नयनाब्जयोः ॥ २॥ तथाऽनादरवद्धत्वात्, ग्रन्धिर्जधनवाससः । वसु-1 धालम्बितमान्तः, स्कन्धात् स्रस्तं तथांशुकम् ॥ ३॥ जघने हारविन्यासो, रसनायास्तथोरसि । इत्यवज्ञा कृतं यत् स्थादज्ञानादिव मण्डनम् ॥ ४॥ वितनोति परां शोभां, स विक्षेप इति स्मृतः॥" एभिः याः शादालन्ते-शोभन्ते तास्तथा ताभिः, अनुकूल-अप्रतिकूलं प्रेम-प्रीतियांसां ता अनुकूलप्रेमिकास्ताभिः 'स-सी दिति सार्द्ध-सह अनुभूता-वेदिता शयनानि च-खापाः सम्प्रयोगाश्च-सम्पर्काः शयनसम्प्रयोगाः, कथ ॐरकरार दीप अनुक्रम [३९-४३] ~283~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] -------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] गाथा: म्भूताः?-मातुसुखानि ऋतुशुभानि वा कालोचितानीत्यर्थः यानि वरकुसुमानि च सुरभिचन्दनं च सुगन्धयो -वरचूर्णरूपा वासश्च धूपश्च शुभस्पर्शानि सुखस्पर्शानि वा वस्त्राणि च भूषणानि चेति द्वन्द्वस्तेषां यो गुणस्तैरुपपेता-युक्तास्ते तथा, तथा रमणीयातोयगेयप्रचुरनदादिप्रकरणानि च न लन्यानि द्रष्टुमिति योगः, तत्र नटा:-नाटकानां नाटयितारः नर्तका-ये नृत्यन्ति जल्ला-वरनाखेलकाः मल्ला:-प्रतीताः मौष्टिका-मल्ला एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति 'वेलम्बग'त्ति विडम्बका:-विदूषकाः प्रतीताः प्लवका-ये उत्प्लवन्ते नद्यादिकं वा तरन्ति लासका-ये रासकान् गायन्ति जयशब्दप्रयोक्तारो भाण्डा वा इत्यर्थः आख्यायका-ये शुभाशुभमाख्यान्ति लंखा-महावंशानखेलकाः मंखाश्च-चित्रफलकहस्ता भिक्षाकाः 'तूणइल्ला' तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः 'तुंब वीणिका' वीणावादकाः तालाचरा:-प्रेक्षाकारिविशेषाः एतेषां द्वन्द्वः तत एतेषां यानि प्रकरणानि-प्रक्रियाकस्तानि च तथा, बहूनि-अनेकविधानि 'महुरस्सरगीयसुस्सराईति मधुरखराणां-कलध्वनीनां गायकानां यानि ट्रिगीतानि-गेयानि सुखराणि-शोभनषड्जादिखरविशेषाणि तानि तथा, कि बहना?-अन्यानि च-उक्त व्यतिरिक्तानि एवमादिकानि-एवंप्रकाराणि तपःसंयमब्रह्मचर्यघातोपघातिकानि अनुचरता ब्रह्मचर्य ननैव तानि यानि कामोत्कोचकारीणि श्रमणेन-संयतेन ब्रह्मचारिणेति भावः 'लन्भ'त्ति लभ्यानि उचितानि ध्रु-प्रेक्षितुं न कथयितुं नापि च मर्नु जे इति निपातः, निगमयन्नाह-एवं पूर्वरतपूर्वक्रीडितविरतिसमितियोगेन भावितो भवत्यन्तरात्मा आरतमनोविरतग्रामधर्मा जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्त इति ४।'पंचमगं'ति प दीप अनुक्रम [३९-४३] ~284 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] -------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] सू०२७ गाथा: प्रश्नव्याक- चमं भावनावस्तु प्रणीतभोजनवर्जनं, एतदेवाह-आहार-अशनादिः स एव प्रणीतो-गलत्लेहविन्दुः स च धर्मद्वारे २०श्रीअ- लिग्धभोजनं चेति द्वन्द्वः तस्य विवर्जको यः स तथा, संयतः-संयमवान् सुसाधुः-निर्वाणसाधकयोगसाध- सभावनाकं भयदेव नपरः व्यपगता-अपगता क्षीरदधिसपिर्नवनीततेलगुडखण्डमत्स्यण्डिका यतः स तधा, मत्स्यण्डिका चेह ब्रह्मर्चयम् वृत्तिः खण्डशर्करा, मधुमद्यमांसखायकलक्षणाभिर्विकृतिभिः परित्यक्तो यः स तथा, ततः पदयस्य कर्मधारयः, स एवंविधः कृतो-भुक्त आहारो येन स तथा, किमित्याह-न-नैव दर्पण-दर्पकारकमाहारं भुजीतेति शेषः, ॥१४१॥ दि तथा न बहुशो दिनमध्ये न बहुकृत्व इत्यर्थः, 'न निइगंति न नैत्यिकं प्रतिदिनमितियावत् न शाकसूपा [धिक-शालनकवालपचुरमित्यर्थः 'न खर्चा' न प्रभूतं, यत आह-"जहा दवग्गी पडरिंधणे वणे, समारुओ णो8वसमं वेति । एवंदियग्गीवि पकामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सइ ॥१॥" ति [यथा दवाग्निः प्रयुहै रेन्धने बने समारुतो नोपशममुपैति । एषमिन्द्रियाग्निरपि प्रकामभोजिनो न ब्रह्मचारिणो हिताय कस्यचित् ॥१॥] किंबहुना, तथा-सेन प्रकारेण हितमिताहारिवादिना भोक्तव्यं यथा 'से' तस्य ब्रह्मचारिणो| यात्रा-संयमयात्रा सैव यात्रामानं तस्मै यात्रामात्राय भवति, आह -"जह अभंगण १लेषो ९ सगड-I क्खषणाण जत्तिो होइ । इय संजमभरवहणट्टयाएँ साहूण आहारो ॥१॥" [पथा अन्यङ्गनलेपी शक-18 टाक्षमणयोर्यावन्ती भवता (योग्यौ स्यातां तावन्ती भवतः) एवं संयमभारबहनार्थ साधूनामाहारः॥१॥||||१४१॥ नच-नैव भवति विभ्रमो-धातूपचयेन मोहोदयान्मनसो धर्म प्रत्यस्थिरत्वं अंशनं पा-चलनं धर्मात्-प्रवच दीप अनुक्रम [३९-४३] ~285~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) “प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ------------------- अध्ययनं [४] ------------------- मूलं [२७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक लक्षणात्, निगमनमाह-एवं प्रणीताहारविरतिसमितियोगेन भावितो भवस्वन्तरात्मा आरतमनोविरतग्रामघर्मा जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्त इति । 'एवमिदमित्यादि अध्ययनार्थनिगमनवाक्यं पूर्षवदू व्याख्येयम् ॥ समासं ब्रह्मचर्याख्यचतुर्थसंवररूपनवमाध्ययनविवरणम् ॥ ४॥ [२७] गाथा: दीप अनुक्रम [३९-४३] अथ परिग्रहविरतिरूपदशमाध्ययनविवरणम् । व्याख्यातं चतुर्थं संवराध्ययन, अधुना सूत्रनिर्देशक्रमसम्बद्धमथवा अनन्तरं मैथुनविरमणमुक्तं तच्च सथा परिग्रहविरमण एव भवतीति तदभिधानीयमित्येवंसम्बद्धं च पश्चममारभ्यते, तत्रादिसूत्रमिवम्- | जंचू ! अपरिग्गहसंवुडे य समणे आरंभपरिग्गहातो विरते विरते कोहमाणमायालोभा एगे असंजमे दो व रागदोसा तिमि य दंडगारवा य गुत्तीओ तिन्नि तिन्नि य विराहणाओ चत्तारि कसाया झाणसन्नाविकहा तहा य हुंति चउरो पंच य किरियाओ समितिइंदियमहन्वयाई च छ जीवनिकाया छच्च लेसाओ सत्त भया अट्ठ य मया नव चेव य यंभचेरवयगुत्सी दसप्पकारे य समणधम्मे एकारस य उवासकाणं बारस य भिक्खुपडिमा किरियठाणा य भूयगामा परमाधम्मिया गाहासोलसया असंजमअवंभणायअसमाहिठाणा सबला परिसहा सूयगडज्झयणदेवभावणउद्देसगुणपकप्पपावसुतमोहणिजो सिद्धातिगुणा य जोगसंगहे ति SAREauratoninternational अत्र द्वितिये श्रुतस्कन्धे चतुर्थ अध्ययनं परिसमाप्तं अथ वितिये श्रुतस्कन्धे पञ्चमं अध्ययनं “अपरिग्रह" आरभ्यते "परिग्रह-विरमण" - नामक पंचमं संवर-द्वारं ~286~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [४४] “प्रश्नव्याकरणदशा” अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [२], अध्ययनं [५] मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याकर० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ॥ १४२ ॥ - तीसा आसातणा सुरिंदा आदिं एक्कातियं करेत्ता एकुत्तरियाए बहिए तीसातो जान उ भवे तिकाहिका विर तीपणही अविरती य एवमादिसु बहस ठाणेसु जिणपसत्थेसु अवित्तहेसु सासयभावेसु अवट्ठिएस संकं कंखं निराकरेत्ता सहहते सासणं भगवतो अणियाणे अगारवे अलुद्धे अमूढमणवयणकायगुत्ते ( सू० २८ ) जम्बूरित्यामन्त्रणे अपरिग्रहो - धर्मोपकरणवर्जपरिग्राह्यवस्तुधर्मोपकरणमूर्च्छावर्जितः तथा संवृतचेन्द्रियकषायसंवरेण यः स तथा स च श्रमणो भवति चकारात् ब्रह्मचर्यादिगुणयुक्तश्चेति एतदेव प्रपञ्श्चयन्नाहआरम्भः - पृथिव्याद्युपमर्दः, परिग्रहों द्विधा - वाचोऽभ्यन्तरश्च तत्र बाह्यो धर्मसाधनवर्जो धर्मोपकरणमूर्च्छा च, आन्तरस्तु मिथ्यात्वाविरतिकषायप्रमाददृष्टयोगरूपः, आह च- 'पुढचाइमु आरम्भो परिग्गहो धम्मसाहर्ण मोतुं । मुच्छाय तत्थ बज्झो इयरो मिच्छत्तमाइओ ॥ १ ॥' ति [ पृथ्व्यादिष्वारम्भः परिग्रहो धर्मसाधनं मुक्त्वा । मूर्च्छा च तत्र बाह्यः इतरो मिथ्यात्वादिकः ॥ १॥ ] अनयोश्च समाहारद्वन्द्वः अतस्तस्मात् विरतो - निवृत्तो यः स श्रमण इति वर्त्तते, तथा विरतो- निवृत्तः क्रोधमानमायालोभात्, इह समाहारद्वन्द्वत्वादेकवचनं, अथ मिध्यात्वलक्षणान्तरपरिग्रहविरतत्वं प्रपञ्चयन्नाह – एकः - अविवक्षित भेदत्वादविरतलक्षणैकस्वभावत्वाद्वा असंयमः - असंयतत्वं, द्वावेव च रागद्वेषी बन्धने इति शेषः, त्रयश्च दण्डाः - आत्मनो दण्डनास दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायलक्षणाः, गौरवाणि च गृयभिमानाभ्यामात्मनः कर्मणो गौरव हेतवः ऋद्धिरससातविषयाः परिणामविशेषाः, त्रीणीति प्रकृतमेव, तथा 'गुत्तीओ तिष्णि'ति गुप्तयो मनोवाक्कायलक्षणा Eaton International For Pernal Use On ~287~ ५ धर्मद्वारे परिग्रहवि - रतौ रागादिआ शातना न्तानां वर्णनं सू० २८ ॥ १४२ ॥ www.andray or Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [૨૮] दीप अनुक्रम [४४] प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [५] मूलं [२८] श्रुतस्कन्ध: [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अनवद्यप्रवीचाराप्रवीचाररूपाः, तिस्रश्च विराधना :- ज्ञानादीनां सम्यगननुपालनाः, चत्वारः कषायाः क्रोधा दयः ध्यानानि एकाग्रतालक्षणानि आर्त्तरौद्रधर्म्यशुक्लाभिघानानि संज्ञाः - आहार भयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाभिधानाः विकथाः- स्त्री भक्तदेशराजकथा लक्षणाः तथा च भवन्ति चतस्रः, पञ्च च क्रियाः - जीवव्यापारात्मिकाः का यिक्याधिकरणिकीप्राद्वेषिकीपारितापनिकी प्राणातिपातक्रियालक्षणा भवन्तीति सर्वत्र क्रिया दृश्या, तथा 'समितिइंदियमहव्वयाइ यन्ति समितीन्द्रियमहाव्रतानि पञ्च भवन्तीति प्रकृतं, तत्र समितयः - ईर्यासमित्यादयः निरवद्यप्रवृत्तिरूपाः इन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि महाव्रतानि च प्रतीतान्येवेति तथा षट् जीवनि| काया:-पृथिव्यादयः षट् च लेइयाः- कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्लनामिका:, तथा 'सत्त भय'त्ति सप्त भयानि, | इहलोकभयं स्वजातीयात् मनुष्यादेर्मनुष्यादिकस्यैव भयं परलोकभयं विजातीयात्तिर्यगादेः मनुष्यादिकस्य भयं, आदानभयं द्रव्यमाश्रित्य भयं अकस्माद्भयं - बाह्यनिमित्तानपेक्षं आजीविकाभयं वृत्तिभयमित्यर्थः मरणभयं अश्लोकभयमिति, 'अट्ठ य मय'त्ति अष्टौ च मदा:-मदस्यानानि, तद्यथा - "जाई १ कुल २ बल ३ रूबे ४ तब ५ ईसरिए ६ सुए ७ लाभे ८ ।" नव चैव ब्रह्मचर्यगुप्तयः, “वसहि १ कह २ निसर्जि ३ दिय ४ कुड़ंतर ५ पुव्वकीलिए ६ पणीए ७ । अतिमायाहार ८ विभूसणा य ९ णव बंभगुत्तीओ ॥ १ ॥” ति एवंलक्षणा भवन्तीति गम्यं, दशप्रकारश्च श्रमणधम्र्म्मो, यथा-वंती य १ महव ज्जव ३ मुक्ती ४ तव ५ संजमे य बोद्धव्वे ६ । सर्व सोयं ८ अकिंचणं च ९ बंभं च १० जहधम्मो १० ॥ १ ॥ एकादश चोपासकानां - For Penal Use On ~288~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] वर्षानं दीप अनुक्रम प्रश्नच्याक- श्रावकाणां प्रतिमा भवन्तीति गम्यं "दसण १ वय २ सामाइय ३ पोसह ४ पडिमा ५ अर्वभ६ सचिसे ७ ५धर्मद्वारे र० श्रीअ-I आरंभ ८ पेस ९ उद्दिबजए १० समणभूए य ॥ १॥” इह च गाथायां प्रतिमेति-कायोत्सर्गः अन-1 परिग्रहविभयदेव मादिषु पञ्चसु पदेषु वर्जकशब्दो योजनीयः, तथा द्वादश च भिक्षुपतिमा:-साधूनामभिग्रहविशेषाः, ता-I रतौ रावृत्तिः श्वेमा:-मासाई ससंता ७ पढमा १विय २ तिय ३ सत्त राइदिणा । अहराइ ११ एगराइ १२ भिक्खुपडि-13 गादिआ माण वारसगं ॥१॥" ति, तत्रैकमासिकी द्विमासिकीत्यादयः सप्त अष्टमीनवमीदशम्यस्तु प्रत्येक सप्तरात्रि- शातनाकान्दिवमानाः एकादशी अहोरात्रमाना द्वादशी एकरात्रमानेति, इतः सूत्रं सूचामात्रमेव पुस्तकेषु दृश्यते, त-II न्तानां चैवं परिपूर्णीकृत्याध्येयम्-'किरिपाठाणा यत्ति त्रयोदश क्रियास्थानानि व्यापारभेदाः, तद्यथा-शरीराद्यर्थ दण्डोऽर्थदण्डः१ एतव्यतिरिक्तोऽनर्थदण्डो २ हिंसिष्यतीत्याद्याश्रित्य दण्डो हिंसादण्डः ३ अनभिसन्धिनादा सू०२८ दण्डोऽकस्माद्दण्डः ४ मित्रादेरमित्रादिबुद्ध्या विनाशनं दृष्टिविपर्यासितादण्डः ५ मृषावाददण्डः ६ अदत्तादानदण्डः ७ अध्यात्मदण्ड:-शोकाभिभव इत्यर्थः ८ मानदण्डो-जात्यादिमदा ९ मित्रद्वेषदण्डा-मात्रादीनामरूपापराधेऽपि महादण्डनिवर्सनलक्षणः १. मायादण्डः ११ लोभदण्डः १२ ऐयोपथिक:-केवलयोगमत्ययः कर्मबन्ध इति १३, 'भूयगामसि चतुर्दश भूतग्रामा:-जीवसमूहाः, तत्रैकेन्द्रियाः सूक्ष्माः १ यादराश्च २ द्वीन्द्रियाः ३ श्रीन्द्रियाः४ चतुरिन्द्रियाः ५ पञ्चेन्द्रियाः संज्ञिनः ६ असंज्ञिनश्चेति ७ सप्त, एते प्रत्येक पर्याप्तकाप सा॥१४३॥ सकभेदात् द्विधेति चतुर्दश, 'परमाहम्मिय'त्ति पञ्चदश परमाधार्मिका:-मारकाणां दुःखोत्पादका असुरकु [४४] ~289~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [४४] प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [५] मूलं [२८] श्रुतस्कन्ध: [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मारविशेषाः, ते चामी -- "अंबे २ अंबरिसी चैव २, सामे य ३ सबलेवि य ४ । रुहे ५ उबरुद्दकाले ७, महाकालेति ८ आवरे ॥ १ ॥ असिपत्ते ९ घणू १० कुंभे ११, वालुय १२ वेयरणि १३ लिय । खरस्सरे १४ महाघोसे १५, एते पण्णरसाऽऽहिया ॥ २ ॥” इति, 'गाहासोलसा य'त्ति षोडश गाथाषोडशानि गाथेति गाथाभिधानं षोडशमध्ययनं येषां तानि गाथाषोडशकानि-सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानि तानि चै तानि - " समओ १ वेयालीयं २ उवसग्गपरिष्ण ३ श्रीपरिष्णा य ४ । निरयविभत्ती ५ वीरत्थओ य ६ कुसीलाण परिभासा ७ ॥ १ ॥ वीरिय ८ कम्म ९ समाही १० मग्ग ११ समोसरण १२ अहत १३ गंथो १४ । जमईयं १५ तह गाहासोलसमं १६ चेव अज्झयणं ॥ २ ॥" "असंजम ति सप्तदशविधः असंयमः, स चार्य- 'पुढवि १ दग २ अगणि ३ मारुय ४ वणष्फइ ५ वि ६ ति ७ च ८ पणिदि ९ अज्जीवे १० । पेह ११ उवेह १२ पमज्जण १३ परिट्ठवण १४ मणो १५ वई १६ काए १७ ॥ १ ॥" 'अयंभत्ति अष्टादशविधमब्रह्म, तचैवं- "ओरालियं च दिव्वं मणवयकायाण करणजोगेहिं । अणुमोयणकारावणकरणेणऽङ्कारसाबंभं ॥१॥" - ति, औदारिकं मनःप्रभृतिकरणानामनुमोदनादियोगैः नवधा एवं दिव्यमपीत्यष्टादशधा, 'नाय'त्ति एकोनविंशतिर्ज्ञाताध्ययनानि तानि चामूनि “उक्खित्तनाए १ संघाडे २, अंडे ३ कुम्मे य ४ सेलए ५ । तुंबे य ६ रोहिणी ७ मल्ली ८, मायंदी ९ चंदिमा इय १० ॥ १ ॥ दावद्दवे ११ उद्गणाए १२, मंडके १३ तेयलीइ य २१४ । मंदिफले १५ अवरकंका १६, आहने १७ सुसुम १८ पुंडरिए १९ ॥ २ ॥” 'असमाहिठाणत्ति विंशति Education internationa For Parts Only ~290~ www.anibrary.org Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] न्तानां प्रश्नव्याक-1 रसमाधिस्थानानि-चित्तास्वास्थ्यस्याश्रयाः, तानि चामूनि-द्रुतचारित्वं १ अप्रमार्जितचारित्वं २ दुष्पमार्जित- धर्मद्वारे र० श्रीअ- चारित्वं ३ अतिरिक्तशय्यासनिकत्वं ४ आचार्यपरिभाषित्वं ५ स्थविरोपघातित्वं ६ भूतोपधातिवं ७ सङ्ग्व- परिग्रहविभयदेवलनत्वं-प्रतिक्षणरोषणत्वं ८ क्रोधनत्वं-अत्यन्तक्रोधनस्वमित्यर्थः ९ पृष्ठमांसकत्वं-परोक्षस्यावर्णवादित्वमि- भारतौ रा वृत्तिः व्यर्थः १०, अभीक्ष्णमवधारकत्वं शङ्कितस्याप्यर्थस्यावधारकत्वमित्यर्थे: ११ नवानामधिकरणानामुत्पादनं १२ गादिआ॥१४॥ पुराणानां तेषामुदीरकत्वं १३ सरजस्कपाणिपादत्वं १४ अकालखाध्यायकरणं १५ कलहकरत्वं कलहहेतुभूत- शातनाकर्तव्यकारित्वमित्यर्थः १६ शब्दकरत्वं-रात्रौ महाशब्देनोल्लापित्वं १७ झंझाकारित्वं गणस्य चित्तभेदकारित्वं मनोदुःखकारिवचनभाषित्वं वा १८ सूरप्रमाणभोजिवं-उदयावस्तमयं यावद् भोत्कृत्वमित्यर्थः १९ एच- वर्णनं णायामसमतित्वं चेति २०, 'सबला यत्ति एकविंशतिः शवला:-चारित्रमालिन्यहेतका, ते चामी-हस्तकर्म १ मैथुनमतिक्रमादिना २ रात्रिभोजनं ३ आधाकर्मणः ४ शय्यातरपिण्डस्य ५ औद्देशिकक्रीतापमित्यकाच्छेद्यानिसृष्टादेश्च भोजनं ६ प्रत्याख्याताशनादिभोजनं ७ षण्मासान्तर्गणा गणान्तरसमणं ८ मासस्थान्तस्त्रिकृत्वो नाभिप्रमाणजलावगाहनं ९मासस्यान्तस्त्रिायाकरणं १० राजपिण्डभोजनं ११ आकुया प्राणाति-| पातकरणं १२ एवं मृषावादनं १३ अदत्तग्रहणं १४ तथैवानन्तहितायां सचित्तपृथिव्यां कायोत्सर्गादिकरणं रा ॥१४४।। १५ एवं सस्नेहसरजस्कायिकायां १६ अन्यत्रापि प्राणिबीजादियुक्त १७ आकुदृथा मूलकन्दादिभोजनं १८ संवत्सरस्थान्तदेशकृत्वो नाभिप्रमाणजलावगाहनं १९ संवत्सरस्यान्तर्दशमायास्थानकरणं २० अभीक्ष्णं शी दीप अनुक्रम [४४] सू०२८ ~291 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [४४] प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [५] मूलं [२८] श्रुतस्कन्ध: [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः २५ तोदक हस्तादिनाऽशनादेर्ग्रहणं १ भोजनं २ चेति । द्वाविंशतिः परीपहाच, ते चामी - "खुहा १ पिवासा २ सीउन्हं ३-४ दंसा ५ बेल ६ रई ७ स्थिओ ८ । चरिया ९ निसीहिया १० सेना ११ अकोसा १२ वह १३ जायणा १४ ॥ १ ॥ अलाभ १५ रोग १६ तणफासा १७ मलसकारपरीसहा १८-१९ । पण्णा २० अन्नाण २१ सम्म २२, इय बावीस परीसहा ॥ २ ॥ 'सूयगडज्झयण'ति त्रयोविंशतिः सूत्रकृताध्यय नानि, तत्र समयादीनि प्रथमश्रुतस्कन्धभावीनि प्रागुक्तान्येव षोडश द्वितीयश्रुतस्कन्धभावीनि चान्यानि सप्त, तद्यथा- "पुंडरिय १ किरियठाणं २ आहारपरिष्ण ३ पचखाणकिरिया ४ प । अणयार ५ अह ६ णालेद ७ सोलसाई च तेवीसं ॥ १ ॥”ति, 'देव'सि चतुर्विंशतिर्देवाः, तत्र गाथा - "भवण १ वण २ जोह ३ बेमाणिया य ४ दस अटू पंच एगविहा ।" इति, "चबीसं देवा केई पुण बेति अरहंता" "भावण'ति पञ्चविंशतिर्भावनाः, ताव इहैव प्रतिमहाव्रतं पञ्च पञ्चाभिहिताः, 'उद्देस त्ति षडविंशतिरुदेशन काला दशाकल्पव्यवहाराणां तत्र गाथा - "दस उद्देसणकाला दसाण छश्चैव होंति कप्पस्स। दस चेव य ववहारस्स होंति सच्वेवि छब्बीसं ॥ १ ॥” 'गुण' ति सप्तविंशतिरनगारगुणाः, तत्र महाव्रतानि पञ्च ५ इन्द्रियनिग्रहाः पञ्च १० क्रोधादिविवेकाञ्चत्वारः १४ सत्यानि त्रीणि, तत्र भावनासत्यं शुद्धान्तरात्मा करणसत्यं यथोक्तप्रतिलेखनाक्रियाकरणं योगसत्यं - मनःप्रभृतीनामवितथत्वं १७ क्षमा १८ विरागता १९ मनःप्रभृतिनिरोधाश्च २२ २) ज्ञानादिसम्पन्नता २५ वेदनादिसहनं २६ मारणान्तिकोपसर्गसहनं २७ चेति, अथवा "वयछक ६ मिंदियाणं च Eaton International For Pernal Use On ~ 292~ jonary or Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] +-% प्रश्नच्याक- निग्गहो ११ भावकरणसचं च १३ । खमया १४ विरागयावि य १५ मणमाईणं निरोहो य १८॥१॥का- ५धर्मद्वारे र० श्रीअ-| याण छक्क २४ जोगम्मि जुत्तया २५ वेयणाहियासणया २६॥ तह मरणंते संलेहणा य २७ एएऽणगारगुणा ||२ | परिग्रहविभयदेव. 'पकप्पत्ति अष्टाविंशतिविधः आचारप्रकल्पः निशीथान्तमाचाराङ्गमित्यर्थः, स चैवम्-"सत्थपरिपणा रतौ रावृत्तिः लोगविजओ२ सीओसणिज ३ सम्म ४ । आवंति ५ धुव ६ विमोहो ७ उवहाणसुयं ८ महपरिषणा९॥१॥" गादिआ प्रथमस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनानि, द्वितीयस्य तु "पिंडेसण १ सेज २ इरिया ३ भासजाया य ४ वस्थपाएसा: ॥१४५॥ शातना५-६। उग्गहपडिमा ७ सत्तसत्तिक्कया १४ भावण १५ विमुत्ती १६॥२॥ उचाइ १ अणुग्घाई २ आरूवणा ३| न्तानां |तिविहमो णिसीहं तु । इइ अट्ठावीसविहो आयारपकप्पनामोत्ति ॥३॥” उद्घातिकं यत्र लघुमासादिकं वर्णनं प्रायश्चित्तं वयेते, अनुदघातिक पत्र गुरुमासादि, आरोपणा च यत्रैकस्मिन् प्रायश्चित्ते अन्यदप्यारोप्यत सू०२८ इति । 'पावसुय'त्ति एकोनत्रिंशत् पापश्रुतप्रसङ्गाः, ते चामी-"अट्ठ निमित्तंगाई दिन्बु १प्पायं २ तलिक्ख ६३ भोमं च ४ । अंग ५ सर ६ लक्खण ७ वंजणं ८ च तिविहं पुणोषकं ॥१॥ सुत्तं वित्ती तह वत्तियं च पावमुयमउणतीसविहं । गंधव्य २५ २६ वत्थु २७ आउं २८ घणवेयसंजुत्तं २९ ॥२॥” 'मोहणिज्जेत्ति त्रिंशत् मोहनीयस्थानानि-महामोहबन्धहेतवः, तानि चामूनि-जलनिबोलनेन बसानां विहिंसनं १ एवं हदास्तादिना मुखादिश्रोतसः स्थगनेन २ वर्धादिना शिरोवेष्टनतः ३ मुद्धरादिना शिरोऽभिघातेन ४ भवोद धिपतितजन्तूनां द्वीपकल्पस्य देहिनो हननं ५ सामयें सत्यपि घोरपरिणामाद ग्लानस्यौषधादिभिरप्रतिच दीप अनुक्रम [४४] +- HEKL-4-20 REaratimaana ~293~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [૨૮] दीप अनुक्रम [४४] प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], अध्ययनं [५] मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः रणं ६ तपखिनो बलात्कारेण धर्माद भ्रंसनं ७ सम्पग्दर्शनादिमोक्षमार्गस्य परेषां विपरिणामकरणेनापकारकरणं ८ जिनानां निन्दाकरणं ९ आचार्यादिखिंसनं १० आचार्यादीनां ज्ञानादिभिरुपकारिणां कार्येषु अ प्रतितर्पणं ११ पुनः पुनरधिकरणस्य नृपप्रयाणकदिनादेः कथनं १२ वशीकरणादिकरणं १३ प्रत्याख्यात भोप्रार्थनं १४ अभीक्ष्णमबहुश्रुतत्वेऽप्यात्मनो बहुश्रुतत्वप्रकाशनं १५ एवमतपखिनोऽपि तपखिताप्रकाशनं १६ बहुजनस्यान्तर्धूमेनाग्निना हिंसनं १७ स्वयंकृत स्याकृत्या स्यान्यकृतत्वाविर्भावनं १८ विचित्रमायाकारैः परवश्चनं १९ अशुभपरिणामात् सत्यस्यापि मृषेति सभायां प्रकाशनं २० अक्षीणकलहत्वं २१ विश्रम्भोत्पादनेन परधनापहरणं २२ एवं परदारलोभनं २३ अकुमारत्वेऽप्यात्मनः कुमारत्वभणनं २४ एवमब्रह्मचारित्वेऽपि ब्रह्मचारिताप्रकाशनं २५ येनैश्वर्य प्रापितस्तस्यैव सत्के द्रव्ये लोभकरणं २६ यत्प्रभावेन ख्यातिं गतस्तस्य | किञ्चिदन्तरायकरणं २७ राजसेनाधिपराष्ट्रचिन्तकादेर्बहुजननायकस्य हिंसनं २८ अपश्यतोऽपि पश्यामीति मायया भणनं २९ अवज्ञया देवेष्वहमेव देव इति प्रख्यापनमिति ३० । 'सिद्धाइगुणा'ति एकविंशत्सिद्धा दिगुणाः- सिद्धानामादित एव गुणाः सिद्धानां वा आत्यन्तिका गुणाः सिद्धातिगुणाः, ते चैवं- 'से ण तंसे ण चउरंसे ण वट्टे ण मंडले पण आयते' इति संस्थानपञ्चकस्य निषेधतः वर्णपञ्चकस्य गन्धद्वयस्य रसपञ्चकस्य | स्पर्शाष्टकस्य वेदत्रयस्य च, तथा अकाय: असङ्गः अरुहथेति, आह च "पडिसेहणसंठाणे ५ वण्ण ५ गन्ध | २ रस ५ फास ८ वेदे य ३ । पण पण दुपट्ट तिहा इगतीस अकायसंगऽरुहा ॥ १ ॥” अथवा क्षीणाभि For Pernal Use On ~294~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत | रतौ रा सूत्रांक [२८] न्तानां प्रश्नव्याक नियोधिकज्ञानावरणः क्षीणश्रुतज्ञानावरण इत्येवं कर्मभेदानाश्रित्यकत्रिंशत्, आह च-पाव दरिसणम्मिधर्मद्वारे चित्तारि आउए पंच आदिमे अंते । सेसे दो दो भेया खीणभिलावेण इगतीसं ॥१॥" ति [नव दर्शने | परिग्रहविभयदेव० चत्वारि आयुषि आद्ये पञ्च अन्त्ये पश्च शेषेषु द्वौ द्वौ भेदी क्षीणाभिलापेन ॥१॥] 'जोगसंगहत्ति 'द्वात्रिंवृत्तिः शद्योगसङ्ग्रहाः' योगाना-प्रशस्तव्यापाराणां सङ्ग्रहाः, ते चामी-"आलोयणा १ णिरवलावे-आचार्यस्थाप- | गादिआ रिश्रावित्वमित्यर्थः २ आवासु ढधम्मया ३ । अणिस्सिओबहाणे य-अनिश्रितं तप इत्यर्थः ४ सिक्खा- शातना॥१४६॥ सूत्रार्थग्रहणं ५णिप्पडिकम्मया ॥१॥ अण्णायया-तपसोऽप्रकाशनं ७ अलोभे य८ तितिक्खा-परीषहजयः९ अजवे १० सुई-सत्यसंयम इत्यर्थः ११ । सम्मट्टिी-सम्यक्त्वशुद्धिः १२ समाही घ १३, आयारे वर्णनं विणओवए-आचारोपगतं १४ विनयोपगतं चेत्यर्थः १५॥२॥धिईमई य-अदैन्यं १६ संवेग १७ पणिही माया न कार्येत्यर्थः १८ सुविहि सदनुष्ठानं १९ संवरे २० । अत्तदोसोवसंहारे २१ सव्वकामविरत्तया २२ ॥ ३ ॥ पचक्खाणं-मूलगुणविषयं २३ उत्तरगुणविषयं च २४ विउस्सग्गे २५, अप्पमाए २६ लवालवे क्षणे २) सामाचार्यनुष्ठानं २७ । झाणसंवरजोगे य २८, उदए मारणतिए २९॥४॥ संगाणं च परिणा ३०, पच्छित्त-IM करणे इय ३१॥ आराहणा य मरणते ३२, बत्तीसं जोगसंगहा ॥५॥ त्रयस्त्रिंशदाशातनाः, एवं चैता:-राइ-1 |णियस्स सेहो पुरओ गंता भवति आसायणा सेहस्सेत्येवमभिलापो दृश्यः, तन्त्र रत्नाधिकस्य पुरतो गमनं १ स्थान-आसनं २निषदनं ३ एवं पार्श्वतोगमनं ४ स्थानं ५निषदनं ६ एवमासन्ने गमनं ७ स्थानं८निषदनं विचार दीप अनुक्रम [४४] | सू०२८ INI॥१४६॥ ~295 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] *5* * दीप अनुक्रम भूमी तस्य पूर्वमाचमनं १० ततो निवृत्तस्य पूर्व गमनागमनालोचनं ११ रात्री को जागर्तीति पृष्ठे तद्वचनाप्रतिश्रवणं १२ आलापनीयस्य पूर्वतरमालापनं १३ लब्धस्याशनादेरन्यस्मै पूर्वमालोचनं १४ एवमन्यस्योपदर्शनं १५ एवं निमन्त्रणं १६ रत्नाधिकमनापृच्छयान्यस्मै भक्तादिदानं १७ स्वयं प्रधानतरस्य भोजनं १८ व्याहरतो रत्नाधिकस्य वचनाप्रतिश्रवणं १९ रनाधिकस्य समक्षं बृहता शब्देन बहुधा भाषणं २० व्याहतस्य किं भणसीति भणनं २१ प्रेरणायां कोऽसि त्वमित्येवमुल्लण्ठवचनं २२ ग्लानं प्रतिचरेत्याद्यादेशे त्वमेव किंन प्रतिचरसीत्यादिभणनं २३ धर्म देशयति गुरावन्यमनस्कत्वं २४ कथयति गुरौ न स्मरसीति भणनं २५ धर्मकथाया आच्छेदनं २६ भिक्षावेला वर्तत इत्यादिवचनतः पर्षदो भेदनं २७ पर्षदस्तथैव स्थितायाः धर्मकथनं २८ गुरुसंस्तारकस्य पादयटनं २९ गुरुसंस्तारके निषदनं ३० एवमुबासने ३१ एवं समासने ३२ गुरौ किश्चित् पृच्छति तत्रगतस्यैवोत्तरदानं चेति ३३ । 'सुरिंदति द्वात्रिंशत्सुरेन्द्रा विंशतिर्भवनपतिषु दश वैमानिकेषु द्वौ ज्योतिषकेषु चन्द्रसूर्याणामसयातत्वेऽपि जातिग्रहणादू द्वितयमेवेति, इयं चेन्द्रसङ्ख्या यद्यपि वक्ष्यमाणसूत्रगत्या न प्रतीयते तथापि ग्रन्थान्तरादवसेया, भवन्तीत्यनुवर्तते सर्वत्र, इह स्थाने 'एएसुत्ति वाक्यशेषो द्रष्टव्यः, तेन य एते एकत्वादिसल्योपेता असंयमादयोभावा भवन्ति एतेषु, किंभूतेषु?-आदिमप्रथमं एकादिक-एकद्वियादिकं सत्याविशेष कृत्वा-विधाय एकोत्तरिकया वृद्धया इति गम्यते बर्द्धितेषुसङ्ख्याधिक्यं प्राप्तेषु कियती सङ्ख्यां यावद्धेवित्याह-तीसातो जाव 'भवे तिकाहिया' त्रिंशयावदू भ *% [४४] %-5 ~296~ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [४४] प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [५] मूलं [२८] श्रुतस्कन्ध: [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक वृत्तिः वति जायते निकाधिका त्रयस्त्रिंशतं यावदुद्धेष्वित्यर्थः अनेन च क्रियास्थानादिपदानां सङ्क्षेपार्थसूत्रेऽनर० श्रीअ- ५ धीतापि सङ्ख्या यथोक्ता दर्शिता भवति, तत एवं वृद्धेष्वेतेषु शङ्कादि निराकृत्य यः शासनं श्रद्धत्त इति स भयदेव० म्बन्धनीयं, तथा विरतयः - प्राणातिपातादिविरमणानि प्रणिधयः- प्रणिधानानि विशिष्टैकाग्रत्वानि तेषु अविरतिषु च अविरमणेषु अन्येषु च-उक्तव्यतिरिक्तेषु एवमादिकेषु एवंप्रकारेषु बहुषु स्थानेषु पदार्थेषु सङ्ख्यास्थानेषु वा चतुस्त्रिंशदादिषु जिनप्रशस्तेषु - जिनप्रशासितेषु अवितथेषु सत्येषु शाश्वतभावेषु - ओघतोऽक्षयखभावेषु अत एवावस्थितेषु सर्वदाभाविषु, किमत आह-शङ्कां सन्देहं काङ्क्षां अन्यान्यमतग्रहणरूपां निराकृत्य सद्गुरुपर्युपासनादिभिः श्रद्धसे श्रद्दधाति शासनं प्रवचनं भगवतो-जिनस्य श्रमण इति प्रक्रमः, पुनः किंभूतः १- अनिदानो- देवेन्द्राद्यैश्वर्याप्रार्थकः अगौरवः - ऋद्ध्यादिगौरववर्जितः अलुब्धः - अलंपट : अमूदो-मनोवचनकाय गुप्ता यः स तथेति । अपरिग्रहसंवृतः श्रमण इत्युक्तमधुना अपरिग्रहत्वमेव प्रक्रान्ताध्ययनाभिधेयं वर्णयन्नाह ॥ १४७ ॥ जो सो वीरवरवयणविरतिपवित्थरबहुविप्पकारो सम्मत्तविद्धमूलो धितिकंदो विणयवेतितो निग्गततिलोक्कविपुल जसनिविडपीणपवरसुजातखंधी पंचमहब्वय विसालसालो भावणतयं तज्ज्ञाणसुभजोगनाणपल्लववरं कुरधरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सीलसुगंधो अणण्हवफलो पुणो य मोक्खवरबीजसारो मंदरगिरिसिहरचूलिका इव इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स सिहरभूओ संवरवरपादपो चरिमं संवरदारं, जत्य न For Parts On ~ 297~ ५ धर्मद्वारे परिग्रहवि रतौ संव रपादपः भिक्षाअ सन्निधिभविनाश्च सू० २९ ॥ १४७ ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [५] श्रुतस्कन्ध: [२], मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Ecation Interfational कप्पइ गामागरनगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमयं च किंचि अप्पं व बहुं व अणुं व थूलं व तसथावर कायदब्वजायं मणसावि परिधेत्तुं ण हिरन्नसुवन्नखेत्तवत्थु न दासीदासभयक पेस हयगयगवेलगं च न जाणजुग्गस्यणाइ ण छत्तकं न कुंडिया न उवाणहा न पेहुणवीयणतालियेटका ण यावि अयतज्यतंवसीसककंसरयतजातरूवमणिमुत्ताधारपुडक संखदं तमणिसिंग से लकायवरचेलचम्मपत्ताई महरिहाई परस्स अज्झोषवाय लोभजणणाई परियडेडं गुणवओ न यावि पुप्फफलकंदमूलादियाई सणसत्तरसाई सन्बधनाई तिहिवि जोगेहिं परिधेतुं ओसहमे सज्जभोयणट्टयाए संजएणं, किं कारणं?, अपरिमितणाणदंसणधरेहिं सीलगुणविणय तव संजमनायकेहिं तित्थयरेहिं सब्वजगज्जीववच्छलेहिं तिलोयमहिएहिं जिणवरिंदेहिं एस जोणी जंगमाणं दिट्ठा न कप्पइ जोणिसमुच्छेदोत्ति तेण वज्जति समणसीहा, जंपिय ओदणकुम्मासगंजतप्पमंधुभुजियपलल सूप सक्कु लिवेढिमबरसरक चुन्नकोस गपिंड सिहरिणिवट्टमोयगखीर दहिसप्पिनवनीत तेलगुलखंडमच्छंडियमधुमज्जमंसखज्जकवंजणविधिमादिकं पणीयं उवस्सए परघरे व रन्ने न कप्पती तंपि सन्निहिं का सुविहियाणं, जंपिय उद्दिठवियरश्चियगपज्जवजातं पकिण्णपाउकरणपामि भीसकजायं कीयकडपाहुडे च दाणट्टपुन्नपगडं समणवणीमगट्टयाए व कयं पच्छाकम्मं पुरेकम्मं नितिकम्मं मक्खियं अतिरिक्तं मोहरं चैव सयग्गहमाहडं मट्टिउवलितं अच्छेजं चैव अणीस जं तं तिहीसु जन्नेसु ऊसवेसु य अंतो व वहिं व होज समणट्टयाए ठवियं हिंसासावज्जसंपत्तं न कप्पती तंपिय परिधेतुं, अह केरिसयं पुणाइ क For Penal Use Only ~ 298~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------------------- अध्ययनं [५] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रश्नध्याक२०श्रीअभयदेव वृत्तिः ॥१४८॥ [२९]] 45-4545453 प्पति ?, जं तं एकारसपिंडवायसुद्धं किणणहणणपयणकयकारियाणुमोयणनवकोडीहिं सुपरिसुद्धं दसहि य दोसेहिं विप्पमुकं उग्गम उप्पायणेसणाए सुद्धं बवगयचुपचवियचत्तदेहं च फासुयं ववगयसंजोगमणिगालं विगयधूमं छट्ठाणनिमित्तं छकायपरिरक्खणवा हणि हणिं फासुकेण भिक्खेण वट्टियब्ब, जंपिय समणस्स सुविहियस्स उ रोगायंके बहुप्पकारंमि समुप्पन्ने वाताहिकपित्तसिंभअतिरित्तकुविय तह सन्निवातजाते व उदयपत्ते उज्जलबलविउलकक्खडपगाढदुक्खे असुभकडुयफरसे चंडफलविवागे महन्भए जीवियंतकरणे सब्यसरीरपरितावणकरे न कप्पती तारिसेवि तह अप्पणो परस्स वा ओसहभेसज्ज भत्तपाणं च तंपि संनिहिकयं, जंपिय समणस्स सुविहियस्स तु पडिग्गधारिस्स भवति भायणभंडोवहिउपकरणं पडिग्गहो पादबंधणं पादकेसरिया पादठवणं च पडलाई तिन्नेव रयत्ताणं च गोच्छओ तिन्नेव य पच्छाका रयोहरणचोलपटकमुहर्णतकमादीयं एयंपिय संजमस्स उववूहणट्ठयाए बायायवर्दसमसगसीयपरिरक्षणट्टयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिहरियध्वं संजएण णिचं पडिलेहणपप्फोडणपमजणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेण होइ सततं निक्खिवियव्वं च गिव्हियव्वं च भायणभंडोवहिउवकरणं, एवं से संजते विमुत्ते निस्संगे निप्परिग्गहरुई निम्ममे निन्नेहबंधणे सव्वपावविरते वासीचंदणसमाणकप्पे समतिणमणिमुत्तालेडकंचणे समे य माणावमाणणाए समियरते समितरागदोसे समिए समितीसु सम्मदिडी समे व जे सब्वपाणभूतेसु से हु समणे सुयधारते उजुते संजते स साहू सरणं सब्वभूयाणं सब्बजगवच्छले सञ्चभासके ५धर्मद्वारे परिग्रहवि. रतौ संवरपादपः भिक्षाअसनिधिभावनाश्च सू० २९ दीप अनुक्रम [४५] | ॥१४८॥ ~299~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [५] श्रुतस्कन्ध: [२], मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Eaton Inte य संसारंतट्ठिते य संसारसमुच्छिन्ने सततं मरणाणुपारते पारगे य सव्वेलिं संसयाणं पवयणमायाहिं अहिं अटुकम्मगंठीविमो के अट्ठमयमहणे ससमयकुसले य भवति सुहदुक्खनिब्बिसे से अभितरवाहिरंमि सया तवोवहाणंमि य सुहृज्जुते संते दंते य हियनिरते ईरियासमिते भासासमिते एसणासमिते आयाणभंडमनिक्वणासमिते उच्चारपासवणखेल सिंघाणजहपारिट्ठावणियासमिते मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुसिंदिए गुत्तभयारी चाई लज्जू धन्ने तबस्सी खंतिखमे जितिंदिए सोधिए अणियाणे अवहिल्लेस्से अममे अकिंचणे छिन्नगंधे निरुवलेवे सुविमलवरकंसभायणं व मुकतोए संखेविव निरंजणे विगयरागदोसमोहे कुम्मो इव इंदिए गुत्ते जच्चकंचणगं व जायरूत्रे पोक्खरपत्तं च निरुवलेवे चंदो इव सोमभावयाए सूरो व दित्ततेए अचले जह मंदरे गिरिवरे अक्खोभे सागरो व्व थिमिए पुढवी व सव्वासस तवसा ि भास सिछन्निव जाततेए जलियहुयासणो विव तेयसा जलते गोसीसचंदणंपिव सीयले सुगंधे य हरयो विव समयभावे उग्घोसियमुनिम्मलं व आयंसमंडलतलं व पागडभावेण सुद्धभावे सोंडीरे कुंजरोव वसभेव जायथामे सीहे वा जहा मिगाहिये होति दुप्पधरिसे सारयसलिलं व सुद्धहियये भारंडे चेव अप्पमत्ते खग्गविसाणं व एगजाते खाणुं चैव उढकाए सुन्नागारेथ्व अप्पडिकम्मे सुन्नागारावणस्संतो निवायसरणप्प दीपज्झाणमिव निष्पकंपे जहा खुरो चैव एगधारे जहा अही चैव एगदिट्ठी आगासं चैव निराळंबे विहगे विवसओ विमुके कयपरनिलए जहा चेव उरए अप्पडिबद्धे अनिलोन्य जीवोब्व अप्पडियगती For Pass Use Only ~300~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], अध्ययनं [५] मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०] अंग सूत्र [१०] " प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक र० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ॥ १४९ ॥ 196956096 Ja Eucation Internation गाने गाने एकरार्य नगरे नगरे य पंचरायं दूइजंते य जितिंदिए जितपरीसहे निम्भओ विऊ सच्चित्ता चित्तमी केहिं दव्वेहिं विरायं गते संचयातो विरए मुत्ते लहुके निरवकं जीवियमरणासविष्यमुक्के निस्संधि निव्वर्ण चरितं धीरे कारण फासयंते सततं अज्झप्पज्झाणजुते निहुए एगे चरेज धम्मं । इमं च परिगहवेरमणपरिरक्खणट्ट्याए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभाविकं आगमेसिभद्दं सुद्धं नेयाज्यं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाण विओसमणं तस्स इमा पंच भावणाओं चरिमस्स वयस्स होंति परिग्गहवेरमण रक्खण्ड्याए- पढमं सोईदिएण सोचा सदाई मणुन्नभद्दगाई, किं ते ?, वरमुरयमुइंगपणवदद्दुरकच्छभिवीणाविपंचीवलयिवद्धीसकसुघोसनंदि सूसरपरिवादिणिवं सतूणकपव्व कर्ततीतलतालसुडिय निग्घोस गीयवाइयाई नडन कजलमलमुट्ठिकवे लंबक कहक पव कलासग आइक्खक लेख मंखतूणइलववीणियतालायrपकरणाणि य बहूणि महुरसरगीतसुस्सरातिं कंचीमेहला कलाव पत्तरक पहेर कपाय जालगघंटियखिखिणिरयणोरुजा लियछुद्दियने उरचलणमालिय कणगनियलजालभूसणसद्दाणि लीलचंकम्ममाणादीरियाई तरुणीजणहसिय भणियकलरिभितमंजुलाई गुणवयणाणि व बहूणि महुरजणभासियाई अन्नेतु य एवमादिए सद्देसु मणुन्नभद्दपसु ण तेसु समणेण सज्जियध्वं न रजियव्वं न गिज्झियन्त्रं न मुज्झियब्वं न विनिग्धायं आवज्जियन्त्रं न लुभियव्वं न तुसियन्वं न हसियध्यं न सई च मई च तत्थ कुज्जा, पुणरवि सोइदिएण सोचा सहाई अमणुन्नपावकाई, किं ते?, अक्कोसफरसखिंसणअव माणणतज्जण निर्भछणदि For Penal Lise On ~301~ ४ ५ धर्मद्वारे परिग्रहविरतौ संव४रपादपः भिक्षाअ* सन्निधिभीवनाच सू० २९ ।। १४९ ।। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] तवयणतासणउकूजियरुन्नरडियकंदियनिग्घुटरसियकलुणविलवियाई अन्नेसु य एवमादिएसु सद्देसु अमगुण्णपावएसन तेस समणेण रूसियव्वं न हीलियब्वं न निंदियध्वं न खिंसियव्यं न छिदियचं न भिंदियचं न वहेयव्वं न दुगुंछावत्तियाए लब्भा उप्पाए, एवं सोतिंदियभावणाभावितो भवति अंतरप्पा मणुन्नाऽमगुन्नसुम्भिदुभिरागदोसप्पणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संवुडे पणिहितिदिए परेजज धर्म १ । बितिथं चविखदिएण पासिय रुवाणि मणुनाई भदकाई सचित्ताचित्तमीसकाई कढे पोत्थे य चित्तकम्मे लेप्पकम्मे सेले य दंतकम्मे य पंचहिं वण्णेहिं अणेगसंठाणसंधियाई गंठिमवेढिमपूरिमसंघातिमाणि य मलाई बहुचिहाणि य अहियं नयणमणसुहकराई वणसंडे पञ्चते य गामागरनगराणि य खुद्दियपुक्खरिणियावीदी. हियगुंजालियसरसरपंतियसागरविलपंतियखादियनदीसरतलागवप्पिणीफुल्लुप्पलपउमपरिमंडियाभिरामे अणेगसउणगणमिहुणविचरिए परमंडपविविहभवणतोरणचेतियदेवकुलसभपवावसहसुकयसयणासणसीयरहसयडजाणजुग्गसंदणमरनारिगणे य सोमपडिस्वदरिसणिजे अलंकितविभूसिते पुण्यकयतवापभावसोहग्गसंपउत्ते नडनदृगजालमहमुट्ठियवेलंवगकहगपवगलासगआइक्खगलंखमखतूणइलतुंबवीणियतालायरपकरणाणि य बहुणि सुकरणाणि अन्नेसु य एवमादिएसु रूबेसु मणुनभएसु न तेसु समणेण सजियव्यं न रजियवं जाव न सई च मई च तत्थ कुज्जा, पुणरवि चक्खिदिएण पासिय रुवाई अमणुनपावकाई, किं ते?, गंडिकोढिककुणिउदरिकच्छुल्लपइलकुजपंगुलवामणअंधिलगएगचक्खुविणिहयसप्पिसल्लग ~302~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------------------- अध्ययनं [५] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: HOS प्रत सूत्रांक [२९]] प्रश्नव्याक-४ २०श्रीअभयदेव. वृत्तिः धर्मद्वारे | परिग्रहविभारतौ संव| रपादपः भिक्षाअसन्निधिर्भावनाश्च सू०२९ ॥१५०॥ वाहिरोगपीलियं विगयाणि य मयककलेवराणि सकिमिणकुहियं च दब्बरासिं अन्नेसु य एवमादिपसु अमणुनपावतेसु न तेसु समणेण रूसियव्वं जाव न दुगुंछावत्तियावि लम्भा उप्पातेउं, एवं चक्खिदियभावणाभावितो भवति अंतरपा जाव चरेज धम्म २। ततियं धाणिदिएण अग्याइय गंधातिं मणुन्नभद्दगाई, किं ते ?, जलयथलयसरसपुष्फफलपाणभोयणकुटुतगरपत्तचोददमणकमस्यएलारसपिकमंसिगोसीससरसचंदणकप्पूरलवंगअगरकुंकुमककोलउसीरसेयचंदणसुगन्धसारंगजुत्तिवरधूववासे उउयपिंडिमणिहारिमगंधिएसु अन्नेसु य एवमादिसु गंधेसु मणुन्नभदएसु न तेसु समणेण सजियब्वं जाव न सतिं च मई च तत्थ कुज्जा, पुणरवि पाणिदिएण अग्घातिय गंधाणि अमणुनपावकाई, किं ते?, अहिमडअस्समडहस्थिमडगोमुडविगसुणगसियालमणुयमज्जारसीहदीवियमयकुहियविणहकिविणबहुदुरभिगंधेसु अन्नेसु य एवमादिसु गंधेसु अमणुन्नपावरसु न तेसु समणेण रूसियब्वं जाव पणिहियपंचिंदिए चरेज धम्म ३ । चउत्थं जिभिदिएण साइय रसाणि उ मणुन्नभद्दकाई, किं ते?, उग्गाहिमविविहपाणभोयणगुलकयखंडकयतेलधयकयभक्खेसु बहुविहेसु लवणरससजुत्तेसु महुमंसबहुप्पगारम जियनिट्ठाणगदालियंबसेहंबदुखदहिसरयमज्जवरवारुणीसीहुकाविसायणसायट्ठारसबहुप्पगारेसु भोयणेसु य मणुन्नवन्नगंधरसफासबहुदयसंभितेसु अन्नेसु य एवमादिएसु रसेसु मणुनभद्दएसु न तेमु समणेण सज्जियवं जाव न सई च मतिं च तस्थ कुज्जा, पुणरवि जिभिदिएण सायिय रसातिं अमणुनपावगाई, किं ते?, अरसविरससीयलुक्खणिजप्पपाणभोयणाई दीप अनुक्रम - [४५] - ।।१५०11 ~303~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] दोसीणवावनकुहियपूइयअमणुनविणद्वपसूयबहुदुन्भिगंधियाई तित्तकडुयकसायअंबिलरसलिंडनीरसाई अनेसु य एवमातिएसु रसेसु अमणुन्नपावएसुन तेसु समणेण रूसियध्वं जाव चरेज धम्म ४। पंचमगं फासिदिएण फासिय फासाई मणुनभदकाई, किं ते?, दगमंडबहारसेयचंदणसीयलविमलजलविविहकुसुमसस्थरओसीरमुत्तियमुणालदोसिणापेहुणउक्खेवगतालियंटवीयणगजणियसुहसीयले य पवणे गिम्हकाले सुहफासाणि य बहूणि सयणाणि आसणाणि य पाउरणगुणे य सिसिरकाले अंगारपतावणा य आयवनिमउयसीयउसिणलहुया य जे उदुसुहफासा अंगसुहनिम्बुइकरा ते अन्नेसु य एवमादितेसु फासेसु मणुनभहए न तेसु समणेण सज्जियब्वं न रजियव्वं न गिझियध्वं न मुग्झियन्वं न विणिग्यायं आवजियवं न लुभियव्वं न अझोववज्जियवं न तूसियध्वं न हसियध्वं न सतिं च मतिं च तत्थ कुज्जा, पुणरवि फासिदिएण फासिय फासातिं अमणुनपावकाई, किं ते?, अणेगवधबंधतालणकण अतिभारारोवणए अंगभंजणसूतीनखपवेसगायपच्छणणलक्खारसखारतेल्लकलकलंततउअसीसककाललोहसिंचणहडिबंधणरजनिगलसंकलहत्धंडुयकुंभिपाकदहणसीहपुच्छण उब्वंधणसूलभेयगयचलणमलणकरचरणकन्ननासोहसीसछेयणजिभछणधसणनयणहिययदतंभणजोत्तलयकसप्पहारपादपण्हिजाणुपत्थरनिवायपीलणकविकच्छ अगाणि किच्यडक्यायातवदंसमसकनिवाते दुट्टणिसज्जसीहियदुम्भिकक्खडगुरुसीयउसिणलुक्खेसु बहुविहेसु अनेसु य एवमाइएसु फासेसु अमणुनपावकेसुन तेसु समणेण रूसियव्वं न हीलियब्बन निंदियब्बन गरहियवं न खिसि A asurary.com ~304~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२९-३०] दीप अनुक्रम [४५-४७] प्रश्नध्याक श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [५] मूलं [ २९-३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः र० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ॥ १५१ ॥ *%%% % %% प्रश्नव्याकरणदशा” - - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) Education Internationa यच्वं न छिंदियां न भिंदियध्वं न वहेयच्वं न दुर्गुछावत्तियं च लब्भा उप्पाएर्ड, एवं फासिंदियभावणाभावितो भवति अंतरा मणुनामणुन्नमुभिदुब्भिरागदोस पणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संकुडे पणिहितिदिए चरिज धम्मं ५ । एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिवि कारणेहिं मणवय कायपरिरक्खिएहिं निच्चं आमरणंतं च एस जोगो नेयव्वो घितिमया मतिमया अणासवो अकलुसो अच्छिदो अपरिस्सावी असंकिलिट्टो सुद्धो सव्वजिणमणुन्नातो, एवं पंचमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं अणुपालियं आणाए आराहियं भवति, एवं नायमुणिणा भगवया पन्नवियं परुचियं पसिद्धं सिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं सत्यं पंचमं संवरदारं सम्मत्तंतिमि । एयातिं व याई पंचवि सुब्बयमह्व्वयाई हेउसय विचित्तपुकलाई कहियाई अरिहंतसासणे पंच समासेण संवरा वित्थरेण उ पणवीसतिसमिय सहियसंबुडे सया जयणघडण सुविसुद्धदंसणे एए अणुचरिय संजते चरमसरीरधरे भविस्सतीति (सू० २९) पण्हावागरणे णं एगो सुयक्खंधो दस अज्झयणा एकसरगा दससु चैव दिवसेसु उद्दिसिजति एगंतरे आयंबिलेसु निरुद्धेसु आउत्तभत्तपाणवणं अंगं जहा आयाररस ( सू० ३० ) ॥ इति प्रश्नव्याकरणाख्यं दशमाङ्गं सूत्रतः समाप्तम् ॥ ग्रन्थानम् १३०० 'जो सो'त्ति योऽयं वक्ष्यमाणविशेषणः संवरवरपादपः चरमं संवरद्वारमिति योगः, किम्भूतः संवरवरपादप इत्याह- वीरवरस्य - श्रीमन्महावीरस्य यद्वचनं आज्ञा ततः सकाशाया विरतिः - परिग्रहान्निवृत्तिः सैव प्रवि For Parts Only ~305~ %% %%%%% ५धर्मद्वारे x परिग्रहविरतौ संव रपादपः भिक्षाअ * सन्निधिभविनाश्च सू० २९ ॥ १५१ ॥ narra Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] स्तरो-विस्तारो यस्य संवरबरपादपस्य स तथा, बहुविधः-अनेकप्रकारः स्वरूपविशेषो यस्य स तथा, तत्र संहवरपक्षे पहुविधप्रकारत्वं विचित्रविषयापेक्षया क्षयोपशमाद्यपेक्षया च पादपपक्षे च मूलकन्दादिविशेषापे क्षयेति ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, सम्यक्त्वमेव-सम्यग्दर्शनमेव विशुद्धं-निर्दोष मूलं-कन्दस्याधोवर्ति यस्य स तथा, धृतिः-चित्तस्वास्थ्यं सैव कन्दः-स्कन्धाधोभागरूपो यस्य स तथा, विनय एव वेदिका-पार्श्वत: परिकररूपा यस्य स तथा, 'निग्गयतेलोकत्ति प्राकृतत्वात् त्रैलोक्यनिर्गतं-त्रैलोक्यगतं भुवनत्रयव्यापकं अत एच विपुलं-विस्तीर्ण यद यश:-ख्यातिस्तदेव निचित्तो-निविडः पीना-स्थूल पीवरो-महान् सुजातः-सुनिपन्नः स्कन्धो यस्य स तथा, पञ्च महाव्रतान्येव विशाला-विस्तीर्णाः शाला:-शाखा यस्य स तथा, भावनैवअनित्यत्वादिचिन्ता वक-बल्कलं यस्य, वाचनान्तरे भावनैव त्वगन्तो-वल्कावसानं यस्य स तथा, ध्यानं च-धर्मध्यानादि शुभयोगाच-सद्यापारा: ज्ञानं च-बोधविशेषः तान्येव पल्लववरा-अकराः प्रवालप्रवरप्ररोहाः तान् धारयति यः स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, बहवो ये गुणा-उत्तरगुणाः शुभफलरूपा वा त एव कुसुमानि तैः समृद्धो-जातसमृद्धिर्यः स तथा, शीलमेव-ऐहिकफलानपेक्षप्रवृत्तिः समाधानमेव वा| सुगन्धा-सद्गन्धो यत्र स तथा, 'अणण्हवफलो त्ति अनास्रवः-अनाश्रवः नवकर्मानुपादानं स एव फलं यस्य | स तथा, पुनश्च-पुनरपि मोक्ष एव बरवीजसारो-मिञालक्षणः सारो यस्य स तथा, मन्दरगिरिशिखरे-मेरुधराधरशिखरे या चूलिका-चूडा सा तथा सा इव अस्य-प्रत्यक्षस्य मोक्षवरे-घरमोक्षे सकलकर्मक्षयलक्षणे ~306~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [५] श्रुतस्कन्ध: [२], मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याकर० श्रीअ भयदेव० ॥ १५२ ॥ गन्तव्ये मुक्तिरेव निर्लोभतैव मार्गः - पन्था मोक्षवरमुक्तिमार्गस्तस्य शिखरभूतः - शेखरकल्पः कोऽसावित्याह-संवर एव-आश्रवनिरोध एव वरपादपः- प्रधानद्रुमः संवरवरपादपः, पञ्चप्रकारस्यापि संवरस्य उक्तस्वरूपत्वे सत्यपि प्रकृताध्ययनमनुसरन्नाह - चरमं - पञ्चमं संवरद्वारं- आश्रवनिरोधमुखमिति, पुनर्विशेषयवृत्तिः १ नाह-पत्र- चरम संवरद्वारे परिग्रहविरमणलक्षणे सति न कल्पते न युज्यते परिग्रहीतुमिति सम्बन्धः, किं तदित्याह - ग्रामाकरनकरखेदकूटम डम्बद्रोणमुखपत्तनाश्रमगतं वा प्रामादिव्याख्यानं पूर्ववत् वाशब्दो उत्तरपदापेक्षया विकल्पार्थः किञ्चिदिति - अनिर्दिष्टखरूपं सामान्यं सर्वमेवेत्यर्थः अल्पं वा खल्पं मूल्यतो : बहु वा - मूल्यत एव अणुं वा स्तोकं प्रमाणतः स्थूलं वा महत् प्रमाणत एव स तथा, 'तसथावर कायदव्यजायं'ति श्रसकायरूपं शङ्खादि सचेतनमचेतनं वा एवं स्थावर कायरूपं - रत्नादि द्रव्यजातं वस्तुसामान्यं मनसाऽपि चेतसाऽपि आस्तां कायेन परिग्रहीतुं स्वीकर्त्तु, एतदेव विशेषेणाह-न हिरण्यसुवर्णक्षेत्रवास्तु कल्पते परिग्रहीतुमिति प्रक्रमः, दासीदासभृतकप्रेष्य हयगजगवेलकं वा दास्यादयः प्रतीताः 'न यानयुग्पशयनासनानि' यानं - रथादिकं युग्यं वाहनमात्रं गोल्लकदेशप्रसिडो वा जंपानविशेषः न छत्रकं- आतपवारणं न कुण्डिका-कमण्डलुः नोपानही प्रतीते न पहुणव्यञ्जनतालवृन्तकानि पेहुणं मयूरपिच्छं व्यञ्जनं-वंशादिमयं तालवृन्तकं व्यञ्जनविशेष एव न चापि नापि च अयो-लोहं त्रपुकं-वर्ग ताम्र-शुभ्रं (एवं सीसकं-नागं कांस्यं त्रपुकताम्रसंयोगजं रजतं रूप्यं जातरूपं सुवर्ण मणयः - चन्द्रकान्ताया: मुक्ताधारपुटकं - शुक्तिस For Pernal Use Only ~307~ ५ धर्मद्वारे परिग्रहवि रतौ संव रपादपः भिक्षाभसन्निधि भवनाथ सू० २९ ॥ १५२ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: % प्रत % सूत्रांक [२९] %%A5 % सम्पुटं शङ्खः-कम्बुः दन्तमणिः-प्रधानदन्तो हस्तिप्रभृतीनां दन्तजो वा मणिः शृङ्ग-विषाणं शैलः-पाषाणः पा. ठान्तरेण 'लेस'त्ति तत्र श्लेष:-श्लेषद्रव्यं काचवरः-प्रधानकाचा चेलं-वस्त्रं चर्म-अजिनमेतेषां द्वन्द्वः तत एषां सत्कानि यानि पात्राणि-भाजनानि तानि तथा महार्हाणि-महा_नि बहुमूल्यानीत्यर्थः, परस्य-अन्यस्य अध्युपपातं च-ग्रहणैकाग्रचित्ततां लोभं च-मूच्छी जनयन्ति यानि तानि अध्युपपातलोभजननानि 'परियहिउँति परिकर्षयितुं परिवर्द्धयितुं वा परिपालयितुमित्यर्थः, न कल्पन्त इति योगा, 'गुणवओं'त्ति गुणवतो मूलगुणादिसम्पन्नस्येत्यर्थः न चापि पुष्पफलकन्दमूलादिकानि सनः सप्तदशो येषां बीयादीनां तानि सनसप्तदशकानि सर्वधान्यानि त्रिभिरपि योगैः-मनाप्रभृतिभिः परिग्रहीतुं कल्पन्त इति प्रकृतमेव, किमित्याह-औषधभैषज्यभोजनार्थाय-तत्रौषधं-एकाङ्गंभैषज्यं-द्रव्यसंयोगरूपं भोजन-प्रतीतमेव 'संजएणति विभक्तिपरिणामात् संयतस्य-साधोः, किं कारणं?-को हेतुरकल्पने, उच्यते, अपरिमितज्ञानदर्शनधरैः-सर्वविद्भिः शीलं-समाधानं गुणा:-मूलगुणादयः विनयः-अभ्युत्थानादिकः तपासंयमी प्रतीती तान्नयन्तिवृद्धि प्रापयन्ति येते तथा तैः, तीर्थकर:-शासनप्रवर्तकैः सर्वजगजीववत्सलैः सर्वैः त्रैलोक्यमहितैः जिना:छद्मस्थवीतरागा तेषां वराः केवलिनः तेषां इन्द्रास्तीर्थकरनामकर्मोदयवर्तिवाद् येते तथा तः, एषा पुष्पफलधान्यरूपा योनिः-उत्पत्तिस्थानं जगतां-जङ्गमानां सानामित्या दृष्टा-उपलब्धा केवलज्ञानेन, ततश्च न कल्पते-न सङ्गच्छते योनिसमुच्छेदः-योनिध्वंसः कर्नुमिति गम्यते, परिग्रहे औषधाशुपयोगे च तेषां दीप अनुक्रम [४५] % ACROCEXSACM %25 A 5% ~308~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: II प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] प्रश्नव्याक- सोऽवश्यं भावीति, इतिशब्द उपदर्शने, येनैवं तेन वर्जयन्ति-परिहरन्ति पुष्पफलधान्यभोजनादिकं, के ?, धर्मद्वारे र०श्रीअ. ||श्रमणसिंहा:-मुनिपुङ्गवाः, यदपि च ओदनादि तदपि न कल्पते-सन्निधीकर्तुं सुविहितानामिति सम्बन्धः, परिग्रहवि तितत्र ओदन:-कूर: कुल्माषा:-माषा: ईषत्स्विन्ना मुद्गादय इत्यन्ये गंजत्ति-भोज्यविशेषः तर्पणाः-सक्तवः 'म- रतौ संववृत्ति धु'त्ति बदरादिचूर्णः 'भुजिय'त्ति धानाः 'पलल'त्ति तिलपुष्पपिष्टं सूपो-मुगादिविकारः शष्कुली-तिल रपादपः ॥१५ ॥ पटिका वेष्टिमाः प्रतीताः वरसरकाणि चूर्णकोशकानि च रूढिगम्यानि पिण्डो-गुडादिपिण्डः शिखरिणी-II भिक्षाअगुडमिश्रं दधि 'वत्ति धनतीमनं मोदका-लकाः क्षीरं दधि च व्यक्तं सर्पिः-घृतं नवनीतं-म्रक्षणं तैलं सन्निधि गुडं खण्डं च कण्ठ्यानि मच्छण्डिका-खण्डविशेषः मधुमद्यमांसानि प्रतीतानि खाद्यानि-अशोकवर्तयः भर्भावनाच ४||व्यञ्जनानि-तक्रादीनि शालनकानि वा तेषां ये विधयः-प्रकाराः ते खाद्यकव्यञ्जनविधयस्तत एतेषां मोदका-12 सू०२९ दीनां द्वन्द्वः तत एते आदिर्यस्य तत्तथा प्रणीतं-प्रापितं उपाश्रये-वसती परिग्रहे वा अरण्ये-अटव्यां न कल्पते-म सङ्गच्छते तवपि सनिधीकार्नु-सञ्चयीकर्तुं सुविहिताना-परिग्रहपरिवर्जनेन शोभनानुष्ठानानां xससाधनामित्यर्थः, आह च-'विडमुम्भेइमं लोणं, तेल्लं सपिच फाणियं ण ते संनिहिमिच्छंति, नायपु-12 हात्तवए रया॥१॥" इति, [विडमुझेदिम लवर्ण तैलं सर्पिश्च फाणितं । न तानि सन्निधातुमिच्छन्ति ज्ञात-Ix पत्रवचसि रताः॥१॥] यदपि चोद्दिष्टादिरूपमोदनादि न कल्पते तदपि च परिग्रहीतुमिति सम्बन्धः, उ-|| सहिष्ट-यावदथिकान् पाखण्डिनः श्रमणान-साधून उद्दिश्य दुर्भिक्षापगमादौ यद्रिक्षावितरणं तदौद्देशिक ॥१५३ ~309~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक %ALENDAR [२९] दीप अनुक्रम [४५] महिष्ट, आह च-"उद्दिसिय साहुमाई ओमब्वयभिक्खवियरणं जं च"त्ति [अवमव्यये साध्वादिकम-1 दिश्य यशिक्षावितरणं] स्थापित-प्रयोजने याचितं गृहस्थेन च तदर्थ स्थापितं यत्तत् स्थापितं, आह च|"ओहासियखीराईठावणं ठवण साहुणवाए” [याचितानां क्षीरादीनां साधूनामर्थाय स्थापन स्थापना ] रचि-IM हातक-मोदकचूर्णादि साध्वाद्यर्थ प्रताप्य पुनर्मोदकादितया विरचितं, औद्देशिकभेदोऽयं कर्माभिधान उक्तः, पर्यवजातं-पर्यव:-अवस्थान्तरं जातो यत्र तत्पर्यवजातं कृरादिकमुद्धरितं दध्यादिना विमिश्रितं करम्बादिक पर्यायान्तरमापादितमित्यर्थः अयमप्यौद्देशिकभेदः कृताभिधान उक्तः, प्रकीर्ण-विक्षिसं विच्छर्दित-परिशाटीत्यर्थः, अनेन च छहिताभिधान एषणादोष उक्तः, 'पाउकरण'त्ति प्रादुःक्रियते-अन्धकारापवरकादेः साध्वयं | बहिःकरणेन दीपमण्यादिधरणेन वा प्रकाश्यते यत्तत् प्रादुष्करणमशनादि, आह च-“णीयदुवारंधारे गवक्खकरणाइ पाउओ पाउ । करणं तु"[नीचद्वारेऽन्धकारे गवाक्षकरणादि प्रादुष्करणं तु] 'पामिर्चति अपमित्यकं उद्यतकं-उच्छिन्नमित्यर्थः आह च--"पामिचं जं साहूणहा ओछिदिउं दियाबेति"त्ति [अपमित्यं यत् साधूनामर्थाय उद्यतकं गृहीत्वा ददाति एषां च समाहारद्वन्द्वः, 'मीसकत्ति मिश्रजातं साध्वथै गृहस्थार्थ चादित उपस्कृतं, आह च-पढम चिय गिहिसंजयमीसोवक्खडाइ मीसं तु [प्रथममेव गृहिसंय-12 तयोमिदं उपस्करणादि मिश्रं तु] 'कीयगड'त्ति क्रीतेन-क्रयेण कृतं-साधुदानाय कृतं क्रीतकृतं, आह च'दव्वाइएहिं किणणं साहूणहाए कीयं तु" [द्रव्यादिभिः साधूनामर्थाय क्रयणं क्रीतं तु] 'पाहुडं वत्ति ~310~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] श्रुतस्कन्ध: [२], मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक र० श्रीअ भयदेव० वृत्तिः ॥ १५४ ॥ प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [५] प्राभृतं प्राभृतिकेत्यर्थः, तल्लक्षणं चेदम्- "सुमेयरमुस्सकणमवसक्कणमो य पाहुडिया" [सूक्ष्मेतरत् उत्वष्कणमवष्वष्कणं च प्राभृतिका ] ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः समाहारद्वन्द्वः, वाशब्दः पूर्ववाक्यापेक्षया विकल्पार्थः, दानमर्थौ यस्य तदानार्थं, पुण्यार्थं प्रकृतं - साधितं पुण्यप्रकृतं पदद्वयस्य द्वन्द्वः, तथा श्रमणाः | पञ्चविधा: 'निग्गंथसकतावस गेरुयआजीव पंचहा समणा' वनीपकाश्च तर्ककास्त एवार्थः प्रयोजनं यस्य ततथा तद्भावस्तत्ता तया वा विकल्पार्थः कृतं निष्पादितं इह कश्विदाता दानमेवालंयते दातव्यं मयेति अन्यस्तु पुण्यं पुण्यं मम भूयादित्येवं अन्यस्तु श्रमणान् अन्यस्तु वनीपकानिति चत्वारोऽप्यौदेशिकस्य भेदा एते उक्ता इति, “पच्छाकम्म"ति पश्चात् - दानानन्तरं कर्म-भाजनधावनादि पत्राशनादौ तत्पश्चात्कर्म 'पुरेकमंति पुरो-दानात् पूर्व कर्म्म हस्तधावनादि यत्र तत्पुरःकर्म 'णिइयं'ति नैत्यिकं सार्वदिकमवस्थितं मनुष्यपोषादिप्रमाणं 'मक्खियंति उदकादिना संसृष्टं यदाह - "मक्खियमुदकाइणा उ जं जुत्तं” [ श्रक्षितं यदुदकादिना युक्तं ।] अयमेषणादोष उक्तः, 'अतिरिक्त'ति, 'बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणितो । पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीस भवे कवला ॥ १ ॥ एतत्प्रमाणातिक्रान्तमतिरिक्तं, अयं च मण्डलीदोष उक्तः 'मोहरं चैवन्ति मौर्येण पूर्वसंस्तवपश्चात्संस्तवादिना बहुभाषित्वेन यलभ्यते तन्मौ| खरं अयमुत्पादनादोष उक्तः, 'सयग्गह'त्ति स्वयं-आत्मना दत्तं गृह्यते यत्तत्स्वयंग्राहं, अयमपरिणताभिधान एषणादोष उक्तः, दायकस्य दानेऽपरिणतत्वादिति, 'आह'ति स्वग्रामादेः साध्वर्थमाहृतं - आनीतं, Eucation International For Parts Only ~311~ ५ धर्मद्वारे परिग्रहविरतौ संवरपादपः | भिक्षाअसन्निधिभौवनाश्च सू० २९ ।। १५४ ।। yor Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] 4%AF आह च-"सग्गामपरग्गामा जमाणियं आहडं तु तं होइ।" [खग्रामात् परग्रामात् यदानीतमाहृतं तु ॥ तद्भवति ] 'महिओवलितंति, उपलक्षणत्वान्मृत्तिकाग्रहणस्य मृत्तिकाजतुगोमयादिना उपलिप्तं सत् यद् द्भिद्य ददाति तन्मृत्तिकोपलिप्तं उद्भिन्नमित्यर्थः, आह च-"गणाइणोवलितं उभिदिय जं तमुभिणं" [[छगणादिनोपलिप्समुद्भिद्य यत्तदुद्भिनं] 'अच्छेपणं चेबत्ति आच्छेद्यं यदाच्छिद्य भृत्यादिभ्यः स्वामी ददाति, आह च-"अच्छेज्जं अच्छिंदिय जं सामिय भिचमाईणं" [ यत् स्वामी भृत्यादिश्य आच्छिद्य ददाति तदाच्छेचं] अनिसृष्टं-बहुसाधारणं सत् यदेक एव ददाति "अणिसिटुं सामण्णं गोहियभत्ताइ ददउ एगस्स" [[गोष्ठीकभक्तादि यत् सामान्यं तदेकस्य ददतोऽनिसृष्टं ] एतेषूद्दिष्टादिषु प्राय उद्गमदोषा उक्ताः, तथा यत्तत्तिथिषु-मदनत्रयोदश्यादिषु यज्ञेषु-नागादिपूजासु उत्सवेषु च शक्रोत्सवादिषु अन्तर्बहिर्वा उपाश्रयात् भवेत् श्रमणार्थ स्थापितं-दानायोपस्थापितं हिंसालक्षणं यत्सावा तत्सम्पयुक्तं न कल्पते तदपि च | परिग्रहीतुं, अथेति परप्रश्ने, कीदृशं?-किंविधं 'पुणाईति पुनः कल्पते-सङ्गच्छते परिग्रहीतुमोदनादीति प्रकृतं, उच्यते, यत्तदेकादशपिण्डपातशुद्धं-आचारस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धप्रथमाध्ययनस्यैकादशभिः पिण्डपाताभिधायकैरुद्देशैर्विशुद्ध-तदुक्तदोषविमुक्तं यत्तत्तथा, तथा ऋयणं हनन-विनाशनं पचनं च-अग्निपाक इति द्वन्द्वः एषां यानि कृतकारितानुमोदनानि-खयं करणकारणानुमतयः तानि तथा त एव नवकोट्यो विभागा इति समासः, ताभिः सुपरिशुद्ध-निर्दोष दशमिश्च दोषैर्विप्रमुक्तं ते च शङ्कितादय एषणादोषाः, ~312~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] ॥१५५॥ दीप अनुक्रम [४५] प्रश्नव्याक- उद्गमः-आधाकर्मादिः षोडशविधः उत्पादना-धान्यादिका षोडशविधैव एतद्वयमेषणागवेषणाभिधानाधर्मनस र० श्रीअ- ॥ उद्गमोत्पादनैषणा तया शुद्धं, 'बवगयचुयचावियचत्तदेहं चत्ति व्यपगतं-ओघतया चेतनापर्यायादचे परिग्रहवि. भयदेव तनत्वं प्राप्तं च्युतं-जीवनादिक्रियाभ्यो भ्रष्टं च्यावितं-तेभ्य एव आयुक्षियेण भ्रंसितं त्यक्तदेहं-परित्यक्तजी-1 रती संववृत्तिः वसंसर्गसमुत्थशक्तिजनिताहारादिपरिणामप्रभवोपचयं यत्तत्तथा चः समुच्चये तथा प्रासुकं च-निर्जी रपादपः वमित्येतत्पूर्वोक्तस्यैव व्याख्यानं कल्पते ग्रहीतुमिति प्रक्रमा, तथा व्यपगतसंयोगमनङ्गारं विगतधूमं चेति पू भिक्षाअकाववत्, षट् स्थानकानि निमित्तं यस्य भैक्षवर्तनस्य तत्तथा, तानि चामूनि-"वेयण १ चेयावचे २इरिय सन्निधि हाए ३ य संजमहाए ४ । तह पाणवत्तियाए ५ छटुं पुण धम्मचिंताए ॥१॥"सि [क्षुदादि वैयावृत्त्यं ईर्याथै | भोवनाश्च संयमार्थ तथा प्राणप्रत्ययाय षष्ठं पुनर्धर्मचिन्तायै ॥१॥] षटकायपरिरक्षणार्थमिति व्यक्तं, 'हणि हणिन्ति | सू०२९ अहनि अहनि प्रतिदिनं सर्वथापीत्यर्थः प्रासुकेन भैक्ष्येण-भिक्षादिसमूहेन वर्तितव्यं-वृत्तिः कार्या, तथा | यदपि च औषधादि तदपि सन्निधिकृतं न कल्पत इत्यक्षरघटना, कस्य न कल्पत इत्याह-श्रमणस्यसाधोः सुविहितस्य-अपार्श्वस्थादेः, तुर्वाक्यालङ्कारे, कस्मिन् सतीत्याह-रोगातको-रोगो ज्वरादिः स चासावातश्च-कृच्छ्रजीवितकारी रोगातङ्कः तत्र बहुप्रकारे-विविधे समुत्पन्ने-जाते 'वायाहिक'त्ति वाताधिक्यं ॥१५५॥ "पित्तसिंभाइरित्तकुविय'त्ति पित्तसिंभयोः-वायुश्लेष्मणोरतिरिक्तकुपितं-अतिरेककोपः पित्तसिम्भातिरिक्तकुपितं तथेति तथाप्रकार औषधादिविषयो यः सन्निपातो-बातादित्रयसंयोगः जातः-सम्पन्नः तथा तत्पद ACAAAAAAA ~313~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: NCA प्रत सूत्रांक - [२९] - दीप अनुक्रम [४५] त्रयस्य द्वन्द्वकत्वं ततस्तत्र च सति, अनेन च रोगातङ्कनिदानमुक्तं, तथा उदयप्राप्ते-उदिते सति, केत्याहउज्ज्वलं-मुखलेशवर्जितं बलं-बलवत् कष्टोपक्रमणीयं विपुलं-विपुलकालवेयं त्रितुलं वा-त्रीन् मनाप्रभृतीन तुलपति-तुलामारोपयति कष्टावस्थीकरोतीति वितुलं कर्कशं-कर्कशद्रव्यमिवानिष्टं प्रगाढं-प्रकर्षयत् यहुःख-असुखं तत्तथा तत्र, किंभूते इत्याह-अशुभः असुखो वा कटुकद्रव्यमिवानिष्टः परुषः-परुषस्पर्शद्रव्यमिवानिष्ट एव चण्डो-दारुणः फलविपाका-कार्यनिष्ठा दुःखानुबन्धलक्षणो यस्य तत्तथा तत्र, महद्भयं यस्मात्तन्महाभयं तत्र जीवितान्तकरणे-सवेंशरीरपरितापनकरे न कल्पते-न युज्यते, ताहशेऽपि-रोगातयादी यादृशो न सोढुं शक्यते 'तहसि तेन प्रकारेण पुष्टालम्बनं विना, सालम्बनस्य पुनः कल्पत एव, यत:-"काहं अछित्तिं अदुवा अहीहं, तवोवहाणेसु य उज्जमिस्सं । गणं वणीईऍउ सारचिस्सं, सालम्बसेवी समुवेइ मुक्खं ॥१॥" [करिष्याम्यच्छित्तिमथवाऽध्येध्ये तपउपधानयोचोद्यस्यामि । गणं वा नीत्या प्रवर्त्तयिष्यामि सालम्वनसेवी समुपयाति मोक्षं ॥१॥] आत्मने परस्मै वा निमित्तं औषधभैषज भक्तपानं सच तदपि न सन्निधिकृतं-सञ्चयीकृतं परिग्रहविरतत्वात् यदपि च श्रमणस्य सुविहितस्य तुशब्दो भाषा-15 मात्रे पतग्रहधारिण:-सपात्रस्य भवति भाजनं च-पात्रं भाण्डं च-मृन्मयं तदेव उपधिश्च-औधिकः उपकरणं च-औपग्रहिकं अथवा भाजनं च भाण्ड चोपधिश्चेत्येवंरूपमुपकरणं भाजनं भाण्डोपध्युपकरणं, तदेवाह-पतग्रहः-पात्रं पात्रवन्धन-पात्रबन्धः पात्रकेसरिका-पात्रप्रमार्जनपोतिका पात्रस्थापन-पत्र कम्ब रु 4314~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] श्रुतस्कन्ध: [२], मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक२० श्रीअभयदेव० वृत्तिः ॥ १५६ ॥ प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [५] लखण्डे पात्रं निधीयते पटलानि - भिक्षावसरे पात्रप्रच्छादकानि वखण्डानि 'तिन्नेव'त्ति तानि च यदि सर्वस्तोकानि तदा त्रीणि भवन्ति, अन्यथा पञ्च सप्त चेति, रजस्राणं च पात्रवेष्टनचीवरं गोच्छकः- पात्र वस्त्रप्रमार्जन हेतुः कम्बल कलरूपः त्रय एव प्रच्छादा द्वौ सौत्रिकौ तृतीय ऊर्णिकः रजोहरणं प्रतीतं चोलपट्टकः- परिधानवस्त्रं मुखानन्तर्क-मुखवस्त्रिका एषां द्वन्द्वः तत एतान्यादिर्यस्य तत्तथा, एतदपि संयमस्योपबृंहणार्थ - उपष्टम्भार्थ न परिग्रहसंज्ञया, आह- "जंपि वत्थं च पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तंपि संजम४ लट्ठा, धारंति परिहरति य ॥ १ ॥ परिभुञ्जत इत्यर्थः, 'न सो परिग्गहो वृत्तो, नायपुत्त्रेण ताइणा | मुच्छा परिग्गहो बुत्तो, इति तं महेसिणा ॥ २ ॥" अम्मद्गुरुणेत्यर्थः [ यदपि वस्त्रं च पात्रं वा कम्बलं पादप्रोच्हनं । तदपि संयमलज्जार्थं धारयन्ति परिभुञ्जते च ॥ १ ॥ न स परिग्रह उक्तो ज्ञातपुत्रेण तायिना । मूर्च्छा परिग्रह उक्त इत्युक्तं महर्षिणा ॥ २ ॥ ] तथा वातातपदंशमशकशीतपरिरक्षणार्थतया उपकरणं-रजोहरणादिकं रागद्वेषरहितं यथा भवतीत्येवं परिहर्त्तव्यं परिभोक्तव्यं संयतेन नित्यं एवमपरिग्रहताऽस्य भवति, आह च - " अज्झत्थविसोहीए उवगरणं बाहिरं परिहरतो । अपरिग्गहोत्ति भणितो जिणेहिं तेलोकदंसीहिं ॥ १ ॥ [ अध्यात्मविशोध्या बाह्यमुपकरणं परिभुञ्जन अपरिग्रह इति भणितो जिनैत्रैलोक्यदर्शिभिः ॥१॥] तथा प्रत्युपेक्षणं-चक्षुषा निरीक्षणं प्रस्फोटनं-आस्फोटनं आभ्यां सह या प्रमार्जना-रजोहरणादिक्रिया सा तथा तस्यां 'अहो य राओ यत्ति रात्रिन्दिवं अप्रमत्तेन- अप्रमादिना भवति सततं निक्षेप्तव्यं मोक्तव्यं Education International For Para Use Only ~315~ ५धर्मद्वारे परिग्रहविरतौ संव रपादपः भिक्षात्र सन्निधि र्भावनाच सू० २९ ॥ १५६ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [५] मूलं [२९] श्रुतस्कन्ध: [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ग्रहीतव्यं चेति, किन्तदित्याह - भाषणभंडोवहिउवगरणं, एवं अनेन न्यायेन संयतः -संयमी विमुक्त:त्यक्तधनादिः निःसङ्गः- अभिष्वङ्गवर्जितः निर्गता परिग्रहे रुचिर्यस्य स तथा निर्ममो-ममेतिशब्दवर्जी निःस्नेहबन्धनश्च यः स तथा, सर्वपापविरतः, वास्यां- अपकारिकायां चन्दने च उपकारके समान:- तुल्यः कल्पः| समाचारो विकल्पो वा यस्य स तथा, द्वेषरागविरहित इत्यर्थः, समा-उपेक्षणीयत्वेन तुल्या तृणमणिमुक्ता यस्य स तथा, लेष्टौ काञ्चने च समः उपेक्षकत्वेन तुल्यो यः स तथा ततः कर्मधारयः, समश्च हर्षदैन्याभावात् मानेन पूजया सहापमानता तस्यां शमितं-उपशमितं रजः पापं रतं वा रतिर्विषयेषु रयो वा औत्सुक्यं येन शमितरजाः शमितरतः शमितरयो वा शमितरागद्वेषः समितः समितिषु पञ्चसु सम्यग्दृष्टि:सम्यग्दर्शनी, समश्च यः सर्वप्राणभूतेषु तत्र प्राणा-द्वीन्द्रियादित्रसाः भूतानि - स्थावराः, 'से छु समणेत्ति स एव श्रमण इति वाक्ये निष्ठा, किंभूतोऽसावित्याह श्रुतधारकः ऋजुकः - अवक्रः उद्यतो वा अनलसः संयमी, सुसाधुः सुष्ठु निर्वाणसाधनपुरः शरणं त्राणं सर्वभूतानां पृथिव्यादीनां रक्षणादिना सर्वजगद्त्सलः सर्वजगद्वात्सल्यकर्त्ता हित इत्यर्थः, सत्यभाषकश्चेति, संसारान्ते स्थितच 'संसारसमुच्छिण्णे' त्ति समुच्छिन्नसंसारः सततं सदा मरणानां पारगः सर्वदैव तस्य न बालादिमरणानि भविष्यन्तीत्यर्थः, पारगश्च सर्वेषां संशयानां छेदक इत्यर्थः प्रवचनमातृभिरष्टाभिः समितिपञ्चकगुप्तित्रयरूपाभिः करणभूताभिरष्टक३ रूपो यो ग्रन्थिस्तस्य विमोचको यः स तथा अष्टमानमथनः - अष्टमस्थाननाशकः खसमयकुशलश्च-ख Education International For Parts Only ~316~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------------------- अध्ययनं [५] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] प्रश्वव्याक- सिद्धान्तनिपुणश्च भवति सुखदुःखनिर्विशेषो-हर्षादिरहित इत्यर्थः, 'अम्भितरवाहिरे'त्ति अभ्यन्तरस्यैव र० श्रीअ- शरीरस्य कर्मलक्षणस्य तापकत्वादाभ्यन्तरं-प्रायश्चित्तादि षड्विधं वाह्यस्याप्यौदारिकलक्षणस्य शरीरस्य ताप-दी परिग्रहविभयदेव. दूकस्वादु बाह्य-अनशनादि षड्डिधं अनयोश्च द्वन्द्वस्तत आभ्यन्तरवाहो सदा-नित्यं तप एव उपधान-गुणोपष्ट-II | रतौ संववृत्तिः म्भकारि तपउपधानं तत्रण सुटुक्ता-अतिशयेनोद्यतःक्षान्त:-क्षमावान् दान्तश्च-इन्द्रियदमेन 'हियनिरएत्ति रपादपः ॥१५७॥ आत्मनः परेषां च हितकारीत्यर्थः, पाठान्तरे धृतिनिरतः, 'ईरिए'त्यादीनि दश पदानि पूर्वोक्तार्थप्रपञ्चरूपाणि | भिक्षाअप्रतीतार्थान्येव, तथा त्यागात्-सर्वसमस्यागात् संविनमनोज्ञसाधुदानाद्वा 'लजुत्ति रज्जुरिव रज्जुः सरलत्वात्। सन्निधिधन्यो-धनलाभयोगयोग्यत्वात् तपस्वी प्रशस्ततपोयुक्तत्वात् क्षान्त्या क्षमते न वसामयादिति क्षान्तिक्षमः जितेन्द्रिय इति व्यक्त शोभितो गुणयोगात् शोधिदो वा शुद्धिकारी सुहृद्वा सर्वप्राणिमित्र अनिदानो सू०२९ निदानपरिहारी संयमात् न बहिर्लेश्या-अन्तःकरणवृत्तिर्यस्य सोऽबहिर्लेश्यः अममो-ममकारवर्जितः अ-12 किश्चनो-निद्रव्यः छिन्नग्रन्थः-त्रुटितस्नेहः पाठान्तरे 'छिण्णसोयत्ति छिन्नशोकः अथवा छिन्नोताः, तत्र श्रोतो द्विविध-द्रव्यश्रोतोभावोतच, तत्र द्रव्यश्रोतो-नद्यादिप्रवाहः भाव श्रोतव--संसारसमुद्रपात्यशुभो लोकव्यवहारः स छिन्नो येन स तथा, निरुपलेपः-अविद्यमानकर्मानुलेपः एतच्च विशेषणं भाविनि भूतवदुः। पचारमाश्रित्योच्यते, सुविमलवरकांस्यभाजनमिव विमुक्तो यः श्रमणपक्षे तोयमिव तोयं-सम्बन्धहेतुः भालेहः शङ्ख इव निरञ्जन:-अविद्यमानरञ्जनः साधुपक्षे रञ्जन-जीवखरूपोपरञ्जनकारि रागादिकं वस्तु, अत दीप अनुक्रम [४५] भर्भावनाश्च ANSARENDOCOCK ~317~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] एवाह-विगतरागद्वेषमोहः, कूर्म इव इन्द्रियेषु गुप्तः यथा हि कच्छपः ग्रीवापञ्चमैश्चतुर्भिः पदैः कदाचिद् गुप्तो भवतीत्येवं साधुरपीन्द्रियेषु, इन्द्रियानाश्रित्येत्यर्थः, जात्यकाञ्चनमिव जातरूपः रागादिकुद्रव्यापोहाल्लब्धखरूप इत्यर्थः, पुष्करपत्रमिव-पद्मदलमिव निरुपलेपो भोगगृद्धिलेपापेक्षया, चन्द्र इव सौम्यतया पाठान्तरेण सौम्यभावतया-सौम्यपरिणामेन अनुपतापकतया सूर इव दीसतेजाः-तपस्तेजः प्रतीत्य अचलो-निश्चलः परीपहादिभिः यथा मन्दरो गिरिवरो मेरुरियर्थः अक्षोभ:-क्षोभवर्जितः सागर इव स्तिमितः भावकल्लोलर- हितः तथा पृथिवीच सर्वस्पर्शविषहः शुभाशुभस्पर्शेषु समचित्त इत्यर्थः, 'तवसाविय'त्ति तपसाऽपि च हेतुशाभूतेन भस्मराशिच्छन्न इव जाततेजा-वहिः, भावनेह-यथा भस्मच्छन्नो बहिरन्तर्वलति बहिम्लानो भवती-II इत्येवं श्रमणः शरीरमाश्रित्य तपसा म्लानो भवति अन्तः शुभलेश्यया दीप्यत इति, ज्वलितहुताशन इव तेजसा ज्वलन् साधुपक्षे तेजो-ज्ञानं भावतमोविनाशकत्वात्, गोशीर्षचन्दनमिव शीतलो मनासन्तापो पशमनात् सुगन्धिश्च शीलसौगन्ध्यात् इदक इव-नद इव सम एवं समिकः खभावो यस्य स तथा, यथा| सहि वाताभावे हदः समो भवति अनिम्नोन्नतजलोपरिभाग इत्यथैः तथा साधुः सत्कारन्यत्कारयोरनुन्नतानिम्नभावतया समो भवतीति, उष्टमुनिर्मलमिवादर्शमण्डलतलं प्रकटभावेन-निर्मायतया अनिगहित भावेन सुखभावः-शोभनखरूपः शुद्धभावो वेति शोण्डीर:-चारभटः कुञ्जर इव परीषहसैन्यापेक्षया वृषभ Kाइव जातस्थामा-अङ्गीकृतमहाबतभारोद्वहने जातसामर्थ्यः सिंहो वा यथा मृगाधिप इति खरूपविशेषणं ~318~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक धर्मद्वारे परिग्रहविरतौ संवरपादपः भिक्षाअसन्निधि [२९] प्रश्नव्याक- भवति दुष्प्रधृष्य:-अपरिभवनीयो मृगाणामिव साधुः परीषहाणामिति, शारदसलिलमिव शुद्धहदयो यथा र०श्रीअ- शारदं जलं शुद्धं भवतीत्येवमयं शुद्धहृदय इति भावना, भारण्ड इव अप्रमत्तः यथा भारण्डाभिधानः भयदेव० पक्षी अप्रमत्तश्चकितो भवतीत्येवमयमपीति, खगः-आदव्यश्चतुष्पदविशेषः स ोकशृङ्गो भवतीत्युच्यते खवृत्तिः साइविषाणमिवैकजातो रागादिसहायवैकल्यादेकीभूत इत्यर्थः, स्थाणुरिवोलकायः कायोत्सर्गकाले शून्यागार- दामिवाप्रतिकर्म इति व्यक्तं 'मुण्णागारावणस्संतो'त्ति शून्यागारस्य शून्यापणस्य चान्त:-मध्ये वर्तमानः, कि॥१५८॥ मिव किंविध इत्याह-निर्वातशरणप्रदीपध्यानमिव-वातवर्जितगृहदीपज्वल नमित्र निष्पकम्पो-दिव्याशुपसर्गसंसर्गेऽपि शुभध्याननिश्चलः 'जहा खुरे चेव एगधारे'त्ति चेवशब्दः समुचये यथा क्षुर एकधार एवं साधुरुत्सर्गलक्षणकधारः 'जहा अही चिब एगदिहिसि यथा अहिरेकदृष्ट्रि-बद्धलक्षः एवं साधुमक्षिसा-1 धनकदृष्टिः 'आगासं चेव निरालंवेत्ति आकाशमिव निरालम्बो यथा आकाशं निरालम्बनं-न किञ्चिदालम्बते एवं साधु मदेशकुलाद्यालम्बनरहित इत्यर्थः, विहग इव सर्वतो चिप्रमुक्त, निष्परिग्रह इत्यर्थः, तथा परकृतो निलयो-वसतिर्यस्य स परकृतनिलयो यथोरगः-सर्प, तथा अप्रतिबद्धः-प्रतिवन्धरहितः अ. निल इच-वायुरिव जीव इव वा अप्रतिहतगतिः, अप्रतिहतविहार इत्यर्थः, ग्रामे ग्रामे चैकरावं यावत् नगरे ४ीनगरे च पञ्चरात्रं 'दइजते इति विहरवेत्यर्थः, एतच्च भिक्षुप्रतिमाप्रतिपक्षसाध्वपेक्षया सूत्रमवगन्तव्यं, कुत एवंविधोऽसावित्याह-जितेन्द्रियो-जितपरीषहो यत इति, निर्भयो-भयरहितः 'वि'त्ति विद्वान्-गीतार्थ: भीवनाश्च दीप अनुक्रम [४५] सू०२९ SS ~319~ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] पाठान्तरेण विशुद्धो-निरतिचारः सचित्ताचित्तमिश्रकेषु द्रव्येषु विरागतां गतः सञ्चयाद्विरतः मुक्त इव मुक्तः लघुका गौरवत्रयत्यागात् निरचकाङ्क:-आकाङ्क्षावर्जितः जीवितमरणयोराशया-वाञ्छया विप्रमुक्तो यः स तथा, निःसन्धि-चारित्रपरिणामव्यवच्छेदाभावेन निःसन्निधानं निणं-निरतिचारं चारित्रं-सं-12 यमो धीरो-बुद्धिमान् अक्षोभो वा कायेन-कायक्रियया न मनोरथमात्रेण स्पृशन् सततं-अनवरतं अध्या-3 त्मना-शुभमनसा ध्यानं यत्तेन युक्तो यः स तथा निभृतः-उपशान्तः एको रागादिसहायाभावात् चरेद्अनुपालयेत् धर्म-चारित्रलक्षणमिति । इमं चेत्यादि रक्खणहयाए' इत्येतदन्तं सुगर्म, नवरं अपरिग्रहरूपं |विरमणं यत्तत्तथा 'पढमति पश्चानां मध्ये प्रथम भावनावस्तु शब्दनिःस्पृहत्वं नाम, तचैवं-श्रोत्रेन्द्रियेण श्रुत्या शब्दान मनोज्ञाः सन्तो ये भद्रकास्ते मनोज्ञभद्रकास्तान 'किंतेत्ति तद्यथा चरमुरजा-महामर्दला: मृदङ्गामर्दला एव पणवा-लघुपटहाः 'दडुरत्ति दुर्दुरटः चर्मावनद्धमुखः कलशः कच्छभी-वाद्यविशेषः वीणा विपश्ची वल्लकी च वीणाविशेषाः बद्धीसक-वाद्यविशेष एवं सुघोषा-घण्टाविशेषः नन्दीद्वादशतूर्यनिर्घोषः तानि चामूनि-"भंभा मउंद मद्दल हुटुक्क तिलिमा य करड कंसाला । काहल वीणा वंसो संखो पणवओ य बारसमो॥१॥ तथा सूसरपरिवादिनी-वीणाविशेष एव वंशो-वेणुः तूणको-वाद्यविशेषः पर्वकोऽप्येवं त बी-बीणाविशेष एव तला-हस्ततालास्ताला:-कंसिका तलताला वा-हस्ततालाः एतान्येव तूर्याणि-वाद्यानि &ाएषां यो निर्घोषो-दादः तथा गीत-गेयं वादितं च-वाद्यं सामान्यमिति द्वन्द्वः ततः श्रुत्वेति योगात् द्वितीया, ****5*5****555 ~320~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत प्रश्नव्याक र० श्रीअभयदेव. दृत्तिः सूत्रांक [२९] ॥१५९॥ दीप अनुक्रम तथा नटनरीकजल्लमल्लमौष्टिकविडम्बककथकप्लवकलासकाख्यायकलंखमखतूणइल्लतुंबवीणिकतालाचरैः पूर्व- धर्मनारे व्याख्यातः प्रक्रियन्ते-विधीयन्ते यानि तानि नटादिप्रकरणानि, तानि च कानीत्याह-बहूनि अनेकानि परिग्रहविमधुरखराणां-कलध्वनीनां गायकानां यानि गीतानि सुखराणि तानि श्रुत्वा तेषु श्रमणेन न सक्तव्यमिति । रतौ संवसम्बन्धः, तथा काशी-कट्याभरणविशेष: मेखलापि तद्विशेष एव कलापको-ग्रीवाभरणं प्रतरकाणि प्रहेरक:- रपादपः आभरणविशेषः पादजालक-पादाभरणं घण्टिका:-प्रतीताः किंकिण्या-क्षुद्रघण्टिकाः तत्प्रधानं 'रयण'त्ति भिक्षाअरत्नसम्बन्धी उर्बो:-बृहज्जयोर्जालकं यत्तत्तथा 'छुड्डिय'त्ति क्षुद्रिका आभरणविशेषः नूपुर-पादाभरणं चलन- सन्निधिमालिकाऽपि तथैव कनकनिगडानि जालकं चाभरणविशेषः एतान्येव भूषणानि तेषां ये शब्दास्ते तथा तान् र्भावनाश्च किंभूतानित्याह-लीलाचङ्कम्यमाणानां-हेलया कुटिलगमनं कुर्वाणानामुदीरितान्-सजातान् लीलासश्चरण- सू०२९ सञ्जनितानित्यर्थः, तथा तरुणीजनस्य यानि हसितानि भणितानि च कलानि च-माधुर्यविशिष्टध्वनिविशेपरूपाणि रिभितानि- स्वरघोलनावन्ति मञ्जुलानि च-मधुराणि तानि तथाऽतस्तानि, तथा गुणवचनानि चस्तुतिवादांश्च बहूनि-प्रचुराणि मधुरजनभाषितानि-अमत्सरलोकभणितानि श्रुत्वा, किमित्याह-तेष्वित्युसरस्येह सम्बन्धात् तेषु अन्येषु चैवमादिकेषु-एवंप्रकारेषु शब्देषु मनोज्ञभद्रकेषु न, तेष्विति योजितमेव, श्रमणेन सक्तव्यमिति सम्बन्धः कार्यः, न रक्तव्यं-न रागकार्यःन गर्द्धितव्यं-अप्राप्तेष्वाकाङ्का न कार्यान मोहितव्यं-तद्विपाकपर्यालोचनायांन मूढेन भाव्यं न विनिघातं-तदर्थमात्मनः परेषां वा चिनिहननं आपत्तव्यं [४५] 2-6 ~321~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दान लोधव्यं-सामान्येन लोभो न विधेयः न तोष्टव्यं-प्राप्तौ न तोषो विधेयः न हसितव्यं प्राप्ती विस्मयेन हासो न विधेयो न स्मृतं वा-स्मरणं मतिं वा-तद्विषयं ज्ञानं 'तत्यत्ति तेषु शब्देष कुर्थात, पुनरपि चेति-|| शब्दगतं प्रकारान्तरं पुनरन्यदपि चोच्यत इत्यर्थः, श्रोत्रेन्द्रियेण श्रुत्वा शब्दान अमनोज्ञाः सन्तो ये पापकास्ते अमनोज्ञपापका तान किंतेति तद्यथा आक्रोशो-म्रियखेत्यादि वचनं परुषं-रे मुण्ड! इत्यादिकं खिंसनं-15 निन्दावचनं अशीलोऽसावित्यादिकं अपमानं-अपूजावचनं यूपमित्यादिवाकये स्वमित्यादि यथा, तर्जन-ज्ञा8 स्यसि रे इत्यादि बचनं निर्भर्त्सन-अपसर मे दृष्टिमार्गादित्यादिकं दीप्तवचनं-कुपितवचनं त्रासनं-फेस्का-1 दारादिवचनं भयकारि उस्कूजितं-अव्यक्तमहाध्वनिकरणं रुदितं-अश्रुविमोचनयुक्तं शब्दितं रटित-आरटीरूपं कन्दितं-आक्रन्दः इष्टवियोगादाविच निघुष्ट-नि?षरूपं रसितं-शूकरादिशब्दितमिव करुणोत्पादकं विलपितं-आर्तस्वररूपमित्येतेषां द्वन्द्वः ततस्तानि श्रुत्वा तेष्विति सम्बन्धात् तेषु-आक्रोशादिशब्देषु अन्येषु चैवमादिकेषु शब्देषु अमनोज्ञपापकेषु न, तेष्विति योजितमेव, श्रमणेन रोषितव्यं न हीलितव्यं नावज्ञा कार्या न निन्दितव्य-निन्दा न कार्या न खिंसितव्यं-लोकसमक्षं निन्दा न कार्या न छेत्तव्यं-अमनोज्ञहेतोद्रव्यस्य छेदो न कार्यः न भेत्तव्यं-तस्यैव भेदो न विधेयः न वहेयव्वं-न वधो विधेयः न जुगुप्सावृत्तिका वा-जुगुप्सावर्तनं लभ्या-उचितोत्पादयितुं-जनयितुं खस्य परस्य वा, प्रथमभावनानिगमनार्थमाह-एवं-12 उक्तनीया श्रोत्रेन्द्रियविषया भावना-श्रोत्रेन्द्रियं निरोद्धव्यं अन्यथा अनर्थ इत्येवंरूपा परिभावना आलो दीप अनुक्रम [४५] onasuramom ~322~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------------------- अध्ययनं [५] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९]] दीप अनुक्रम [४५] प्रश्नव्याक- चना तया भावितो-वासितो भवत्ति-जायते अन्तरात्मा, ततश्च मनोज्ञामनोज्ञत्वाभ्यां ये 'सुन्भिदुम्भित्ति धर्मद्वारे र० श्रीअ- शुभाशुभाः शब्दा इति गम्यते तेषु क्रमेण यो रागद्वेषो तयोर्विषये प्रणिहिता-संवृतः आत्मा यस्य स तथा परिग्रहविभयदेव. साधुः-निर्वाणसाधनपरः मनोवचनकायगुप्तः संवृतः-संवरवान पिहितेन्द्रियो-निरुद्धहषीकः प्रणिहितेन्द्रियो| रतौ संववृत्तिः वा तथाभूतः सन् चरेद-अनुचरेदनुपालयेत् धम्मै चारित्रं १॥ 'बिइय'ति द्वितीय भावनावस्तु चक्षरिन्द्रि- रपादपः यसंवरो नाम, तचैवम्-चक्षुरिन्द्रियेण दृष्ट्वा रूपाणि नरयुग्मादीनि मनोज्ञभद्रकाणि सचित्ताचित्तमिश्रकाणि. भिक्षाअकेत्याह-काष्ठे-फलकादौ पुस्ते च-बस्ने चित्रकर्मणि प्रतीते लेप्ये-(मृत्तिकाविशेषे शैले च पाषाणे दन्तक- सन्निधिमणि च-गजविषाणविषयायां रूपनिर्माणक्रियायां पञ्चभिर्वणैर्युक्तानीति गम्यते, तथा अनेकसंस्थानसंस्थि- र्भावनाश्च तानि ग्रन्धिर्म-अन्धनेन निष्पन्नं मालावत् वेष्टिम-वेष्टनेन निर्वृत्तं पुष्पगेन्दुकवत् पूरिम-पूरणेन निवृत्तं पुष्प- सू०२९ पूरितवंशपंजरकरूपशेखरकवत् संघातिम-संघातेन निष्पन्नं इतरेतरनिवेशितनालपुष्पमालावत एषांर द्वन्द्वः, कानि चैतानीत्याह-माल्यानि-मालासु साधूनि पुष्पाणीत्यर्धः, बहुविधानि चाधिक-अत्यर्थ नयनममानसां सुखकराणि यानि तानि तथा, तथा वनखण्डान् पर्वतांश्च ग्रामाकरनगराणि च प्रतीतानि क्षुद्रिका जलाशयविशेषः पुष्करणी-पुष्करवती वर्चुला वापी-चतुष्कोणा दीर्घिका-ऋजुसारणी गुजालिका-वसारणी सरसर पङ्किका यत्रैकस्मात्सरसोऽन्यस्मिन् अन्यस्मादन्यत्र सञ्चारकपाटकेनोदकं सञ्चरति सा सर:- ॥१०॥ सर-पत्रिका सागरः-समुद्रो चिलपतिका-धातुखनिपद्धतिः 'खाइय'त्ति खातवलयं नदी-निम्नगा सरः-ख ~323~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक -%85%- [२९] दीप अनुक्रम [४५] भावजो जलाश्रयविशेषः तडागः कृतकः 'वप्पिण'ति केदाराः एषां द्वन्द्वः ततस्तान् दृष्ट्वेति प्रकृतं, किंभूतान् ?-फुल्ल:-विकसितैनीलोत्पलादिभिः पझैः-सामान्यैः पुण्डरीकादिभिः परिमण्डिता ये अभिरामाश्चरम्यास्ते तथा तान्, अनेकशकुनिगणानां मिथुनानि विचरितानि-संचरितानि येषु ते तथा तान्, वरमण्डपा:-प्रतीताः, विविधानि भवनानि-गृहाणि तोरणानि-प्रतीतानि चैत्यानि-प्रतिमाः देवकुलानि-प्रतीतानि सभा-बहुजनोपवेशनस्थानं प्रपा-जलदानस्थानं आवसथा-परिव्राजकवसतिः सुकृतानि शयनानि-शय्या आसनानि च-सिंहासनादीनि शिविका-जम्पानविशेषः पार्श्वतो वेदिका उपरि च कूदाकृतिः-:-प्रतीतः शकद-गन्त्री यान-गन्त्रीविशेष एवं युग्य-वाहनं गोल्लदेशप्रसिद्धं वा जंपानं स्यन्दनो-स्थविशेषः नरनारीगणश्चेति द्वन्द्वस्ततः तांश्च, किम्भूतान ?-सौम्या:-अरौद्राः प्रतिरूपा:-द्रष्टारं २ प्रति रूपं येषां ते दर्शनीयाश्च -मनोज्ञा येते तथा तान्, अलकूतविभूषितान् क्रमेण मुकुटादिभिश्च वखादिभिश्च पूर्वकृतस्य तपसः प्रभावेन यत्सौभाग्य-जनादेयत्वं तेन सम्प्रयुक्ता ये ते तथा तान , तथा नटनर्तकजल्लमल्लमौष्टिकविडम्बककथकालवकलासकाख्यायकलजमहतूणइल्लतुम्बबीणिकतालाचरैः पूर्वव्याख्यातः प्रक्रियन्ते यानि तानि तथा, तानि च कानीत्याह-बहूनि सुकरणानि-शोभनकर्माणि दृष्ट्वेति प्रकृतं, तेष्विति सम्बन्धात् तेषु अन्येषु चैवमादिकेषु रूपेषु मनोज्ञभद्रकेषु न श्रमणेन सक्तव्यं न रक्तव्यं यावत्करणात् न गतिव्यमित्यादीनि षट पदानि दृश्यानि, न स्मृति वा मतिं वा तत्र-तेषु रूपेषु कुर्यात्, पुनरपि चक्षुरिन्द्रियेण दृष्ट्वा रूपाणि अमनोज्ञपाप 31525 ~324~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] + प्रश्नव्याक-कानि 'किंतेत्ति तद्यथा-गण्डी'त्यादि वातपित्तश्लेष्मसन्निपातजं चतुर्की गण्डं तदस्यास्तीति गण्डी-गण्ड-8/५धर्मद्वारे २०श्रीअ- मालावान् कुष्ठं-अष्टादशभेदमस्यास्तीति कुष्ठी, तत्र सप्त महाकुष्ठानि, तद्यथा-"अरुणो १ दुंबर २रिश्य- परिग्रहवि. भयदेव साजिब ३ करकपाल ४ काकन ५ पौंडरीक ६ ददु ७ कुष्ठानीति, महत्वं चैषां सर्वधात्वनुप्रवेशादसाध्यत्वाचेति. रतौ संववृत्तिः एकादश क्षुद्राणि, तथा स्थूलमारुक १ महाकुष्ठै २ ककुष्ठा ३ चर्मदल ४ विसर्प५ परिसर्प विचचिका ७ रपादपः सिध्मः ८ किदिभः ९पामा १० शतारुका ११ संज्ञानि एकादशेति सर्वाण्यपि अष्टादश, सामान्यतः कुष्ठ भिक्षाअ॥१६॥ सर्च सन्निपातजमपि वातादिदोषोत्कटतया भेदभाग्भवतीति, 'कुणि'त्ति गर्भाधानदोषात् इखैकपादो न्यूनै- सन्निधिकपाणिर्वा कुणिः, कुंट इत्यर्थः, 'उदर'त्ति जलोदरी तत्राष्टावुदराणि तेषां मध्ये जलोदरमसाध्यमिति तदिह भवनाच निर्दिष्टं, शेषाणि स्वचिरोत्थानि साध्यानि, तानि चाष्टावेवं-"पृथक ३ समस्तैरपि चानिलाद्यैः ४, प्लीहोदरं सू०२९ बद्धगुदं ६ तथैव । आगन्तुकं ७ सप्तममष्टमं तु, जलोदरं ८ चेति भवन्ति तानि ॥१॥" 'कच्छुल्ल सि कण्डतिमान् पडल्लत्ति पदं श्लीपदं पादादी काठिन्यं यदुक्तं-"प्रकुपिता वातपित्तश्लेष्माणोऽधः प्रपन्ना वंक्षणोरुजवा-18 खवतिष्ठमानाः कालान्तरेण पादमाश्रित्य शनैः शनैः शोफमुपजनयन्ति यत्तत् श्लीपदमाचक्षते" "पुराणोदक भूयिष्ठाः, सर्व षु च शीतलाः । ये देशास्तेषु जायन्ते, श्लीपदानि विशेषतः ॥१॥ पादयोहस्तयोर्वापि, जादायते श्लीपदं नृणाम् । कोष्ठनासाखपि च, कचिदिच्छन्ति तद्विदः ॥" कुन्जा-पृष्ठादी कुब्जयोगात् पङ्गुल:-18॥१६१ ।। पङ्गुः चङ्क्रमणासमर्थः वामनः-खर्वशरीरः एते च मातापितृशोणितशुक्रदोषेण गर्भस्य दोषोद्भवाः कुञ्जवाम + दीप अनुक्रम [४५ ~325 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] नकादयो भवन्तीति, उक्तं च-"गर्भ वातप्रकोपेण, दोहदे वाऽपमानिते । भवेत् कुञ्जः कुणिः पङ्गुट्को । मन्मन एव वा ॥१॥" 'अंधिल्लग'त्ति अन्ध एवान्धिल्लको-जात्यन्धः, 'एगचक्खुत्ति काणः, एतच दोषद्वयं गर्भगतस्योत्पद्यते जातस्य च, तत्र गर्भस्थस्य दृष्टिभागमप्रतिपन्नं तेजो जात्यन्धत्त्वं करोति तदेकाक्षिगतं का. णत्वं विधत्ते तदेव रक्तानुगत रक्ताक्षं पित्तानुगतं पिङ्गाक्षं श्लेष्मानुगतं शुक्लाक्षमिति, 'विणिहयत्ति विनिहतचक्षुरित्यर्थः, तत्र यजातस्य चक्षुर्विनिहननेनान्धकत्वं काणत्वं वा तदनेन दर्शितमिति, 'सप्पिसल्लगति सह पिसालकेन-पिशाचकेन वर्तते यः स तथा ग्रहगृहीत इत्यर्थः, अथवा सर्पतीति सी-पीठसप्पी सच गर्भदोषात् कर्मदोषाद्वा भवति, स किल पाणिगृहीतकाष्ठः सर्पतीति, शल्यक:-शल्यवान् शूलादिशल्यभिन्न इत्यर्थी, व्याधिना-विशिष्टचित्तपीडया चिरस्थायिगदेन वा रोगेण-रुजया सद्योघातिगदेन वा पीडितो यः स तथा, ततो गण्पादिपदानामेकत्वद्वन्द्वः तदू दृष्ट्वेति प्रकृतं, विकृतानि च मृतककडेवराणि 'सकिमिणकहियं वत्ति सह कृमिभिर्यः कुथितय स तथा तं वा द्रव्यराशि-पुरुषादिद्रव्यसमूह दृष्ट्रेति प्रकृतं, तेविति सम्बन्धात् तेषु गण्ड्यादिरूपेषु अन्येषु चैवमादिकेषु रूपेषु अमनोज्ञपापकेषु न श्रमणेन रोपितव्यं यावत्करणान्न दाहीलितव्यमित्यादीनि षट् पदानि दृश्यानि न जुगुप्सावृत्तिकापि लभ्या उचिता योग्येत्यर्थः उत्पादयितुं, निगमयन्नाह-एवं चक्षुरिन्द्रियभावनाभावितो भवति अन्तरात्मेत्यादि व्यक्तमेव २। 'तइयं ति तृतीयं भाव-| नावस्तु गन्धसंवृतत्वं, तचैवम्-प्राणेन्द्रियेणाघ्राय गन्धान मनोज्ञभद्रकान् 'किं तेत्ति तद्यथा जलजस्थलजसर ~326~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------------------- अध्ययनं [५] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत प्रश्वव्याकर०श्रीअभयदेव० सूत्रांक वृत्तिः [२९] ॥१६२॥1 सपुष्पफलपानभोजनानि प्रतीतानि कुष्ठं-उत्पल कुष्ठं 'तगर'त्ति गन्धद्रव्यविशेषः पर्व-तमालपत्रं 'चोय'त्ति||५धर्मद्वारे त्वक दमनकः-पुष्पजातिविशेषः मरुका-प्रतीत: एलारस:-सुगन्धिफलविशेषरसः 'पिकमसि'त्ति पका- परिग्रहविसंस्कृता मांसीति-गन्धद्रव्यविशेषः गोशीर्षाभिधानं सरसं यच्चन्दनं तत्तथा कर्पूरो-घनसारः लवङ्गानि-फ-12 लविशेषाः अगुरु:-दारुविशेषः कुकूर्म-कश्मीरज कल्लोलानि-फलविशेषाः ओशीरं-वीरणीमूलं श्वेतचन्दनं- रपादपः श्रीखण्डं खेदो वा-स्यन्दश्चन्दनं मलयजं सुगन्धानां-सद्भन्धानां साराकानां-प्रधाचदलानां युक्ति:-योजनं भिक्षाअशयेषु वरधूपवासेषु ते तथा ते च ते वरधूपवासाश्चेति समासः ततस्तानाधाय तेविति योगात् तेषु 'उउय-51 सन्निधिपिडिमनीहारिमगधिएसुत्ति ऋतुजा-कालोचित इति भावः पिण्डिमो-बहला निहींरिमो-दूरनिर्यायी यो भर्भावनाश्च गन्धः स विद्यते येषु ते तथा लेषु अन्येषु चैवमादिकेषु गन्धेषु मनोज्ञभद्रकेषु न श्रमणेन सक्तव्यमित्यादिकं । सू०२९ किं ते इत्येतदन्तं पूर्ववत् , तथा अहिमृतादीन्येकादश प्रतीतानि नवरं वृकः-ईहामृगः द्वीपी-चित्रकः एषां चाहिमृतकादीनां द्वन्द्वः द्वितीयाबहुवचनं दृश्यं तत आघ्रायेति क्रिया योजनीया, ततस्तेविति योगात् तेषु किविधेष्वित्याह-मृतानि-जीवविमुक्तानि कुथितानि-कोथमुपगतानि विनष्ठानि पूर्वाकारविनाशेन 'किमि त्ति कृमिवन्ति बहुदुरभिगन्धानि च-अत्यन्तममनोज्ञगन्धानि यानि तानि तथा तेषु अन्येषु चैवमादिकेषु गन्धेषु अमनोज्ञपापकेषु न श्रमणेन रोषितव्यमित्यादि पूर्ववत् । चउत्थंति चतुर्थ भावनावस्तु जिहेन्द्रियसंवरः, ॥१६२॥ तथैवम्-जिहेन्द्रियेणाखाद्य रसांस्तु मनोज्ञभद्रकान् 'किंतेत्ति तद्यथा अवगाहा-लेहबोलनं तेन पाकतो निर्वृत्त दीप अनुक्रम [४५] * * * 555 * ~327~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] t- R दीप अनुक्रम [४५] मवगाहिमे-पक्कान्न खण्डखाद्यादि विविधपानं-द्राक्षापानादि भोजन-ओदनादि गुडकृतं-गुडसंस्कृतं खण्डकृतं | च-खण्डसंस्कृतं लड्डुकादि तैलघृतकृतं-अपूपादि आखाद्येति प्रकृतं, तेष्विति सम्बन्धात् तेषु भक्ष्येषु-शष्कुलिकाप्रभृतिषु बहुविधेषु-विचित्रेषु लवणरससंयुक्तेषु तथा मधुमासे प्रतीते बहुप्रकारा मलिका निष्ठानक-प्रकृष्टमामूल्यनिष्पादितम् यदाह-"णिहाणं जा सयसहस्स" [निष्ठानकथा या शतसहस्रं (व्ययित)] दालिकाम्ल-2 इडरिकादि सैन्धाम्लं-सन्धानेनाम्लीकृतमामलिकादि दुग्धं दधिच प्रतीते 'सर'त्ति सरको गुडधातकीसिद्धं मधं वरवारुणी-मदिरा सीधुकापिशायने-मद्यविशेषौ तथा शाकमष्टादशं यत्राहारे स शाकाष्टादशः ततश्चैषां - का द्वन्द्वः ततस्ते च ते बहुप्रकाराचेति कर्मधारयः ततस्तेषु, शाकाष्टादशता चैवमाहारस्य-"सूयोदणो २ जवणं ३|| तिपिण य मंसाइ६ गोरसो७ जूसो ८॥ भक्खा ९गुललावणिया १० मूलफला ११हरिययं १२ डागो १३ ॥१॥ बाहोह रसाळू य १४ तहा पाणं १५पाणीय १६ पाणगं चेव १७ अट्ठारसमो सागो निरुव हओ १८ लोइओ पिंडो "त्ति 'तिषिण य मंसाईति जलचरादिसत्कानि 'जूसोत्ति मुद्गतदुल जीरकडुभाण्डादिरसः 'भक्ख'त्ति ॐखण्डखाद्यादीनि 'गुललावणिय'त्ति गुलपपेटिका लोकप्रसिद्धा गुडधाना वा मूलफलान्येकमेव पदं 'हरित गति जीरकादि हरितं 'डागो'त्ति वस्तुलादिर्जिका 'रसालुत्ति मजिका 'पाण'ति मयं 'पाणीपति जलं || 'पाणगं'ति द्राक्षापानकादि 'सागोत्ति तऋसिद्धशाक इति, तथा भोजनेषु विविधेषु शालनकेषु मनोज्ञवर्णगन्धरसस्पर्शानि तानि बहुद्रव्यैः सम्भृतानि च-उपस्कृतानि तानि तथा तेषु अन्येषु चैवमादिकेषु मनोज्ञ २राजा AREauratoninternational ~328~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------------------- अध्ययनं [५] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक E5% [२९] % धर्मटारे परिग्रहावरतौ संवरपादप भिक्षाअसन्निधिभर्भावनाश्च २९ ॥१६ ॥ प्रश्नव्याक- | भद्रकेषु श्रमणेन न सक्तव्यमित्यादि पूर्ववत्, तथा पुनरपि जिहेन्द्रियेणाखाच रसान् अमनोज्ञपापकान र० श्रीअ- किंतेत्ति तद्यथा अरसानि-अविद्यमानाहायरसानि हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतानीत्यर्थः विरसानि-पुराणवेन भयदेव० विगतरसानि शीतानि-अनौचित्येन शीतलानि रुक्षाणि-नि:स्नेहानि निजप्पित्ति निर्याप्यानि च यापवृत्तिः नाकारकाणि निर्बलानीत्यर्थः यानि पानभोजनानि तानि तथाऽतस्तानि, तथा 'दोसीणति दोषान्नं रात्रिप युपितं व्यापन-विनष्टवणे कुथितं-कोथवत् पूतिक-अपवित्रं कुचितपूतिकं वा-अत्यन्तकुथितं अत एवा मनोज्ञं-असुन्दरं विनष्ट-अत्यन्तविकृतावस्थाप्राप्तं ततः प्रसूतः बहुदुरभिगन्धो येन तत्तथा तत एतेषां द्वन्द्वो15/ऽतस्तानि तथा, तिक्तं च निम्बवत् कटुकं च शुण्ठ्यादिवत् कषायं च विभीतकवत् आम्लरसं च तक्रवत् दलिंद्रं च-अशैवलपुराणजलबत् नीरसं च-विगतरसमिति द्वन्द्वोऽतस्तानि आस्वाद्य तेष्विति योगात् तेष्वन्येषु चैवमादिकेषु रसेष्वमनोज्ञपापकेषु न श्रमणेन रोषितव्यमित्यादि पूर्ववत् ४। 'पंचमकति पश्चमकं भावनावस्तु | स्पर्शनेन्द्रियसंवरः, तचैव-स्पर्शनेन्द्रियेण स्पृष्ट्वा स्पर्शान् मनोज्ञभद्रकान 'किंते'त्ति तद्यथा-'दगमंडव'त्ति | उदकमण्डपाः उदकक्षरणयुक्ताः हाराः प्रतीताः श्वेतचन्दनं-श्रीखण्डं शीतलं विमलं च जलं-पानीयं विविधाः कुसुमानां त्रस्तराः-शयनानि ओशीरं-बीरणीमूलं मौक्तिकानि-मुक्ताफलानि मृणालं-पद्मनालं 'दोसिण'सि चन्द्रिका चेति द्वन्द्वोऽतस्ताः, तथा पेहुणानां-मयूराङ्गानां य उत्क्षेपकः स च तालवृन्तं च-बीजनक च एतानि |वायूदीरकाणि वस्तुनि तैनिताः सुखा:-सुखहेतवः शीतलाश्च-शीता येते तथा तांश्च पवनान्-वायून दीप अनुक्रम [४५] सरAAACY 5 - 5 % % D१६३ 15 ~329~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ----------------------- अध्ययनं [9] ---------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४५] STORY क?-ग्रीष्मकाले-उष्णकाले तथा सुखस्पर्शानि च यहनि शयनानि आसनानि च प्रावरणगुणांश्च-शीतापहारकत्वादीन शिशिरकाले-शीतकाले अङ्गारेषु प्रतापनाः शरीरस्थाङ्कारप्रतापनाः ताश्च आतपः-सूर्यतापः रिलग्धमृदुशीतोष्णलघुकाश्च ये ऋतुसुखा:-हेमन्तादिकालविशेषेषु सुखकरा: स्पर्शा अङ्गसुखं च निवृत्तिं चमनःस्वास्थ्यं कुर्वन्ति ये ते तथा तान स्पृष्ट्वा इति प्रकृतं, तेष्विति सम्बन्धात् तेषु अन्येषु चैवमादिकेषु स्पर्शेषु मनोज्ञभद्रकेषु न श्रमणेन सक्तव्यमित्यादि पूर्ववत् । तथा पुनरपि स्पर्शनेन्द्रियेण स्पृष्ट्वा स्पर्शान अमनोज्ञपापकान् 'किंतेत्ति तद्यथा अनेको-बहुविधो बन्धो-रजवादिभिः संयमनं वधो-विनाशः ताडन-चपेटादिना अङ्कनं-तप्तायाशलाकयाऽङ्ककरणं अतिभारारोहणं अङ्गभञ्जनं-शरीरावयवप्रमोटनं सूचीनां मखेषु प्रवेशो यः स तथा गात्रस्य-शरीरस्य प्रक्षणनं-जीरणं गात्रप्रक्षणनं तथा लाक्षारसेन भारतैलेन तथा 'कलकल'त्ति कलकलशब्दं करोति यत्तत्कलकलं अतितप्तमित्यर्थः तेन पुणा सीसकेन-काललोहेन च यत् सेचनं-अभिषेचनं यत्तत्तथा, हडीवन्धनं-खोटकक्षेपः रज्ज्वा निगडैः संकलनं हस्ताण्डकेन च यानि बन्धनानि तानि तच्छब्दरेवोक्तानि तथा कुम्भ्यां -भाजनविशेषे पाक:-पचनं दहनमग्निना सिंहपुच्छन-शेफत्रोटनं उद्वन्धनं-2 | उल्लम्बनं शूलभेदः-शूलिकापोतनं गजचरणमलणं करचरणकर्णनासौष्ठशीर्षच्छेदनं च प्रतीतं जिह्वाञ्छनं| जिह्वाकर्षणं वृषणनयनहदयानदन्तानां यद् भञ्जनं-आमर्दनं तत्तथा, यो-यूपे वृषभसंयमनं लता-कम्बा कषो-बईः एषां ये प्रहारास्ते तथा पदपाणि:-पादपाणिः जानु-अष्ठीवत् प्रस्तरा:-पाषाणाः एषां यो निपातः anditurary.com ~330~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२९-३०] दीप अनुक्रम [४५-४६] प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [२], अध्ययनं [५] मूलं [ २९-३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रश्नव्याक ५. धर्मद्वारे - पतनं स तथा, पीडनं पत्रपीडनं कपिकच्छू:- तीव्रकण्डूतिकारकः फलविशेषः अग्निः-वह्निः 'बिच्छुक'त्ति र० श्रीअ- २) वृश्चिकदंशः वातातपदंशमशकनिपातश्चेति द्वन्द्वः ततस्तान् स्पृष्ट्वा दुष्टनिषया-दुरासनानि दुर्निषीधिकाः-कभयदेव० ष्टखाध्यायभूमीः स्पृष्ट्वा तेष्विति सम्बन्धात् तेषु कर्कशगुरुशीतोष्णरूक्षेषु बहुविधेषु अन्धेषु चैवमादिकेषु स्प परिग्रहविरतौ संव वृत्तिः ॐ शैष्वमनोज्ञपापकेषु न तेषु श्रमणेन रोषितव्यमित्यादि पश्चमभावनानिगमनं पूर्ववत् ५ । इह पञ्चमसंवरे शब्दा- है रपादपः ४५ ॥ १६४ ॥ भिक्षाअ सन्निधिभवनाच सू० २९ | दिषु रागद्वेषनिरोधनं यद्भावनात्वेनोक्तं तत्तेषु तदनिरोधे परिग्रहः स्यादिति मन्तव्यं तद्विरत एव चापरि५ ग्रहो भवतीति, आह च - "जे सदरूवरसगंधमागए, फासे य संपप्प मणुण्णपावए । गेही पओसं न करेज पंडिए, स होति दंते विरए अकिंचणे ॥ १ ॥” त्ति [य आगतान् शब्दरूपरसगन्धान् स्पर्शांश्च मनोज्ञपापकान् संप्राप्य । गृद्धिं प्रद्वेषं च न कुर्यात् पण्डितः स भवति दान्तो विरतोऽकिञ्चनः ॥ १ ॥ ] 'एवमिण मित्यादि पश्चमसंवराध्ययननिगमनं पूर्ववदिति । अथ संवरपञ्चकस्य निगमनार्थमाह-एतानि पञ्चापि हे सुव्रत शोभननियम ! महाव्रतानि संवररूपाणि हेतुशतैः- उपपत्तिशतैर्विविक्तैः निर्दोषः पुष्कलानि - विस्तीर्णानि यानि तानि तथा, यानि केत्याह-कथिताः प्रतिपादिताः अर्हच्छासने-जिनागमे पञ्च समासेन सङ्क्षेपेण संवरा:संवरद्वाराणि विस्तारेण तु पञ्चविंशतिः प्रतिव्रतं भावनापञ्चकस्य संवरतया प्रतिपादितत्वादिति । अथ संव| रासेविनो भाविनीं फलभूतामवस्थां दर्शयति-समितः ईर्यासमित्यादिभिः पञ्चविंशतिसङ्ख्याभिरनन्तरोदिताभिः भावनाभिः सहितो ज्ञानदर्शनाभ्यां सुविहितो वा संवृतश्च कषायेन्द्रियसंवरेण यः स तथा सदा Ja Erato अत्र द्वितिये श्रुतस्कन्धे पञ्चमं अध्ययनं परिसमाप्तं For Penal Use Only ~ 331~ ॥ १६४ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रत सूत्रांक [२९-३०] दीप अनुक्रम [४५-४७] प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [-] श्रुतस्कन्ध: [ - ], मूलं [२९-३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... ..आगमसूत्र [१०], अंग सूत्र [१०] “प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सर्वदा यत्नेन प्राप्त संयमयोगेषु प्रयत्नेन घटनेन - अप्राप्तसंयम योगप्रात्यर्थघटनया सुविशुद्धं दर्शनं श्रद्धानरूपं यस्य स तथा एतान् उक्तप्रकारान् संवरान् अनुचर्य - आसेव्य संगतः - साधुः चरमशरीरधरो भविष्यति पुनः शरीरस्याग्रहीता भविष्यतीति भावः, वाचनान्तरे पुनर्निगमनमन्यथाऽभिधीयते यदुत एतानि पञ्चापि | सुव्रत ! महाव्रतानि लोक तिव्रतानि श्रुतसागरदर्शितानि तपःसंयमवतानि शीलगुणधरव्रतानि सत्यार्जवत्रतानि नरकतिर्यमनुजदेवगतिविवर्जकानि सर्वजिनशासनकानि कर्मरजोविदारकाणि भवशतविमोचकानि दुःखशतविनाशकानि सुखशतप्रवर्त्तकानि कापुरुषदुरुत्तराणि सत्पुरुषतीरितानि निर्वाणगमनस्वर्गप्रयाणकानि पश्चापि संवरद्वाराणि समाप्तानीति ब्रवीमीति ।। समाप्ता श्रीप्रश्नव्यारणाङ्गटीका ॥ Eucation International नमः श्रीवर्द्धमानाय, श्रीपार्श्वप्रभवे नमः । नमः श्रीमत्सरखत्यै, सहायेभ्यो नमो नमः ॥ १ ॥ इह हि गमनिका यन्मयाऽभ्यूहयोक्तं, किमपि समयहीनं तद्विशोध्यं सुधीभिः । नहि भवति विधेया सर्वथाऽस्मिन्नुपेक्षा, दयितजिनमतानां तायिनां चाङ्गिवर्गे ॥ २ ॥ परेषां दुर्लक्ष्या भवति हि विवक्षा स्फुटमिदं, विशेषादृद्धानामतुलवचन ज्ञानमहसाम् । निरान्नायाभिः पुनरतितरां मादृराजनैः, ततः शास्त्रार्थं मे वचनमनघं दुलर्भमिह ॥ ३ ॥ ततः सिद्धान्ततत्त्वज्ञेः, स्वयमूह्यः सुयनतः । न पुनरस्मदाख्यात, एव ग्राह्यो नियोगतः ॥ ४ ॥ तथैव मास्तु मे पापं समत्युपजीवनात् । वृद्धन्यायानुसारित्वात्, हितार्थ च प्रवृत्तितः ॥ ५ ॥ For Pale Only अत्र द्वितियः श्रुतस्कन्धः परिसमाप्तः ~ 332~ wor Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१०) प्रश्नव्याकरणदशा” - अंगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [--], ---------------------- अध्ययनं [--] ---------------------- मूलं [२९-३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१०], अंग सूत्र - [१०] "प्रश्नव्याकरणदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत प्रश्नब्याक- र० श्रीअ- भयदेव वृत्तिः ग्रन्थकृतः प्रस्ततिः सूत्रांक यो जैनाभिमतं प्रमाणमनघं व्युत्पादयामासिवान्, प्रस्थानैर्विविधैर्निरस्य निखिलं बौद्धादिसम्बन्धि तत् । नानावृत्तिकथाकथापथमतिक्रान्तं च चक्रे तपः, निःसम्बन्धविहारमप्रतिहतं शास्त्रानुसारात् तथा ॥ ६ ॥ तस्याचार्यजिनेश्वरस्य मदवद्वादिप्रतिस्पर्दिनस्तद्वन्धोरपि वुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे थि । छन्दोबन्धनिबद्धबन्धुरवाशब्दादिसल्लक्ष्मणः, श्रीसंविनविहारिणः श्रुतनिधेश्चारित्रचूडामणेः ॥८॥ शिष्येणाभयदेवास्यसूरिणा विवृतिः कृता । प्रश्नव्याकरणाङ्गस्य, श्रुतभक्त्या समासतः ॥९॥ निवृतिककुलनभस्तलचन्द्रद्रोणाख्यसरिमुख्येन । पण्डितगणेन गुणवत्मियेण संशोधिता चेयम् ।। १०॥ [२९-३०] दीप अनुक्रम [४५-४७]] SUGUSTGACCUSESS EN इति श्रीचन्द्रकुलाम्बरनभोमणिश्रीमदभयदेवाचार्यविहितविवरणयुतं प्रश्नव्याकरणनामकं दशममङ्ग समाप्सिमगमत् । श्रीप्रश्नव्याकरणं सम्पूर्णम् ॥ ग्रंथाय ५६३० GHERAR TRPFB महाल ही FREFERGramBanks RELIGunintentATHREE मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र १०) "प्रश्नव्याकरण-दशा" परिसमाप्त: । ~333~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: / पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। प्रश्नव्याकरणदशाङ्गसूत्र” [मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "प्रश्नव्याकरणदशा” मूलं एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~334~