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अर्थ-समर्थन
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दिक देशोमे उत्पन्न हो वे क्षेत्रार्यं ( क्षेत्रकी अपेक्षा आर्य ) कहलाते हैं । इससे साफ जाहिर है कि आर्यखंडका समस्त क्षेत्र आर्य नही है, बल्कि उसमे काशी, कोशलादिक देशोको ही आर्यदेशत्वकी प्राप्ति है । इनके सिवा आर्यखंडमे जो अन्य देश हैं वे म्लेच्छ देश हैं । उन्ही म्लेच्छ देशोका भगवज्जिनसेनाचार्यने उक्त श्लोकमे 'प्रत्यन्त' शब्द करके ग्रहण किया है । भरत क्षेत्रके जिन पाँच खडोको जैनियोंने म्लेच्छखंड माना है उन खडोके म्लेच्छ्देश धर्म-कर्मके अयोग्य हैं, उन्हे शास्त्रोमे धर्म-कर्मकी अभूमि' वर्णन किया है, वहाँ धर्मका प्रचार नही हो सकता । इसलिये उनका यहाँ ग्रहण नही है । नही मालूम, पडितजी 'म्लेच्छ्देश' का अर्थ लगानेमे अपनी उस लक्षणा और शक्यसम्बन्ध वगैरहको क्यो भूल गये ? जिसका आपने 'अकुलीन' शब्दके अर्थपर विचार करते हुए स्मरण किया था । यदि पडितजीको उनका स्मरण हो आता तो शायद आपको इतनी दूर व्यर्थ ही उन म्लेच्छखंडोंके पीछे न दोडना पडता, जिनके मार्गादिकका आजकल कुछ भी पता नही है । वहाँ जाकर धर्मका प्रचार करना तो कैसे बन सकता है ? परन्तु वास्तवमें बात कुछ और ही है । पडितजीको अभी तक यह मालूम नही था कि आर्यखंडमे भी म्लेच्छ्देश होते हैं, इसीसे उनको म्लेच्छखंडोका भ्रम हुआ है । अब ऊपरके प्रमाणोसे पडितजीको स्पष्ट हो
१. जैसा कि आदिपुराणमें भरतजीकी म्लेच्छखड सम्बन्धिनी दिग्विजयका वर्णन करते हुए लिखा है
इति प्रसाध्य तां भूमिमभूमि धर्मकर्मणाम् । म्लेच्छराजवले. सार्धं सेनानीव्यंवृतत्पुन ॥
- पर्व ३१, श्लोक १४३