________________
( 34 )
१. प्राणातिपात आभव
२. मृषावाद
३. अत्तादान
४. मैथुन ५. परिग्रह
"9
६. श्रोत्रेन्द्रिय प्रवृत्ति आस्रव
"
39
Jain Education International
""
७. चक्षुरिन्द्रिय ८. घ्राणेन्द्रिय
६. रसेन्द्रिय १०. स्पर्शेन्द्रिय ११. मनप्रवृत्ति आस्रव
"9
"
"2
ל
१२. वचन
१३. काय
"
१४. भंडोपकरण रखना (अयत्ना से रखना) आश्रव १५. शूचि कुशाग्रमात्र सेवन आस्रव
"9
योग आस्रव तेरहवे गुणस्थान तक रहता है । योग आस्रव की जनक प्रवृति एक शरीर नाम कर्म की है । अशुभयोग में चारित्र मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ सहायक बनती है ।
शुभयोग भाव पाँच है— मोह कर्म का उपशम, क्षायक, क्षयोपशम, नाम कर्म का उदय, अंतराय कर्म का क्षय, क्षयोपशम तथा पारिणामिक भव है । ये पाँचों भाव शुभ योग में है ।
योग की शुभता में मोह कर्म का अनुदय आवश्यक है । वह अनुदय उपशम, क्षायिक वक्षयोपशम तीनों में से किसी एक रूप में हो सकता है, चंचलता से इसका सम्बन्ध नहीं है । इसका सम्बन्ध है मात्र शुभता से । यद्यपि योग की उत्पत्ति का तात्विक आधार अंतराय कर्म का क्षय, क्षयोपशम और नाम कर्म के उदय से योग उत्पन्न होता है । मन, वचन काय की पौगलिक है किन्तु यही योग नहीं है । मन, वचन तथा काय का योग आत्म-प्रवृत्ति जुड़ने से जुड़ता है। वर्गणा द्रव्य मन, द्रव्य वचन, द्रव्य काय का योग हो सकती है किन्तु भावयोग आत्मा के संयोग से ही होता है, वही योग आस्रव है ।
अनुयोग द्वार सूत्र में जीवोदय निष्पन्न के भेदों में सयोगिता भी अन्तर्निहित है अतः भावयोग जीव है । भगवती में भाव लेश्या को अरूपी व जीव कहा है । भगवती सूत्र में आठ आत्मा में योग आत्मा का भी उल्लेख है, योग आत्मा योग आस्रव है । आस्रव के पांच भदा न भाग आस्रव भी है। योग के दो प्रकार है- शुभयोग व अशुभयोग | उनमें अशुभयोग सावय और शुभयोग से निर्जरा होती है, इस दृष्टि से निरवद्य है । अरुपी है, जीव परिणाम है ।
भाव योग
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org