________________ णबन्धननामकर्म, इन का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। इतना ध्यान रहे कि औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों के पुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध नहीं होता क्योंकि ये परस्पर विरुद्ध हैं। इसलिए इन के सम्बन्ध कराने वाले नामकर्म भी नहीं हैं। ___३८-वज्रर्षभनाराचसंहनननामकर्म-वज्र का अर्थ है-कीला। ऋषभ-वेष्टनपट्ट को कहते हैं। दोनों तरफ मर्कटबन्ध-इस अर्थ का परिचायक नाराचशब्द है। मर्कटबन्ध से बंधी हुई दो हड्डियों के ऊपर तीसरी हड्डी का वेष्टन हो उसे वज्र ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त हो, उस कर्म का नम भी वज्रऋषभनाराचसंहनननामकर्म है। ३९-ऋषभनाराचसंहनननामकर्म-दोनों तरफ हाडों का मर्कटबन्ध हो, तीसरे हाड का वेष्टन भी हो, लेकिन भेदने वाले हाड का कीला न हो उसे ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त होता है उसे ऋषभनाराचसंहनननामकर्म कहते ४०-नाराचसंहनननामकर्म-जिस संहनन में दोनों ओर मर्कटबन्ध हों किन्तु वेष्टन और कीला न हो, उसे नाराचसंहनन कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त होता है, उसे नाराचसंहनननामकर्म कहते हैं। ४१-अर्धनाराचसंहनननामकर्म-जिस संहनन में एक तरफ मर्कटबन्ध हो और दूसरी तरफ कीला हो उसे अर्धनाराचसंहनन कहते हैं। जिसं कर्म के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त होता है उसे अर्धनाराचसंहनननामकर्म कहते हैं। ४२-कीलिकासंहनननामकर्म-जिस संहनन में मर्कटबन्ध और वेष्टन न हो किन्तु कीले से हड्डियां मिली हुई हों वह कीलिकासंहनन कहलाता है। जिस कर्म के उदय से इस संहनन की प्राप्ति हो उसे कीलिकासंहनननामकर्म कहते हैं। ४३-सेवार्तकसंहनननामकर्म-जिस में मर्कटबन्ध, वेष्टन और कीला न हो कर यूंही हड्डियां आपस में जुड़ी हुई हों वह सेवार्तकसंहनन कहलाता है। जिस कर्म से इस संहनन की प्राप्ति होती है, उसे सेवार्तकसंहनननामकर्म कहते हैं। ४४-समचतुरस्त्रसंस्थाननामकर्म-पालथी मार कर बैठने से जिस शरीर के चारों कोण समान हों, अथवा सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयवलक्षण शुभ हों, उसे समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे संस्थान की प्राप्ति होती है, उसे समचतुरस्त्रसंस्थाननामकर्म कहते हैं। ४५-न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननामकर्म-बड़ के वृक्ष को न्यग्रोध कहते हैं। उस के 44 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन