Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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व राजर्षि का भक्तिपूर्वक अभिनन्दन करते हुए राजा ने कहा- ऋषिवर ! धन्य है आप ! इतने थोड़े समय में आपने इतना बड़ा अन्तर्ज्ञान उपलब्ध कर लिया। आपके आगमन मात्र से मेरी सारी समस्याएं समाहित हो गई ।
राजर्षि मन ही मन विस्मित थे राजा किस अन्तर्ज्ञान का जिक्र कर रहा है ? मेरे पास कौन सा ज्ञान है ! राजा ने पुन: कहा – प्रभो ! आप द्वारा उच्चारित तीन गाथाओं ने मेरी सारी गुत्थियां सुलझादी, वरना दीर्घपृष्ठ का दुश्चक्र तो बड़ा भयंकर था ।
व मुनि मन ही मन समझ गये कि यह तो पूज्य गुरुदेव की सेवा का ही, कृपा का ही फल है, अन्यथा ये साधारण गाथाएं किस प्रकार इतनी फलप्रद हो सकती थी । मैं कैसा मन्दभाग्य हूं, गुरुदेव मुझे अध्ययन करवाना चाहते हैं और मैं अपनी भ्रान्ति के कारण उस ओर ध्यान ही नहीं देता । आज मेरे सामने यह प्रत्यक्ष चमत्कार है कि ज्ञान का कण्ठाग्र होना कितना उपयोगी सिद्ध होता है। कहा है- “ न वि अत्थि, न वि य होई, सज्झायसमं तवोकम्मं” अर्थात् स्वाध्याय के समान तप न हुआ है, न हो सकता है। यह चिन्तन कर यव राजर्षि स्वाध्याय में प्रवृत्त हो गये । वे बाह्य तप के साथ साथ आभ्यन्तर तप में भी लीन रहने लगे ।
यहां मनुष्यत्व के दूसरे हेतु का विवेचन चल रहा है। उपर्युक्त घटना से स्पष्ट है, विनयशीलता क्या प्राप्त नहीं कराती । विनयशील शिष्य राजर्षि यव की तरह उत्तमोत्तम गुणों के पात्र बनते हैं ।
मानवता का तीसरा कारण बतलाया गया है- सानुक्रोशता - दयालुता, कृपा परायणता । यह भी अपने आप में एक विशिष्ट गुण है । जिस व्यक्ति के हृदय में दया की भावना नहीं होती, किसी का बाह्य या आन्तरिक उत्पीड़न देखकर जिसका हृदय करुणार्द्र नहीं होता, वह वस्तुत: हृदयहीन है । वह दिल क्या है, दरअसल पत्थर है। चाहे व्यक्ति किसी भी धर्म को नहीं मानता हो, किसी साधना-पद्धति में विश्वास नहीं रखता हो पर हृदय की कोमलता तथा सहानुभूति के भाव तो हर किसी में होने ही चाहिए। अन्यथा वह मानवता का अधिकारी ही नहीं हो सकता । अनुकम्पा विश्व का आधार है। इसी से जगत् सुस्थित है। यदि हिंसा को खुलकर खेलने का अवसर मिल जाए तो संसार में त्राहि त्राहि मच जायेगी । इसीलिए दया को भगवती, जननी कहा गया है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में तीस विभिन्न नामों से अहिंसा को व्याख्यात किया गया है ।
मनुजत्व का चौथा हेतु है अमत्सरता । मत्सर एक बहुत बड़ा दुर्गुण है। इससे मन में द्रोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि की प्रवृत्ति बढ़ती है। दूसरे का सद्गुण देखकर मन में जलन पैदा होती है । मात्सर्य
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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