Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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सनखतरा गए, जहां उन्हें श्वास रोग ने घेर लिया। उनके गुजराँवाला पहुँचते-पहुँचते इस रोग का प्रकोप बढ़ गया। अब उन्होने अनुभव किया कि जीवन-लीला का अन्त निकट आ गया है, अत: गुजराँवाला में ही संथारा लेकर उन्होंने, इस नश्वर संसार को त्यागकर, स्वर्ग की ओर प्रयाण किया। समस्त मूर्ति पूजक संघ में इस समाचार से महाशोक छा गया। न्यायाम्भोनिधि तपगच्छांचार्य श्री सूरि विजयानन्द प्रसिद्ध नाम आत्माराम, के पार्थिव शरीर को गुजराँवाला में ही अग्नि के अर्पण किया गया, जहाँ उनके भौतिक अवशेष आज भी समाधि के रूप में विद्यमान
___ अपने जीवनकाल में आचार्य श्री ने जिनमत के प्रचार-प्रसार के लिए अथख प्रयास किए तथा अनेक नगरों में मन्दिरों का निर्माण कराके उनमें तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की। उनके द्वारा रचे गए अनेक ग्रन्थ उनके गहरे चिन्तन-मनन और शास्त्रों के गंभीर अध्ययन का प्रमाण हैं।
तृतीय भाग तृतीय भाग में कवि ने सतगुरु-महिमा के माध्यम से पाठक के मन में गुरु के प्रति श्रद्धा जागृत करने का प्रयास किया है। इन रचनाओं में आचार्य श्री विजयानन्द का गुणगान, उनकी शास्त्र-विज्ञता एवं वारशक्ति का वर्णन, उनके जीवन की अनेक घटनाओं का आख्यान तथा विभिन्न नगरों में उनके आगमन पर आयोजित उत्सवों एवं समारोह का वृत्तान्त दिया गया है। इस भाग की अन्तिम रचना शोक गीत है, जो आचार्य श्री के देहावसान पर कवि द्वारा अनुभूत हार्दिक दुःख एवं करुणा की अभिव्यक्ति है। इस भाग में कुल सत्रह रचनाएँ सम्मिलित हैं।
चतुर्थ भाग छह रचनाओं पर आधारित इस भाग में, आचार्य श्री विजयानन्द के शिष्यों, विशेष रूप से उद्योत विजय तथा श्री सुन्दर विजय, का गुणगान किया गया है। आचार्य श्री के इन सुयोग्य शिष्यों ने स्यालकोट जिले के नारोवाल नगर में जो सम्मान प्राप्त किया तथा जो धर्मोपदेश दिया, उसका वर्णन भी कवि ने किया है।
भाषा । प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा मूलत: खड़ी बोली हिन्दी है । इस ग्रन्थ में संकलित रचनाओं में अनेक तत्सम एवं तद्भव शब्दों का प्रयोग किया गया है । एक ओर जहाँ हमें श्रावक, विद्या, ज्ञान, मिथ्या, दीक्षा, शास्त्र, शिष्य, उपाश्रय जैसे तत्सम शब्दों का प्रयोग दिखाई देता है, वहाँ दूसरी ओर चौमासा, सोरण, तेरस, चन्द, निरत, चोर, धनु, नासे जैसे अनेकानेक तद्भव शब्दों का प्रयोग भी ३७८
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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