Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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पर चैन कहां उस दीवाने को, दुनिया को समझाना होगा। सुलझ गई गुत्थी तो, सारे प्रश्न सरल हो जाते हैं । कठिन काम तब उसने जाना, लीक फकीरों को समझाना। सत्ता से चिपके चींटों को, कैसे अमृत पथ दिखलाना ।। बारह वर्ष संघर्ष निरन्तर, लगा रहा वह मानव पुंगव । ढहती दीवारों का मलबा, पावन मानस से हटवाना ।। उर्वर पंजाबी धरती पर, करना था उसको नव सृजन । इच्छुक माली के हाथों से, वीराने खिल जाते हैं । विजय मिलेगी आत्म तत्त्व को, मन में यह विश्वास भरा था। सत्यमेव जयते का आगम, पावन से यह पाठ पढ़ा था । ज्योति हुई जब “तत्त्वादर्श" की लुप्त हुआ अज्ञान तिमिर तब । सुदृढ़ भित्ति पर गुरुवर का “तत्त्व निर्णय प्रासाद” सजा था ॥ देख उल्लसित अनुयायों को, जिनकी जय जयकार बुलाते। पूजा करने को आन्दोलित, काव्य मुखर हो जाते हैं । सच्चा श्रमण कहीं थकता है?, क्षितिज पार थी मंजिल उसकी। ज्ञानार्जन रत रहें श्रावक, आंतिम इच्छा थी यह मन की ॥ उत्सुक था चल दिया प्यासा, ठीक समझ गुजरावाला को। टूट गया पर स्वप्न अचानक, भावी भाव ने मानी किसकी ॥ हतप्रभ होकर नगर निवासी, विस्मय विस्फारित से तकते। रूंधे कंठ से बात न होती, तब आँसू गिर जाते हैं । जाओ गुरुवर जाओ, भूल न पाएंगे उपकार तुम्हारा। पथ दिखलाया तुमने पथ पर चलना है कर्तव्य हमारा ।। देव लोक से तकते रहना, मार्ग भूल हमभटक न जाएं। “इन्द्रदिन्न” के माध्यम से, हम समझ ही लेंगे तेरा इशारा ॥ लो वचन बद्ध हैं वर्ष शत के पुण्य अवसर पर । “श्रीपाल” सुन रहा 'आत्म', जो धर्म लाभ कह जाते हैं ।
हम नत मस्तक हो जाते हैं
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