Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
View full book text
________________
शालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ॥२७ ।। हे मुनीश ! काम आदि दुर्दम, अभेद्य मोहराजा को जितने की प्रबल इच्छावाले आप ज्ञान, दर्शन और सुसंयम के तीनों प्रकोटों से तीर्थंकर की भाँति सुशोभित हो रहे हैं।
उच्चत्वकाङ्क्षिण इनामलतेजसोऽरं रज्यन्त ऊर्जितगुणेषु जनेषु नित्यम् । किं साम्यमीप्सव इवात्र भवद्व येऽपि,
त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव? ॥२८ ॥ जैसे सूर्य की किरणों की भाँति ऊँची आंकाक्षा रखने वाले और उपार्जित गुणवाले मनुष्यों में सामान्यजन हमेशा सुशोभित होता है; वैसे ही दोनों भवों में उच्चता की इच्छा रखने वाले मनुष्य आपके सत्संग में तल्लीन रहते हैं ।
सेव्य: सदा ततगुणै सुमन: समूहै; सञ्चिन्तितार्थघटनापटुरङ्गिनां च । संसेविनां सपदि कामघटोऽसि साक्षा
च्चित्रं विभो ! यदसि कर्मविपाकशून्य: ॥२९ ॥ हमेशा अच्छे मनवाले समूह के द्वारा उनके गुणों से सेवनीय और विद्वत्तापूर्ण अर्थ घटाने में चतुर आप कामघर के तुल्य हैं; हे विभो ! आप कर्म विपाक से शून्य हैं इसमें आश्चर्य क्या
षट्खण्डभारतधरा वदनेऽच्युतस्य, वर्षे यथा षड्टतवश्च रसा: षडुक्म्। षड्दर्शनस्थ मुनिराज ! तथा ह्यशेष
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतुः ॥३० ॥ जैसे विष्णु के मुख में भारतधरा के छह खण्ड हैं, वर्ष की छह ऋतुएं हैं और पृथ्वी पर छह रस विद्यमान हैं; वैसे ही हे मुनिराज ! आपमें षड्दर्शन विद्यमान है, ये अशेष ज्ञान विश्व कल्याण का निमित्त बनकर आप में स्फुरायमान हो रहा है।
संविग्नमार्गमृषिराज ! सभाश्रयन्तं, त्वां योऽरुणज्जिनवरागमबोधशून्यः । तीव्रर्वचोभिरिन ! ढूण्ढकवर्गपूज्यो,
४३२
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org