Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः ॥ १९ ॥
हे तेजोनिधे ! आपके गर्भ में आने की वार्ता से परिवार के सभी लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए थे । क्या सुदूर उदित सूर्य के प्रकाश से संसार प्रकाशित नहीं होता है ? अर्थात् होता है । स्वीकुर्वते न वचनं तव ये हठेन, येऽवर्णवादमपि तेऽनिशमुद्गृणन्ति । कृत्वा दृढानि कुधियो निजकर्मणां ते गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि ॥ २० ॥
जो व्यक्ति हठ से आपके वचनों को स्वीकार नहीं करते, जो रात-दिन अवर्णवाद-निंदा करते हैं, वे लोग निचकर्म बांधकर अधोगति में जाते हैं ।
त्वद्देशानामृतरसं भगवन् ! निपीया, कण्ठं जिनेन्द्र समये दृढभक्तिरङ्गाः । धर्मोद्यमं विदधतश्च निरस्य कर्म, भव्याव्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम् ॥२१ ॥
हे भगवन ! आपकी अमृतमयी देशना को आकण्ठ पीकर जिनेश्वर परमात्मा के सिद्धान्तों में दृढ़- भक्ति से रंगे हुए धर्म में पुरुषार्थ करते हुए कर्मों को नाश करके भविजन शीघ्रातिशीघ्र अजरामर पद को प्राप्त करते हैं ।
ये दर्शनं जिनपतेर्मुनिराज ! ते च, प्राप्तास्तथा चरणपङ्कजपर्युपास्तिम् । सज्ज्ञानदर्शनसुसंयमभूषिताङ्गा,
ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः ॥२२ ॥
मुनिराज ! जिन्होने जिनेश्वर प्रतिपादित जैनदर्शन प्राप्त किया और जिन्होनें चरणारविंदों की सेवा प्राप्त की वे सम्यक्ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र से सुशोभित अत्युत्तम उच्च भावना वाले लोग निश्चितरूप से ऊपर की ओर जाते हैं ।
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श्यामाशयं जडमयं चपलात्मकं च, सस्नेहमप्युरुखं च शरीरिणं त्वम् । उच्चैः पदं नयसि भो ! स्वगुणेन वायु, श्चामीकराद्रिशिरसीव नवाम्बुवाहम् ॥ २३ ॥
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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