Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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किं वा विपद्विषधरी सविधं समेति? ॥३५ ॥ हे भगवन् ! जिन लोगों ने आपकी आज्ञा शिरोधार्य कर ली, उनके लिए वह मार्ग में चलने हेतु मंत्र के समान हो गई ।तीनों जगत के प्राणियों को मोहरुपी सर्प भय पहुँचाता है, परन्तु जो आपको अपने हृदय में धारण कर लेते हैं, उनके पास विषरुपी विपत्ति आ सकती है क्या?
लब्धा मया न भगवन् ! भवदीयपादो पास्ति: श्रुतं न वचनं भवभीतिहारि । तेनैव मोहधरणीशपराभवानां,
जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥३६ ॥ हे भगवन् ! मैंने आपके चरण कमलों की सेवा प्राप्त नहीं की और भवभीति हरने वाले वचनों का श्रवण भी नहीं किया, उसी कारण मोह को धारण करने में समर्थ ऐसे पराभवों के संशय का मैं घर बना हूँ।
सर्वस्य देवनिवहस्य धुरीणभावं भेजे भवानिति दिवि श्रमणेश ! मन्ये । त्वत्संस्मृतेरपि हि विघ्नभिदे व्रजेयुः
प्रोद्यत्प्रबन्धगतय: कथमन्यथैते? ॥३७ ॥ हे श्रमणेश ! स्वर्ग में आप ही सभी देव समुदाय के प्रमुख हुए हैं ऐसा मैं मानता हूँ आपके स्मरण मात्र से ही जीवों के विघ्न दूर हो जाते हैं; मगर जिन-जिन जीवात्माओं ने निश्चयरुप से आयु का बंध किया है वे वहीं जाएँगे, अन्यत्र नहीं।
त्वं ढूंढकै: श्रुतिपथं गमितश्च दृष्टो, भक्त्या विनैव बहुधा परिषेवितोऽसि । सम्यक्त्वशुद्धिमपि नो किल ते प्रपन्ना,
यस्मात् क्रिया: प्रतिफलन्ति न भावशून्या: ॥३८ ॥ आप ढूंढक सम्प्रदाय से ज्ञान के मार्ग पर जाते हुए देखे गये ।लोगों ने बिना भक्ति के आपकी सेवा भी बहुत की, परंतु वे लोग सम्यक्त्व की शुद्धि प्राप्त नहीं कर सके; क्योंकि बिना भाव की की हुई क्रिया फलदायी नहीं होती।
सर्वस्य संयमिगणस्य च सन्निधेहि, दृष्टिं प्रसत्तिसुभगां भगवन्निधेहि।
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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