Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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अध्ययन किया था। उन्होंने ईसाई धर्म तथा अन्य पश्चिमी दर्शनों का भी अच्छा ज्ञान अर्जित कर लिया था। उनको योग का भी पर्याप्त ज्ञान था। उन्होने सभी दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन गहराई से किया था अत: वे अत्यंत विश्वास पूर्वक और अधिकार पूर्वक उन पर अपने विचार प्रकट करते थे। श्रोता उनकी प्रभावोत्पादक वक्तृत्व शैली से सम्मोहित हो जाते थे। वे धारा प्रवाह अंग्रेजी में अपने विचार श्रोताओं के समक्ष रखने में सक्षम थे।
सन् १८९८ में वे फिर बम्बई लौटे । २३ सितम्बर १८९८ को श्री महादेव गोविन्द रानाडे के सभा पतित्व में फिर उन्हें अभिनन्दन पत्र से सम्मानित किया गया। श्री वीरचन्द गांधी ने भारत के दुर्भिक्ष पीडित लोगों के लिए अमेरिकी जनता को प्रेरित किया और वहां से प्रचुर मात्रा में सहायता भिजवाई।
जब वे इंग्लेण्ड में थे तभी उनका स्वास्थ्य खराब हो गया और उन्हें भारत लौटना पड़ा। उन्हें इंग्लैण्ड में रहते हुए श्री शत्रुजय तीर्थ के मामले में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फार इंडिया से सफलता प्राप्त हो गई थी। ७ अगस्त १९०१ का दिन इतिहास में सदैव अंकित रहेगा जब श्री वीरचंद भाई ३७ वर्ष की अल्पायु में इस नश्वर संसार को सदैव के लिए छोड़ गये । उनका निधन जैन समाज के लिए वज्राघात सदृश था। काश ! यदि वे अधिक समय तक जीवित रहते तो जैन धर्म और महावीर शासन की कितनी सेवा करते? वे एक प्रतिभा संपन्न व्यक्ति थे। उनके दिल में जैन समाज और जैन धर्म की सेवा करने का एक अनोखा समर्पण युक्त भाव था। वे पहले क थे जिन्होंने आज से सौ वर्ष पूर्व जैन धर्म के मानवोपयोगी सिद्धान्तों को समुद्र पार अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस और जर्मनी में पहुँचाये । हमें याद आते हैं सम्राट अशोक जिन्होंने बौद्ध धर्म का प्रसार एवं प्रचार करने के लिए अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को आध्यात्मिक राजदूत बनाकर पूर्वीय देशों को भेजा था। वही कार्य सम्पन्न किया इस युग के आद्य आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरि ने जिन्होंने श्री वीरचन्द भाई गांधी को अपना अध्यात्मिक राजदूत बनाकर पाश्चात्य देशों में भेजा और जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक राजदूत की भूमिका को भली भांति पूरी की।
पाश्चिम में जैन धर्म एवं संस्कृति के सर्व प्रथम उद्घोषक : श्री वीरचन्द राघवजी गांधी
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