Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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रूपं प्ररुपयति किं किल धर्मरश्मेः ॥ ३ ॥
मैं पुण्य रहित मंद जिसने उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया ऐसा मुझ जैसा शताब्दी के स्तवन में कहाँ से समर्थ सकता हूँ ? जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त सूर्य को नहीं देखने वाला उल्लू किस प्रकार सूर्य के स्वरूप को प्ररुपित कर सकता है ? सङ्ख्यातिगा गुणतति सततं स्फुरन्ती, ज्ञानेऽपि काव्य- धिषण श्रुतदेवताभिः । नो गीयते मुनिपतेः प्रचयीकृतोऽपि, मन जलधेर्ननु रत्नराशिः ? ॥४ ॥
आपके ज्ञानमय जीवन से असंख्य गुण निरंतर स्फुरायमान हो रहे हैं। ज्ञान मार्ग के काव्य, शास्त्रसेवी श्रुतदेवता से भी संग्रहित गुण गाये नहीं जा सकते, जिस प्रकार रत्न-राशि समुद्र किसी के द्वारा नापा जाना कठिन होता है ।
हे स्वामिन् ! गुरुवरों से शास्त्रमार्ग प्राप्त बुद्धि के अनुसार आपका स्तवन करूँगा । स्वप्नदृष्ट विषय को साक्षात् करना सब के लिए कठिन होता है, वैसे ही अपनी बुद्धि से समुद्र की विस्तारता को कहना असंभव है ।
गुर्वादिभिः श्रुतिपथं गमितैर्गुणैस्तैः
स्वामिन् ! यथामति तव स्तवनं विधास्ये । स्वप्ने क्षितस्य किमु कोऽपि न चान्तिमस्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥
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आत्मशक्ति का विचार किये बिना ही भक्तिवश मैं स्तुति करने के लिए तैयार हुआ हूँ; अतः यहाँ विद्वद्जनों के हास्य का पात्र न बनूँ । वृक्ष भी अपने भावों को विज्ञापित कर बैठता है और पक्षी भी अपनी भाषा में प्रलाप करके अपने भावों को व्यक्त करते हैं ।
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भक्त्यात्मशक्तिमविचार्य समुद्यतोऽपि स्तोतुं न यामि विदुषामिह हास्यमार्गम् । संज्ञापयन्ति तरवोऽपि निजं विकारं,
जल्पन्ति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६ ॥
आस्तां स्तवः स्मरणमप्यतुलं प्रमोदमाविष्करोत्यसुमतां तव सूविर्य !
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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