Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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मल्हार, और अन्य अनेक रसीली रागनियों में ही उन प्रभु भक्ति के स्तवनों को पूज्य आचार्य श्री ने बड़ी कुशलता से बांधा है।
अन्यत्र गीतों को परम पूज्य आचार्य श्री विजयानन्द सूरिजी ने सहज भाव से अनेक अलङ्कारों से सजाया संवारा है । छटा देखें:
पद्म प्रभु मुझ प्यारा जी मन मोहन गारा। चन्द चकोर मोर घन चाहे पंकज रवि बिन सारा जी॥ त्यों जिन मूरत मुझ मन प्यारी
हिरदे आनन्द अपारा जी॥ इनकी कविताएं विविध छन्दों और गीतों में है और सृजन शुद्ध शास्त्रीय आधार पर है। ऐसी राग रागनियों में इन्होंने अपने छलकते भक्ति भावों को बांधा है कि कोई राग विद्या का जानकार न होने पर भी अपने ही स्वर में गा सकता है। उनके रसोद्रेके में कहीं भी त्रुटि नहीं होती।
इतनी अल्पायु में इतने विस्तृत अध्ययन-मनन और चिन्तन के साथ पद यात्राएं भी निरन्तर चलती रहीं। श्रमण मर्यादा के अनुकूल, चारित्र-पालन करते हुए, इस तरह का बहुमुखी ज्ञान, कुछ थोड़े से व्यक्तियों में ही उपज पाता है। कला और अध्यात्म का इतना श्रेष्ठ और अद्भुत समन्वय बहुत कम व्यक्तियों में देखा सुना गया है।
___ भारतीय संस्कृति का उत्थान, स्पष्ट रूप से उन्हें हिन्दी और संस्कृत के माध्यम में ही दिख पड़ा। उन्होंने भाषा को किसी जाति की विरासत न मानकर, अन्तर्भावनाओं को अभिव्यक्ति देने का माध्यम स्वीकार किया।
___ यह अपने में एक श्रेष्ठ विचार था। उन्होंने ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में सामायिकता की अनिवार्यता को नकारा नहीं । उनकी दृष्टि यहां भी समन्वयात्मक ही रही । शिक्षा और अनुशासन की नई पद्धतियों में उन्हें रुचि थी, जिसका प्रभाव उनके अन्तेवासी प्रिय शिष्य एवं पट्टालंकार, युगवीर आचार्य वल्लभ सूरिजी में परिलक्षित हुआ।
श्री विजयानन्द सूरि के साहित्य सृजन का क्रमिक इतिहास
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