Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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गुरुदेव की प्रेम परिधि में आवर्तित देख, तत्कालीन स्थानकवासी संप्रदाय के मुखिया श्री अमरसिंहजी, आग बबूली ज्येष्ठ दुपहरी से धांय धांय जलने लगे। आक्रोश प्रज्वलित करने लगे। अतएव गुरुवर के विरूद्ध छल प्रवंचना का जाल बिछाने में लग गए। इसके तहत ही उन्होंने एक मेजर नामा तैयार किया, जो इस प्रकार था।
स्थानकवासी संप्रदाय का सर्वनाश करने हमारे प्रमाणित आगमों का अस्तित्व मिटाने, मंदिर मूर्ति का माया जाल फैलाने वितंडावादी गुमराह कर रहे हैं पंजाब के प्रशस्त संघ को
वास्ते गांव गांव और नगर नगर के श्री संघों से प्रार्थना है कि ऐसे विद्रोहियों के सम्पर्क में हर्गिज न आएं न उनसे किसी भी तरह का व्यवहार ही करें, बल्कि उन विद्रोहियों को गोचरी, पानी व आवास आदि उपलब्ध न करवाकर पुण्यशाली बनें।
हुक्म की तोहिन करने वालों का संघ से विच्छेद किया जाएगा। हस्ताक्षर अमरसिंह, जीवनराम आदि आदि।
मेजर नामा हाथों हाथ घूमता रहा, लोगों को गुमराह बनाता रहा और एक दिन वह गुरुवर के समक्ष उसे तस्दीक करवाने के लिए पेश किया गया । गुरुवर ने वह पढ़ा और अपने पूज्य श्री का ध्यानाकर्षित करते हुए पूछा- क्या मुझे जिनवाणी के अक्षर को क्षर क्षर कर हस्ताक्षर करने होंगे? श्री पन्नालालजी बीच में ही टपक पड़े आपकी सुरक्षा हेतु आपको मेजरनामे पर हस्ताक्षर करना ही होगा। गुरुवर के भवें तन गये। वे चीख उठे श्री पन्नालालजी, प्रश्न मैंने आपको नहीं पूछा है? आप बीच में ही टांग क्यों अडाते हो। मैं अपना हित अहित जानता हूँ। बिचारे पन्नालालजी सकपका के रह गये, न जा सके न रुक सके- हाय तौबा बन गये। गुरुवर ने आगंतुकों को साफ साफ कह दिया “जिनाज्ञा की अवज्ञा में बर्दाश्त नहीं करूंगा।” आगंतुक बिचारे बिचारे ही बन गये।
प्रतापी प्रताप का प्रभुत्व, प्रासाद संयुक्त था अत: जो भी इनका विरोध करने आते वे गुरुवर से पुंजीभूत होकर उनके ही बन जाते थे। वे नियुक्ति भाषा की टीका से ऐसा चित्रहार बनाते थे कि उसे परिधानकर हार जीत में परिणत कर जाते थे ।
गुरुदेव केवल शास्त्रवेता ही न थे बल्कि कविश्वर भी थे। श्री हुक्म मुनि के अनुनय पर उन्होने संगीत लास्य लय ताल से सनी “जिन चौबीसी” रची जो अमर बन गई। इसके रसास्वादन से ही यह अनुभूत होगा।
कलश: चउवीस जिनवर सयल सुखकर गावतां मन गह गहे।
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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