Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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एक बार तो रुक गई।
आचार्य श्री विजयानन्द सूरि (पू. आचार्य आत्माराम जी महाराज) के चेतन स्वर, श्री कृष्ण की मुरली की तरह श्री वीर चन्द राघवजी गांधी के माध्यम से सन् ई. १८९३ में अमरीका, फ्रांस
और कैनेडा इत्यादि देशों में दूर दूर तक व्याप्त हो गए जिसके प्रभाव से अनेक विदेशी स्त्री पुरुषों ने जैन दर्शन के अध्ययन में मन लगाया।
आचार्यश्री के ये आध्यात्मिक स्वर अपनी तीव्र प्रभावशाली ऊर्जा के बल पर योरोपीय देशों की जनता के हृदय में उतरने लगे।
उन देशों के तत्कालीन प्रसिद्ध समाचार पत्रों ने अनेक मास तक पूज्य आचार्य श्री विजयानन्द सूरि के जीवन दर्शन और कृतित्व पर निरन्तर चर्चा जारी रखी।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रमुख प्रतिनिधियों ने छल बल जो भारतीय संस्कृति का विकृत रूप बनाकर अपने देशवासियों को दिखाया था, उसका प्रभाव, पूज्य आचार्य श्री के योग्य प्रतिनिधि श्री वीरचन्द राघवजी गांधी के द्वारा योरोपीय देशों में किए गए धारा प्रवाह प्रवचनों ने पर्याप्त मात्रा में समाप्त कर दिया।
आचार्यश्री का सृजित साहित्य तब से लेकर आज तक विद्वत समाज में समादृत है। उसका अध्ययन मनन और मूल्यांकन करें तो अनेक तथ्य सामने आते है।
उन्होंने जिस भाषा को अपने पद्य साहित्य में प्रयुक्त किया उसमें कोमलता और भाव प्रवणता के साथ साथ मुखरता भी है जैसे
'जिम पद्मिनी मन पियु बसे, निर्धनिया हो मन-धन की प्रीत । मधुकर केतकी मन बसे, जिम साजन हो विरही जन चीत ॥१॥ किरसन मेघ आसाढ़ ज्यों, निज वाछड़ हो सुरभि जिम प्रेम। साहब अनन्त जिनन्द सों, मुझ लागी हो, भगती मन तेम ॥२॥
श्री विजयानन्द सूरि के साहित्य सृजन का क्रमिक इतिहास
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