Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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शिक्षा दो प्रकार की है—
१. ग्रहण शिक्षा - शास्त्रों का ज्ञान, शास्त्र का शुद्ध उच्चारण, पठन, अर्थ और देश-काल के संदर्भ में शब्दों के मर्म का ज्ञान प्राप्त करना- ग्रहण शिक्षा है ।
२. आसेवना शिक्षा - व्रतों का आचरण, नियमों का सम्यग् परिपालन और सभी प्रकार के दोषों का परिवर्तन करते हुए अपने चरित्र को निर्मल रखना आसेवना शिक्षा है ।
सम्पूर्ण जैन साहित्य में शिक्षा को इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में लिया गया है, और उसी आधार पर उस पर चिन्तन हुआ है। शिक्षा की यह दोनों विधियां मिलकर ही सम्पूर्ण और सर्वांग शिक्षा बनती है ।
शिक्षा प्राप्ति की अवस्था
यूं तो ज्ञान-प्राप्ति के लिए अवस्था या आयु का कोई नियम नहीं है, कुछ विशिष्ट आत्माएं जिनका विशेष क्षयोपशम होता है, जन्म से अवधि ज्ञान युक्त होती है । किन्हीं-किन्हीं जन्म से ही पूर्वजन्म का - जातिस्मृति ज्ञान भी होता है, परन्तु सर्वसामान्य में यह विशिष्टता नहीं पाई जाती है ।
आजकल भारत में ढाई-तीन वर्ष के बच्चे को ही कच्ची उम्र में नर्सरी में भेज दिया जाता है, यद्यपि अमेरिका जैसे विकसित देशों में ५-६ वर्ष के पहले बच्चे के कच्चे दिमाग पर शिक्षा का भार नहीं डालने की मान्यता है । बालमनो विज्ञान की नवीनतम व्याख्याओं के अनुसार पांच से आठ वर्ष की आयु बालक के अध्ययन एवं शिक्षाग्रहण करने को सर्वथा अनुकूल होती है ।
प्राचीन वैदिक एवं जैन साहित्य के अनुशीलन से पता चलता है कि पांच वर्ष के पश्चात् ही बालक को अक्षर ज्ञान देने की प्रथा थी। रघुवंश के अनुसार राम का मुण्डन संस्कार हो जाने के अनन्तर उन्हें अक्षरारम्भ कराया गया । यह लगभग पांचवें वर्ष में ही किया जाता था । कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार भी इसी बात की पुष्टि होती है । मुण्डन संस्कार के अनन्तर वर्णमाला और फिर अंकमाला का अभ्यास कराया जाता था ।२
आचार्य जिनसेन तथा हेमचन्द्राचार्य के अनुसार१ भगवान ऋषभदेव ने सर्वप्रथम अपनी ज्येष्ठ पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अक्षर माला - वर्णमाला का तथा बायें हाथ से सुन्दरी को
१. रघुवंश - ३ / २८-२९ (कालिदास ग्रंथावली)
२. कौटिलीय अर्थशास्त्र- प्रकरण २१-अ-४
व्यक्तित्व के समग्र विकास की दिशा में 'जैन शिक्षा प्रणाली की उपयोगिता'
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