Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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आचार्य पद के बाद उनका नाम आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी महाराज रखा गया। फिर भी वे अपने पूर्वनाम आत्माराम से ही अधिक प्रसिद्ध हुए।
पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज के संविज्ञ दीक्षा ग्रहण से पूर्व श्वेताम्बर मूर्ति पूजक परम्परा में संविज्ञ साधुओं की कुल संख्या केवल साठ ही रह गई थी। पूज्य श्री आत्मारामजी के आने के बाद यह संख्या निरंतर बढ़ती चली गई । पंद्रह साधु स्थानकवासी सम्प्रदाय परिवर्तन के समय उन्हीं के साथ दीक्षित हो गए थे। उनके बाद उनके हाथ से पैंतीस साधु नव दीक्षित हुए। तत्कालीन जैन समाज की युवा पीढ़ी को उन्होंने अपने चुंबकीय व्यक्तित्व से प्रभावित कर लिया था। अपने वैराग्यपूत प्रवचनों से उन्होंने अनेक नवयुवकों को संसार से विरक्त बना दिया था। उनके पट्टधर पंजाब केसरी, युगवीर आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज जैसे मेघावी व्यक्ति उनकी युवावस्था में पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज के प्रवचन सुनकर दीक्षित हो गए थे।
इस समय तपगच्छ में जितने भी आचार्य और साधु हैं, उनकी अधिकांश संख्या पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज की ही शिष्य परंपरा की है।
उस समय जैन शासन के वे एकमात्र जैनाचार्य थे। उन्होंने कई नूतन जिन मंदिरों एवं हजारों जिन बिंबों की अंजनशलाका और प्रतिष्ठा की थी।
वर्तमान में जिन शासन का जो भव्य भवन दृष्टिगत होता है, उसकी नींव में आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी महाराज हैं। पंजाब के उद्धार का कार्य
आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी महाराज का जीवन कार्य और व्यक्तित्व बहुविध, बहुक्षेत्रीय और बहुआयामी था। उन्होंने केवल पंजाब का ही उद्धार नहीं किया था, बल्कि हम उन्हें जैन धर्म, समाज, साहित्य और दर्शन के उद्धारक कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। फिर भी उन्होंने पंजाब के उद्धारक का जो कार्य किया है, वह उनके जीवन और कार्यों की एक चिरस्मरणीय देन है । उनके जीवन का सबसे अधिक गौरवमय कार्य पंजाब का उद्धार है ।
पंजाब जो सम्पूर्ण रूप से स्थानकवासी था, जहां पर मंदिर और मूर्ति के विषय में सोचना भी पाप माना जाता था, जहां मंदिर, मूर्ति और पूजा की बात करना मिथ्यात्व का परिचायक था। उस पंजाब की भूमि को जिनेश्वर परमात्मा के मंदिरों एवं मूर्तियों से विभूषित कर देना, एक नहीं दो नहीं, पांच नहीं, आठ नहीं, पर दस हजार मूर्तिपूजा के विरोधी लोगों को मूर्तिपूजक बना देना। श्रीमद् विजयानंद सूरि: जीवन और कार्य
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