Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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तपागच्छ सुविहित परम्परा को अपनाकर किया था।
सत्रहभेदी पूजा में उन्होंने शासन उत्थान की भावना परमात्मा को इन सुन्दर शब्दों में व्यक्त की है- “कुमति पंथ सब छिनक में नासे जिनशासन उद्धरणी ने” । मुमुक्षु आत्माओं को चाहिए वे भी इसी अनुरूप सत्यपिपासु बनकर सच्चे वीरपुत्र की तरह इन नूतन मनकल्पित पंथों को छोड़ दें तो निश्चय एकमेक रूप होकर सर्वोच्च धर्म की जय जयकार की विजयध्वनि संसार में धूम मचा सकती है। सारा जग करता सम्मान
जैन शासन के गगनतल पर उनकी आभा का सूर्य तो सदैव ध्रुव रहेगा ही, किन्तु उस समय जैनेतरों के हृदय में उनकी अर्थात् उनके गुणसमूह ब्रह्मतेज, प्रगल्भ ज्ञान प्रतिभा, असामान्य उत्तरदायिनी शक्ति के प्रति कितना अधिक सम्मान था ये योग स्वामी जीवानन्द सरस्वती द्वारा उनकी स्तुति में रचित श्लोक से प्रशस्त होता है। विविध ७१ अर्थ गर्भित ये मालाबन्ध श्लोक
है
योगाभोगानुगामी द्विजभजनजनि: शारदारक्तिरक्तो। दिग्जेता जेतृजेता मतिनुतिगतिभिः पूजितोजिष्णुजिदूँ ॥ जीयाद्दायादयात्री खलबलदलनो लोललीलस्वलज्ज:
कैदारौदास्यदारी विमलमधुमदो द्दामधामप्रमत: ॥१॥ सुप्रसिद्ध विदेशी विद्वान ए. एफ. रोडेल्फ हार्नल ने स्वसंपादित उपासकदशांग सूत्र की प्रस्तावना में आचार्य देव की प्रशस्ति में चार संस्कृत श्लोकों की रचना की है। उनके इन हृदयस्पर्शी उद्गारों को पढ़ने से विदित होगा कि उनके मन में पूज्यश्री के प्रति कैसा अहोभाव था।
अनेकानेक विद्वानों, विचारकों, लेखकों, कवियों ने आपकी प्रशंसा में अपने ज्ञानार्जन को सार्थक किया है । आपके जीवन चरित्र के प्रेरणादायी प्रसंगों एवं लोकोपकारी कार्यों पर विद्वजनों ने विशाल ग्रंथागार सृजित किया है। जिज्ञासु भक्तवर्ग को इनका अवश्य अवलोकन कर कृतकृत्य होना चाहिए।
बीसवीं शती में युगप्रधान आचार्य कोई अन्य नहीं हुआ। अपने पूर्वज हजारों धुरन्धर आचार्यों श्री हेमचन्द्र सूरि, अभयदेव सूरि, जगच्चन्द्र सूरि, हीरसूरि आदि के समान आपका भी
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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